कर खिजमत फकीरों की….

कर खिजमत फकीरों की….


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

दो राजकुमार थे। बड़ा भाई राज्य के मोह में पड़ गया लेकिन छोटा भाई सच्ची आजादी पाने के लिए  सच्चे सदगुरु की खोज में निकल गया और उसने खोजते-खोजते ऐसे सत्यस्वरूप का साक्षात्कार किये हुए सच्चे सदगुरु को पा भी लिया। नानक और कबीर जैसे महापुरुष को पाकर, उनके बताये मार्ग अनुसार साधना करके उसने अपने शुद्ध बुद्ध स्वरूप का ज्ञान पा लिया। फिर वह घूमते घामते अपने भाई के नगर में पहुँचा और नगर के बाहर नदी के किनारे अपनी झोंपड़ी बाँधकर रहने लगा। उसका जगमगाता आनंद, हारे-थके को सांत्वना देने का स्वभाव, भगवद् प्रेम में पावन करने वाली उसकी शैली, दिल में मनुष्यमात्र के उद्धार का पवित्र भाव, परिस्थितियों में सम रहने की उसकी समर्थ मति, उस बहादुर को, संत बने भाई को अब छुपा कैसे रहने देती ?

सच्चा बहादुर वह नहीं जो किसी को पछाड़ देता है। सच्चा बहादुर तो वही है जिसने भीतर के विकारों पर विजय पाकर अपने निर्विकारी नारायणस्वरूप का साक्षात्कार किया है। उस ब्रह्म-परमात्मा को अपना स्वरूप जानने वाला सचमुच में बहादुर है, महावीर है। जैसे नानकजी महावीर हैं, महान् वीर हैं। बड़े-बड़े वीर भी जिनके चरणों में शीश झुकाकर अपना भाग्य बना लें, ब्रह्मज्ञानी ऐसे महान वीर होते हैं। वह महावीर भी प्रजा का प्रेमपात्र बन गया।

आत्मा में रमण करने वाले संत किसी मत, पंथ, मजहब का पोषण या विरोध नहीं करते वरन् वे  मानव के अंदर छुपे हुए रब को, आनंद को और माधुर्य को जगाने की कला जानते हैं।

मुझे वेद, पुराण, कुरान से क्या ?

मुझे प्रेम का पाठ पढ़ा दे कोई।।

मुझे मंदिर मस्जिद जाना नहीं।

मुझे दिल के मंदिर में पहुँचा दे कोई।।

जहाँ ऊँच और नीच का भेद नहीं।

जहाँ जात और पाँत की बात नहीं।।

न हो मंदिर, मस्जिद, चर्च जहाँ।

न हो पूजा नमाज में फर्क जहाँ।।

बस प्रेम ही प्रेम की सृष्टि मिले।

अब नाव को ले चलो खेके वहाँ।।

ऐसे कुछ पवित्र जिज्ञासु उस फकीर के पास पहुँच जाते थे, जो भूतपूर्व युवराज था।

धीरे-धीरे राज-दरबार तक उस फकीर की प्रशंसा पहुँची। जासूसों ने जाँच करके राजा को खबर दीः “ये महाराज कोई और नहीं किंतु आपके ही सगे भाई हैं।” राजा के अहंकार को ठेस लगीः “मेरा भाई ! और झोंपड़े में रहे ? भिक्षा माँगकर खाये ?”

एक दिन राजा सुबह-सुबह छिपे वेश में आकर अपने भाई को समझाने लगाः “मैं इतनी आजाद जिंदगी जी रहा हूँ और एक तू है कि रोटी का टुकड़ा माँगने लगता है ? मैं महलों में रहता हूँ और तू झोंपड़े में गुजारा कर रहा है ? तू क्यों बर्बादी की आग में जल रहा है ? चल मेरे साथ। मैं तुझे मंत्रीपद दे दूँगा। मेरी आज्ञा में रहेगा  मैं तुझे खुश रखूँगा। देख ! मैं कितना आजाद हूँ। सब लोग मेरी बात मानते हैं।”

बुद्धिमान छोटे भाई ने कहाः “भैया ! अहंकार को पोसना आजादी नहीं है। कुर्सी को पाकर, गद्दी को पाकर अपने को बड़ा माना तो तुमने अपने असली बड़प्पन को दबा दिया। यह बड़प्पन तुम्हारा नहीं, कुर्सी का हुआ। यदि धन को पाकर अपने को बड़ा माना तो तुमने अपने बड़प्पन को दबाकर धन को बड़प्पन दिया। सत्ता, धन, रूप-लावण्य अथवा शरीर का बड़प्पन मानना यह तो असली बड़प्पन का घात करना है। तुमने इन चीजों को बड़ा कर दिया और अपने को दबा दिया, फिर अपने को आजाद मानते हो ?”

लेकिन राजगद्दी के नशे में चूर भाई ने कहाः “छोड़ ये बातें। आखिर तू मेरा छोटा भाई है।”

ऐसे ही मेरा भाई भी मुझे कहता था किः “सुधर जा। मैं तुझे हिस्सा देता हूँ। तू आराम से, मौज से रह। दो भाई तो हैं – एक ही पिता के दो बेटे हैं और तू एक कमरे में रात तो बारह-बारह बजे तक बैठा रहता है ! दुकान पर पैर नहीं रखता ! अब तो सुधर जा।” गुरु प्रसाद पाकर सात साल  तपस्या के बाद जब हम अहमदाबाद पहुँचे, तब भी भाई ने पहला वचन यही कहाः “सात साल तू चला गया, फिर भी जो कमाई हुई है उसका आधा हिस्सा मैं तेरे को देता हूँ। अभी भी तू सुधर जा। मेरे साथ चल दुकान पर।”

मैंने कहाः “हम तो बिगड़ गये।”

सुनो मेरे भाइयो ! सुनो मेरे मितवा !

कबीरो बिगड़ गयो रे…

दही संग दूध बिगड़यो, मक्खन रूप भयो रे….

पारस संग भाई ! लोहा बिगड़यो, कंचर रूप भयो रे…..

संतन संग दास कबीरो बिगड़यो

संत कबीर भयो रे, कबीरो बिगड़ गयो रे….

दुनियादार जिस भक्त को बिगड़ा समझते हैं, वास्तव में वह ऐहिक सृष्टि में तो बिगड़ा दिखता है परंतु यदि उसका दिव्य सृष्टि में प्रवेश हुआ है और वह दिव्य सृष्टि में भी न रुके तो उस ब्रह्म-परमात्मा में शांति पा लेता है। बुद्धिमत्ता यही है कि सच्ची आजादी पाये हुए ऐसे महापुरुषों की चरणरज सिर पर लगाकर अपना भाग्य बना लें। यही आजादी का सच्चा स्वरूप है। लेकिन वह राजा अपने राजसी नशे में था।

बड़े भाई ने छोटे भाई से कहाः “मैं इतना आजाद हूँ…. मेरी बात सब लोग मानते हैं और तू झोंपड़ी में जिंदगी बसर कर रहा है ! तू मेरी बात क्यों नहीं मानता है ?”

“सब तुम्हारी बात मानते हैं ?”

“हाँ, मानते हैं। मैं चाहे जो मँगा सकता हूँ। मेरी हुकूमत सब पर चलती है।”

उस वक्त छोटा भाई गुदड़ी सी रहा था। उसने सिलाई करते-करते सुई-धागा उठाकर नदीं में फेंक दिया और बोलाः “सब लोग तुम्हारी बात मानते हैं तो जरा सुई धागा नदी से निकलवा दो।”

राजाः “यह तो नहीं हो सकता।”

“जब तुम्हारे हुक्म से एक छोटी सी सुई भी नदीं में से नहीं निकल सकती तो तुम किस बात के सम्राट हो ? किस बात के राजा हो ?”

बड़े भाई ने कहाः “तो क्या तुम्हारी बात सब मानते हैं ?”

तब छोटे भाई ने योगशक्ति का उपयोग किया। थोड़ी ही देर में एक मछली मुँह में सुई-धागा लटकाते हुए वहाँ तैरने लगी। छोटे भाई ने धागा पकड़कर सुई दिखाई और बोलाः “देख, अब तू आजाद है कि मैं आजाद हूँ ? तू ही सोच। फिर भी तू अपने को आजाद समझता है और मुझे बर्बाद समझता है तो…..

तेरी आजादियाँ सदके सदके।

मेरी बर्बादियाँ सदके सदके।।

मैं बर्बादे तमन्ना हूँ।

मुझे बर्बाद रहने दो।।

मेरी वासनाएँ बर्बाद हो गयीं, मेरा अहंकार बर्बाद हो गया, मेरी चिंता बर्बाद हो गयी, मेरा बँधन बर्बाद हो गया। सचमुच में मेरी जो बर्बादी है उसे मैं प्यार करता हूँ और तेरी जो आजादी है, उसे मैं दुआ करता हूँ। तू वहाँ भला है और मुझे यहीं रहने दो, अपनी मौज में।”

जिसने तीन मिनट के लिए भी, एक बार अपने आत्मा-परमात्मा का सुख पा लिया, उसके आगे इन्द्रदेव तक हाथ जोड़कर अपना भाग्य बनाने को उत्सुक होते हैं तो एक सामान्य मछली की तो बात ही क्या है ? अगर पाना हो उस आत्मा-परमात्मा के सुख को तो पहुँच जाओ किसी ब्रह्मवेत्ता के द्वार पर… और उनके दैवी कार्य व सेवा-सत्संग से बना लो अपना भाग्य। किसी ने ठीक ही कहा हैः

अगर है शौक मिलने का,

 तो कर खिजमत फकीरों की।

यह जौहर नहीं मिलता,

अमीरों के खजाने में।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 1997, पृष्ठ संख्या 21,22,23 अंक 51

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