ग्रीष्म ऋतु में आहार-विहार

ग्रीष्म ऋतु में आहार-विहार


वैसे तो स्वस्थ व नीरोगी रहने के लिए प्रत्येक ऋतु में ऋतु के अनुकूल आहार-विहार जरूरी होता है लेकिन ग्रीष्म ऋतु में आदानकाल का समय होने से आहार-विहार पर विशेष ध्यान देना पड़ता है क्योंकि इसमें प्राकृतिक रूप से शरीर के पोषण की अपेक्षा शोषण होता है। अतः उचित आहार-विहार में की गई लापरवाही हमारे लिये कष्टदायक हो सकती है।

वसंतु ऋतु की समाप्ति के बाद ग्रीष्म ऋतु का प्रारंभ होता है। सूर्य उत्तर दिशा की तरफ होने से उसकी प्रचंड गर्मी के कारण पृथ्वी एवं प्राणियों का जलीयांश कम हो जाने से जीवों में रूखापन बढ़ता है। परिणामस्वरूप पित्त के विदग्ध होने से जठराग्नि मंद हो जाती है, भूख कम लगती है, आहार का पाचन नहीं होता, अतः इस ऋतु में दस्त, उल्टी, कमजोरी, बेचैनी आदि परेशानियाँ पैदा हो जाती हैं। ऐसे समय में कम आहार लेना व शीतल जल पीना अधिक हितकर है।

आहारः ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की तीव्र किरणों द्वारा संसार के जड़-चेतन का स्नेहांश सोख लेने के कारण रूक्ष रस की वृद्धि हो जाती है। अतः इस ऋतु में शीतवीर्य, मधुर रसयुक्त पदार्थ एवं स्निग्ध तथा बलवर्धक खाद्य व पेय पदार्थों का सेवन उपयोगी होता है। वाग्भट के अनुसार ग्रीष्मकाल में मीठे, हल्के, चिकनाई युक्त, शीतल व तरल पदार्थों का सेवन विशेष रूप से करना चाहिए। इस ऋतु में फलों में तरबूज, खरबूजा, मौसम्बी, सन्तरा, केला, मीठे आम, मीठे अंगूर आदि, सब्जियों में परवल, करेला, पके लाल टमाटर, पोदीना, हरा धनिया, नींबू आदि का सेवन करें।

विहारः इस ऋतु में प्रातः वायु सेवन, योगासन, व्यायाम, तेल मालिस हितकारी है।

अपथ्यः तेज मिर्च-मसालेवाले, तले, नमकीन, रूखे, बासे, कसैले, कड़वे, चटपटे, दुर्गन्ध युक्त पदार्थों का सेवन न करें। देर रात तक जागना, सुबह देर तक सोना, दिन में सोना, अधिक देर तक धूप में घूमना, कठोर परिश्रम, अधिक व्यायाम, अधिक स्त्री-पुरुष का सहवास, भूख-प्यास सहन करना, मलमूत्र के वेग को रोकना हानिप्रद है।

विशेषः ग्रीष्म ऋतु में पित्त दोष की प्रधानता से पित्त के रोग अधिक होते हैं जैसे दाह, उष्णता, आलस्य, मूर्च्छा, अपच, दस्त, नेत्रविकार आदि। अतः गर्मियों में घर से बाहर निकलते समय लू से बचने के लिए सिर पर कपड़ा रखें व एक गिलास पानी पीकर निकलें। जेब में कपूर रखें। गर्मियों में फ्रीज का ठंडा पानी पीने से गले, दाँत, आमाशय व आँतों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अतः फ्रीज का पानी न पीकर मटके का या सुराही का पानी पियें।

टमाटर

गुण-धर्मः टमाटर खट्टा मीठा, रूचिवर्धक, अग्निदीपक व शक्तिवर्धक है। इसके सेवन से शरीर की स्थूलता, उदररोग, अतिसार आदि रोगों का नाश होता है। इसमें लौहतत्त्व दूध की अपेक्षा दोगुना व अण्डे की अपेक्षा पाँच गुना अधिक है। सब्जियों व फलों की अपेक्षा इसमें लौहतत्त्व डेढ़ गुना अधिक होता है।

50 से 200 ग्राम टमाटर के नियमित सेवन से शरीर में बलवृद्धि होती है। रक्त शुद्ध होता है। सप्तधातुओं के लिए टमाटर अत्यंत उपादेय है, साथ ही यह पाचनतंत्र को सुचारू बनाये रखता है।

भोजन के पूर्व टमाटर का सेवन करने से भूख खुलकर लगती है व भोजन शीघ्र पचता है।

रक्ताल्पता के रोगियों को इसका सेवन अवश्य करना चाहिए। यकृत, पित्त, बदहजमी से पीड़ित रोगियों के लिए भी यह लाभकारी है। मधुमेह के रोगियों के लिए टमाटर का सेवन हितकारी है। नेत्रविकार, रतौंधी, मसूढ़े कमजोर हो गये हों, मुँह में बार-बार छाले पड़ना आदि चर्म रोगों में इसका सेवन अवश्य करना चाहिए।

टमाटर में ताँबा अधिक होता है। फलस्वरूप वह रक्त में लाल कणों की वृद्धि करता है। वैज्ञानिक मतानुसार टमाटर खाद्य पदार्थों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण और उपयोगी है। शरीर संवर्धन के लिए सभी उपयोगी तत्त्व टमाटर में प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं। गर्भवती स्त्रियों के लिए व प्रसूति के बाद शारीरिक व मानसिक शक्ति बढ़ाने के लिए इसका रस लाभदायक है।

मधुमेहः मधुमेह के रोगियों के लिए टमाटर अत्यंत हितकारी है। इस रोग में प्रातः व सायं 150 -200 ग्राम टमाटर के रस का सेवन करें। परिणामतः मूत्र में शर्करा की मात्रा धीरे-धीरे कम होकर मधुमेह दूर हो जायेगा।

रक्तदोषः रक्तविकार के कारण त्वचा पर लाल लाल चकते निकलना, मसूढ़ों में सूजन व खून का आना, इसमें 20-20 ग्राम टमाटर का रस दिन में तीन से चार बार पियें।

उल्टीः 100 ग्राम टमाटर का रस व 25 ग्राम शक्कर, लौंग, काली मिर्च व इलायची का थोड़ा सा चूर्ण – इन सबको मिलाकर पीने से उल्टियाँ बंद हो जाती है।

वायुविकारः टमाटर उत्तम वायुनाशक है। इसके रस में पुदीना व अदरक का रस मिलाकर चुटकी भर सैंधव नमक डालकर पीने से वायुविकार नष्ट होते हैं।

विशेषः पथरी के रोगी को टमाटर नहीं खाना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 1997, पृष्ठ संख्या 27,28 अंक 52

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