सेवा कर निर्बन्ध की…..

सेवा कर निर्बन्ध की…..


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

परब्रह्म परमात्मा को न जानना उसका नाम है अविद्या। उसे कारण शरीर भी कहते हैं। कारण शरीर से सूक्ष्म शरीर बनता है। सूक्ष्म शरीर की माँग होती है देखने की, सुनने की, चखने की। सूक्ष्म शरीर की इच्छा होती है तो फिर स्थूल शरीर धारण होता है। स्थूल शरीर के द्वारा जीव भोग की इच्छाओं को पूर्ण करना चाहता है। स्थूल शरीर से भोग भोगते-भोगते सूक्ष्म शरीर को लगता है कि इसी में सुख है और अपना जो सुखस्वरूप है उसे भूल जाता है। अविद्या के कारण ही व्यक्ति अपने असली स्वरूप को जान नहीं पाता है।

यह बहुत सूक्ष्म बात है। यह ब्रह्मविद्या है। इसको सुनने मात्र से जो पुण्य होता है, उसका बयान करने के लिए घंटों का समय चाहिए। इसे सुनकर थोड़ा-बहुत मनन करे उसका तो कल्याण होता ही है लेकिन मनन के पश्चात निदिध्यासन करके फिर उस परमात्मा में डूब जाये, परमात्मामय हो जाये तो उसके दर्शन मात्र से औरों का भी कल्याण हो जाता है। नानक जी कहते हैं-

ब्रह्मज्ञानी का दर्शन बड़भागी पावै।

भाग्यवान व्यक्ति ही ब्रह्मज्ञानी महापुरुष के दर्शन कर सकता है। अभागे को ब्रह्मज्ञानी के दर्शन भी नहीं होते हैं। थोड़े भाग्य होते हैं तो धन मिल जाता है। थोड़े ज्यादा भाग्यवान को सत्ता-पद-प्रतिष्ठा मिलती है लेकिन महाभाग्यवान को संत मिलते हैं। ʹसंतʹ का मतलब है जिनके जन्म-मरण का अंत हो गया है, जिनकी अविद्या का अंत हो गया है, जिनकी आत्मा-परमात्मा की दूरी का अंत हो गया है। ऐसे संतों के लिए तुलसी दास जी ने कहा हैः

पुण्य पुंज बिनु मिलहिं न संता।

जब व्यक्ति के पुण्यों का पुंज, पुण्यों का खजाना भर जाता है तब उसे संत मिलते हैं और जब संत मिलते हैं तब भगवान मिलते हैं। भगवान की कृपा से, पुण्यों के प्रभाव के कारण संत मिलते हैं और संतों की कृपा से भगवान मिलते हैं। जब दोनों की कृपा होती है तब आत्म-साक्षात्कार होता है।

ईश कृपा बिन गुरु नहीं, गुरु बिना नहीं ज्ञान।

ज्ञान बिना आत्मा नहीं, गावहिं वेद पुरान।।

ईश्वर की कृपा के बिना गुरु नहीं मिलते और गुरु की कृपा के बिना ज्ञान नहीं मिलता।

गुरु का मतलब यह नहीं कि थोड़ा त्राटक आदि कर लिया, थोड़ी बहु बोलने की कला सीख ली, थोड़े बहुत भजन-कीर्तन, किस्से-कहानियाँ, कथा-प्रसंगों से लोगों को प्रभावित कर दिया और बन गये गुरु।

गोपो वीज्जी टोपो घिस्की वेठो गादीय ते।

गोपा टोपा पहन कर गादी पर बैठ गया और गुरु बनकर कान में फूँक मार दिया, मंत्र दे दिया, माला पकड़ा दी। आज कल तो ऐसे गुरुओं का बाहुल्य है।

विवेकानंद कहते थेः “गुरु बनना माने शिष्यों के कर्मों के सिर पर लेना, शिष्यों की  जिम्मेदारी लेना। यह कोई बच्चों का खेल नहीं है। आजकल जो गुरु बनने के चक्कर में पड़ गये हैं वे लोग ऐसे हैं जैसे कंगला आदमी प्रत्येक  व्यक्ति को हजार सुवर्णमुद्रा दान करने का दावा करता है। ऐसे लेभागु गुरुओं के लिए कबीर जी ने कहा हैः

गुरु लोभी शिष्य लालची, दोनों खेले दाँव।

दोनों डूबे बाँवरे चढ़ी पत्थर की नाव।।

एक राजा था। उसका कुछ विवेक जगा था तो वह अपने कल्याण के लिए कथा-वार्ताएँ सुनता रहता था पर उसके गुरु ऐसे ही थे। राजा को उनकी कथाओं में कोई तसल्ली नहीं मिली, चित्त को शांति नहीं मिली।

आखिर वह राजा कबीर जी के पास आया। उसने कहाः “महाराज ! मैंने बहुत कथाएँ सुनी हैं लेकिन आज तक मेरे चित्त को चैन नहीं मिला है।”

कबीरजी ने कहाः “अच्छा ! मैं कल राज-दरबार में आऊँगा। तुम अठारह साल से कथा सुनते हो और शांति नहीं मिली ? कौन तुम्हें कथा सुनाते हैं वह मैं देखूँगा।”

दूसरे दिन कबीर जी राज-दरबार में गये। उन्होंने राजा से कहाः “जिनसे ज्ञान लेना होता है, जिनसे शांति की अपेक्षा रखते हो उनके कहने में चलना पड़ता है।”

राजा ने कहाः “महाराज ! मैं आपके चरणों का दास हूँ। आपके कहने में चलूँगा। आप मुझे शांतिदान दें।”

कबीर जी ने कहाः “मेरे कहने में चलते हो तो वजीरों से कह दो कि कबीर जी कहें वैसा ही करना।”

राजा ने वजीरों से कहाः “अब मैं राजा नहीं हूँ, ये कबीर जी महाराज ही राजा हैं। उन्हें सिंहासन पर बिठा दो।”

कबीर जी राजा के सिंहासन पर विराजमान हो गये। फिर कबीर जी ने कहाः “अच्छा, वजीरों को मैं हुक्म करता हूँ कि जो पंडित तुम्हें कथा सुनाते हैं, उनको एक खम्भे से बाँध दो।”

राजा ने कहाः “भाई ! उनको महाराज जी के आगे खम्भे के साथ बाँध दो।”

पंडित जी को एक खम्भे के साथ बाँध दिया गया। फिर कबीर जी ने कहाः “राजा को भी दूसरे खम्भे से बाँध दो।” वजीर थोड़ा हिचकिचाए किन्तु राजा का संकेत पाकर उन्हें भी बाँध दिया। इस तरह पंडित जी और राजा दोनों बँध गये। अब कबीर जी ने पंडित से कहाः “देखो पंडित जी ! राजा कई वर्षों से तुम्हारी सेवा करता है, तुम्हें प्रणाम करता है, तुम्हारा शिष्य है, वह बँधा हुआ है उसे छुड़ाओ।”

पंडित ने कहाः “मैं राजा को कैसे छुड़ाऊँ ? मैं खुद बँधा हुआ हूँ।”

तब कबीर जी ने कहाः

बन्धे को बन्धा मिले छूटे कौन उपाय।

सेवा कर निर्बन्ध की जो पल में देत छुड़ाय।।

जो खुद स्थूल शरीर में बँधा है, विचारों में बँधा है, कल्पनाओं में बँधा है ऐसे कथाकारों को, पंडितों को हजारों वर्ष सुनते रहो फिर भी कुछ काम नहीं होगा। उससे चित्त को शांति, चैन, आनंद, आत्मिक सुख नहीं मिलेगा।

सेवा कर निर्बन्ध की जो पल में देत छुड़ाय।

निर्बन्ध की सेवा से, निर्बन्ध की कृपा से अज्ञान मिटता है और आत्मज्ञान का प्रकाश मिलता है। सच्ची शांति और आत्मिक सुख का अनुभव होता है।

मनुष्य अविद्या के कारण किसी कल्पना में, किसी मान्यता में, किसी धारणा में बँधा हुआ होता है। पहले वह तमस में, आसुरी भाव में बँध जाता है। आसुरी भाव निकलता है तो राजस भाव में बँध जाता है। धन तो बैंक में होता है और मनुष्य मानता है ʹमैं धनवान।ʹ पुत्र तो कहीं घूम रहे हैं और मानता है ʹमैं पुत्रवान।ʹ फिर ʹमैं त्यागी…. मैं तपस्वी… मैं भोगी…. मैं रोगी… मैं सिंधी… मैं गुजराती…ʹ इससे मनुष्य बँध जाता है। उससे थोड़ा आगे निकलता है तो ʹमैं कुछ नहीं मानता… जात पाँत में नहीं मानता…. मैं किसी पंथ में नहीं मानता।ʹ इस तरह ʹन मानने वालेʹ में बँध जाता है।

ऐसा जीव न जाने किस गली से निकलकर किस गली में फँस जाता है ! किस भाव से छूटकर किस भाव में बँध जाता है ! लेकिन जब जीव को, मनुष्य को निर्बन्ध पुरुष, सदगुरु मिल जाते हैं तो वह उनकी कृपा से सब बँधनों से मुक्त हो जाता है, उसकी अविद्या दूर हो जाती है और वह ज्ञानस्वरूप परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जाता है। वह ब्रह्मवेत्ता हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 1997, पृष्ठ संख्या 15,16,23 अंक 51

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *