परमात्मा प्राप्ति कैसे हो ? – पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

परमात्मा प्राप्ति कैसे हो ? – पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू


सर्व भूत-प्राणी एक ही परमात्मा में बसे हुए हैं और एक ही परमात्मा सब भूत-प्राणियों में है। जैसे, सारे घट आकाश में हैं और सब घटों में आकाश है, वैसे ही सब जीवों में आत्मा है और हर एक जीव आत्मा परमात्मा से ही अस्तित्त्व में है। दोनों में भिन्न कुछ भी नहीं, यह ज्ञान होना चाहिए।

हममें जीवनशक्ति जीवनदाता की ओर से ही आती है। बुद्धिमानों की बुद्धि, यशस्वियों का यश, तेजस्वियों का तेज, सौन्दर्यवानों का सौन्दर्य, वक्ताओं की वाणी और श्रोताओं की सुनने की जिज्ञासा-ये सब एकमात्र अंतर्यामी परमात्मा से ही प्रकट होता है।

तुलसीदासजी का श्रीरामचरितमानस, वेदव्यासजी का श्रीमदभागवत, शंकराचार्य जी का अद्वैतवाद और रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत का सिद्धान्त भी उसी सच्चिदानंद परमात्मा से ही प्रकट हुआ है। योगियों का योग, तपस्वियों का तप और भोगियों का भोग भी ईश्वर से ही सिद्ध होता है।

साहब तेरी साहबी घट घट रही समाय।

जैसे मेंहदी बीच में लाली रही छुपाय।।

लाली मेरे लाल की जित देखूँ उत लाल।

लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल।।

ऐसे चैतन्य परमात्मा की लाली देखने के लिए शरीर का अहंकार छोड़कर परमात्मा को ही समर्पित हो जाएँ। स्वामी रामतीर्थ कहते थेः

तुझको इतना मिटा कि,

तुझमें तू न रहे… द्वैत की बू न रहे।

मीराबाई भजन गाते-गाते गिरिधर गोपाल में इतनी खो जाती थी कि उन्होंने अपने देहाध्यास को ही मिटा दिया और अन्ततः सशरीर प्रभु में लीन हो गयीं। शबरी ने अपने गुरु वचनों में श्रद्धा की तो भगवान श्रीरामचन्द्र शबरी भीलनी के आँगन में आये और उसके जूठे बेर भी बड़े प्रेम से खाये।

कभी एकांत में बैठकर अपने श्वासोश्वास की गति को देखें और उस प्यारे को धन्यवाद देते जायें किः “तू ही इस शरीर में रहकर हृदय की धड़कनें चलाता है।ʹ कभी आसमान की ओर एकटक निहारें, चंद्रमा को एकटक निहारें और प्रभु को याद करें किः ʹमेरा प्यारा ही चंद्रमा में चमक कर औषधियाँ पुष्ट कर रहा है। उस सर्वसत्ताधीश की सत्ता से ही सब हो रहा है। जड़ और चेतन सबमें वही समाया है….ʹ ऐसा अनुभव करते जायें।

ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशेर्जुन तिष्ठति। ईश्वर तो सबके हृदय में एक समान है। हाँ, एक व्यक्ति के पास जो बल, बुद्धि या सौन्दर्य है वह शायद दूसरे व्यक्ति के पास नहीं भी हो सकता है परंतु जो परमात्मा महर्षि वशिष्ठ, संत ज्ञानेश्वर, मतंग ऋषि, बुद्ध, महावीर और मुहम्मद के हृदय में था, जो परमात्मा शबरी, मीरा, मदालसा और गार्गी के हृदय में था, वही-का-वही परमात्मा हमारे हृदय में भी है। जो अनुभव राजा जनक, कबीर जी अथवा नानक जी को हुआ है, वही अनुभव हमें भी हो सकता है। ऐहिक सुख-सुविधाओं का अनुभव भिन्न-भिन्न समय, परिस्थितिय और व्यक्ति के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकता है परंतु परमात्मप्राप्ति का अनुभव भिन्न-भिन्न नहीं होता।

संसार की चीजें अपूर्ण हैं इसलिए अपूर्ण प्रकृति के व्यक्ति और उऩका बल, बुद्धि, सत्ता, सौन्दर्य एक समान नहीं होते। परंतु ईश्वर तो सबके हृदय में पूर्ण है और वह सबको मिल सकता है लेकिन उसके लिए आवश्यकता है साधना, पुरुषार्थ और सत्संग की।

ईश्वरीय शक्ति प्राप्त करने के लिए हमारे शरीर में सात केन्द्र हैं। वे जितने अंश में विकसित होते हैं, उतना ही मनुष्य ऊँचा उठता है। कई लोग सोचते हैं कि ʹजो भाग्य में होगा, वही होगाʹ। मानो, हमारा भाग्य कोई आकाश-पाताल में से लिखकर भेजता हो। अगर किसी देव ने ही भाग्य बना दिया होता तो पुरुषार्थ का कोई प्रश्न ही नहीं रहता, सत्संग सुनने का यह सदग्रंथ पढ़ने का कोई सवाल ही नहीं उठता। ʹभाग्य में जो होगा, वह मिलेगा। भाग्य में होगा तो सुखी होंगे और भाग्य में मकान होगा तो मिलेगा। हमें कुछ करने की आवश्यकता नहीं है…ʹ यदि ऐसा ही हो तो घर बैठे-बैठे मकान लेकर देखो ? नहीं, मकान लेने के लिए प्रयत्न की आवश्यकता है। अरे ! खाना खाने के लिए भी प्रयत्न करना पड़ता है। सब्जी बाजार से लानी पड़ती है। फिर पकानी पड़ती है तब जाकर भोजन प्राप्त होता है। ऐसा नहीं कि ʹप्रारब्ध में आज भोजन होगा तो अपने-आप मिल जायेगा।ʹ यदि भोजन पाने के लिए भी पुरुषार्थ की जरूरत पड़ती है तो फिर अखिल ब्रह्माण्डनायक को पाने के लिए भी पुरुषार्थ परम आवश्यक है। इसलिए पुरुषार्थ करो और संतों का संग करो।

यह बात सच है कि पूर्व में की हुई प्रवृत्ति, विचार और कृति का फल हमारा आज का प्रारब्ध हो जाता है। किन्तु यह बात भी उतनी ही सच है कि पूर्व में किये हुए अशुभ कर्म को, अपने प्रारब्ध को आज के शुभ पुरुषार्थ के बल पर बदला जा सकता है। जैसे, कल का अजीर्ण आज के उपवास से मिटता है, कल का वैर आज की क्षमायाचना से मिटता है, कल का लिया हुआ कर्ज आज चुका देने से मिट जाता है, ठीक वैसे ही आज की हुई शुभ प्रवृत्ति से, आज के पुरुषार्थ से आनेवाले कल का प्रारब्ध बदला जा सकता है। इसलिए तुलसीदास जी ने लिखा है किः

करम प्रधान बिस्व करि राखा।

जो जस करइ सो तस फलु चाखा।।

रावण ने तप और अच्छे कर्म करके लंकाधीश का पद पाया लेकिन फिर दुष्कृत्य करके, माता सीता का हरण करके अपने सारे कुल का विनाश भी करवा दिया। उसके पूर्व के शुभ फल से उसे राज्य-वैभवरूपी शुभ फल मिला लेकिन अपने ही दुष्कर्म से पूर्व का पुण्य क्षीण होता गया और आखिर में उसे अपने दुष्कृत्य का दुष्फल भी भुगतना ही पड़ा। इसलिए मनुष्य को सदैव विवेकयुक्त पुरुषार्थ करना चाहिए और विवेकयुक्त पुरुषार्थ तभी हो सकता है जब हम शास्त्रीय वचनों के अनुसार चलें।

हमारे चित्त में हजारों जन्मों के संस्कार भरे हुए हैं। उन्हें बदलने की और मिटाने की योग्यता केवल मनुष्य जन्म में ही है। इस प्रकार मनुष्य जन्म अनंत जन्मों का आरंभ भी है और अंत भी। यदि शास्त्रानुसार जीवन नहीं जिया तो अशुभ कर्मों के कारण अनंत जन्मों तक मनुष्य भवबंधन में भटकता रहता है। अतः सत्शास्त्रानुसार पुरुषार्थ करके एवं प्रबल उत्साह रखकर हमें सत्कर्मों में लग जाना चाहिए, जिससे विघ्न डालने वाले पूर्वजन्म के अशुभ संस्कार हार जाएँ।

कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि ʹजब सब प्राणियों को सत्ता देने वाला परमात्मा ही है तो अशुभ कर्म भी तो उसी की सत्ता से होते हैं।ʹ नहीं, हरगिज नहीं। यदि पाप और पुण्य करने की प्रेरणा ईश्वर ही देते तो पाप और पुण्य का फल भी ईश्वर को ही मिलना चाहिए, हमें नहीं।  परंतु ऐसा नहीं है। जैसे हमारे कर्म होते हैं उसी प्रकार के फल हमें भुगतने पड़ते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं किः

 नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।

सर्वव्यापी परमेश्वर भी न किसी के पापकर्म को और न किसी के शुभ कर्म को ही ग्रहण करता है किन्तु अज्ञान के द्वारा ज्ञान ढका हुआ है, उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं। (गीताः 5.15)

भगवान कहते हैं कि में किसी को पुण्य या पाप की ओर नहीं ले जाता। अज्ञान से आवृत ज्ञान से मोहित होकर जीव जैसे-तैसे कर्म करके भवजाल में भटकता रहता है। वासनाओं का जैसा वेग होता है, कर्त्ताभाव से वैसे ही कर्म होते हैं और वैसा ही फल मिलता है।

ईश्वर पापकर्म का फल दुःख देकर, संसार से वैराग्य कराकर हमें शुद्ध करना चाहता है और पुण्यकर्म का फल सुख देकर सत्कृत्यों की ओर उत्साहित करना चाहता है। दोनों में ईश्वरीय कृपा सदैव हमारे साथ ही है।

मनुष्य जन्म देकर ईश्वर ने हमें कर्म करने की स्वतंत्रता दी है। अन्य चौरासी लाख योनियों में केवल कर्मफल भुगतने होते हैं जबकि मनुष्य जन्म  में कर्म भुगतने के अलावा नये कर्मों का सर्जन भी होता है। अतः ऐसे कर्म करें कि जिससे दुबारा जन्म न लेना पड़े।

निष्काम कर्म करने से अंतःकरण की शुद्धि होती है, अंतःकरण की शुद्धि से परमात्मप्राप्ति में सुगमता होती है, साथ ही,  ʹआत्मा क्या है ? परमात्मा क्या है ? आत्म-साक्षात्कार कैसे हो ? मुक्ति कैसे पाएँ ?ʹ ऐसे प्रश्न अंतःकरण में उठते हैं। जिज्ञासा होने से मनुष्य संतों के द्वार तक पहुँच सकता है और संतों के सत्संग से परमात्मज्ञान प्राप्त करके मुक्त भी हो सकता है।

जहाँ चाह वहाँ राह।

जीवन में कुछ चाहने योग्य, जानने योग्य हो तो वह है ब्रह्म-परमात्मा। जीव यदि ब्रह्म-परमात्मा को जान ले तो वह खुद ब्रह्ममय हो जाय और उसका बार बार माता के गर्भ में उल्टा लटकना सदा के लिए मिट जाए।

जन्मदुःखं जरादुःखं जायदुःखं पुनः पुनः।

अंतकाले महादुःखं तस्मात् जाग्रहि जाग्रहि।।

बाल्यावस्था में जीव को पराधीनता होती है। कोई खिलाये तब खाये, पिलाये तब पिये, कभी पेट में दर्द होता है तो बोल भी नहीं पाता ऐसा पराधीन जीवन होता है। जवानी में काम, क्रोध, लोभ जैसे दोष सताते हैं और बुढ़ापे में शरीर जर्जर हो जाता है, अशक्त हो जाता है, कान बहरे हो जाते हैं, आँखों की रोशनी कम हो जाती है। फिर भी जीव अपनी इच्छा, आकांक्षा, वासनाओं का त्याग नहीं करता और बार-बार कभी दो पैरवाली तो कभी चार पैरवाली माता के गर्भ में उल्टा लटककर असह्य दर्द सहता है। दुर्लभ मनुष्य जन्म मिलने पर भी जीव अज्ञानवश अपने को सुखी करने में ही जीवन गँवा देता है। आखिर में वृद्धावस्था आती है तब जीव सोचता है कि मृत्यु आये तब शांति, परंतु मरने में भी सच्ची शांति नहीं है। सच्ची शांति तो उस परमात्मपद में है जहाँ संतजन विश्रांति पाते हैं।

मरो मरो सब कोई कहे, मरना न जाने कोई।

एक बार ऐसा मरो कि फिर मरना न होई।।

एक बार संतों के चरणों में देहाध्यास छोड़कर ऐसे मरो कि फिर कभी मरना न पड़े। इस शरीर को ʹमैंʹ मानकर, ʹमैंने यह कियाʹ इस  भावना का जितना त्याग करते जाओगे उतने ही उन्नत होते जाओगे, दुःखों से मुक्त होते जाओगे। इसलिए यत्न करके, इस दुष्ट अहंकार का नाश करो। परमात्मा की सत्ता का अनुभव करते जाओ। फिर जैसे सूर्योदय होने से अंधकार नष्ट हो जाता है वैसे ही दृढ़ पुरुषार्थ से जिसके हृदय का अहंकार नष्ट हो गया है वह संसारसमुद्र से पार हो जाता है। इसलिए आज ही, इसी क्षण दृढ़ निश्चय करोः

न मैं हूँ न ही है और कुछ।

मुझसे जो है वह सब तू ही है।

सब कुछ ही है तुझसे।।

ʹमैंʹ, ʹमेरेपनेʹ का अहंकार निर्मूल होने से फिर केवल ʹवहʹ ही बचेगा और वही है परमात्मा-साक्षात्कार।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1996, पृष्ठ संख्या 3,4,5,6 अंक 47

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *