धर्मात्मा की ही कसौटियाँ क्यों ?

धर्मात्मा की ही कसौटियाँ क्यों ?


पूज्यपाद संत श्री आशारामजी बापू

प्रायः भक्तों के जीवन में यह फरियाद बनी रहती है कि हम  भगवान की इतनी भक्ति करते हैं, रोज सत्संग करते हैं, निःस्वार्थ भाव से गरीबों की सेवा करते हैं, धर्म का यथोचित अनुष्ठान करते हैं ? आपका यह मानना-जानना सत्य है कि कसौटियाँ भक्तों की ही क्यों होती हैं ? आज हम इस विषय पर चर्चा करेंगे कि ʹक्योंʹ भक्तों का जीवन कसौटियों से भरा होता है।

बचपन में जब तुम स्कूल में दाखिल हुए थे तो ʹक…. ख….. ग….ʹ आदि का अक्षरज्ञान तुरन्त ही हो गया था कि विघ्न बाधाएँ आयी थीं ? लकीरें सीधी खींचते थे कि कलम टेढ़ी मेढ़ी हो जाती थी ? जब सायकल चलाना सीखा था तब भी तुम एकदम सीखे थे क्या ? नहीं। कई बार गिरे, कई बार उठे। चालनगाड़ी को पकड़ा, किसी की अंगुली पकड़ी तब चलने के काबिल बने और अब तो मेरे भैया ! तुम दौड़ में भाग ले सकते हो।

अब मेरा सवाल है कि जब तुम चलना सीखे तो विघ्न क्यों आये ? क्यों स्कूल में परीक्षा के बहाने कसौटियाँ होती थीं ? तुम्हारा जवाब होगा किः ʹबापू जी ! हम कमजोर थे, अभ्यास ज्ञान नहीं था।ʹ

ऐसे ही मेरे साधको ! तुमने परमात्मा को पाने की दिशा में कदम रख दिया है। तुम अभी पचास वर्ष के छोटे बच्चे हो, तुम्हें इस जगत का पता नहीं, ईश्वर के लिए अभी तुम्हारा प्रेम कमजोर है, नियम में सातत्य और दृढ़ता की जरूरत है। अहंकार-काम-क्रोध के तुम जन्मों के रोगी हो, इसीलिए तो तुम्हारी कसौटियाँ होती हैं और विघ्न आते हैं ताकि तुम मजबूत बन सको। साधक  विघ्न बाधाओं से खेलकर मजबूत होता है। कसौटियाँ इसलिए कि तुम प्रभु को प्यार करते हो और वे तुम्हें प्यार करते हैं। वे तुम्हारा परम कल्याण चाहते हैं। यही तो वजह है कि वे तुम्हें परेशानियाँ देकर, तुम्हारा विवेक-वैराग्य जगाकर, तुमसे नश्वर संसार की आसक्ति छुड़ाना चाहते हैं।

माता कुन्ता भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना करती थीं-

विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगदगुरो।

भक्तो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम्।।

ʹहे जगदगुरो ! हमारे जीवन में सर्वदा पद-पद पर विपत्तियाँ आती रहें क्योंकि विपत्तियों में ही निश्चित रूप से आपके दर्शन हुआ करते हैं और आपके दर्शन हो जाने पर फिर जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं आना पड़ता है।ʹ

एक बीज को वृक्ष बनने तक कितने विघ्न आते हैं ! कभी पानी मिला कभी नहीं, कभी आँधी आयी, कभी तुफान आया, कभी पशु-पक्षियों ने मुँह-चोंचे मारीं….. ये सब सहते हुए भी वृक्ष खड़े  हैं। तुम भी कसौटियों को सहन करते हुए, उन पर खरे उतरते हुई ईश्वर के लिए खड़े हो जाओ तो तुम ब्रह्म हो जाओगे। परमात्मा की प्राप्ति की दिशा में कसौटियाँ तो सचमुच कल्याण की परम सोपान हैं। जिसे तुम प्रतिकूलता कहते हो सचमुच वह तो वरदान है क्योंकि अनुकूलता में विवेक सोता है और दुःख में विवेक जागता है। कसौटियों के समय घबराने से तुम दुर्बल हो जाते हो, तुम्हारा मनोबल क्षीण हो जाता है।

हम लोग पुराणों की कथाएँ सुनते हैं। ध्रुव तप कर रहा था। असुर लोग डराने के लिए आये लेकिन ध्रुव डरा नहीं। सुर लोग विमान लेकर प्रलोभन देने के लिए आये लेकिन ध्रुव फिसला नहीं। वह विजेता हो गया। ये कहानियाँ हम सुनते हैं, सुना भी देते हैं लेकिन समझते नहीं कि ध्रुव जैसा बालक दुःख से घबड़ाया नहीं और सुख में फिसला नहीं। उसने दोनों का सदुपयोग कर लिया तो ईश्वर उसके पास प्रकट हो गये।

हम क्या करते हैं ? जरा-सा दुःख पड़ता है तो दुःख देने वाले पर लांछन लगाते हैं, परिस्थितियों को दोष देते हैं अथवा अपने को पापी समझकर अपने को ही कोसते हैं। कुछ कायर तो आत्महत्या करने तक का सोच लेते हैं। कुछ पवित्र होंगे तो किसी संत-परमात्मा के पास जाकर मुक्ति पाते हैं। यदि आप प्रतिकूल परिस्थितियों में संतों के द्वार जाते हैं तो समझ लीजिये कि आपको पुण्यमिश्रित पापकर्म का फल भोगना पड़ रहा है क्योंकि कसौटी के समय जब परमात्मा याद आता है तो डूबते को सहारा मिल जाता है। नहीं तो कोई शराब का सहारा लेता है तो कोई और किसी का….. मगर इससे न तो समस्या हल होती है और न ही शांति मिल पाती है क्योंकि जहाँ आग है वहाँ जाने से शीतलता कैसे महसूस हो सकती है ? तुम कसौटी के समय धैर्य खोकर पतन की खाई में गिर जाते हो और फिर वहीं फँसकर रह जाते हो।

जो गुरुओं के द्वार पर जाते हैं उनको कसौटियों से पार होने की कुंजियाँ सहज ही मिल जाती है। इससे उऩके दोनों हाथों में लड्डू होते हैं। एक तो संत सान्निध्य से हृदय की तपन शांत होती है, समस्या का हल मिलता है, साथ-ही-साथ जीवन को नयी दिशा भी मिलती है। तभी तो स्वामी रामतीर्थ कहते थेः

हे परमात्मा ! रोज ताजा मुसीबत भेजना।

आज आप इस गूढ़ रहस्य को यदि भली-भाँति समझ लेंगे  आप हमेशा के लिए मुसीबतों से, कसौटियों से पार हो जायेंगे। बात है जरूर साधारण लेकिन अगर शिरोधार्य कर लेंगे तो आपका काम बन जायेगा।

आपने देखा होगा कि जिस खूँटे के सहारे पशु को बाँधना होता है उसे घर का मालिक हिलाकर देखता है कि कहीं पशु भाग तो नहीं जायेगा। फिर घर की मालकिन देखती है कि उचित जगह पर तो ठोका गया है या नहीं। फिर ग्वाला देखता है कि मजबूत है या नहीं। एक खूँटे को जिसके सहारे पशु बाँधना है, उसे इतने लोग देखते हैं, उसकी कसौटियाँ करते हैं, तो जिस भक्त के सहारे समाज को बाँधना है, समाज से अज्ञान भगाना है उस भक्त की, भगवान-सदगुरु यदि कसौटियाँ नहीं करेंगे तो भैया ! कैसे काम चलेगा ?

जिसे वो देना चाहता है, उसी को आजमाता है।

खजाने रहमतों के इसी बहाने लुटाता है।।

जब एक बार सदगुरु की, भगवान की शरण आ गये तो फिर क्या घबड़ाना ? जो शिष्य़ भी है और दुःखी भी है तो मानना चाहिए कि वह अर्धशिष्य है अथवा निगुरा है। जो शिष्य़ भी है और चिंतित भी है तो मानना चाहिए कि उसमें समर्पण का अभाव है। मैं भगवान का, मैं गुरु का तो चिंता मेरी कैसे ? चिन्ता भी भगवान की हो गई, गुरु की हो गई। हम भगवान के हो गये तो कसौटी, बेईज्जती हमारी कैसे ? अब तो भगवान को ही सब संभालना है। जैसे, आदमी कारखाने का कर्मचारी हो जाता है  कारखाने को लाभ हानि जो भी हो, उसे तो केवल वेतन मिलता ही है। ऐसे ही जब हम ईश्वर के हो गये तो हमारा शरीर ईश्वर का साधन हो गया। खेलने दो उस परमात्मा को तुम्हारे जीवनरूपी उद्यान में। बस, तुम तो अपनी ओर से पुरुषार्थ करते जाओ। जो तुम्हारे जिम्मे आये उसे तुम कर लो….. और जो ईश्वर के जिम्मे है वह उन्हें करने दो… फिर देखो, तुम्हारा काम कैसे बन जाता है। वे लोग मूर्ख हैं जो भगवान को कोसते हैं और वे लोग धन्य हैं जो हर हाल में खुश रहकर अपने आप में तृप्त रहते हैं। गरीबी है तो क्या ? खाने को, पहनने को नहीं है तो क्या ? यदि तुम्हारे दिल में गुरुओं के प्रति श्रद्धा है, उनके वचनों को आत्मसात् करने की लगन है तो तुम सचमुच बड़े ही भाग्यशाली हो। सच्चा भक्त भगवान से उनकी भक्ति के अलावा किसी और फल की कभी याचना नहीं करता।

जिसे वह इश्क देता है, उसे और कुछ नहीं देता है।

जिसे वह इसके काबिल नहीं समझता, उसे सब कुछ देता है।।

योगवाशिष्ठ में आता है कि चिन्तामणि के आगे जो चिंतन करो, वह चीज मिलती है लेकिन संतपुरुष के आगे जो चीज माँगोगे वही चीज वे नहीं देंगे, मगर जिसमें तुम्हारा हित होगा वही देंगे। यदि तुम्हारी निष्ठा है, संयम है, सत्य का आचरण है, सेवा का सदगुण है तो वे सबसे पहले तुम्हारी कसौटी हो, ऐसी परिस्थितियाँ देंगे ताकि इन सदगुणों के सहारे तुम सत्यस्वरूप परमात्मा को पा लो, परमात्मा को पाने की तड़पन बढ़ा दो क्योंकि वे तुम्हारे परम हितैषी हैं। सदगुरुओं का ज्ञान तुम्हें ऊपर उठाता है। परिस्थितियाँ हैं, सरिता का प्रवाह, जो तुम्हें नीचे की ओर घसीटती हैं और सदगुरु ʹपम्पिंग स्टेशनʹ हैं जो तुम्हें हरदम ऊपर उठाते रहते हैं।

अज्ञानी के रूप में जन्म लेना कोई पाप नहीं, मूर्ख के रूप में पैदा होना कोई पाप नहीं, लेकिन मूर्ख रहकर सुख-दुःख की थप्पड़ें खाना और जीर्ण-शीर्ण होकर मर जाना महा पाप है।

संक्षेप में, मेरे कहने का अभिप्राय इतना ही है कि मनुष्य जन्म मिला है, सदगुरु का सान्निध्य और परमतत्त्व का ज्ञान पाने का दुर्लभ मौका भी हाथ लगा है और सबसे बड़ी हर्ष की बात यह है कि तुममें उस परमतत्त्व को पाने की जिज्ञासा भी है तो फिर दुःख, चिन्ता और परेशानियों से क्या घबड़ाते हो ? यह तो वे कसौटियाँ हैं जो आपको निखारकर चमकाना चाहती हैं। हिम्मत, साहस, संयम की तलवार से जीवनरूपी कुरुक्षेत्र में आगे बढ़ते जाओ…. तुम्हारी निश्चित ही विजय होगी, तुम दिग्विजयी होंगे, तत्त्व के अनुभवी होंगे, तुममें और भगवान में कोई फासला नहीं रहेगा। सदगुरु का अनुभव तुम्हारा अनुभव हो जाये….. यही तुम्हारे सदगुरुओं का पवित्र प्रयास है।

तेरे दीदार के आशिक समझाये नहीं जाते हैं।

कदम रखते हैं तेरे द्वार पर तो लौटाये नहीं जाते हैं।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 1997, पृष्ठ संख्या 14,15,16 अंक 52

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *