ईश्वरीय विधान का आदर

ईश्वरीय विधान का आदर


पूज्यपाद संत श्री आशारामजी बापू

एक होता है ऐहिक विधान और दूसरा होता है ईश्वरीय विधान। ऐहिक विधान का निर्माण ऐहिक लोगों द्वारा होता है और इसमें भिन्नता होती है। अलग-अलग राष्ट्र अपने-अपने हिसाब से अपना विधान बनाते हैं।

ऐहिक विधान बनाने वाले कभी गलती भी कर लेते हैं और अमल कराने वाले भी कई घूस, लांच-रिश्वत ले लेते हैं। ऐहिक विधान का उल्लंघन करने वाला कई बार बच भी जाता है।

ईश्वरीय विधान गाँव-गाँव के लिए, राज्य-राज्य के लिए, राष्ट्र-राष्ट्र के लिए अलग नहीं होता। अनंत ब्रह्माण्डों में एक ही ईश्वरीय विधान काम करता है। देवताओं का विधान, दैत्यों का विधान, मनुष्यों का विधान अलग-अलग हो सकता है लेकिन ईश्वरीय विधान अलग नहीं होता। ईश्वरीय विधान के अनुकूल जो चलता है वह ईश्वर की प्रसन्नता पाता है लेकिन ईश्वरीय विधान के विपरीत चलने वाले को प्रकृति पचा-पचाकर सबक सिखा देती है।

ऐहिक विधान में छूट-छाट है। उसमें पोल चल जाती है लेकिन ईश्वरीय विधान में पोल नहीं चलती। ईश्वरीय विधान का अनादर करने से आदमी को बहुत सहन करना पड़ता है। हम जब-जब दुःखी होते हैं, अशान्त होते हैं, भयभीत होते हैं तब निश्चित समझ लेना चाहिए कि हमारे द्वारा जाने-अनजाने ईश्वरीय विधान का उल्लंघन हुआ है।

द्रौपदी के साथ कितना अन्याय हुआ था ! भरी सभा में दुर्योधन ने द्रौपदी को अपनी जाँघ पर बैठने के लिए ललकारा था। कर्ण ने मजाक उड़ाते हुए उसे ʹवेश्याʹ कहा था। दुःशासन ने कौरव वंश के तमाम महानुभावों के सामने द्रौपदी के वस्त्र खींचे, फिर भी किसी ने अन्याय के खिलाफ आवाज नहीं उठायी। ऐसा घोर अन्याय करने वालों के प्रति जब पांडव कुछ प्रतिक्रिया करते हैं तो वे ही दुष्ट लोग धर्म की दुहाई देने लगते हैं।

युद्ध के मैदान में जब कर्ण के रथ का पहिया फँस गया था और वह रथ से नीचे उतर कर पहिया बाहर निकाल रहा था, उस समय अर्जुन द्वारा बाण का निशाना लगाने पर कर्ण धर्ण की दुहाई देते हुए कहताहैः

“यह धर्मयुद्ध नहीं है। मैं निःशस्त्र हूँ और तुम मेरे पर निशाना साध रहे हो ?”

तब श्रीकृष्ण ने कहाः “जब कौरवों के राजभवन में द्रौपदी के केश खींचे जा रहे थे, उसकी निर्भर्त्सना हो रही थी, तब कहाँ गया था तेरा धर्म ? अब यहाँ धर्म की दुहाई दे रहा है ?”

कभी-कभी तो लुच्चे राक्षस भी आपत्तिकाल में धर्म की दुहाई देने लग जाते हैं। आपत्तिकाल में धर्म की दुहाई देकर अपना बचाव करना, यह कोई धर्म के अनुकूल बात नहीं है। आपत्तिकाल में भी अपने धर्म में लगे रहना चाहिए, ईश्वरीय विधान के अनुसार चलना चाहिए और ईश्वरीय विधान यही है कि तुम्हारी तरक्की होनी चाहिए, जीवन में उन्नति होनी चाहिए।

यदि आप ईमानदारी से, सजग होकर तरक्की करते हैं तो ईश्वरीय विधान आपकी मदद करता है और यदि आप उन्नति से मुँह मोड़ते हैं तो बड़ी हानि होती है। कालचक्र कभी रुकता नहीं है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी में भी तरक्की है। ये सब भी तरक्की करते करते मानव देह में आते हैं। जब मानव देह मिल गई, बुद्धि मिल गई, फिर भी आप विकसित नहीं हुए तो ईश्वरीय विधान आपको फिर से  चौरासी लाख योनियों में ढकेल देता है।

भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य जैसे लोग  भी अधर्म के पक्ष में होते हैं तो ईश्वरीय विधान उनको भी युद्ध के मैदान में ठिकाने लगा देता है।

कोई सोच सकता हैः “भगवान श्रीकृष्ण तो आये थे धर्म की स्थापना करने के लिए और इतने सारे लोग मारे गये ! सारे कौरव मारे गये ! अठारह अक्षौहिणी सेना खत्म हो गयी ! यह तो अधर्म हुआ….ʹ

नहीं, अधर्म नहीं हुआ। लगता तो है अधर्म हुआ लेकिन धर्म की स्थापना हुई। यदि दुर्योधन नहीं मरता, उसकी पीठ ठोकने वाले नहीं मरते और दुर्योधन जीत जाता तो अधर्म की जीत होती और धर्म का नाश हो जाता। भगवान श्रीकृष्ण ने अधर्म का नाश करके धर्म की स्थापना की। धर्म के अनुसार, ईश्वरीय विधान के अनुसार जीव की उन्नति में ही कल्याण है।

जीव की उन्नति का अवरोधक है जीव का इन्द्रियों की ओर खिंचाव, विषय-विकारों की तरफ उसका आकर्षण। जीव की तरक्की है धर्म, नियम और संयम में। ʹयह करना… यह नहीं करना….. इसका उपयोग करना…. इसका उपयोग नहीं करना….ʹ इस प्रकार के नियंत्रण करके जीव को संयमी बनाकर, अपने शिवस्वरूप में जगाने का विधान ही ईश्वरीय विधान है।

ईश्वरीय विधान का अल्लंघन करके ज्यों-ज्यों आदमी इन्द्रियों को पोसता है, किसी का शोषण करता है तो अशान्त और भयभीत रहता है और मरने के बाद भी घटीयंत्र की नाई जन्म-मरण के चक्र में फँसता है और दुःख सहता है। लेकिन ज्यों-ज्यों आदमी सीधे ढंग से, ईश्वरीय स्वभाव, ईश्वरीय ज्ञान, ईश्वरीय शांति की ओर चलने लगता है त्यों-त्यों उसका जीवन सहज और सरल हो जाता है।

सख्खर में विलायतराय नामक एक संत हो गये। वे सीधा-सादा गृहस्थ जीवन बिताते थे। गृहस्थ होते हुए भी ईश्वरीय विधान का पालन करते थे।

लीलाराम नाम के एक मुनीम पर पैसे की लेन-देने में हेराफेरी के गुनाह में अदालत में मुकद्दमा चल रहा था। लीलाराम बहुत घबराया और विलायतराय के चरणों में आकर खूब रोया और बोलाः

“महाराज ! मैं आपकी शरण आया हूँ। मुझे बचाओ। मैं दुबारा गलती नहीं करूँगा। न्यायाधीश सजा करके जेल में भेज दे उसकी अपेक्षा आप मुझे जो सजा देंगे, मैं स्वीकार कर लूँगा।”

संत विलायतराय का हृदय पिघल गया। वे बोलेः “अच्छा ! अब तू अपना केस रख दे उस शहनशाह परमात्मा पर। उन शहनशाह पर विश्वास रख। जिसके विधान का तूने उल्लंघन किया उसी की शरण हो जा।”

लीलाराम ने गुरु की बात मान ली। बस, जब देखो, तब ʹशहनशाह…. शहनशाह….।ʹ उसका मन शहनशाह में तदाकार हो गया।

लीलाराम मुकद्दमे के दिन पहुँचा अदालत में, तब न्यायाधीश ने पूछाः

“तुमने कितने पैसों का गोलमाल किया है ? सब सच-सच बता दो।”

लीलारामः “शहनशाह।”

“तेरा नाम क्या है ?”

“शहनशाह।”

“ऐसा क्यों किया ?”

“शहनशाह।”

सरकारी वकील ने खूब पूछताछ की लेकिन जवाब एक ही आता थाः

“शहनशाह।”

“यह अदालत है। ढोंग मत कर, नहीं तो तेरी खाल खींच लेंगे।” “शहनशाह।”

अनेक भय दिखाये लेकिन कोई फर्क नहीं। ईश्वरीय विधानः ʹमंत्र मूलं गुरोर्वाक्यम्ʹ में वह एकदम तदाकार हो गया… ध्यानस्थ हो गया।

लीलाराम को हथकड़ी पहनाकर सजा फरमाने की तैयारी की गयी लेकिन उस वक्त भी लीलाराम के मुख पर शोक न था। वह तो बस, ʹशहनशाह…. शहनशाह….ʹ की रट लगाये था।

जैसे अंतिम समय पर राष्ट्रपति का संदेश आ जाता है और सजा रूक जाती है वैसे ही परमात्मा की प्रेरणा से न्यायाधीश के मन में भी विचार आया कि ʹइतना अपमान करते हैं, इतनी गालियाँ देते हैं, सिपाही इतना तोछड़ा व्यवहार करते हैं फिर भी इसको कुछ असर नहीं होता ?” न्यायाधीश ने कहाः “कहाँ से पकड़ लाये इस पागल को ? यह केस रद्द है।”

लीलाराम छूट गया और आया विलायतराय के चरणों में। विलायतराय ने पूछाः “छूट गया केस से, बेटा ?”

लीलारामः “शहनशाह।”

“भूख लगी है ?”

“शहनशाह।”

गुरु ने देखा कि बिल्कुल सच्चाई से मेरे वचन लिये हैं… यह देखकर उनका हृदय प्रसन्न हो गया। उन्होंने अपने संकल्प से ʹशहनशाहʹ के भाव का नियंत्रण कर दियाः “अच्छा ! जब जरूरत पड़े तब बोलना-शहनशाह।”

फिर तो वह लीलाराम गुरु के आश्रम में ही रहने लगा।

अब लीलाराम से कोई कहे कि ʹपेट में दर्द हैʹ तो वह पेट पर हाथ घुमाकर कह देताः ʹशहनशाहʹ तो पेट का दर्द गायब हो जाता। कोई कहता कि ʹधन्धा नहीं चलता है।ʹ लीलाराम एक थप्पड़ मार देता और कहताः ʹशहनशाहʹ तो उसका धन्धा रोजगार चलने लगता।

धीरे-धीरे लोगों की भीड़ बढ़ने लगी। इधर लीलाराम को अपनी सफलता का अभिमान आ गया।

ईश्वरीय विधान पर चलने से कीर्ति तो मिलती है लेकिन कीर्ति में फँसना नहीं चाहिए, उससे भी आगे की उन्नति की ओर बढ़ना चाहिए। लीलाराम की मति बिगड़ी। लोगों का काम बन जाता तो वे लीलाराम के लिए कुछ-न-कुछ चीज वस्तुएँ लाने लगे। धीरे-धीरे लीलाराम नीचे गिरा और शराबी-कबाबी हो गया। इससे विलायतराय के हृदय को ठेस पहुँची।

गुरु इलाज तो बताते हैं, प्राणायाम आदि सिखाते हैं, आशीर्वाद देते हैं। उनमें जिसकी श्रद्धा होती है वह तो उन्नति की राह पर चल पड़ता है लेकिन जिसकी श्रद्धा इतनी न हो, अभिमान आ जाये तो वह वहीं का वहीं रह जाता है। शिष्य गुरु की आज्ञा मानकर चलता है तो गुरु का चित्त प्रसन्न हो जाता है और गुरु के चित्त की प्रसन्नता से शक्तियाँ विकसित होने लगती हैं। किन्तु उन शक्तियों का अभिमान आ जाने से गुरु के चित्त को अगर क्षोभ हो जाय तो शिष्य का अवश्य ही अमंगल होता है।

एक दिन विलायतराय कहीं जा रहे थे। रास्ते में ही लीलाराम की कुटिया आती थी। दो पाँच शिष्य भी साथ में थे। उन्होंने लीलाराम को भी साथ में ले लिया। मार्ग में नदी आने पर विलायतराय जी कहाः “अब हम नदी में स्नान करेंगे।”

सेवक ने साबुन व लोटा दिया। विलायतराय जी ने स्नान करते-करते लीलाराम से कहाः “तू भी गोता मार ले।”

लीलाराम जैसे ही गोता मारकर बाहर निकलता है तो क्या देखता है कि खुद लीलाराम से लीलाबाई बन गया ! आसपास तो न नदी है, न गुरुजी हैं, न कोई गुरुभाई है। अकेली सुंदरी लीलाबाई रह गई….! लीलाराम बहुत शरमिंदा हो गया कि ʹमैं लीलाराम…..! ʹशहनशाहʹ कहने वाला…. आज क्या बन गया हूँ !ʹ

उसी समय वहाँ चार चाण्डाल आये और पूछने लगेः “क्योंरी ! इधर बैठी है अकेली ?”

अब वह कैसे बोले कि ʹमैं लीलाराम हूँ।ʹ यह तो संत विलायतराय जी का चमत्कार था। जैसे श्रीकृष्ण ने नारदजी को नारदी बना दिया था, ऐसे ही उन्होंने लीलाराम में से लीलाबाई बना दिया।

चारों चाण्डाल आपस में झगड़ा करने लगे लीलाबाई के साथ शादी करने के लिए। आखिर चारों में से जो ज्यादा बलवान था उसके साथ लीलाबाई का गंधर्व विवाह हो गया।

समय बीता। लीलाबाई को तीन बेटे हुए, तीन बेटियाँ हुई। बेटियों की शादी चाण्डालों के घर में हुई। परिवार बढ़ता गया…। सुख-दुःख के प्रसंग आते-जाते रहे। लीलाबाई साठ साल की बूढ़ी हो गई। बहुत सारे दुःख भोगे। पति मर गया तो वह अपना सिर कूटने लगीः

ʹहाय राम ! मैं विधवा हो गयी। हे भगवान ! मैं क्या करूँ ? तुम मुझे भी अपने पास बुला लो….ʹ

ऐसा करते-करते जैसे ही आँखें खोली तो वही नदी और वही स्नान ! गुरु जी, गुरुभाई सब उपस्थित थे। लीलाराम चकित हो गया कि ʹमैं लीलाबाई बन गया था, मेरे इतने बेटे-बेटियाँ हुए, साठ साल का चाण्डाली का जीवन देखा, मेरा चाण्डाल पति मर गया….. और यहाँ तो अभी स्नान भी पूरा नहीं हुआ है ! यह सब क्या है ?

विलायतराय मुस्कराते हुए बोलेः

“देख ! शूली में से काँटा हो गया। तेरा चाण्डाल होने का प्रारब्ध तो कट गया, तेरी पहले की गयी भक्ति से, पश्चाताप से। लेकिन अब तेरे पास पहले जैसी शक्ति नहीं रहेगी। वैद्य का धन्धा करके अपना गुजारा करते रहना। आज के बाद मुझे मुँह मत दिखाना।”

ईश्वरीय विधान का हम आदर करते हैं तो उन्नति होती है और अनादर करते हैं तो अवनति होती है। ईश्वरीय विधान का आदर यह है कि हमारे पास जो कुछ भी है वह सब हमारा व्यक्तिगत नहीं है। सब उस जगन्नियंता का है लेकिन जब हम ʹहमारा है….. हमारे लिए हैʹ ऐसा मानने लगते हैं, तब ईश्वरीय विधान का अऩादर करते हैं। फलस्वरूप दण्ड के रूप में दुःख, चिन्ता, क्लेश शुरु हो जाते हैं।

बाह्य वस्तुओं से अगर कोई सुखी होना चाहता है तो समझो कि तिनखों के ढेर को जलाकर उससे ठंडक पाना चाहता है अथवा तो आग को पेट्रोल के फुहारे से बुझाना चाहता है। बाह्य वस्तुओं से आज तक कोई भी न तो पूर्ण सुखी हुआ है और न होगा। यदि मनुष्य ने पूर्ण सुख पाया है तो वह केवल अपने अंतरात्मादेव में विश्रांति पाकर ही… और अंतरात्मा में विश्रांति पायी जा सकती है केवल ईश्वरीय विधान का आदर करके ही।

मुझे एक अधिकारी ने बतायाः “एक संत के लिए षडयंत्र रचने वाले कुछ लोगों में एक पुलिस अधिकारी (D.S.P.) का विशेष योगदान था और अन्ततः वह D.S.P. गोधरा (पंचमहाल, गुजरात) के जंगलों में बंदूकधारी अंगरक्षकों के होते हुए भी एक बघेड़े का (चित्ते का) शिकार हो गया।

एक संत पर मिथ्या आरोप लगाने में क्रूर भूमिका अदा करने वाली उस टुकड़ी के D.S.P.  को जंगल में बघेड़े से बचाने के लिए अंगरक्षक ने गोली चलायी लेकिन गोली बघेड़े को न लगी और बघेड़े का शिकार हो गया D.S.P.  ।

मुझे बताया गयाः “बापू जी ! अब उसे बघेड़ा बनना पड़ेगा क्योंकि मरते समय बघेड़े का चिंतन करते हुए मरा है। जंगलों में भटकेगा, जंगली प्राणियों का चिन्तन करता मरेगा और कई दुष्ट योनियों में जायेगा।”

अतः कर्म करने में मनुष्य यदि ईश्वरीय विधान का अनादर कर क्रूरता करता है तो कुदरत भी उसे देर-सबेर नीच गति में धकेलकर क्रूरता का मजा चखाती है।

अतः सावधान ! अपने से ऐसे कर्म न हों जिसमें ईश्वरीय विधान का अनादर हो हमें जंगली जानवर अथवा पेड़े-पौधे बनकर सूख-सूखकर मरना पड़े।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1996, पृष्ठ संख्या 11,12,13,14 अंक 46

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *