Monthly Archives: November 1996

शास्त्र-महिमा – पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू


 

ʹगुरु ग्रंथ साहिबʹ में आता है किः

साधु ते होवहि न कारज हानि।

साधु से कार्य की हानि नहीं होती। साधु किसको कहते हैं ?

सत्पुरुख पिछानिया सत्गुरु ता का नाम।

तिसके संग सिख उदरियै नानक गुण गान।।

जिन्होंने उस सत्यस्वरूप को जाना है, सत्यस्वरूप में जिनकी मति विश्रान्ति पाती है वे जो बोलते हैं वह मत नहीं माना जाता, वरन् शास्त्र माना जाता है।

नानक बोले सहज सुभाऊ।

अपने अनुभव की बात संत तुकारामजी ने भी कही है। महाराष्ट के सुप्रसिद्ध संत तुकाराम ! निंदक भले उन्हें गधे पर बिठाकर उनकी बदनामी करें लेकिन समझदारों ने उऩ्हें नवाजा है। छत्रपति शिवाजी ने उनकी पूजा की है। सज्जनों ने, साधकों ने गुरुओं की पूजा की, उनका ज्ञान पाया और निंदकों ने उनके लिए न जाने कौन-कौन सी मुसीबतें खड़ी कीं। गुरुतेगबहादुर को धधकती धूप में, तपे हे तवे पर बैठाया गया। क्या वे इतने अपराधी थे ? नहीं। अपराधी लोगों को महापुरुष अपराधी दिखते हैं।

अपराधी का अपराध निवृत्त करने के लिए क्रूरतापूर्ण दण्ड देने से उसका अपराध निवृत्त नहीं होता लेकिन अपराधी की स्थिति समझकर उसके निरपराध नारायण स्वभाव को जगाने से वह निरपराधी होता है। सदग्रंथ व्यक्ति को निरपराध तत्त्व में जगाते हैं। यदि दण्ड देने से, बेंत मारने से जगत के अपराध समाप्त हो जाते तो अभी पुलिस की जरूरत नहीं पड़ती, कारावासों की जरूरत नहीं पड़ती। जहाँ निरपराध तत्त्व है उस तत्त्व का प्रसाद, उस तत्त्व की रूचि, उस तत्त्व का ज्ञान और उस तत्त्व का आनंद दिलाया जाय तो अपराधी से अपराधी व्यक्ति निरपराध हो जायेगा।

जहाँ कोयला है वहाँ हीरा भी तो प्रगट हो सकता है। जहाँ अपराध है वहाँ निरपराध नारायण भी तो छुपा है। इसलिए कृपा करके अपने बच्चे-बच्चियों के अपराध को बार-बार दुहराकर उन्हें गहरे अपराधी कभी न बनाइएगा। वरन् उनके अंदर जो भी निरपराध चेष्टा है उसकी प्रशंसा कीजिएगा ताकि उनको अपराधी प्रवृत्ति करने का अवसर ही न मिले। अपराधी के प्रति इस ढंग से पेश न आयें कि ʹतूने यह किया…. तूने यह गलती की…. तू अपराधी है….ʹ उसे कहो किः ʹऐसी जो गलती करते हैं उनके बुरे हाल होते हैं। तू ऐसी गलती करने के योग्य नहीं है। तूने जान-बूझकर यह गलत काम नहीं किया, तुझसे हो गया। तू मेरा बेटा है।ʹ इस प्रकार के सहानुभूतिपूर्ण वाक्यों से उसे सुधारने का प्रयास करें।

ऐसी सब व्यवस्था हमारे सदग्रंथों में है और वे सदग्रंथ किसी मत-पंथ की नहीं, अपितु प्राणीमात्र के हित की बात करते हैं।

बालक जब पैदा होता था, दाई बच्चे को बाप की गोद में रख देती थी। तब बाप नवजात शिशु के कान में बोलता थाः अश्मा भव। परशु भव।

आश्चर्य होगा यह जानकर कि अपने नवजात कोमल शिशु को पिता कहताः ʹतू पत्थर बन। तू चट्टान बन। तू कुल्हाड़ा बन….।ʹ

वेद भी कहते हैं कि पिता को ऐसा बोलना चाहिएः ʹअब तू कोमल शिशु संसार में आ रहा है तो संसार के कई सुख-दुःख के थपेड़े लगेंगे, कई आरोप लगेंगे। जैसे, दरिया के किनारे छोटी-मोटी बालू होती है, तिनखे होते हैं तो बह जाते हैं, लुढ़क जाते हैं जबकि चट्टान होती है तो थपेड़ों से टकराती रहती हैं और अपने अस्तित्त्व को बरकरार रखती है। इसी प्रकार हे पुत्र ! तू मजबूत बनना। अश्मा भव। तू दृढ़ बनना। इस संसार में कई थपेड़े लगेंगे, मेरे लाल ! परशु भव। तू कुल्हाड़ा बनना। विघ्न-बाधाओं, मुसीबतों-आकर्षणों को, पाप और ताप को काटने वाला हे वीर ! तू कुल्हाड़ा बनना। तू डरना मत। कायर मत बनना। दीन-दुःखियों का सहायक बनना। वह बल किस काम का जो दीन-दुःखियों के, सज्जन-सदाचारियों एवं संत महापुरुषों की सेवा में न लगे ?ʹ

अंत में पिता बोलता हैः हिरण्यमस्तुम् भवः। तू स्वर्ण की नाईं चमकना, मेरे लाल ! तू एक कोने में जंगली फूल की तरह खिलकर मुरझाना मत, वरन् तू गुलाब होकर महक तुझे जमाना जाने।ʹ

मेरे गुरुदेव ने एक बार गुलाब का फूल मुझे दिखाया और बोलेः

“देख, यह क्या है ?”

मैं- “गुरुदेव ! यह गुलाब का फूल है।”

गुरुदेवः “इसको किराने की दुकान पर ले जा और चावल पर, मूँग पर, धनिया, काजू, किसमिस, बदाम, अखरोट आदि पर रख, सैंकड़ों-सैंकड़ों चीजों पर रख, फिर सूँघ तो सुगंध किसकी आयेगी ?”

गुरुदेवः “बस, एक बात मान ले। तू गुलाब होकर महक तुझे जमाना जाने।

आप भी अपने पुत्रों को इसी प्रकार महकाने का प्रयास करें। कैसा दिव्य ज्ञान है हमारे महापुरुषों का ! कितनी महानता और उदारता है उनमें !

सन् 1661 में गुरु अर्जुनदेव ने गुरुग्रंथ साहिब संपन्न करवाया। उन्होंने यह ग्रंथ तो संपन्न करवाया लेकिन इतना बढ़िया ग्रंथ बनने से सब लोग खुश हो जायें यह संभव नहीं है।

जो गुरुद्रोही थे, निंदक थे उन्हें बढ़िया मौका मिल गया कुप्रचार करने का। भाई बुढा के द्वारा उस ʹग्रंथ साहिबʹ की सेवा सुश्रुषा का काम होता था। ʹग्रंथ साहिबʹ के वचन सुनकर समझदार तो संतुष्ट होते थे लेकिन जो गुरु के निंदक थे, संत के निंदक थे, धर्म के विरोधी थे, गुरुओं की करुणा-कृपा को दुकानदारी समझकर बदनामी करने में जो अपने को चतुर मानते थे ऐसे लोगों ने देखा कि यह अच्छा अवसर है। अतः उन्होंने अकबर को जाकर शिकायत की कि अर्जुनदेव ने एक ऐसा ग्रंथ बनाया है जिसमें मुसलमानों की निंदा है। वे अपने पंथ की स्थापना करना चाहते हैं।

ʹगुरु ग्रंथ साहिबʹ कोई मत नहीं है। वह तो वेदों का अमृत है। मत मति से निकलते हैं। यदि अर्जुनदेव अपनी मति से मुसलमानों के खिलाफ कुछ लिख डालते तो हम मानते कि वह मत है। किन्तु उन्होंने मति के अनुसार नहीं लिखा वरन् वेद और उपनिषदों का, पुराणों का प्रसाद उसमें लिखा है।

निंदकों के द्वारा कान भरे जाने पर अकबर ने फरमान जारी कियाः “अर्जुनदेव ने जो ग्रंथ बनवाया है उसे शाही दरबार में पेश किया जाये और हमारे सामने पढ़ा जाये।”

अर्जुनदेव के आदमी ग्रंथ लेकर दरबार में पहुँचे। अकबर बोलाः

“पढ़ो मेरे सामने यह ग्रंथ। देखूँ तो सही इसमें क्या लिखा है।”

ʹगुरु ग्रंथ साहिबʹ खोला गया। अकबर बोलाः “बीच का पन्ना पढ़ो।”

पन्ना क्या था ? वहाँ तो हीरा-मोती चमक रहे थे ! पन्ने में लिखा थाः

कोई बोले राम राम कोई कोई खुदाई।

कोई बोले सूफिया कोई अल्लाही।।

कारण करण करीम किरणधारी रहीम।

कोई नहावे तीरथ कोई हज जाई।।

कोई करे पूजा कोई सिर नवाई।

कोई  पढ़े वेद तो कोई किताई।।

कोई कहे तुर्की कोई कहे हिन्दू।

कोई बांचे बिस्तु कोई सिरजिन्दु।।

कह नानक जिन हुकुम पिछानिया।

प्रभु साहिब का तिन भेद जानिया।।

जिसने उस रब का, उस अकाल पुरुष का, उस चैतन्य का हुकुम पहचाना, उसी ने उस परमेश्वर का भेद जाना। बाहर से ये सारे मत-मतान्तर दिखते हैं तो कोई उसे कृष्ण कहता है तो कोई उसे करीम, कोई उसे राम कहता है तो कोई रहीम। कोई उसे तीर्थों में खोजता है तो कोई मंदिरों में और कोई उसे मस्जिदों में नवाजता है लेकिन जो उसके हुकुम को, उसकी सत्प्रेरणा को मानता है वही उस परब्रह्म परमात्मा को जानता है। यही ʹग्रंथ साहिबʹ की वाणी है।

आप जब सही करने लगते हैं, शास्त्रानुकूल करने लगते हैं तो भीतर से धन्यवाद छलकता है। इसको बोलते हैं अंतर्यामी अवतार। आपके हृदय में वह अकाल पुरुष अंतर्यामी रूप में अवतरित होता रहता है। हम अगर सात-सात गुफाओं में छुपकर भी बुरा कार्य करें, जहाँ हमें कोई भी न देख सके, वहाँ भी कोई देखने वाला होता है जो हमें कोसता है।

बल का हर्ता और बल का भर्ता वही परब्रह्म परमात्मा है। हम निःस्वार्थ कर्म करते हैं तो भीतर से हमारा बल बढ़ जाता है और हम उस रब के हुकुम की अवहेलना करके दूषित कर्म करते हैं तो हमारा बल कुंठित हो जाता है। यह सब भक्तों का अनुभव होगा।

कह नानक जिन हुकुम पिछानिया।

प्रभु साहिब का तिन भेद जानिया।।

अकबर ने कहाः “अच्छा, अब दूसरी जगह से पढ़ो।”

ऐसा करते-करते उसने अलग-अलग जगहों से पढ़वाया किन्तु कहीं भी कोई मत, मजहब और पंथ की बात नहीं थी। वहाँ तो थी जीवात्मा को परमात्मा का रंग लगाने की बात। अकबर भी दंग रह गया भारत के सदग्रंथ को सुनकर !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1996, पृष्ठ संख्या 9,10,11 अंक 47

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परमात्मा प्राप्ति कैसे हो ? – पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू


सर्व भूत-प्राणी एक ही परमात्मा में बसे हुए हैं और एक ही परमात्मा सब भूत-प्राणियों में है। जैसे, सारे घट आकाश में हैं और सब घटों में आकाश है, वैसे ही सब जीवों में आत्मा है और हर एक जीव आत्मा परमात्मा से ही अस्तित्त्व में है। दोनों में भिन्न कुछ भी नहीं, यह ज्ञान होना चाहिए।

हममें जीवनशक्ति जीवनदाता की ओर से ही आती है। बुद्धिमानों की बुद्धि, यशस्वियों का यश, तेजस्वियों का तेज, सौन्दर्यवानों का सौन्दर्य, वक्ताओं की वाणी और श्रोताओं की सुनने की जिज्ञासा-ये सब एकमात्र अंतर्यामी परमात्मा से ही प्रकट होता है।

तुलसीदासजी का श्रीरामचरितमानस, वेदव्यासजी का श्रीमदभागवत, शंकराचार्य जी का अद्वैतवाद और रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत का सिद्धान्त भी उसी सच्चिदानंद परमात्मा से ही प्रकट हुआ है। योगियों का योग, तपस्वियों का तप और भोगियों का भोग भी ईश्वर से ही सिद्ध होता है।

साहब तेरी साहबी घट घट रही समाय।

जैसे मेंहदी बीच में लाली रही छुपाय।।

लाली मेरे लाल की जित देखूँ उत लाल।

लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल।।

ऐसे चैतन्य परमात्मा की लाली देखने के लिए शरीर का अहंकार छोड़कर परमात्मा को ही समर्पित हो जाएँ। स्वामी रामतीर्थ कहते थेः

तुझको इतना मिटा कि,

तुझमें तू न रहे… द्वैत की बू न रहे।

मीराबाई भजन गाते-गाते गिरिधर गोपाल में इतनी खो जाती थी कि उन्होंने अपने देहाध्यास को ही मिटा दिया और अन्ततः सशरीर प्रभु में लीन हो गयीं। शबरी ने अपने गुरु वचनों में श्रद्धा की तो भगवान श्रीरामचन्द्र शबरी भीलनी के आँगन में आये और उसके जूठे बेर भी बड़े प्रेम से खाये।

कभी एकांत में बैठकर अपने श्वासोश्वास की गति को देखें और उस प्यारे को धन्यवाद देते जायें किः “तू ही इस शरीर में रहकर हृदय की धड़कनें चलाता है।ʹ कभी आसमान की ओर एकटक निहारें, चंद्रमा को एकटक निहारें और प्रभु को याद करें किः ʹमेरा प्यारा ही चंद्रमा में चमक कर औषधियाँ पुष्ट कर रहा है। उस सर्वसत्ताधीश की सत्ता से ही सब हो रहा है। जड़ और चेतन सबमें वही समाया है….ʹ ऐसा अनुभव करते जायें।

ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशेर्जुन तिष्ठति। ईश्वर तो सबके हृदय में एक समान है। हाँ, एक व्यक्ति के पास जो बल, बुद्धि या सौन्दर्य है वह शायद दूसरे व्यक्ति के पास नहीं भी हो सकता है परंतु जो परमात्मा महर्षि वशिष्ठ, संत ज्ञानेश्वर, मतंग ऋषि, बुद्ध, महावीर और मुहम्मद के हृदय में था, जो परमात्मा शबरी, मीरा, मदालसा और गार्गी के हृदय में था, वही-का-वही परमात्मा हमारे हृदय में भी है। जो अनुभव राजा जनक, कबीर जी अथवा नानक जी को हुआ है, वही अनुभव हमें भी हो सकता है। ऐहिक सुख-सुविधाओं का अनुभव भिन्न-भिन्न समय, परिस्थितिय और व्यक्ति के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकता है परंतु परमात्मप्राप्ति का अनुभव भिन्न-भिन्न नहीं होता।

संसार की चीजें अपूर्ण हैं इसलिए अपूर्ण प्रकृति के व्यक्ति और उऩका बल, बुद्धि, सत्ता, सौन्दर्य एक समान नहीं होते। परंतु ईश्वर तो सबके हृदय में पूर्ण है और वह सबको मिल सकता है लेकिन उसके लिए आवश्यकता है साधना, पुरुषार्थ और सत्संग की।

ईश्वरीय शक्ति प्राप्त करने के लिए हमारे शरीर में सात केन्द्र हैं। वे जितने अंश में विकसित होते हैं, उतना ही मनुष्य ऊँचा उठता है। कई लोग सोचते हैं कि ʹजो भाग्य में होगा, वही होगाʹ। मानो, हमारा भाग्य कोई आकाश-पाताल में से लिखकर भेजता हो। अगर किसी देव ने ही भाग्य बना दिया होता तो पुरुषार्थ का कोई प्रश्न ही नहीं रहता, सत्संग सुनने का यह सदग्रंथ पढ़ने का कोई सवाल ही नहीं उठता। ʹभाग्य में जो होगा, वह मिलेगा। भाग्य में होगा तो सुखी होंगे और भाग्य में मकान होगा तो मिलेगा। हमें कुछ करने की आवश्यकता नहीं है…ʹ यदि ऐसा ही हो तो घर बैठे-बैठे मकान लेकर देखो ? नहीं, मकान लेने के लिए प्रयत्न की आवश्यकता है। अरे ! खाना खाने के लिए भी प्रयत्न करना पड़ता है। सब्जी बाजार से लानी पड़ती है। फिर पकानी पड़ती है तब जाकर भोजन प्राप्त होता है। ऐसा नहीं कि ʹप्रारब्ध में आज भोजन होगा तो अपने-आप मिल जायेगा।ʹ यदि भोजन पाने के लिए भी पुरुषार्थ की जरूरत पड़ती है तो फिर अखिल ब्रह्माण्डनायक को पाने के लिए भी पुरुषार्थ परम आवश्यक है। इसलिए पुरुषार्थ करो और संतों का संग करो।

यह बात सच है कि पूर्व में की हुई प्रवृत्ति, विचार और कृति का फल हमारा आज का प्रारब्ध हो जाता है। किन्तु यह बात भी उतनी ही सच है कि पूर्व में किये हुए अशुभ कर्म को, अपने प्रारब्ध को आज के शुभ पुरुषार्थ के बल पर बदला जा सकता है। जैसे, कल का अजीर्ण आज के उपवास से मिटता है, कल का वैर आज की क्षमायाचना से मिटता है, कल का लिया हुआ कर्ज आज चुका देने से मिट जाता है, ठीक वैसे ही आज की हुई शुभ प्रवृत्ति से, आज के पुरुषार्थ से आनेवाले कल का प्रारब्ध बदला जा सकता है। इसलिए तुलसीदास जी ने लिखा है किः

करम प्रधान बिस्व करि राखा।

जो जस करइ सो तस फलु चाखा।।

रावण ने तप और अच्छे कर्म करके लंकाधीश का पद पाया लेकिन फिर दुष्कृत्य करके, माता सीता का हरण करके अपने सारे कुल का विनाश भी करवा दिया। उसके पूर्व के शुभ फल से उसे राज्य-वैभवरूपी शुभ फल मिला लेकिन अपने ही दुष्कर्म से पूर्व का पुण्य क्षीण होता गया और आखिर में उसे अपने दुष्कृत्य का दुष्फल भी भुगतना ही पड़ा। इसलिए मनुष्य को सदैव विवेकयुक्त पुरुषार्थ करना चाहिए और विवेकयुक्त पुरुषार्थ तभी हो सकता है जब हम शास्त्रीय वचनों के अनुसार चलें।

हमारे चित्त में हजारों जन्मों के संस्कार भरे हुए हैं। उन्हें बदलने की और मिटाने की योग्यता केवल मनुष्य जन्म में ही है। इस प्रकार मनुष्य जन्म अनंत जन्मों का आरंभ भी है और अंत भी। यदि शास्त्रानुसार जीवन नहीं जिया तो अशुभ कर्मों के कारण अनंत जन्मों तक मनुष्य भवबंधन में भटकता रहता है। अतः सत्शास्त्रानुसार पुरुषार्थ करके एवं प्रबल उत्साह रखकर हमें सत्कर्मों में लग जाना चाहिए, जिससे विघ्न डालने वाले पूर्वजन्म के अशुभ संस्कार हार जाएँ।

कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि ʹजब सब प्राणियों को सत्ता देने वाला परमात्मा ही है तो अशुभ कर्म भी तो उसी की सत्ता से होते हैं।ʹ नहीं, हरगिज नहीं। यदि पाप और पुण्य करने की प्रेरणा ईश्वर ही देते तो पाप और पुण्य का फल भी ईश्वर को ही मिलना चाहिए, हमें नहीं।  परंतु ऐसा नहीं है। जैसे हमारे कर्म होते हैं उसी प्रकार के फल हमें भुगतने पड़ते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं किः

 नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।

सर्वव्यापी परमेश्वर भी न किसी के पापकर्म को और न किसी के शुभ कर्म को ही ग्रहण करता है किन्तु अज्ञान के द्वारा ज्ञान ढका हुआ है, उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं। (गीताः 5.15)

भगवान कहते हैं कि में किसी को पुण्य या पाप की ओर नहीं ले जाता। अज्ञान से आवृत ज्ञान से मोहित होकर जीव जैसे-तैसे कर्म करके भवजाल में भटकता रहता है। वासनाओं का जैसा वेग होता है, कर्त्ताभाव से वैसे ही कर्म होते हैं और वैसा ही फल मिलता है।

ईश्वर पापकर्म का फल दुःख देकर, संसार से वैराग्य कराकर हमें शुद्ध करना चाहता है और पुण्यकर्म का फल सुख देकर सत्कृत्यों की ओर उत्साहित करना चाहता है। दोनों में ईश्वरीय कृपा सदैव हमारे साथ ही है।

मनुष्य जन्म देकर ईश्वर ने हमें कर्म करने की स्वतंत्रता दी है। अन्य चौरासी लाख योनियों में केवल कर्मफल भुगतने होते हैं जबकि मनुष्य जन्म  में कर्म भुगतने के अलावा नये कर्मों का सर्जन भी होता है। अतः ऐसे कर्म करें कि जिससे दुबारा जन्म न लेना पड़े।

निष्काम कर्म करने से अंतःकरण की शुद्धि होती है, अंतःकरण की शुद्धि से परमात्मप्राप्ति में सुगमता होती है, साथ ही,  ʹआत्मा क्या है ? परमात्मा क्या है ? आत्म-साक्षात्कार कैसे हो ? मुक्ति कैसे पाएँ ?ʹ ऐसे प्रश्न अंतःकरण में उठते हैं। जिज्ञासा होने से मनुष्य संतों के द्वार तक पहुँच सकता है और संतों के सत्संग से परमात्मज्ञान प्राप्त करके मुक्त भी हो सकता है।

जहाँ चाह वहाँ राह।

जीवन में कुछ चाहने योग्य, जानने योग्य हो तो वह है ब्रह्म-परमात्मा। जीव यदि ब्रह्म-परमात्मा को जान ले तो वह खुद ब्रह्ममय हो जाय और उसका बार बार माता के गर्भ में उल्टा लटकना सदा के लिए मिट जाए।

जन्मदुःखं जरादुःखं जायदुःखं पुनः पुनः।

अंतकाले महादुःखं तस्मात् जाग्रहि जाग्रहि।।

बाल्यावस्था में जीव को पराधीनता होती है। कोई खिलाये तब खाये, पिलाये तब पिये, कभी पेट में दर्द होता है तो बोल भी नहीं पाता ऐसा पराधीन जीवन होता है। जवानी में काम, क्रोध, लोभ जैसे दोष सताते हैं और बुढ़ापे में शरीर जर्जर हो जाता है, अशक्त हो जाता है, कान बहरे हो जाते हैं, आँखों की रोशनी कम हो जाती है। फिर भी जीव अपनी इच्छा, आकांक्षा, वासनाओं का त्याग नहीं करता और बार-बार कभी दो पैरवाली तो कभी चार पैरवाली माता के गर्भ में उल्टा लटककर असह्य दर्द सहता है। दुर्लभ मनुष्य जन्म मिलने पर भी जीव अज्ञानवश अपने को सुखी करने में ही जीवन गँवा देता है। आखिर में वृद्धावस्था आती है तब जीव सोचता है कि मृत्यु आये तब शांति, परंतु मरने में भी सच्ची शांति नहीं है। सच्ची शांति तो उस परमात्मपद में है जहाँ संतजन विश्रांति पाते हैं।

मरो मरो सब कोई कहे, मरना न जाने कोई।

एक बार ऐसा मरो कि फिर मरना न होई।।

एक बार संतों के चरणों में देहाध्यास छोड़कर ऐसे मरो कि फिर कभी मरना न पड़े। इस शरीर को ʹमैंʹ मानकर, ʹमैंने यह कियाʹ इस  भावना का जितना त्याग करते जाओगे उतने ही उन्नत होते जाओगे, दुःखों से मुक्त होते जाओगे। इसलिए यत्न करके, इस दुष्ट अहंकार का नाश करो। परमात्मा की सत्ता का अनुभव करते जाओ। फिर जैसे सूर्योदय होने से अंधकार नष्ट हो जाता है वैसे ही दृढ़ पुरुषार्थ से जिसके हृदय का अहंकार नष्ट हो गया है वह संसारसमुद्र से पार हो जाता है। इसलिए आज ही, इसी क्षण दृढ़ निश्चय करोः

न मैं हूँ न ही है और कुछ।

मुझसे जो है वह सब तू ही है।

सब कुछ ही है तुझसे।।

ʹमैंʹ, ʹमेरेपनेʹ का अहंकार निर्मूल होने से फिर केवल ʹवहʹ ही बचेगा और वही है परमात्मा-साक्षात्कार।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1996, पृष्ठ संख्या 3,4,5,6 अंक 47

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जीवन्मुक्त एवं विदेहमुक्त – पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू


 

ʹजीवन्मुक्त एवं विदेहमुक्त किसे कहते हैं ?ʹ यह प्रश्न भगवान श्रीराम ने महर्षि वशिष्ठजी से पूछा था।

जीवन्मुक्त वे महापुरुष होते हैं जो जीते-जी अपने मुक्त आत्मस्वरूप का अनुभव करते हैं। दुःख अथवा सुख के समय, अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता के समय, उम महापुरुषों का यह अनुभव होता है कि सब सपना है, सब बीतने वाला है। वे सुख दुःख के साथ जुड़ते नहीं हैं। अनुकूलता में आसक्ति नहीं करते और प्रतिकूलता में उद्वेग नहीं करते। ये अनुकूलता और प्रतिकूलता, सुख एवं दुःख उन्हें बाँधता नहीं है इसीलिए वे मुक्त हैं।

साधारण व्यक्ति जगत को सच्चा मानकर, सुख में सुखी एवं दुःख में दुःखी हो जाता है। ज्ञानी भी बाहर से तो सुखी-दुःखी दिखेंगे लेकिन अंदर से आकाश की नाईं निर्लेप, शान्तात्मा होते हैं। जैसे, जो फिल्म के रहस्य को जानता है वह फिल्म देखकर समझता है कि यह केवल परदा है। वह फिल्म की मिठाई लेने नहीं जाता और आग देखकर भागता भी नहीं है। ऐसे ही जीवन्मुक्त महापुरुष कभी संसार के सब व्यवहारों को करते हैं और कभी एकान्त में अपने निज स्वरूप में ध्यानस्थ हो जाते हैं फिर भी मुक्त ही हैं। हवा चलती है तब भी हवा है और नहीं चलती है तब भी हवा है। व्यक्ति चलता है तब भी व्यक्ति है और नहीं चलता है या बैठा हुआ है तब भी व्यक्ति है ऐसे ही जीवन्मुक्त देखता है कि चित्त का जो फुरना है, उससे ही जगत दिखता है और गहरी नींद में जब चित्त का फुरना शांत हो जाता है तब जगत का नित्य प्रलय हो जाता है। रात्रि की नींद में देखो तो ʹमैं-मेरेʹ का….ʹअपने-परायेʹ का…. सभी प्रलय हो जाता है। यह नित्य प्रलय है।

नित्य, नैमित्तिक, आत्यंतिक, महाप्रलय – ये प्रलय के विभिन्न भेद हैं। महाप्रलय में पृथ्वी आदि सब छू हो जाते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी नहीं रहते, किन्तु चैतन्यवपु आकाश की नाईं ज्यों-का-त्यों रहता है। जैसे, रात्रि में स्वप्न दिखा तब भी चैतन्य ज्यों-का-त्यों रहता है। स्वप्न में अच्छी बातों को देखकर सुख एवं बुरी बातों को देखकर सुख एवं बुरी बातों को देखकर सुख एवं बुरी बातों को देखकर दुःख होता है लेकिन अच्छी बुरी बातों को देख-देखकर भी अंत में तो स्वप्न खत्म हो जाता है। स्वप्न जिस हृदयाकाश में दिखता है वह हृदयाकाश सत्य है बाकी दिखने वाला मिथ्या है, बदलने वाला है। ऐसे ही व्यापक चिदाकाश में जगत दिखता है, मनुष्य आदि दिखते हैं। जब तक सदा रहने वाले परमात्मा का ज्ञान नहीं होता, सदा रहने वाला परमात्मा में स्थिति नहीं होती तब तक मरने से भी पिण्ड नहीं छूटता। मरने के बाद भी यात्रा होती रहती है, सुख-दुःख, अपना-पराया आदि होता रहता है। वे लोग जीवन्मुक्त हैं, बड़भागी हैं, जिन्होंने मरने के बाद नहीं, अपितु जीते जी ही अपने परमेश्वरीय स्वभाव में स्थिति कर ली है, अपने आत्मस्वभाव में, परमात्मस्वभाव में स्थिति कर ली है।

शरीर अन्नमय कोष है। शरीर के अंतरंग है प्राणमय कोष पाँच कर्मेन्द्रियाँ और प्राण। इसे प्राणमय कोष कहते हैं। प्राणमय कोष के अंतरंग हैं मनोमय कोष। पाँच कर्मेन्द्रियाँ और मन। इसे मनोमय कोष कहते हैं। मनोमय कोष के अंतरंग है विज्ञानमय कोष। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और बुद्धि। इसे विज्ञानमय कोष कहते हैं। बुद्धि आनंदस्वरूप में विश्रान्ति पाती है वह आनंदमय कोष है। हम देखते हैं कि शरीर भी बदलता है, मन भी बदलता है, बुद्धि के निर्णय भी बदलते हैं, फिर भी इन सबको देखने वाला शुद्ध चैतन्य परमात्मा नहीं बदलता।

श्रीमदभागवत के 11वें स्कंध में भगवान श्रीकृष्ण उद्धव से कहते हैं- “उद्धव ! मैं प्राणीमात्र का परम सुहृद हूँ। मैं सबके साथ हूँ…. सबके पास हूँ। कभी-कभी आकृति धारण करके लीला करता हूँ लेकिन वास्तव में तो मैं अव्यक्त आत्मा, सदा सर्वदा सबमें हूँ।”

द्वा सुपर्णा सयुजा सखायाः।

ʹएक ही डाल पर दो पक्षी बैठे हैं। एक पक्षी खट्टे-मीठे फल खाता है और दूसरा उसे देख रहा है और वे दोनों सखा हैं।ʹ

व्यापक चैतन्य आत्मा है। उसने जीने की इच्छा की तो जीव हो गया। जीव शुभाशुभ कर्म करता है एवं उसके खट्टे-मीठे फल भोगता है लेकिन जो चैतन्य है, साक्षी है वह केवल देखता है। देखने वाला ईश्वर है और करने-भोगने वाला जीव है। जीव और ईश्वर में भेद यही है। जो चैतन्य जीने की इच्छा करता है, वह जीव है। उसे माया के रहस्य का ज्ञान नहीं है, अपनी आत्मा का ज्ञान नहीं है और जिसे अपने आत्मस्वभाव का ज्ञान हो गया है वह है ईश्वर, वह है ब्रह्म। वास्तव में तो जीव और ईश्वर एक ही हैं। जैसे, घड़े में आया हुआ आकाश और काँच के महल में आया हुआ आकाश, आकाशतत्त्व से दोनों एक हैं लेकिन घड़े का आकाश, बाहर के आकाश को नहीं जानता है, बंधन में पड़ा है और काँच के महल का आकाश अंदर-बाहर दोनों जगह देखता है। ऐसे ही ईश्वर को भूत-भविष्य सब दिखता है, जबकि जीव अपने को केवल अपने ही शरीर में महसूस करता है। जीव सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, मच्छर का काटना आदि शरीर में अनुभव करता है। दोनों चेतन हैं लेकिन जीव चेतन, शरीर तक का ज्ञान रखता है और ईश्वर चेतन है व्यापक माया का ज्ञान। चेतना में दोनों एक हैं। लेकिन गलती यह होती है कि जीव अपने वास्तविक स्वरूप को भूल बैठा है। इसीलिए जप, तप, सुमिरण एवं ज्ञान का नित्य अनुसंधान करना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण उद्धव से कहते हैं कि ऐसी कोई जगह नहीं, जहाँ मैं चैतन्य नहीं हूँ। जैसे आकाश सर्वत्र है ऐसे ही मैं चैतन्य चिदाकाश सर्वत्र हूँ। उस चैतन्य को जो जान लेता है वह मेरा स्वरूप हो जाता है। ʹवहʹ और ʹमैंʹ एक हो जाते हैं। जो नहीं जानता है वह जन्म-मरण के चक्र में भटकता रहता है।

वशिष्ठजी कहते हैं- “हे राम ! जीवन्मुक्त उसे कहते हैं जो सुख-दुःख को, मान-अपमान को, सबको माया जानता है और अपने चैतन्य स्वरूप का स्मरण करता है, अपने ज्ञानस्वरूप में स्थित होता है। ऐसा महापुरुष जीते-जी मुक्त ही है। …..और विदेहमुक्त कौन है ? ऐसा महापुरुष शरीर में है तब तक जीवन्मुक्त और जब उसका शरीर शांत हो जाता है तब वह व्यापक ब्रह्म में लीन हो जाता है, विदेहमुक्त हो जाता है। जैसे आकाश जब तक घड़े में है तो घटाकाश कहलाता है किन्तु घड़ा टूट जाने पर वही आकाश महाकाश हो जाता है ऐसे ही शरीर शान्त होने पर महापुरुष जीवन्मुक्त में से विदेहमुक्त हो जाता है। फिर वह ब्रह्मवेत्ता सूर्य होकर चमकता है, चन्द्रमा होकर औषधि पुष्ट करता है, ब्रह्मा होकर सृष्टि उत्पन्न करता है विष्णु होकर पालन करता है और शिव होकर सृष्टि का संहार करता है…. धरती में से बीज को उत्पन्न करने का सामर्थ्य उसी ब्रह्मवेत्ता का है। ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मस्वरूप हो जाता हैः

ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मविद् भवति ताकी वाणी वेद।

भाषा अथवा संस्कृत, करत भरम भव छेद।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1996, पृष्ठ संख्या 7,8 अंक 47

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