Monthly Archives: March 1997

सेवा कर निर्बन्ध की…..


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

परब्रह्म परमात्मा को न जानना उसका नाम है अविद्या। उसे कारण शरीर भी कहते हैं। कारण शरीर से सूक्ष्म शरीर बनता है। सूक्ष्म शरीर की माँग होती है देखने की, सुनने की, चखने की। सूक्ष्म शरीर की इच्छा होती है तो फिर स्थूल शरीर धारण होता है। स्थूल शरीर के द्वारा जीव भोग की इच्छाओं को पूर्ण करना चाहता है। स्थूल शरीर से भोग भोगते-भोगते सूक्ष्म शरीर को लगता है कि इसी में सुख है और अपना जो सुखस्वरूप है उसे भूल जाता है। अविद्या के कारण ही व्यक्ति अपने असली स्वरूप को जान नहीं पाता है।

यह बहुत सूक्ष्म बात है। यह ब्रह्मविद्या है। इसको सुनने मात्र से जो पुण्य होता है, उसका बयान करने के लिए घंटों का समय चाहिए। इसे सुनकर थोड़ा-बहुत मनन करे उसका तो कल्याण होता ही है लेकिन मनन के पश्चात निदिध्यासन करके फिर उस परमात्मा में डूब जाये, परमात्मामय हो जाये तो उसके दर्शन मात्र से औरों का भी कल्याण हो जाता है। नानक जी कहते हैं-

ब्रह्मज्ञानी का दर्शन बड़भागी पावै।

भाग्यवान व्यक्ति ही ब्रह्मज्ञानी महापुरुष के दर्शन कर सकता है। अभागे को ब्रह्मज्ञानी के दर्शन भी नहीं होते हैं। थोड़े भाग्य होते हैं तो धन मिल जाता है। थोड़े ज्यादा भाग्यवान को सत्ता-पद-प्रतिष्ठा मिलती है लेकिन महाभाग्यवान को संत मिलते हैं। ʹसंतʹ का मतलब है जिनके जन्म-मरण का अंत हो गया है, जिनकी अविद्या का अंत हो गया है, जिनकी आत्मा-परमात्मा की दूरी का अंत हो गया है। ऐसे संतों के लिए तुलसी दास जी ने कहा हैः

पुण्य पुंज बिनु मिलहिं न संता।

जब व्यक्ति के पुण्यों का पुंज, पुण्यों का खजाना भर जाता है तब उसे संत मिलते हैं और जब संत मिलते हैं तब भगवान मिलते हैं। भगवान की कृपा से, पुण्यों के प्रभाव के कारण संत मिलते हैं और संतों की कृपा से भगवान मिलते हैं। जब दोनों की कृपा होती है तब आत्म-साक्षात्कार होता है।

ईश कृपा बिन गुरु नहीं, गुरु बिना नहीं ज्ञान।

ज्ञान बिना आत्मा नहीं, गावहिं वेद पुरान।।

ईश्वर की कृपा के बिना गुरु नहीं मिलते और गुरु की कृपा के बिना ज्ञान नहीं मिलता।

गुरु का मतलब यह नहीं कि थोड़ा त्राटक आदि कर लिया, थोड़ी बहु बोलने की कला सीख ली, थोड़े बहुत भजन-कीर्तन, किस्से-कहानियाँ, कथा-प्रसंगों से लोगों को प्रभावित कर दिया और बन गये गुरु।

गोपो वीज्जी टोपो घिस्की वेठो गादीय ते।

गोपा टोपा पहन कर गादी पर बैठ गया और गुरु बनकर कान में फूँक मार दिया, मंत्र दे दिया, माला पकड़ा दी। आज कल तो ऐसे गुरुओं का बाहुल्य है।

विवेकानंद कहते थेः “गुरु बनना माने शिष्यों के कर्मों के सिर पर लेना, शिष्यों की  जिम्मेदारी लेना। यह कोई बच्चों का खेल नहीं है। आजकल जो गुरु बनने के चक्कर में पड़ गये हैं वे लोग ऐसे हैं जैसे कंगला आदमी प्रत्येक  व्यक्ति को हजार सुवर्णमुद्रा दान करने का दावा करता है। ऐसे लेभागु गुरुओं के लिए कबीर जी ने कहा हैः

गुरु लोभी शिष्य लालची, दोनों खेले दाँव।

दोनों डूबे बाँवरे चढ़ी पत्थर की नाव।।

एक राजा था। उसका कुछ विवेक जगा था तो वह अपने कल्याण के लिए कथा-वार्ताएँ सुनता रहता था पर उसके गुरु ऐसे ही थे। राजा को उनकी कथाओं में कोई तसल्ली नहीं मिली, चित्त को शांति नहीं मिली।

आखिर वह राजा कबीर जी के पास आया। उसने कहाः “महाराज ! मैंने बहुत कथाएँ सुनी हैं लेकिन आज तक मेरे चित्त को चैन नहीं मिला है।”

कबीरजी ने कहाः “अच्छा ! मैं कल राज-दरबार में आऊँगा। तुम अठारह साल से कथा सुनते हो और शांति नहीं मिली ? कौन तुम्हें कथा सुनाते हैं वह मैं देखूँगा।”

दूसरे दिन कबीर जी राज-दरबार में गये। उन्होंने राजा से कहाः “जिनसे ज्ञान लेना होता है, जिनसे शांति की अपेक्षा रखते हो उनके कहने में चलना पड़ता है।”

राजा ने कहाः “महाराज ! मैं आपके चरणों का दास हूँ। आपके कहने में चलूँगा। आप मुझे शांतिदान दें।”

कबीर जी ने कहाः “मेरे कहने में चलते हो तो वजीरों से कह दो कि कबीर जी कहें वैसा ही करना।”

राजा ने वजीरों से कहाः “अब मैं राजा नहीं हूँ, ये कबीर जी महाराज ही राजा हैं। उन्हें सिंहासन पर बिठा दो।”

कबीर जी राजा के सिंहासन पर विराजमान हो गये। फिर कबीर जी ने कहाः “अच्छा, वजीरों को मैं हुक्म करता हूँ कि जो पंडित तुम्हें कथा सुनाते हैं, उनको एक खम्भे से बाँध दो।”

राजा ने कहाः “भाई ! उनको महाराज जी के आगे खम्भे के साथ बाँध दो।”

पंडित जी को एक खम्भे के साथ बाँध दिया गया। फिर कबीर जी ने कहाः “राजा को भी दूसरे खम्भे से बाँध दो।” वजीर थोड़ा हिचकिचाए किन्तु राजा का संकेत पाकर उन्हें भी बाँध दिया। इस तरह पंडित जी और राजा दोनों बँध गये। अब कबीर जी ने पंडित से कहाः “देखो पंडित जी ! राजा कई वर्षों से तुम्हारी सेवा करता है, तुम्हें प्रणाम करता है, तुम्हारा शिष्य है, वह बँधा हुआ है उसे छुड़ाओ।”

पंडित ने कहाः “मैं राजा को कैसे छुड़ाऊँ ? मैं खुद बँधा हुआ हूँ।”

तब कबीर जी ने कहाः

बन्धे को बन्धा मिले छूटे कौन उपाय।

सेवा कर निर्बन्ध की जो पल में देत छुड़ाय।।

जो खुद स्थूल शरीर में बँधा है, विचारों में बँधा है, कल्पनाओं में बँधा है ऐसे कथाकारों को, पंडितों को हजारों वर्ष सुनते रहो फिर भी कुछ काम नहीं होगा। उससे चित्त को शांति, चैन, आनंद, आत्मिक सुख नहीं मिलेगा।

सेवा कर निर्बन्ध की जो पल में देत छुड़ाय।

निर्बन्ध की सेवा से, निर्बन्ध की कृपा से अज्ञान मिटता है और आत्मज्ञान का प्रकाश मिलता है। सच्ची शांति और आत्मिक सुख का अनुभव होता है।

मनुष्य अविद्या के कारण किसी कल्पना में, किसी मान्यता में, किसी धारणा में बँधा हुआ होता है। पहले वह तमस में, आसुरी भाव में बँध जाता है। आसुरी भाव निकलता है तो राजस भाव में बँध जाता है। धन तो बैंक में होता है और मनुष्य मानता है ʹमैं धनवान।ʹ पुत्र तो कहीं घूम रहे हैं और मानता है ʹमैं पुत्रवान।ʹ फिर ʹमैं त्यागी…. मैं तपस्वी… मैं भोगी…. मैं रोगी… मैं सिंधी… मैं गुजराती…ʹ इससे मनुष्य बँध जाता है। उससे थोड़ा आगे निकलता है तो ʹमैं कुछ नहीं मानता… जात पाँत में नहीं मानता…. मैं किसी पंथ में नहीं मानता।ʹ इस तरह ʹन मानने वालेʹ में बँध जाता है।

ऐसा जीव न जाने किस गली से निकलकर किस गली में फँस जाता है ! किस भाव से छूटकर किस भाव में बँध जाता है ! लेकिन जब जीव को, मनुष्य को निर्बन्ध पुरुष, सदगुरु मिल जाते हैं तो वह उनकी कृपा से सब बँधनों से मुक्त हो जाता है, उसकी अविद्या दूर हो जाती है और वह ज्ञानस्वरूप परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जाता है। वह ब्रह्मवेत्ता हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 1997, पृष्ठ संख्या 15,16,23 अंक 51

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नियम में निष्ठा


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो उन्नति कर सकता है। मगर सावधान नहीं रहा तो अवनत भी हो सकता है। या तो उसका उत्थान होता है या पतन होता है, वहीं का वहीं नहीं रहता। अगर मनुष्य उन्नति के कुछ नियम जान ले और निष्ठापूर्वक उसमें लगा रहे तो पतन से बच जायेगा और अपने कल्याण के मार्ग पर आगे बढ़ता जायेगा। आध्यात्मिक पतन न हो, इसलिए हर रोज कम-से-कम भगवन्नाम जप की दस माला करनी ही चाहिए।

दूसरी बात त्रिबन्ध प्राणायाम करने चाहिए। इससे माला में एकाग्रता बढ़ेगी और जप करने में भी आनंद आयेगा।

माला आसन पर बैठकर ही करनी चाहिए जिससे मंत्रजाप से उत्पन्न होने वाली विद्युतशक्ति जमीन में न चली जाये। अर्थिंग मिलने से तुम्हारी साधना का प्रभाव वहीं क्षीण हो जाता है।

यदि आसन पर बैठकर जप करते हो और अर्थिंग नहीं होने देते हो तो भजन के बल से एक आध्यात्मिक विद्युत के कण पैदा होते हैं जो तुम्हारे शरीर के वात, पित्त और कफ के दोषों को क्षीण करके स्वास्थ्य की रक्षा करते हैं। यही कारण है कि हमारे ऋषि मुनि प्रायः ज्यादा बीमार नहीं पड़ते थे।

नियम में अडिग रहने से अपना बल बढ़ता है जिससे हम अपने जीवन की बुरी आदतों को मिटा सकते हैं। जैसे, कइयों को आदत होती है ज्यादा बोलने की। उस बेचारे को पता ही नहीं होता है कि ज्यादा बोलने से उसकी कितनी शक्ति नष्ट होती है। वाणी का व्यय नहीं करना चाहिए। गुजराती में कहा गया है कि न बोलने में नौ गुण होते हैं। ʹन बोलवामां नव गुण।ʹ कम बोलने से या नहीं बोलने से ये लाभ हैं- झूठ बोलने से बचेंगे, निंदा करने से बचेंगे, राग-द्वेष से बचेंगे, ईर्ष्या से बचेंगे, क्रोध और अशांति से बचेंगे, कलह से बचेंगे और वाणीक्षय के दोष से बचेंगे। इस प्रकार छोटे-मोटे नौ लाभ होते हैं।

अधिक बोलने की आदत साधक को बहुत हानि पहुँचाती है। साधक से बड़े-में-बड़ी गलती यह होती है कि यदि कुछ शक्ति आ जाती है या कुछ अनुभव होते हैं तो उसका उपयोग करने लगता है, दूसरों को बता देता है। उससे वह  एकदम गिर जाता है। फिर वह अवस्था लाने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है। इसलिए साधकों को अपना अनुभव किसी को नहीं कहना चाहिए। अगर साधक किसी को ईश्वर की ओर मोड़ने में सहयोगी होता हो, अपने अनुभव से उसकी श्रद्धा में असर होता हो तो फिर थोड़ा-बहुत ऊपर-ऊपर से बता देना चाहिए किन्तु पूरा नहीं बताना चाहिए।

जिस तरह वाणी पर संयम लाया जा सकता है और बुरी आदतें भी मिटायी जा सकती हैं उसी तरह यदि ज्यादा खाने का, काम विकार का या शराब आदि का दोष है तो उसे भी दूर किया जा सकता है।

जब कामुकता जग रही हो तो उससे होने वाली हानियों पर नजर डालनी चाहिए व संयम से होने वाले लाभ पर दृष्टि डालनी चाहिए। मन को समझाना चाहिए किः ʹशरीर में है क्या ? दो आड़ी हड्डियाँ और दो खड़ी हड्डियाँ, मांस, मल-मूत्र, रक्त और ऊपर से चमड़े का कवर। फइर यह हाड़-मांस का शरीर उस परम सुंदर चैतन्य के कारण सुंदर लगता है। तू उसी चैतन्य से प्रेम कर, अपने आत्मा में आ। हे मेरे प्रभु ! अब मैं विकारों में नहीं गिरूँगा, काम में नहीं गिरूँगा वरन् मैं तो तेरे शुद्ध चैतन्यस्वरूप में, राम में रहूँगा….. ૐ…. ૐ…..ૐ…..

इस तरह एक सप्ताह तक का नियम ले लिया काम-विकार में न गिरने का और सप्ताह पूरा होने के पहले ही दूसरा सप्ताह बढ़ा दिया।

अपने मस्तिष्क में दिव्य विचार भरना और पोसना नितांत आवश्यक है। डण्डे के बल से या पुचकार से बन्दर, शेर आदि पशुओं को भी वश किया जा सकता है। इसी तरह अपने मन को कभी कठोर प्रतिज्ञा तो कभी पुचकार से वश में करने के संस्कार रोज डालते रहो।

लोभ के विचार आने पर विचारों किः ʹआखिर में कौन अपने साथ क्या ले गया ?ʹ

क्या करिये क्या जोड़िये थोड़े जीवन काज। छोड़ि छोड़ि सब जात है, देह गेह धन राज।।

जो लोभ के दलदल में फँसे, उन्होंने आनंद, शांति, माधुर्य खोया। अतः लोभ से बचने के लिए दान-पुण्य आदि सत्कर्म करो। औदार्य-सुख पाने में मन को लगाओ।

छोटी-छोटी बातों में भय सताता हो तो प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व उठकर शान्त मन से चिन्तन करो कि ʹनिर्भय नारायण मेरे साथ हैं। अब मैं जरा-जरा बात में भयभीत न होऊँगा। पाप से दुश्चारित्र्य से भय कर, लेकिन हे मेरे मन ! अच्छे रास्ते पर चलने में भय किस बात का ? ૐ….. ૐ…… ૐ…. मैं निर्भय हूँ। ૐ……ૐ……ૐ….. मैं निर्भय नारायण का अंग हूँ।ʹ ये विचार बार-बार मन में भरो।

ʹचटोरेपन, स्वादलोलुपता की आदत अकारण रोग लाती है, स्वास्थ्य बिगाड़ती है और आयुष्य क्षीण करती है। जो जिह्वा एक दिन जल जाने वाली है, उसके पीछे में अपना जीवन क्यों नष्ट करूँ ? अब मैं स्वादलोलुपता से बचूँगा। अब मैं कम नमक-मिर्च-मसालेवाला सादा सात्त्विक भोजन ही करूँगा। स्वस्थ रहूँगा व दीर्घजीवी होऊँगा। चटोरेपन का शिकार होकर अकाल नहीं मरूँगा।ʹ

ऐसे दिव्य विचार भरने के लिए थोड़ा समय अवश्य निकालना चाहिए, अन्यथा पुरानी आदतें साधन-भजन में बरकत नहीं आने देंगी और अपने को असमर्थ समझकर हम दैवी लाभ से वंचित होते रहेंगे।

बीड़ी-सिगरेट, गाँजा, शराब आदि के सेवन की बुरी आदतें एक दिन में नहीं आती अपितु बार-बार ऐसे प्रयोग से बुराइयाँ जीवन का अंग बन जाती हैं। ऐसे ही बुराइयों को निकालते हुए अच्छाइयों को अपनाओ तो अच्छाइयाँ भी जीवन का अंग हो जायेंगी। जो भी दुर्गुण हों, उनसे होने वाली हानियों पर नजर डालो और सदगुण के महान फायदों पर नजर डालो। केवल मंदिरों में जाने से या माला घुमाने से ही काम नहीं चलता अपितु रोज थोड़े दुर्गुण हटाते जाओ और थोड़े सदगुण भरते जाओ। इससे आप शान्ति, प्रसन्नता, संतोष, आरोग्यता, उत्साह आदि सदगुणों के धनी बन जाओगे।

जैसे खेत में निंदाई-गुड़ाई करते हैं, वैसे ही मन रूपी खेत में हल्के विचार निकाल कर दिव्य विचार भरने का रोज  अभ्यास करो। मस्तिष्क की तिजौरी में जितने दिव्य विचार भरते जाओगे, दृढ़, बनाते जाओगे, उतने ही सच्चे अर्थों में आप धनवान बनते जाओगे। वास्तव में तुम ईश्वर की सनातन संतान हो। बुरी आदतों में फँस मरने के लिए तुम्हारा जन्म नहीं हुआ है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 1997, पृष्ठ संख्या 13,14, 25 अंक 51

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कुप्रचार से हानि संतों को नहीं, समाज को है…..


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

किसी व्यक्ति ने एक महात्मा के पास जाकर कहाः

“बाबा जी ! सनातन धर्म के प्रति कुप्रचार करने वाले लोग कहते हैं कि ʹरामायण सच्ची नहीं है।ʹ वे लोग अपना उल्लू सीधा करते हैं यह तो हम जानते हैं लेकिन बाबाजी ! जब हम बार-बार सुनते हैं तो कभी-कभी लगता है कि यह बात सच्ची है क्या ?”

वे एक सुलझे हुए महात्मा थे। वे बोलेः “मैं यह तो नहीं जानता कि रामायण सही है या गलत लेकिन इससे मेरा जीवन सही हो गया है और जो इसका अध्ययन करता है उसका जीवन सही होता है। यही प्रमाण सच्चा है। रामायण के अनुकरण से मेरे कुटुम्ब में स्नेह बढ़ गया है, भाई-भाई में, पति-पत्नी में, पिता-पुत्र में मर्यादा और स्नेह बढ़ गया है। अतः रामायण के विषय में ʹवह सही है या गलतʹ – यह सोचना ही बेवकूफी है।”

अगर दोषदृष्टि से ही देखना हो तो भगवान श्रीकृष्ण में दुर्गुण दिख जायेंगे पापी को और राम में भी दोष दिख जायेंगे, संत-महापुरुषों में भी दोष दिख जायेंगे निगुरों को। अगर निंदा ही करनी हो तो कोई भी निमित्त उत्पन्न करके आरोपर लगाने लगेंगे निंदक…..

कवि गेटे एक सज्जन व्यक्ति थे। उनकी एक पुस्तक सज्जनों को तो बहुत अच्छी लगी किन्तु जरूरी नहीं है कि अच्छी बात सभी को अच्छी लगे। अतः कुछ निंदकों ने कवि गेटे पर ऐसे-ऐसे आरोप लगाने शुरु किये, जिसे सुनकर गेटे के प्रशंसकों को आघात लगा कि ʹइतने महान् कवि के लिए यह क्या अनर्गल बोला जा रहा है ?ʹ अतः कुछ सज्जन लोग मिलकर कवि गेटे के पास आये और बोलेः

“आपकी पुस्तक अत्यंत बढ़िया है फिर भी आरोपियों ने उसकी धज्जियाँ उड़ाई हैं। उनकी नीच प्रवृत्ति आपके श्रेष्ठ कार्य को नहीं देख सकती अतः अगर आप संकेत करें  हम उनके आरोपों का मुँहतोड़ जवाब दे देवें।”

तब गेटे ने कहाः “जिन लोगों को मेरे प्रति प्रेम है और जो मेरे स्वभाव को जानते मानते हैं, वे लोग यदि ऐसे कुप्रचार करने वाले हजार लोग और भी बढ़ जायें, तब भी विचलित होने वाले नहीं हैं। जिसने मुझे नजदीक से देखा है, उसकी मेरे प्रति श्रद्धा, कितना भी कुप्रचार होने पर भी कम नहीं होगी। वह कुप्रचार का शिकार नहीं बनेगा। बैठो, मैं आप लोगों को एक कविता सुनाता हूँ।”

कवि गेटे ने उनको टॉलस्टाय की एक कविता सुनायी, जिसका आशय थाः ʹजब कोई तुम्हारी कड़ी आलोचना करता है, तब तुम्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि तुम्हारा फूल सुविकसित है इसीलिए भौंरे डंक मारने आ रहे हैं। इसी प्रकार जब तुम्हें निंदकों के डंक लगने लगें यह समझ लेना कि तुम्हारा कार्य सुविकसित हुआ है। अर्धविकसित फूल पर भ्रमर  कहाँ बैठता है ?ʹ

इसलिए जब आलोचक अऩाप-शऩाप आलोचना करने लगें तब तुम्हें संतोष मानना चाहिए कि तुम्हारा पुरुषार्थ और सेवाकार्यरूपी पुष्प इतना सुविकसित हुआ है कि उन बेचारों को तकलीफ हो रही है…. हालाँकि तुम्हारा इरादा उऩ्हें तकलीफ देने का नहीं है।

लेकिन हाँ, तुम सावधान जरूर रहना। श्रद्धाहीन व्यक्तियों के चक्कर में आकर अपनी श्रद्धा को कभी ढीला म करना, सत्संग मत छोड़ना, ध्यान-भजन, जप-स्वाध्यायादि का त्याग मत करना। जैसे दमा, टी.बी. आदि से ग्रस्त मरीज की हम सेवा तो करते हैं लेकिन उसके कीटाणु हमें न लगें इस बात की सावधानी भी रखते हैं। ऐसे ही जो अश्रद्धा के कीटाणु से ग्रस्त हों रहे हों, ऐसे लोगों के बीच रहे, उऩकी ʹहाँʹ में हाँ मिलाते रहें तो फिर तुम्हारी श्रद्धा को भी आँच आने लगेगी और ध्यान-भजन में रूचि कम होती जायेगी।

उन व्यक्तियों से, उन वस्तुओं से, उन परिस्थितियों से, उन बातों से और संसर्ग से बचो जो तुम्हारी श्रद्धा, भक्ति और प्रेमरस को सुखाते हों। उन्हीं व्यक्तियों, वस्तुओं और परिस्थितियों का अवलंबन लो जिनसे तुम्हारे हृदय में श्रद्धा, भक्ति और प्रेम का स्रोत प्रगट होने में मदद मिले। श्रीकृष्ण कहते हैं-

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।

ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।

श्रद्धालु ही उस परम ज्ञान को पाता है और ज्ञान से परम शांति का अनुभव यहीं कर लेता है।

सुधन्वा के पिता, चम्पकपुरी के नरेश हंसध्वज ने एक बार अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को पकड़कर बाँध दिया तथा राजगुरु शंख एवं लिखित की आज्ञा से यह घोषणा कर दी गयी कि नियत समय तक सब योद्धा रणक्षेत्र में उपस्थित हो जायें। जो ठीक समय पर नहीं पहुँचेगा, उसे उबलते हुए तेल के कढ़ाहे में डाल दिया जायेगा।

आदेश का पालन करते हुए बाकी के सब योद्धा एवं अन्य राजकुमार तो निश्चित समय पर पहुँच गये, किन्तु सबसे छोटे राजकुमार सुधन्वा किसी कारणवश नहीं पहुँच सके। भक्त सुधन्वा को थोड़ी देर हो गयी अतः आज्ञा के मुताबिक सुधन्वा को खौलते कढ़ाहे में डाला गया, किन्तु हरिचिंतन के प्रभाव से सुधन्वा का बाल तक बाँका न हुआ।

सुधन्वा जान गये थे कि ʹमेरे पिता को चढ़ाने-भढ़काने वाले दो मंत्री हैं- शंख और लिखित। इन दोनों के कारण मेरे पिता को इतना क्रोध आ गया है।ʹ सुधन्वा भगवदभक्त तो थे ही, प्रभु पर उनकी अनन्य श्रद्धा थी अतः उन्होंने प्रार्थना कीः ʹयदि मैं निष्कपट भाव से हरि को अपना और अपने को हरि का मानता हूँ तो हरि सर्वत्र हैं, वे ही मेरी सहायता करें….ʹ

सुधन्वा के लिए तेल शीतल हो गया और उनका एक रोम तक न झुलसा ! लोगों को आश्चर्य हुआ कि यहाँ कोई षडयंत्र तो नहीं है। तब कढ़ाहे में नारियल फैंका गया और ज्यों ही नारियल कढ़ाहे में गिरा, त्यों ही दो टुकड़े होकर इतने जोर से उछला कि एक टुकड़ा दूर खड़े शंख के सिर पर और दूसरा टुकड़ा लिखित के सिर पर जा गिरा।

दोनों को परिचय मिल गया कि श्रद्धावान भक्तों के जीवन में हस्तक्षेप करने का परिणाम बड़ा खतरनाक होता है।

संत सताये तीनों जाये तेज बल और वंश।

ऐड़ा ऐड़ा कई गया रावण कौरव केरो कंस।।

हो सके  तो भगवान के भक्तों की सेवा करो अन्यथा किनारे रहो, किन्तु उऩ्हें सताओ मत। यदि तुम सताओगे तो तुम्हारा सताना वे तो थोड़ा सह लेंगे लेकिन श्रीहरि की प्रकृति जब करवट लेगी  तो बहु-बहुत भारी पड़ जायेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 1997, पृष्ठ संख्या 19,20,25 अंक 51

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