शाश्वत स्थान की प्राप्ति

शाश्वत स्थान की प्राप्ति


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तत्प्रसादात्परां शांतिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।

ʹहे भारत ! तू सर्व भाव से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उसकी कृपा से तू परम शान्ति और शाश्वत स्थान प्राप्त करेगा।ʹ (भगवद् गीताः 18.62)

देह शाश्वत नहीं है अर्थात् सदा रहने वाली नहीं है, देह से मिलने वाली खुशियाँ शाश्वत नहीं हैं, देह को मिलने वाले पद शाश्वत नहीं हैं लेकिन देह का जो आधार है, देह में रहने वाला जो विदेही चैतन्य आत्मा है, वह शाश्वत है और वही परम शान्ति का धाम है।

आज तक जिस किसी को ज्ञान मिला है, प्रेम मिला है, आनंद मिला है, निर्दोष सुख मिला है वह उस शाश्वत चैतन्य के भण्डार से ही मिला है। वही आत्मपद है, सबका असली स्वरूप है। उस सोઽहम् स्वभाव की पवित्रता, शांति, समता, करूणा, प्रेम, आनंद आदि अनादि काल से निखरते आये हैं, निखर रहे हैं और निखरते ही रहेंगे। बुद्धिमानों की बुद्धि, सत्ताधीशों की सत्ता संभालने की कला, धनवानों की धन संभालने की और बढ़ाने की अक्ल, शूरवीरों का शौर्य, तेजस्वियों का तेज, सुन्दरियों का सौन्दर्य एवं सज्जनों की सज्जनता इसी शाश्वत पिटारी से आती है, फिर भी जरा-सी भी कम नहीं होती है। वह शाश्वत चैतन्य परमात्मा अपना आत्मारूप बनकर सदा हमारे साथ है। भगवान कहते हैं-

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।

ʹइस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है।ʹ

हम जितने-जितने उस पूर्ण परमेश्वर में, अपनी आत्मा में तल्लीन होते जाएँगे, उतने-उतने पावन होते जाएँगे, निश्चिंत होते जाएँगे, आनंदित होते जाएँगे…

हम नाश होने वाली देह को ʹमैंʹ मानकर सदा रहने वाले चैतन्य आत्मा की अवहेलना करते हैं, इसलिए परेशानियों के पोटले सिर पर उठाने पड़ते हैं। जबकि उस परमेश्वर की शरण में जाने से आत्मस्वभाव में तल्लीन होने से परेशानियाँ दूर हो जाती हैं और परम शांति मिलती है, इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- तमेव शरणं गच्छ। ʹउस परमात्मा की शरण में जा।ʹ

जो कुछ हो जाये उसमें उस परमात्मा की मर्जी मानो। ʹमान देने वाले में भी तू। मित्र में भी तू और शत्रु में भी तू। अनुकूल परिस्थिति देने वाला भी तू और प्रतिकूलता पैदा करने वाला भी तू। तन्दुरुस्ती में भी तू और रोग में भी तू….ʹ इस प्रकार हर वक्त, हर जगह उस प्रियतम प्रभु को देखोगे तो कोई भी तुम्हें परेशान नहीं कर पायेगा। भेद बुद्धि से दिखाई देनेवाले अलग-अलग नाम रूपों को सच्चा मानने से दुःख, चिंता, अशांति, खिंचाव-तनाव व खूनखराबा होता है जबकि अभेद बुद्धि से ʹसबमें एक ही परमेश्वर की सत्ता, स्फूर्ति, चेतना चमक रही हैʹ ऐसा भाव रखकर व्यवहार करने से ओज-तेज, पवित्रता, आनंद और शांति बढ़ती है।

जो उस परमेश्वर को पाने के लिए अर्थात् अपने आत्मस्वरूप को जानने के लिए प्रयत्न करते हैं, जो अपनी उन्नति चाहते हैं। ऐसे साधकों की, भक्तों की तीन अवस्थाएँ होती हैं-

तस्यैवाहम्। मैं उसका हूँ।

तवैवाहम्। मैं तेरा हूँ।

त्वमेवाहम्। मैं तू ही हूँ।

जैसे किसी लड़की की मँगनी होती है तब वह लड़की मानती हैः ʹमैं उसकी हूँʹ। जब नयी-नयी शादी होती है तब बोलती हैः ʹमैं तेरी हूँ।ʹ फिर पति के घर में रहने लगती है और पुरानी हो जाती है तब कोई आकर उसे पूछेः

“गोविन्दभाई हैं ?”

“वे तो नहीं हैं लेकिन बात क्या है ?”

“मुझे एक चीज चाहिए थी।”

“हाँ, हाँ, ले जाओ। मैं और वे एक ही तो हैं। इसमें क्या पूछना ?”

भक्त की स्थिति भी ऐसी है। ʹमैं उसका हूँʹ माने मँगनी हो गयी। ʹमैं तेरा हूँʹ माने शादी हो गयी। ʹमैं और तू एक ही हैंʹ माना संबंध दृढ़ हो गया, पक्का काम हो गया। जीवात्मा-परमात्मा की शादी के ये लक्षण हैं।

मँगनी के पहले तो लड़की पिता के घर को अपना मानती है। पति के घर का, ससुरालवालों के घर के संबंध का पता ही नहीं होता है। जब मँगनी होती है तब कहती हैः ʹउनका घर है, ससुरालवालों का घर है। फिर नयी-नयी शादी होती है तब ʹमेरे पति का घर हैʹ ऐसा मानती है। जब घर में रहते हुए पुरानी हो जाती है तब ʹहमारा घर हैʹ ऐसा कहने लगती है।

भावो हि विद्यते देवो। जैसा भाव होता है वैसा दिखता है। भाव बदलते हैं तो वही की वही परिस्थिति बदली हुई मालूम पड़ती है। अपना अहंभाव बदल जाय, ʹमैंʹ पना बदल जाय तो ममभाव ʹमेराʹ पना बदल जाता है। अहंता बदलने से ही ममता बदल जाती है। अपनी अहंता को ईश्वर में लगा दो तो ʹमैं भगवान का हूँʹ यह भाव जगेगा और भगवान में प्रीति हो जायेगी तब लगेगा ʹभगवान मेरे हैं।ʹ दृढ़तापूर्वक भगवान से अपनापन मान लोगे तो हृदय में भक्ति की रसधारा बहने लगेगी।

भक्ति की प्रारंभिक दशा में भक्त भगवान को अपने से कहीं दूर मानता है, वह परमेश्वर की चर्चा अन्य पुरुष में करता हैः ʹमैं उसका हूँ।ʹ तस्यैवाहम्।

इस भाव का भी पूर्णरूप से अनुभव कर लिया जाय तो हृदय मधुरता से छलक जायेगा। ʹमैं उसका हूँ तो मेरा जो कुछ है वह भी मेरे प्रभु का है….।ʹ ऐसा भक्त सुबह उठता है तबसे लेकर रात को सोने तक जो कुछ काम करता है उसको अपने प्रिय प्रभु का आदेश समझकर ही करता है। वह अपने घर, सगे-संबंधी, मित्र आदि को भी ईश्वर का समझता है या तो ईश्वर की कृपा से सब मिला है ऐसा मानता है। उससे उसे परम आनंद मिलता है।

जब प्रारंभिक दशा से कुछ उन्नत होता है और ईश्वर से निकटता का अनुभव करता है, तब वह कहता है ʹमैं तेरा हूँ।ʹ इस भाव से ईश्वर को अपने समीप मानता है। पहली दशा मधुर और प्यारी है किंतु यह दशा उससे भी प्यारी और रूचिकर है।

जब भक्ति की पराकाष्ठा आती है, उन्नति की अंतिम अवस्था आती है तब वह ईश्वर को अपना स्वरूप जान लेता है। उस अवस्था में वह कहता है त्वमेवाहम्। ʹमैं तू ही हूँ।ʹ फिर वह भक्त और ईश्वर दो अलग नहीं रहते हैं। दोनों एक हो जाते हैं। ईश्वर का सच्चा प्रेमी ईश्वर में मिल जाता है तो जान लेता हैः ʹमैं वह हूँ। मैं तू हूँ तू मैं है। तू और मैं एक हैं।ʹ यानी जीव ब्रह्म की एकता का अनुभव हो जाता है। यही ज्ञान की उच्चतम अवस्था है। यही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। जो बाहर भीतर सच्चे हैं, वे शुद्ध बुद्धि से इस निश्चय पर पहुँच जाने के बाद निदिध्यासन द्वारा इस निश्चय का अनुभव कर लेते हैं, दिव्य आनंद को पा लेते हैं, वे स्वयं ब्रह्मरूप हो जाते हैं, वे इसी जीवन में मुक्त हो जाते हैं अतः जीवन्मुक्त कहलाते हैं।

ऐसी जीवन्मुक्ति पाना ही हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। देह को ʹमैंʹ मानते रहोगे और देह के संबंधों को मेरा मानते रहोगे तो काम नहीं चलेगा। ʹमैं गोविंदभाई….. मैं मोहनभाई…. ये मेरे बेटे-बेटियाँ…. यह मेरी पत्नी… यह मेरी दुकान… यह मेरा मकान….ʹ ऐसी बातों में उलझकर जीवन पूरा कर देने वाले तो कई लोग इस संसार में आ-आकर चले गये।

आप भी अगर ज्ञान का विचार नहीं करोगे तो अपने सच्चे स्वरूप को नहीं पहचान पाओगे। जो अपनी अहंता को शरीर ओर शरीर के संबंधों से हटाकर भगवान में लगा देता है, वही देर-सबेर भगवत्स्वरूप को उपलब्ध हो जाता है।

भाव बदलने से ही आधा काम बन जाता है। बाकी का काम ज्ञानसयुक्त जीवन जीने से पूरा हो जाता है। भाव किसी साधन से नहीं बदलता है वरन् ज्ञान से बदलता है।

जैसे, किसी बकरे के गले में फँदा पड़ा हो और आप उसे स्नानादि कराके उसके आगे धूप-दीप करो, पूजा करो, आरती उतारो, मेवा-मिठाई का प्रसाद रखो, फिर भी उससे बंधन नहीं कटेगा लेकिन फँदा कैसा है ? यह देखकर उसे काटने का उपाय सोचो और फँदा काट दो तब काम बनेगा।

ऐसे ही जीवरूपी बकरे के गले में अज्ञान का जो फँदा पड़ा है उसे जरा समझ लो और सत्संग से सेवा से, विवेक-वैराग्य से, विचाररूपी कैंची से काट दो तो मुक्त हो जाओगे। फिर चाहे प्रवृत्ति करो चाहे निवृत्ति लेकिन रहोगे निजानंद में। तब आपको किसी का भय नहीं रहेगा। फिर चाहे मौत भी आ जाय तो मौत के भी आप दृष्टा बन जाओगे। यह मुक्तिपद है ही ऐसा कि जिसे पाकर फिर इस जन्म-मरण के चक्कर में वापस नहीं आना पड़ता।

श्रीकृष्ण कहते हैं-

न तद् भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः।

यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।

ʹजिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आते, उस स्वयं प्रकाश परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही, वही मेरा परमधाम है।ʹ (भगवद् गीताः 15.6)

परमात्मा के उस परमधाम को पाने के लिए श्रीकृष्ण कहते हैं- तमेव शरणं गच्छ। तू सर्वभाव से उस परमात्मा की शरण में जा, जो अंतर्यामी आत्मा के रूप में सदा तेरे साथ है। जो अनन्य भाव से उसकी शरण में जाता है वह भी उसी रूप हो जाता है। उसे सबमें अपना-आपा नजर आता है।

दुर्बल में भी ʹमैंʹ और बलवान की गहराई में भी ʹमैंʹ…. शत्रु में भी ʹमैंʹ और मित्र में भी ʹमैंʹ ही नजर आया तो फिर अहंकार, राग-द्वेष, ईर्ष्या, भय आदि के लिए स्थान ही कहाँ बचेगा ?

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।

न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्।।

ʹजो पुरुष सबमें समभाव से स्थित परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता, अर्थात् राग-द्वेष आदि विकारों के वश नहीं होता है इससे वह परम गति को प्राप्त होता है। (भगवद् गीताः 13.28)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 3,4,5 अंक 49

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