पाओ अपने आपको…..

पाओ अपने आपको…..


पूज्यपाद संतश्री आसारामजी बापू

सूर्य का स्वभाव है प्रकाश देना, चन्द्र का स्वभाव है शीतलता देना, माँ का स्वभाव है बच्चों को पोसना। ऐसे ही भगवान का और भगवान को पाये हुए महापुरुषों का स्वभाव है दूसरों का कल्याण करना। जो भी सामने आ जाए उसका कल्याण किये बिना वे नहीं रह सकते हैं।

जोगी मछन्दरनाथ ऐसे ही महापुरुष थे। एक बार जोगी मछन्दरनाथ किसी नगर में गये। वहाँ के लोगों ने मछन्दरनाथ को बतायाः

“इस नगर के राजा अपना राज्य अपने बेटों को सौंपकर जंगल में चले गये हैं। वहीं पर रहते हैं। जब भूख लगती है तब नगर में मधुकरी करने आते हैं। भिक्षा में जो भी रूखा-सूखा टुकड़ा मिलता है वह खा लेते हैं। कौपीन पहनकर रहते हैं। किसी के सामने आँख उठाकर देखते भी नहीं हैं तो बात करने का तो सवाल ही नहीं उठता है। बड़े तपस्वी हैं, महात्यागी हैं…”

एक दिन जब वह राजा नगर में आया और भिक्षा में जो कुछ मिला वह लेकर वापस जाने लगा तब मछन्दरनाथ ने जान-बूझ कर उसे जरा-सा धक्का मार दिया।

वह बोलाः “अरे ! आप मुझे धक्का देकर मेरी परीक्षा लेना चाहते हैं ? परन्तु ऐसी हरकतें करके भी आप मुझे गुस्सा नहीं दिला सकते।”

मछन्दरनाथ ने कुछ जवाब नहीं दिया। पाँच-पच्चीस कदम आगे चलकर उन्होंने फिर से से उस त्यागी राजा को कोहनी मारी। उसका भिक्षापात्र गिरते-गिरते बच गया।

उस राजा ने पुनः कहाः

“आप क्या समझते हैं ? आपके ऐसे कृत्यों से परेशान होकर मैं गुस्सा हो जाऊँगा ? नहीं, यह नहीं होगा। महाराज ! तब करने के लिए मैंने राज-पाट छोड़ दिया है, वस्त्राभूषण छोड़ दिये हैं, सगे संबंधियों को भी छोड़ दिया है। अब मेरे पास क्या है जो आप मुझसे छीनना चाहते हैं ? मेरे पास कुछ नहीं हैं। मैं महात्यागी हूँ।”

तब मछन्दरनाथ ने कहाः

“अभी बहुत कुछ त्याग करना बाकी है।”

“अरे महाराज ! मेरे पास तो कुछ नहीं है। केवल यह कौपीन है। आप कहें तो उसका भी त्याग कर दिखाऊँ।”

मछन्दरनाथः “मैं कौपीन का त्याग करने के लिए तो नहीं कहता हूँ लेकिन तुम अगर कौपीन का त्याग कर भी दो तब भी बहुत कुछ त्याग करना बाकी रह जायेगा।”

राजा को मछन्दरनाथ की बात समझ में न आयी। तब उन दयालु महापुरुष ने अपनी करूणा-कृपा बरसाते हुए कहाः

“अभी बहुत कुछ त्याग करना बाकी है। अभी स्थूल और सूक्ष्म शरीर में से तुम्हारी अहंता नहीं छूटी है। तुम कहते होः “मैंने राजपाट, वस्त्रालंकार, सगे-संबंधियों को त्याग दिया।ʹ परंतु जब तुम इस धरती पर आये थे तब साथ में क्या लेकर आये थे ? वास्तव में तुम्हारा था ही क्या जो तुमने त्याग दिया ? राज्य तो तुम्हारे आऩे से पहले भी था और जब तुमने उसे त्याग दिया ऐसा मानते हो तब भी राज्य तो वहीं पर है। तुम इस संसार में अकेले आये हो और जाओगे भी अकेले, तब तुम जिनका (अपने सगे-संबंधियों का) त्याग करने की बात कर रहे हो उनका तो त्याग हो ही जायेगा। तुम्हारे पास तुम्हारा अपना क्या था जिसे तुमने त्याग दिया है ? माता-पिता के रज-वीर्य से तुम्हारे शरीर का जन्म हुआ और पहले किये हुए पुण्यों के प्रभाव से तुम्हें राज्य मिला। अब त्याग करना बाकी है अपना अहंकार। ʹमैं त्यागी हूँ…. मैंने राजपाट का त्याग करने वाला मैं कौन हूँ ?ʹ इसे जरा खोजो। ʹमैं कैसा हूँ ?ʹ इसे जानो। उसके लिए तुम महापुरुषों की शरण में जाओ, सत्संग सुनो और विचार करो। तब ही तुम अपने-आपको जान पाओगे।”

पचास साल तक भले ही मन्दिर-मस्जिद में जाते रहो, पूजा पाठ करते रहो, आरती करते रहो लेकिन मंदिर के वे देव भी तुम्हें आत्मानुभव नहीं करा सकते। जब तक आत्मज्ञान का सत्संग नहीं मिलता है, आत्मज्ञानी गुरु की कृपा हजम नहीं होती है तब तक आत्मानुभव नहीं हो सकता। भीतर के देव का अनुभव करने के लिए सदगुरु की शरण में जाना ही पड़ता है।

सदगुरु के वचनों को आदरपूर्वक सुनकर उस पर अमल करने से सदियों से भटकता हुआ चित्त वश में होता है, अपने-आप में स्थिर होता है। चित्त को स्थिर करने के लिए एक यह भी उपाय है कि किसी एकांत स्थान में या तो अपने कमरे के कोने में बैठकर आँखों के सामने अपने इष्टदेव का या गुरुदेव का चित्र रखो। उससे तीन-चार फीट दूर बैठकर आँख की पलकें न गिरें उस तरह चित्र को एकटक निहारते रहो। बाद में आँखें बंद कर के गुरु के या इष्ट के चित्र को भ्रूमध्य में निहारो। इस प्रकार का प्रयोग हररोज पाँच मिनट के लिए भी करोगे तो मन की शक्ति बढ़ेगी और बलवान मन को जहाँ लगाना चाहोगे वहाँ लगेगा।

हम कहाँ हैं ? बाजार में हैं कि खेत में, घर में हैं कि दुकान में, उसका महत्त्व नहीं है परंतु हमारा मन कहाँ हैं, हमारे मन में समझ कैसी है उसका महत्त्व है। अगर हम सुख में आकर्षित और दुःख में अशांत हो जाते हैं तो हम स्वर्ग में होते हुए भी नरक बना लेते हैं।

संसार की चीज-वस्तुएँ कितनी भी हों, उससे मन की शांति नहीं मिलती है। अनेकों सुविधाएँ होने के बावजूद भी यदि मन में शांति नहीं है तो वे सुविधाएँ किस काम की ? जिसके पास बाहर  की सुविधाएँ भले नहीं हों लेकिन मन में यदि शांति और आनंद हो तो वह वास्तव में सुखी है और भीतर की शांति पाने का सब से सरल उपाय यह है कि न दुःख से भागो न सुख में चिपको, वरन् सुख और दुःख आते जाते रहते हैं। सुख जाता है तो दुःख दे जाता है और दुःख जाता है तो सुख दे जाता है।

एक भाई किसी महाराज के पास गये और कहने लगेः

“महाराज ! इस जिंदगी में मैंने दुःख-ही-दुःख देखे हैं।”

महाराज ने पूछाः “कितने दुःख देखे हैं ?”

उसने कहाः “कितने दुःख गिनाऊँ ? मैंने बहुत दुःख देखे हैं।”

महाराज ने कहाः “तूने सुख देखा ही न हो तो ʹबहुत दुःखʹ कैसे कह सकता है ? थोड़ा सुख भी मिला होगा तभी तो ʹबहुत दुःख मिलाʹ – ऐसा कह सकता है। केवल दुःख ही दुःख होता तो बहुत या थोड़ा हो नहीं सकतात। सुख भी आया और गया, दुःख भी आया और गया। ये तो आने जाने वाले मेहमान हुए। तू तो वही का वही रहा उसे देखने वाला साक्षी।”

जैसे, हाईवे पर यदि तुम्हारा बंगला हो तो रोड़ पर से बस, टैक्सी, ऑटोरिक्शा, साईकिल, स्कूटर, कार आदि गुजरते हैं। कभी बारात भी गुजरती है और कभी अर्थी लेकर श्मशान में जाने वाले लोग भी गुजरते हैं। उन सबको अपने बंगले में बैठकर तुम देखते रहो तो ठीक है लेकिन जो आये और उसके साथ चलने लग जाओगे, बारात को देखकर नाचने लगो या अर्थी को देखकर रोने लगो तो बंगले में शांतिपूर्वक कैसे बैठ सकोगे ? ऐसे ही अपने मनरूपी हाईवे पर सुख-दुःख की वृत्तियाँ, मान-अपमान के प्रसंग आदि आते जाते रहते हैं। जब हम आत्मारूपी घर को छोड़कर उन वृत्तियों के साथ एक होकर मन को दौड़ाते रहते हैं तो परेशान हो जाते हैं परंतु यदि आत्मारूपी बंगले में बैठकर सुख-दुःख, मान-अपमान को केवल देखते रहें तो आनंद ही आनंद है।

जैसे सागर की उछलती तरंगों की गहराई में शांत उदधि है और उस शांत उदधि के आधार पर ही तरंगे उछलती हैं। ऐसी कोई तरंग नहीं है जो सागर से अलग होकर सड़क पर दौड़ सके। ऐसे ही अपने मन की तरंगें भी शांत आत्मा के आधार पर ही उठती हैं। ऐसा कोई मन नहीं है जो चैतन्य के आधार के बिना संकल्प-विकल्प कर सके। परमात्मा के इतने निकट होते हुए भी मानव दुःखी, चिंतित और भयभीत रहता है। क्यों ? क्योंकि आने-जाने परिस्थितियों को सत्य मानकर उनके साथ वह एक हो जाता है।

जब हम दरिया किनारे घूमने जाते हैं, तब उछलती तरंगें देखने का मजा आता है किन्तु वह मजा तभी तक आता है जब तक किनारे पर खड़ा रहकर उसे देखते रहें। अगर किनारा छोड़कर तरंगों के साथ घुलमिल जायें तो तरंग देखने का मजा तो क्या आयेगा लेकिन तरंगें ही हमको घसीटकर गहरे पानी में डुबा देंगी। ऐसे ही जीवन में सुख-दुःख की तरंगें, मान-अपमान की तरंगें, तंदुरुस्ती और बीमारी की तरंगे आती जाती रहती हैं। अगर आप अपने आप में स्थित रहकर आत्मारूपी किनारे पर खड़े होकर तरंगों को देखते रहोगे तो मजा आएगा परंतु उनके साथ एक हो जाओगे तो वे तुम्हें बहा ले जायेंगी। सुख-दुःख की, मान-अपमान की तरंगें आती और जाती हैं लेकिन उनको देखने वाले तुम वही के वही रहते हो। वही तुम आत्मा हो, चैतन्य हो और आत्मा सदा एकरस है, अबदल है। शरीर और संसार बदलता रहता है। बचपन गया तो जवानी आती है और जवानी चली जाये तो बुढ़ापा आता है। संसार की परिस्थितियाँ भी बदलती रहती हैं लेकिन इऩ सब बदलाहट को देखने वाला जो साक्षी है, वह नहीं बदलता है, वही आत्मा है। जो सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और लय का साक्षी है, महाप्रलय भी हो जाये फिर भी जिसका बाल भी बांका नहीं होता है वही आत्मा है… वही परमात्मा है।

जो सुख-दुःख में, मान-अपमान में सम रहकर अपने आप में स्थित रहते हैं वे देर सबेर आत्मा का साक्षात्कार कर लेते हैं। उनको फिर कुछ करना बाकी नहीं रहता है। वे भगवदरूप हो जाते हैं। ऐसे महापुरुष ईश्वर से कभी जुदा नहीं होते।

आप भी यदि ईश्वर के मार्ग पर आगे बढ़ना चाहते हो तो मिथ्या शरीर और संसार को सत्य मानने का भ्रम मिटाना पड़ेगा। यह भ्रम दूर होगा तभी आप सदा के दुःखों से मुक्त हो सकोगे। जैसे स्वप्न के पदार्थों को लेकर कोई जाग नहीं सकता, ऐसे ही जगत की सत्यता को पकड़कर कोई जगदीश्वर का साक्षात्कार नहीं कर सकता और संसार को सत्य मानने का वह भ्रम सदगुरु की करूणा कृपा के बिना नहीं मिटता।

सदगुरु मेरा शूरमा करे शब्द की चोट।

मारे गोला प्रेम का हरे भरम की कोट।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 1997, पृष्ठ संख्या 7,8,9,23 अंक 50

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *