Monthly Archives: March 1997

वास्तविक सुख किस में ?


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

मच्चित्ता गद् गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुषयन्ति च रमन्ति च।।

ʹनिरन्तर मुझमें मन लगाने वाले और मुझमें ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन, सदा ही मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा, आपस में मेरे प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरंतर रमण करते हैं।ʹ (भगवद् गीताः 10.9)

भोगी को विषय-भोगों में वह सुख नहीं मिलता जो भक्त को भगवद् प्रभाव के चिंतन एवं परस्पर कथन में मिलता है।

वस्तु-व्यक्तियों से क्रिया करके जो सुख मिलता है उसे क्रियाजन्य सुख कहते हैं। सूँघने, चखने, स्पर्श करने आदि क्रियाजन्य सुख में ही मनुष्य अटका रहा तो मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति। वह मनुष्य के रूप में पशु माना गया है। क्रियाजन्य सुख तो कुत्ते-कुत्ती भी भोगते हैं, जिसमें क्रिया, परिश्रम तो ज्यादा होते हैं और सुख घड़ीभर का मिलता है। ऐसे ही खाने पीने, सूँघने-सुनने आदि से मिलने वाला सुख क्रियाजन्य सुख है।

दूसरा सुख है भावजन्य सुख। क्रियाजन्य सुख की अपेक्षा भावजन्य सुख में मेहनत कम है और सुख ज्यादा है। भगवान या गुरु की मूर्ति को निहारने से या मन में भावना करने से हृदय में सुख मिलता है। भावजन्य सुख में परिश्रम कम है और सुख क्रियाजन्य सुख से ज्यादा है।

भावजन्य सुख हृदय को शुद्ध करता है स्वतंत्रता की ओर ले जाता है। क्रियाजन्य सुख में बल-बुद्धि तेज-तन्दुरुस्ती का नाश होता है और भावजन्य सुख हृदय को भगवदभाव से भरता है।

भावजन्य सुख से भी बढ़कर है ध्यानजन्य सुख। भाव ज्यादा देर नहीं टिकता लेकिन ध्यान उससे ज्यादा देर टिकता है। हालाँकि ध्यान भी निरन्तर नहीं होता है और समाधि भी सतत नहीं होती है। अतः उससे भी आगे है विचारजन्य सुख।

विचारजन्य सुख अर्थात् भगवदविचार करना, भगवदज्ञान की, आत्मज्ञान की बातें करना। जब दो दीवानें मिल जाते हैं तो वहाँ ईश्वर विषयक चर्चा की मेहफिल शुरु हो जाती है जिससे मन भगवदाकार, ब्रह्माकार होने लगता है। ऐसा करते-करते मनुष्य तात्त्विक सुख का अधिकारी होने लगता है। आत्म-साक्षात्कारी महापुरुष तात्त्विक सुख को पाते हैं।

सदा समाधि संत की आठों प्रहर आनंद।

अकलमता कोई ऊपजा गिने इन्द्र को रंक।।

ऐसा माधुर्य, संतोष और ऐसा रस उन महापुरुष को मिलने लगता है जहाँ इन्द्र का सुख भी तुच्छ हो जाता है।

मनुष्य जन्म का लक्ष्य उसी रस को, उसी तात्त्विक सुख को पाना है। क्रियाजन्य सुख तो पशु भी ले रहे हैं, मूर्ख भी ले रहे हैं। भावजन्य सुख भक्त लेते हैं और विचारजन्य सुख भक्त और ज्ञानी लेते हैं। तत्त्व का सुख पाने के लिए परस्पर परमात्मतत्त्व का कथन-चिंतन-मनन करना चाहिए।

बुद्धिमान मनुष्य तो वह है जो भगवदचिंतन, भगवदस्वरूप का श्रवण करे कि ʹभगवान क्या हैं ? जीवात्मा क्या है ? परमात्मा क्या है ? सुख-दुःख आते हैं, चले जाते हैं लेकिन उनको भी जो देखने वाला है उस साक्षीस्वरूप में मैं कैसे टिकूँ ? इससे भी आगे चलकर साक्षी और साक्ष्य के पार परमात्मपद में पूर्णता कैसे पाऊँ ?ʹ ऐसा विचार करने वाला व्यक्ति उस परम सुख को पाता है, तात्त्विक सुख को पाता है।

छः व्यक्तियों से हमें कभी हानि नहीं होती, लाभ ही लाभ होता हैः

सात्त्विक एवं बुद्धिमान मित्र, विद्वान पुत्र, पतिव्रता स्त्री, दयालु मालिक, सोच-समझकर बोलने वाला, सोच-समझकर काम करने वाला। इनसे कभी हानि नहीं होती है।

श्रीकृष्ण अथवा श्रीकृष्णतत्त्व को पाये हुए महापुरुषों को हम ʹसाधुʹ कहते हैं। गुरुवाणी में आता हैः

साधु ते होवहि न कारज हानि।

ब्रह्मज्ञानी ते कछु बुरा न भया।।

जिन्होंने तात्त्विक सुख पा लिया है, परम सुख पा लिया है, आत्मा का सुख पा लिया है उनसे कभी हमारा बुरा नहीं होता है। ऐसे तत्त्ववेत्ता होने के लिए जो दीवाने चल पड़ते हैं, उनकी ही बात भगवान यहाँ कर रहे हैः मच्चिता मद् गतप्राणाः।

परमेश्वर की ही बातों के परस्पर कथन से ज्ञान पुष्ट होता है, तात्त्विक सुख दृढ़ होता है। जिज्ञासु द्वारा ईश्वर विषयक ज्ञान सुनने से जिज्ञासा की पूर्ति तो होती है, आत्मज्ञान सुनकर कुछ संतोष तो होता है किन्तु उससे सब दुःख नहीं मिटते। सत्संग से कुछ दुःखों की निवृति अवश्य होती है किन्तु बाकी के दुःख मिटाने के लिए उस सत्संग से जो ज्ञान मिला, उस ज्ञान का परस्पर कथन करके उस ज्ञान में टिकने का प्रयास करना चाहिए।

जब तक गुरु का ज्ञान नहीं मिला था, गुरूदीक्षा नहीं मिली थी तब तक संसार की छोटी-छोटी बातें भी बड़ा प्रभाव डालती थीं लेकिन गुरुदीक्षा मिलने के बाद, सत्संग सुनने के बाद उनका पहले जैसा प्रभाव तो नहीं पड़ता किन्तु दुःख बना रहता है, विक्षेप बना रहता है। निगुरे को ज्यादा तो सगुरे को कम। ….और यह विक्षेप तब तक बना रहता है जब तक आत्मनिष्ठा दृढ़ नहीं हुई। इसलिए निष्ठा को दृढ़ करने के लिए भी आत्मा की बातें, सत्संग की बातें करनी चाहिए और उसी में संतुष्ट होना चाहिए। इधर उधर की बातें करके अपने चित्त से सत्संग की बातों का प्रभाव घटने नहीं देना चाहिए अपितु सत्संग की बातों से इधर-उधर की बातों के प्रभाव को हटा देना चाहिए।

अगर चारों तरफ से मुसीबतें आ जायें, चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा दिखने लगे, तब भी यह चिंतन करना चाहिए किः ʹदुःख आये हैं तो जाएँगे, सदा नहीं रहेंगे। जब सृष्टि पहले नहीं थी, बाद में भी नहीं रहेगी और अभी भी ʹनहींʹ की ओर ही जा रही है तो दुःख भी पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा और अभी भी ʹनहींʹ की ओर ही जा रही है तो दुःख भी पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा और अभी भी नहीं की ओर ही जा रहा है। परमात्मा  तो पहले भी था, अब भी है और बाद में भी रहेगा। वही परमात्मा मेरा आत्मा है, वही श्रीराम है, वही यशोदानन्दन श्रीकृष्ण है और वही गुरु है।ʹ ऐसा चिंतन करके दुःख के बीच भी आप दो मिनट के लिए पूरे सुख में आ सकते हैं।

बाहर से तो दुःख, दुःख ही दिखता है लेकिन दुःख दिखता है दुःखाकार वृत्ति से। उस दुःखाकार वृत्ति को यदि दो मिनट के लिए भी भगवदाकार वृत्ति बना दें तो आप दो मिनट के लिए निर्दुःख हो सकते हैं तो दस मिनट भी हो सकते हैं। हृदय में जब दुःखाकार वृत्ति होती है तब दुःख होता है। अनुकूलवेदनीयं सुखं प्रतिकूलवेदनीयं दुःखं। जो अनुकूल लगता है उसे हम सुख मानते हैं और प्रतिकूल लगता है उसे दुःख मानते हैं। जैसे बेटे की शादी में माँ को गालियाँ मिलती हैं तो उसे दुःख नहीं होता है। दुश्मन का आशीर्वाद भी खटकता है और सज्जन की गाली भी अच्छी लगती है। गाली तो गाली होती है लेकिन वहाँ दुःखाकार वृत्ति उत्पन्न नहीं होती वरन् ʹमित्र की गाली हैʹ ऐसा सोचकर सुखाकार वृत्ति बनने के कारण सुख होता है।

धन चले जाने से सबको दुःख होता है लेकिन वही धन जब सत्कर्म में लगाते हैं तो अंदर से औदार्य की वृत्ति उत्पन्न होती है। अतः धन देते समय भी सुख होता है। नहीं तो धन देना अच्छा लगता है क्या ? कुछ भी न मिले और धन देना पड़े तो…..? फिर भी सत्कर्म में धन देने पर सुख होता है क्योंकि वहाँ धन का महत्त्व नहीं है वरन् आपकी वृत्ति सुखाकार होती है इसीलिए आप मठ-मंदिर, आश्रम आदि में धन अर्पण करते हो। वही पचास रूपये हैं – यदि सत्कर्म में लगाते हो तो सुख होता है और दण्ड के रूप में भरना पड़े तो दुःख होता है।

मदालसा जब अपने बेटों को दूध पिलाती, तब ब्रह्मज्ञान की बातें करती थी। मच्चित्ता मद् गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्। मानो, गीता का यह वचन चरिथार्थ कर रही हो। इस प्रकार शैशव से ही भगवदभाव के विचारों से ओतप्रोत बातें करके उसने अपने बच्चों को ब्रह्मज्ञानी बना दिया।

बाल्यकाल में ही एक के बाद एक बालक ब्रह्मज्ञानी होकर विरक्त होने लगा। तब मदालसा के पति ने कहाः “यदि सभी बच्चों को तुम इस प्रकार विरक्त बना दोगी तो मेरी गादी कौन संभालेगा ? राजगादी संभालने के लिए कुछ तो आसक्ति चाहिए, कुछ तो अज्ञान चाहिए… तभी वह संभाली जा सकेगी। विरक्त क्या संभालेगा ? अतः एक बालक को तो अज्ञानी रखो।

अलर्क नामक छोटे बेटे को ब्रह्मज्ञान देने से राजा ने मदालसा को इन्कार कर दिया। मदालसा ने सोचा किः ʹचलो, भले यह अलर्क राज्य संभाले लेकिन मेरा बेटा राज्य करके अंत में मरे और फिर दुबारा जन्म ले तो मेरा जन्म देना व्यर्थ है।ʹ अतः उसे ब्रह्मज्ञान के थोड़े संस्कार तो दिये ही, जाते-जाते एक ताबीज भी दे गयी और बोलीः

“बेटा ! यह ताबीज कभी खोलना मत। जब चारों तरफ से अंधेरा नजर आने लगे, चारों ओर से मुसीबतों के पहाड़ टूटने लगें, तभी इस ताबीज को खोलना।”

समय पाकर मदालसा और उसके पति का देहान्त हो गया और अलर्क राज-काज संभालने लगा। ऐसा कोई राजा नहीं, जिसके जीवन में कभी कोई दुःख न आया हो। ज्यों ही राज्य को ʹमेराʹ माना, आसक्ति हुई त्यों ही दुःख आना शुरु हो जाता है। यह ईश्वर की नियति है।

जहाँ तुमने वस्तुओं में, व्यक्ति में, परिस्थिति में आसक्ति की कि ʹहाश ! अब मजे से जियेंगेʹ तभी कोई-न-कोई दुःख आना शुरु हो जायेगा क्योंकि परमात्मा तुम्हें सदैव इस मिथ्या मजे में ही नहीं रखना चाहते हैं। इसीलिए दुःखहारी श्रीहरि दुःख देकर भी तुम्हें परिपक्व करना चाहते हैं। यदि आप ʹवेलसेटʹ हो गये हो तो समझ लो कि ʹअपसेटʹ होने का सामान भी तैयार हो रहा है और यह कहानी केवल एक-दो की ही हो ऐसी बात नहीं है, सबकी यही कहानी है।

अलर्क भी राज-काज संभालते-संभालते उसमें ही गरकाव होने लगा तब उसके भाइयो को हुआ कि ʹहमारा भाई अज्ञानी क्यों रह जाए ? अब वह राज्य में आसक्त होता जा रहा है अतः उसकी आसक्ति छुड़ाने का उपाय भी करना होगा।ʹ

वे जीवन्मुक्त भाई गये अलर्क के पास और बोलेः “हमें हमारे राज्य का हिस्सा दे दो।”

अलर्कः “राज्य मुझे मिला है, आप लोगों को कैसे दे दूँ ?”

भाईः “हम तुम्हारे भाई लगते हैं, अपना हक क्यों छोड़ें ?”

जितना संसार से सुख मिलता है उतनी ही उससे आसक्ति भी होती है। अलर्क ने राज्य देने से इन्कार कर दिया। तब उसके भाइयों ने काशीनरेश से विचारविमर्श किया कि ʹहमें अपने भाई को जगाना है, उसे मुसीबत में डालकर सदा के लिए जन्म-मरणरूपी मुसीबत से छुटकारा दिलवाना है। अतः आप हमारी सहायता करें।ʹ काशीनरेश ने अपना सैन्य भेज दिया।

अलर्क का राज्य तो छोटा-सा था और काशीनरेश की विशाल सेना। अलर्क को हुआ कि ʹइतनी बड़ी सेना लेकर आये हुए अपने संत भाइयों से मैं कैसे लड़ूँगा ? वह बड़ा दुःखी और चिंतित हो उठा और ऐसी मुसीबत के समय में उसने माँ का दिया हुआ ताबीज खोला जिसमें एक छोटी चिट्ठी थी। उस चिट्ठी में लिखा थाः

दुःख पड़े तो संतशरण जाइये।

उस समय नगर के बाहर जोगी गोरखनाथ ठहरे हुए थे। अलर्क पहुँचा जोगी गोरखना के श्रीचरणों में और बोलाः “महाराज ! मैं बड़ा दुःखी हूँ।”

गोरखनाथः “तू मदालसा का बेटा होकर दुःखी है ? मैं अभी तेरा दुःख निकाल देता हूँ। बता, कहाँ है दुःख ?”

अलर्कः “महाराज ! हृदय में बड़ा दुःख है।”

जोगी गोरखनाथ ने तपाया चिमटा और बोलेः “बता, कहाँ है दुःख ? अभी उसे यह चिमटा लगाता हूँ।”

अलर्कः “महाराज ! आप चिमटा मेरे दुःख को कैसे लगाओगे ?”

गोरखनाथः “दुःख है कहाँ ?

अलर्कः “भीतर है।”

गोरखनाथः “चल, अभी लगाता हूँ।”

अलर्कः “महाराज ! यह क्या ? चिमटे से दुःख दूर कैसे होगा ?”

गोरखनाथः “तू केवल बता कि दुःख भीतर कहाँ पर है और कैसे है ? दुःख है कि दुःख का भाव है ?”

अलर्कः “महाराज ! भाई लोग काशीनरेश की सेना लेकर राज्य पर चढ़ाई करने आये हैं, इसलिए मन में दुःख का भाव है।”

गोरखनाथः “यह दुःख नहीं है, वरन् ʹयह राज्य जाये नहींʹ इस आसक्ति के कारण दुःखाकार वृत्ति है। इस दुःखाकार वृत्ति को तू बदलना चाहे तो बदल सकता है। यह केवल एक वृत्ति है और वृत्ति जहाँ से उत्पन्न होती है वह उत्पन्न करने वाला पूर्ण स्वतन्त्र है। उसे जान ले तो सब दुःखों से सदा के लिए मुक्त हो जायेगा।”

“महाराज ! उसे कैसे जानूँ ?”

“अलर्क ! संसार तू लाया नहीं था, राज्य तू लाया नहीं था, ले भी नहीं जायेगा और अभी भी नहीं के तरफ ही जा रहा है। उसमें आसक्ति मत कर।”

इस प्रकार परस्पर आत्मबोध की बात सुनते-सुनते अलर्क को अनुभव होने लगा।

मच्चित्ता मद् गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।

अलर्क को उस तात्त्विक सुख का अनुभव हुआ जो उसे राज्य-भोग में कभी नहीं मिला था। राज्य सुख तो क्रियाजन्य सुख था, कभी-कभार पूजा में भावजन्य सुख मिला था किन्तु यह सुख तात्त्विक सुख था। तात्त्विक सुख ही सब सुखों का मूल है।

कृतकृत्य होकर अलर्क ने गुरु गोरखनाथ के चरणों में प्रणाम करके विदा माँगी और राज्य में जाकर अपने भाइयों को संदेश भिजवायाः “आज तक मैंने यह राज्यरूपी बैलगाड़ी खूब खींची। आप लोग मेरे बड़े भाई हैं अतः इस झंझट को अब आप ही संभाल लें। अब मैं राज्य से निवृत्त हो जाना चाहता हूँ।”

तब भाइयों ने कहाः “पागल ! इस झंझट को झंझट समझकर निवृत्ति का सुख तुझे मिल जाये इसीलिए हमने यह आयोजन किया था। बस, अब तू ही इसे संभाल। हमें इसकी जरूरत नहीं है। राज्य के प्रति तेरी आसक्ति एवं तेरी नासमझी को मिटाने के लिए ही हमने यह सारा स्वांग रचा था।”

ऐसे ही परमात्मा तुम्हारे साथ स्वाँग रचता है। परमात्मा परम सुहृद है। वह जो भी करता है हमारे मंगल के लिए ही करता है। हम हार न जाएँ, घबरा न जाएँ, थक न जायें और तुच्छ सुख-दुःख में बह न जाएँ – केवल इतनी ही सावधानी रखें और यह सावधानी तब आयेगी जब भगवान के प्यारों के बीच जायेंगे, उनसे भगवदसंबंधी वार्तालाप सुनेंगे, भगवदविचार का मनन-चिंतन करेंगे एवं बार-बार भगवदाकार वृत्ति उत्पन्न करेंगे…. ऐसा करने से उन परम सुहृद परमात्मा में रमण करने की योग्यता अपने आप विकसित हो उठेगी। इसलिए भगवान ने कहा हैः मच्चित्ता मद् गतप्राणा….

ʹनिरन्तर मुझमें मन लगाने वाले और मुझमें ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन, सदा ही मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा, आपस में मेरे प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरंतर रमण करते हैं।ʹ

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 1997, पृष्ठ संख्या 2,3,4,5,6 अंक 51

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

श्रद्धा सब धर्मों में जरूरी


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

ʹनारद पुराणʹ में आता है कि श्रद्धा से ही भगवान संतुष्ट होते हैं।

श्रद्धापूर्णाः सर्वधर्मा मनोरथफलप्रदाः।

श्रद्धया साध्यते सर्वं श्रद्धया तुष्यते हरिः।।

ʹनारद ! श्रद्धापूर्वक आचरण में लाये हुए ही सब धर्म मनोवांछित फल देने वाले होते हैं। श्रद्धा से ही सब कुछ सिद्ध होता है और श्रद्धा से भगवान श्रीहरि संतुष्ट होते हैं।ʹ

नेता को भी ʹमैं जीत जाऊँगा…ʹ यह श्रद्धा होती है तभी वह चुनाव में तत्पर होता है और सफल होता है। दुकानदार को भी श्रद्धा होती है कि ʹदुकान चलाने में लाभ होगा…. धंधा चलेगा…..ʹ भी वह पगड़ी देकर दुकान खरीदता है और सफल होता है। विद्यार्थी को भी श्रद्धा होती है कि ʹमैं पढ़ूँगा और पास होऊँगा….।ʹ हालाँकि सब विद्यार्थी पास नहीं होते हैं – 100 प्रतिशत विद्यार्थी पास नहीं होते हैं। कहीं 70 तो कहीं 80 प्रतिशत पास होते हैं तो 20 या 30 प्रतिशत फेल भी होते हैं। अगर हजार विद्यार्थी परीक्षा में बैठें तो आठसौ पास होंगे लेकिन अगर आठसौ बैठें तो आठसौ पास नहीं होंगे। किन्तु हजार के हजार विद्यार्थी सोचते हैं कि ʹहम तो पास हो जायेंगेʹ तभी 700-800 पास हो पायेंगे।

परीक्षा में भी जो फेल होते हैं उन्हें कुछ  तो ज्ञान मिलता ही है। ऐसे ही जो श्रद्धा से ईश्वर के रास्ते पर चल पड़ता है उसे पूर्णता की प्राप्ति होती है किन्तु कभी-कभार अगर इस जन्म में न भी हुई फिर भी उस साधक की साधना व्यर्थ नहीं जाती। स्वर्ग या ब्रह्मलोक का सुख-वैभव  उसे मुफ्त में मिल ही जाता है और वह उस सुख का उपभोग करके पुनः किसी श्रीमान के घर, किसी योगी के घर जन्म लेता है। बचपन से ही भोग-सामग्री के बीच होते हुए भी, पूर्वकाल की श्रद्धा के बल से किया हुआ भजन, दान-पुण्य एवं सत्कर्म उसके हृदय को उठाता जाता है और वह परम पद की, पूर्णता की प्राप्ति कर लेता है।

जिसके जीवन में श्रद्धा नहीं है, उसका जीवन रसहीन हो जायेगा। फिर वह इन्जेक्शनों एवं गोलियों से तन्दुरुस्ती माँगता फिरेगा, डिस्को और वाइन, सिगरेट, पान-मसाले (गुटखा) से प्रसन्नता माँगता फिरेगा और इधर-उधर के छोटे-मोटे अखबारों, नॉवेल-उपन्यास आदि में ज्ञान खोजता फिरेगा लेकिन जिसके जीवन में श्रद्धा है उसके अंतर में आत्मज्ञान प्रगटेगा, उसकी अंतरात्मा से आत्मसुख प्रगटेगा, उसकी अंतरात्मा से आरोग्यता के कण प्रगटेंगे और देर-सबेर अंतरात्मा की यात्रा करके वह परमात्म पथ की यात्रा में भी सफल हो जायेगा।

जिसके जीवन में श्रद्धा नहीं होती वह तत्पर नहीं होगा, संयमी भी नहीं होगा, स्नेहवान भी नहीं होगा। जिसके जीवन में श्रद्धा है उसके जीवन में तत्परता होगी, संयम होगा, रस होगा। जो लोग श्रद्धावान का मजाक उड़ाते हैं, उनके लिए आचार्य विनोबा भावे कहते हैं “श्रद्धावान को अंधश्रद्धालु कहना यह भी  अंधश्रद्धा है।”

अपने बाप पर भी तो श्रद्धा रखनी पड़ती है। जो श्रद्धावान का मजाक उड़ाते हैं वे भी तो श्रद्धावान हैं। ʹयह मेरा बाप…. यह मेरी जाति….ʹ यह श्रद्धा से ही तो मानते हैं। पायलट पर, बसड्राईवर पर भी तो श्रद्धा रखनी पड़ती है। हालाँकि कई बार दुर्घटना भी हो जाती है।

यहाँ भगवान कहते हैं- श्रद्धापूर्णाः सर्वधर्मा… सब धर्मों को श्रद्धा पूर्ण करती है, चाहे स्त्रीधर्म हो – जो स्त्री, पुरुष में साक्षात नारायण का वास समझकर उसकी सेवा करती है, अपनी इच्छा-वासनाओं को महत्त्व न देते हुए पति के संतोष में अपना संतोष मान लेती है, उस स्त्री के पातिव्रत्य धर्म में इतना सामर्थ्य आ जाता है जितना उसके पति में भी शायद न हो और यह सामर्थ्य आता है उसकी श्रद्धा से। विद्यार्थी का धर्म भी श्रद्धा से संपन्न होता है और चिकित्सक आदि का धर्म भी श्रद्धा से संपन्न होता है। यदि नकारात्मक विचार रखकर चिकित्सक इलाज करे या मरीज करवाये तो दोनों को हानि होगी। अतः श्रद्धा, तत्परता सब धर्मों में चाहिए, सब कर्मों में चाहिए।

श्रद्धापूर्णाः सर्वधर्मा मनोरथफलप्रदाः।

श्रद्धया साध्यते सर्वं श्रद्धया तुष्यते हरिः।।

ʹनारद ! श्रद्धापूर्वक आचरण में लाये हुए ही सब धर्म मनोवांछित फल देने वाले होते हैं। श्रद्धा से सब कुछ सिद्ध होता है और श्रद्धा से ही भगवान श्रीहरि संतुष्ट होते हैं।ʹ

श्रद्धा से साधक में तत्परता आती है, श्रद्धा से ही मन-इन्द्रियों पर संयम किया जाता है और श्रद्धा से ही परमात्मस्वरूप की प्राप्ति होती है। श्रद्धा से उत्तम गुण उत्पन्न होते हैं और श्रद्धा से ही उत्तम रस की प्राप्ति होती है।

राजा द्रुपद ने संतान-प्राप्ति के लिए श्रद्धा से भगवान शिव की आराधना की। शिव की आराधना का फल हुआ कि राजा द्रुपद को संतान तो प्राप्त हुई किन्त कन्या के रूप में।

तब राजा द्रुपद ने पुनः आराधना की जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रगट हुए। तब राजा ने प्रार्थना कीः “भगवन्, ! मैंने तो संतान अर्थात् पुत्र की प्राप्ति के लिए आराधना की थी लेकिन यह तो कन्या है।”

शिवजीः “हमारी दी हुई वस्तु को तुम प्रसाद समझकर स्वीकार करो। यह दिखती तो कन्या है लेकिन तुम इसे पुत्र ही समझो।”

राजा द्रुपद ने भगवान के वचनों पर श्रद्धा की। उस कन्या का कन्यापरक नाम नहीं रखा परंतु पुत्रपरक नाम-शिखण्डी रखा। उसके संस्कार भी पुत्र के अऩुसार एत। जब वह युवती हुई तब उसे युवक मानकर किसी कन्या से उसकी शादी करवा दी। श्रद्धा के बल से वह कन्या पुत्र के रूप में बदल गयी, शिखण्डी पुरुष हो गया। आज भी कभी-कभी आप सुनते हैं कि लड़की में से लड़का हो गया।

यह सब परिणाम है दृढ़ श्रद्धा का। दृढ़ श्रद्धा असंभव को भी संभव करने में सक्षम है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 1997, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 51

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

शरीर स्वास्थ्य


दही

दही की प्रकृति (तासीर) गर्म होती है। इसमें प्रोटीन की मात्रा अधिक होती है। दही जमने की प्रक्रिया में ʹबीʹ विटामिन विशेषकर थायमिन, रिबोफ्लेबीन और निकोटेमाइड की मात्रा दुगुनी हो जाती है। विशेषतः दूध की अपेक्षा दही सरलता से पच जाता है।

उच्च रक्तदाब, मोटापा तथा गुर्दे (किडनी) की बीमारियों में दही अत्यधिक लाभप्रद बताया गया है।

अमेरिका के प्रो. जार्ज शीमान के अनुसार दही हृदयरोग की रोक-थाम के लिए उत्तम वस्तु है।

कोलेस्ट्रॉल नामक हानिकारक पदार्थ रक्तवाहिनियों में जमकर रक्त के प्रवाह को रोकता है। परिणामतः हृदय रोगों की उत्पत्ति होती है। दही कोलेस्ट्रॉल की अधिक मात्रा को नियंत्रित करता है।

विभिन्न रोगों में उपचार

केन्सरः करनाल, 24 जुलाई 1973 में राष्ट्रीय डेयरी संस्थान के वैज्ञानिकों ने काफी परीक्षणों के बाद बताया कि दही कई प्रकार के केंसर की संभावना को समाप्त करता है। दही का सेवन स्वास्थ्य के लिए उपयोगी है।

वैज्ञानिकों के अनुसार दहीसेवन के एक घंटे के अंदर ही उसके लगभग 80 प्रतिशत अंश को शरीर आत्मसात कर लेता है जबकि दूध का सिर्फ 32 प्रतिशत अंश ही शरीर आत्मसात कर पाता है। दही से शरीर की फालतू चर्बी कम होती है अतः मोटापा कम करने के लिए भी दही या मट्ठे का सेवन लाभदायक है।

बाल गिरनाः आवश्यकता से अधिक भावनात्मक दबाव के कारण बाल अधिक गिरते हैं। महिलाओं में एस्ट्रोजन हारमोन की कमी के कारण बाल अधिक गिरते हैं। भोजन में लौह तत्त्व व आयोडीन की कमी से भी बाल असमय गिरते हैं।

दही में वे सभी तत्त्व होते हैं जिनकी बालों को आवश्यकता रहती है।

एक कप दही में पिसी हुई 8-10 काली मिर्च मिलाकर सिर धोने से सफाई अच्छी होती है। बाल मुलायम व काले रहते हैं एवं गिरना बन्द हो जाते हैं। कम से कम सप्ताह में एक बार इसी तरह बाल धोयें।

अपचः सेंका व पिसा हुआ जीरा, काली मिर्च व सेंधा नमक दही में डालकर नित्य खाने से अपच ठीक हो जाता है। भोजन शीघ्र पचता है।

सिरदर्द (आधे सिर में)

दही, चावल व मिश्री मिलाकर सूर्य़ोदय से पहले खाने से  सूर्योदय के साथ बढ़ने घटने वाला सिरदर्द ठीक हो जाता है। यह प्रयोग कम से कम छः दिन करें।

आँतें- वैज्ञानिकों के अऩुसार एऩ्टीबायटिक्स देने के पश्चात आँतों के बेक्टीरियल फ्लोरा पर पड़े कुप्रभाव को दही के सेवन से हटाया जा सकता है।

भाँग के नशे में- ताजा दही खिलाने से भाँग का नशा उतर जाता है।

गंजापनः प्याज का रस सिर में लगायें। एक घंटे बाद खट्टा दही लगायें। पाँच-दस मिनट बाद सिर धो लें। इस प्रयोग से गंजे को भी बाल होने लगेंगे।

विशेषः दही में मिश्री या शहद डालकर खाने से इसके गुणों में वृद्धि होती है।

सावधानीः दमा, श्वास, खांसी, कफ, शोथ, पित्त, ज्वर में दही का सेवन हानिप्रद है।

ईख (गन्ना)

आजकल अधिकांशतः लोग मशीन, ज्यूसर आदि से निकाला हुआ रस पीते हैं। ʹसुश्रुत संहिताʹ के अनुसार यंत्र (मशीन, ज्यूसर आदि) से निकाला हुआ रस भारी, दाहकारी, कब्जकारक होने के साथ ही संक्रामक कीटाणुओं से युक्त भी हो सकता है।

अविदाही कफकरो वातपित्त निवारणः।

वक्त्र प्रहलादनो वृष्यो दन्तनिष्पीडितो रसः।।

ʹसुश्रुत संहिताʹ के अनुसार दाँतों से चबाकर रस चूसने पर गन्ना दाहकारी नहीं होता और इससे दाँत मजबूत होते हैं। अतः गन्ना चूसकर खाना चाहिए।

ʹभावप्रकाश निघण्टुʹ के अनुसार गन्ना रक्तपित्त नामक व्याधि को नष्ट करने वाला, बलवर्धक, वीर्यवर्धक, कफकारक, पाक तथा रस में मधुर, स्निग्ध, भारी मूत्रवर्धक व शीतल होता है। ये सब पके हुए गन्ने के गुण हैं।

उपयोगः गन्ना नित्य प्रायः चूसते रहने से पथरी टुकड़े-टुकड़े होकर निकल जाती है।

पित्त की उल्टी होने पर एक गिलास गन्ने के रस में दो चम्मच शहद मिलाकर पिलाने से लाभ होता है।

एक कप गन्ने के रस में आधा कप अनार का रस मिलाकर सुबह-शाम पिलाने से रक्तातिसार मिटता है।

विशेषः लिवर की कमजोरी वाले, हिचकी, रक्तविकार, नेत्ररोग,  पीलिया, पित्तप्रकोप व जलीय अंश की कमी के रोगी को गन्ना चूसकर ही सेवन करना चाहिए। इसके नियमित सेवन से दुबलापन दूर होता है और पेट की गर्मी पर हृदय की जलन दूर होती है। शरीर में थकावट दूर होकर तरावट आती है। पेशाब की रूकावट में जलन भी दूर होती है।

निषेधः मधुमेह (डायबिटीज), पाचनशक्ति की मंदता, कफ व कृमि के रोगवालों को गन्ने के रस का सेवन नहीं करना चाहिए। कमजोर मसूढ़े वाले, पायरिया व दाँतों के रोगियों को गन्ना चूसकर नहीं करना चाहिए। मुख्य बातः बाजारू मशीनों द्वारा निकाले गये रस से (यदि शुद्धतापूर्वक नहीं निकाला गया है तो) संक्रामक रोग होने की संभावना रहती है। अतः गन्ने का रस निकलवाते समय शुद्धता का विशेष ध्य़ान रखें।

पायरिया

दाँतों का एक बहुत ही प्रचलित रोग है पायरिया ! यह रोग आज की सभ्यता की देन है। डब्बों में बंद खाद्य पदार्थ, शक्कर, मैदा, पालिश वाले चावलों की ओर ज्यों-ज्यों हमारा आकर्षण बढ़ रहा है त्यों-त्यों इस रोग से आक्रांत लोगों की भी संख्या बढ़ती जा रही है।

निवारणः भोजन में क्षार की मात्रा भी होनी चाहिए जो कि चोकरदार आटा, दूध, ताजे पके पल व हरी कच्ची तरकारियों में अधिक मात्रा में होता है। यदि इसका ध्यान रखा जाये तो यह रोग कभी भी होगा नहीं।

कैल्शियम की कमीः अक्सर लोग कहा करते हैं कि चीनी खाने से दाँत खराब होते हैं। यह काफी अंशों में सही बात है। गन्ने के रस से जब चीनी बनती है, तो उसमें कैल्शियम (चूने) का अंश नहीं रह जाता और चीनी कैल्शियम के साथ बिना पचती नहीं। अतः चीनी के पाचन के लिए कैल्शियम हड्डियों से खिंचकर आता है। फलतः हड्डियाँ कमजोर हो जाती है। प्रभाव तो इसका शरीर के अऩ्दर हड्डियों के सारे ढाँचे पर पड़ता है किन्तु दाँत बाहर होने के कारण उसका प्रभाव उऩ पर प्रत्यक्ष दिखायी देता है। अतः दाँत के रोग समाप्त करने हैं तो भोजन में कैल्शियम की समुचित मात्रा होनी चाहिए जो कि हरी तरकारियों जैसे की फूलगोभी, टमाटर, लौकी, गाजर, खीरा, पालक, नारंगी, तिल व दूध में अधिक मात्रा में पाया जाता है।

दाँतों की कसरतः और अँगों की तरह दाँतों की कसरत भी आवश्यक है जो कि हलवा पूरी खाने से नहीं, अपितु कच्ची तरकारियाँ खाने से अथवा दोपहर शाम मुट्ठीभर भिगोये हुए गेहूँ चबा लिया जाये तो दाँतों की पूरी कसरत हो जाये। अंकुरित गेहूँ और भी लाभप्रद हैं। अंकुरित गेहूँ में विटामिन ई भी पैदा हो जाता है कि बाँझपन, नपुँसकता, गर्भपात हो जाना, जख्म जल्दी न भरना आदि रोगों में बहुत ही लाभप्रद है। यह प्रयोग कब्ज का भी नाश करता है।

दाँतों की बीमारी के साथ-साथ जिन्हें मसूढ़ों में भी तकलीफ रहती है वे विटामिन सी प्रधान संतरा, नींबू, टमाटर, पत्तागोभी, अनानास, अंगूर आदि का भी सेवन करें।

दाँत के लिए विशेष प्रयोग

जिनका रोग बढ़ गया है उन्हें अपने मसूढ़ों पर नित्य कुछ दिन दस-पन्द्रह मिनट तक भाप लगानी चाहिए। एक लोटे में थोड़ा पानी डालकर आग पर चढ़ा दीजिये। भाप निकलने लगे तो लोटे के मुँह पर एक चिल्म उल्टी रख दीजिये। चिलम की नली से भाप निकलने पर इच्छित स्थान पर आप भाप ले सकते हैं। भाप लेने के बीच दो-तीन बार ताजा जल से एक दो कुल्ला करें। यदि चेहरे पर भाप लगे तो चिन्ता की कोई बात नहीं है।

सुबह उठते समय व रात को सोने से पहले दाँत अवश्य साफ करें।

बाजारू दवाएँ लगाकर दाँतों को निकम्मा न बनायें अपितु सेंधा नमक मिला सरसों का तेल अथवा नींबू का रस लगाना काफी होगा।

भोजन के बाद मूली, गाजर, ककड़ी, सेव, अमरूद जैसी कोई कड़ी चीज का अवश्य सेवन करें। फल व तरकारियों का क्षार दाँतों को साफ करता है। इनका कोई अंश दाँतों में रह भी जाये तो इतना जल्दी नहीं सड़ता, जितना जल्दी पकी चीज का अंश सड़ता है। इस तरह यह प्रयोग करने से पायरिया की बीमारी तो समाप्त होगी ही, साथ ही दाँतों की पीड़ा, दाँतों का हिलना, मसूढ़ों की खराबी आदि भी समाप्त हो जायेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 1997, पृष्ठ संख्या 28,29,30 अंक 51

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ