सत्संग सरिता

सत्संग सरिता


पूज्यपाद संत श्री आशारामजी बापू

जिसके जीवन में सत्त्वगुण नहीं है, दैवी लक्षण नहीं है वह सुख के पीछे भटक-भटककर जीवन खत्म कर देता है। सुख तो उसे जरा-सा मिला न मिला लेकिन दुःख, मुसीबत और चिंता उसके भाग्य में सदा ही बनी रहती है।

अगर मनुष्य अपने जीवन में सब दुःखों की निवृत्ति और परम सुख की प्राप्ति चाहता है तो उसे अपने जीवन में सत्त्वगुण की प्रधानता लानी चाहिए। निर्भयता, दान, इन्द्रिय दमन, संयम, सरलता आदि सदगुणों को पोषण दे और दुर्गुणों को निकाले। ज्यों ही सदगुणों में प्रीति बढ़ेगी त्यों दुर्गुण अपने-आप निकलते जाएँगे। अभी सदगुणों में प्रीति नहीं है इसलिए हम दुर्गुणों को पोसते हैं। थोड़ा जमा….. थोड़ा उधार….. ऐसा करते रहते हैं।

पामरों और कपटियों को सुखी देखकर हमें लगता है कि ʹइसने किया तो हम भी ऐसा करें।ʹ नहीं नहीं….. ऐसा मत सोचो। वह भैसा, बैल या वृक्ष बनकर जो सहेगा वह तो बाद में दिखेगा। इसलिए अभी तुम नकल मत करो लेकिन ʹकबीर जी होते तो क्या करते ? श्रीराम होते तो क्या करते ? गार्गी होती तो क्या करती ? मदालसा होती तो क्या करती ? शबरी भीलनी होती तो क्या करती ?ʹ ऐसा सोचकर अपने जीवन को दिव्य बनाने का यत्न करो। दिव्य जीवन बनाने के लिए दृढ़ संकल्प होना चाहिए। दृढ़ संकल्प करने के लिए सुबह जल्दी उठो। प्रातःकाल स्नान करके अभ्यास करो। जप-ध्यान करो। थोड़े ही दिन में आपका अंतःकरण पावन होगा और आपमें सत्त्वगुण बढ़ेगा।

एक गुण दूसरे गुण को ले आता है ऐसे ही एक अवगुण दूसरे अवगुण को ले आता है। एक पाप दूसरे पाप को ले आता है, ऐसे ही एक  पुण्य दूसरे पुण्य को ले आता है। आप जिसे सहयोग दोगे वह बढ़ेगा। आप सदगुणों को सहयोग दोगे तो इससे सदगुण बढ़ेंगे, ज्ञान शोभा देगा।

अपने जीवन में जितना सदगुण आता है, उतना ही जीवन का महत्त्व समझ में आता है। यदि ठीक दृष्टि मिल जाये, जीवन जीने का ढंग आ जाये तो संसार नंदनवन हो जाता है।

दो दोस्त थे। वे बगीचे में घूमने गये। उऩ्होंने एक गिरगिट देखा। एक ने कहाः “यह गिरगिट पीला है।”

दूसरे ने कहाः “बेवकूफ कहीं का ! यह तो लाल है। तेरे को पीलिया हो गया है इसलिए तू पीला देखता है।”

पहलाः “तेरे को क्रोध है, इसलिए तू लाल देखता है।”

गिरगिट तो चला गया लेकिन दोनों दोस्त आपस में भिड़ गये। फिर उन्होंने सोचा कि हम माली से जाकर पूछें कि गिरगिट लाल है या पीला।

उन्होंने माली से पूछाः “गिरगिट लाल होता है कि पीला ?”

माली ने कहाः “तुम दोनों सही हो।”

दोनों बोल उठेः “दोनों सही कैसे ?”

मालीः “गिरगिट लाल भी होता है और पीला भी होता है।”

“एक ही गिरगिट लाल और पीला कैसे ?”

“वह बार-बार रंग बदलता रहता है। कभी लाल दिखता है कभी पीला दिखता है कभी हरा दिखता है।” दोनों दोस्तों का समाधान हो गया और उनको शांति मिली।

ऐसे ही परमात्मा के विषय में आपस में मतभेद होते हैं। कोई बोलता हैः “परमात्मा ऐसा है।” कोई बोलता हैः “परमात्मा वैसा है।” लेकिन जब सदगुरुरूपी माली से मिलते हैं तब पता चलता है कि परमात्मा कैसा है। ʹऐसा है…. ऐसा नहीं है…..ʹ इस प्रकार मानते रहते हो लेकिन तुम्हारे भीतर की स्थिति जैसी होगी वैसा ही दिखाई पड़ेगा। गुरू ही सही ज्ञान देते हैं जिससे सारे संशय मिट जाते हैं और जीव को अपने स्वरूप का दर्शन होता है।

गुरु बिन भवनिधि तरहिं न कोई।

चाहे बिरंचि संकर सम होई।।

चाहे शिवजी जैसा प्रलय करने का सामर्थ्य आ जाये, ब्रह्माजी जैसा सृष्टि करने का सामर्थ्य आ जाये फिर भी जब तक सदगुरु की कृपा नहीं होती, उनका ज्ञान नहीं मिलता तब तक आवरण भंग नहीं होता।

दिल में छुपा हुआ वह दिलबर करोड़ों युगों से था, बाद में भी रहेगा और अभी भी है लेकिन दिखता नहीं है। आदमी अपने को आँखवाला मानता है लेकिन हकीकत में शरीर की आँख तुम्हारी आँख नहीं है। यह बाहर की आँख है। सदगुरुकृपा से अगर तुम्हारी वास्तविक आँख एक बार खुल जाये तो वह सुख मिलता है जो सुख ब्रह्माजी को मिलता है, जिसमें भगवान शिवजी रमण करते हैं, जिस तत्त्व में कबीर जी डटे रहते थे, गुरु नानकजी जिस नामनशे में डूबे रहते थे, छके रहते थे। उसको तुम पाओ भैया ! उसी में तुम लग जाओ।

माया से पार होने का उपायः प्रपत्तियोग

मैं और मोर तोर की माया।

बस कर दीन्हीं जीवन काया।।

ʹमैंʹ और ʹमेरेʹ की माया ने मनुष्य को वश कर लिया है। मनुष्य का मन माया के विभिन्न रूपों में भटकता रहता है। चाहते हुए भी मनुष्य इससे नहीं निकल पाता क्योंकि पुराने कई जन्मों के संस्कारों ने बुद्धि को, मन को, इऩ्द्रियों को बाँध कर माया में जकड़ रखा है। महापुरुष कहते हैं कि इस माया से निकलने के लिए परीश्रम नहीं, सच्ची समझ चाहिए, गुरुओं का सत्संग एवं सान्निध्य चाहिए। सच्ची समझ कहाँ से मिलती है ? सदगुरु के सत्संग एवं सान्निध्य से सच्ची समझ मिलती है। सच्ची समझ क्या है ? जो दिख रहा है वह माया है लेकिन जिससे देखा जा रहा है, जिसकी सत्ता विभिन्न रूपों में सर्वत्र विद्यमान है, वह परमात्मा है। भगवान की महान शक्तियाँ अलग-अलग जगह काम करती हैं। हम सब निमित्त मात्र हैं। हमारा कोई अलग अस्तित्त्व नहीं है। सब उस परमात्मा की अठखेलियाँ हैं। ʹमैंʹ और ʹमेराʹ यह अहं वास्तव में नहीं है। वह मिथ्या है। यह समझ में आ जाये तो मनुष्य का चौरासी का चक्कर ही मिट जाये।

यह समझ लाने के लिए क्या किया जाये ? महापुरुष कहते हैं कि बस, ईश्वर की शरण, भगवान और संत-सदगुरु की शरण चले जाओ। अपना अहं उनको अर्पित कर दो। दुःख, चिन्ता, हताशा, निराशा त्यागकर अपने आपको समर्पित कर दो। उन संतों की शरण में सच्चे मार्ग एवं सच्ची समझ का महाद्वार खुलने लगेगा। तुम प्रसन्नता और आऩंद का अनुभव करोगे। सिर्फ अपना बेईमानी का अहं मिटा दो। अपने संकीर्ण विचारों को विलीन होने दो।

एक बार एक साधु ने गुरु से दीक्षा ली। वह ईश्वर की शरण था। उसने सुना कि कामरूप देश में तांत्रिक विद्या का बड़ा बोलबाला है। वहाँ कि स्त्रियों ने तंत्रविद्या के बल से पुरुषों को तोता, बंदर बना रखा है। साधु ने सोचाः ʹस्त्रियाँ इतना बलशाली कैसे हो गयीं कि तंत्रविद्या से पुरुषों को जानवर की तरह नचाकर पिंजरे में बंद कर देती हैं ? मैं भी वहाँ जाता हूँ। मुझे किसी स्त्री ने देखा तो मैं गुरुमंत्र का जाप शुरु कर दूँगा।ʹ फिर सोचाः ʹजायें कि नहीं जायें ? एक तो स्त्रीचरित्र, दूसरा कामरूप देश और तीसरा तंत्रविद्या का बोलबाला।ʹ एक मन ने कहाः ʹजाओ।ʹ दूसरा मन बोलता हैः ʹनहीं जाओ।ʹ साधु ने दृढ़ता से मन को कहाः ʹचलो, कामरूप देश देख आएँ।ʹ

साधु गया कामरूप देश में। भिक्षा माँगते-माँगते एक पेड़ के नीचे बैठ गया। इतने में लुभावना श्रृंगार किये हुए एक महिला आई। उसके साथ एक युवक भी था। वे साधु के पास आकर बैठ गये। वह महिला साधु को निहारने लगी, मुस्कराने लगी। सोचने लगी किः ʹचलो, अब इसको भी तोता बनाया जाय।ʹ

साधु ने सोचाः ʹअब यह मुझे तोता बनाने की कोशिश कर रही है।ʹ उसने मन में गुरुमंत्र का जाप शुरु कर दिया। साथ ही ईश्वर से प्रार्थना कीः ʹहे मेरे प्रभु ! मैं तेरी शरण हूँ। मैं तेरा हूँ।ʹ तब अंदर से आवाज आयीः ʹतू घबरा मत। तू मेरा है तो चिंता क्यों ?ʹ उसका मन स्थिर हो गया।

स्त्री ने सोचाः ʹसाधु तो बड़ा ही अटल है ! उसने साधु को लुभाने के लिए दूसरा कटाक्ष फेंका और गाना गाने लगी। वह गीत गुनगुनाते हुए साधु को निहारती और मुस्कराती रही लेकिन साधु ने फिर से गुरुमंत्र का जप किया, प्रार्थना की। फिर साधु की अंतरात्मा ने कहाः ʹतू मेरी शरण है। चिंता मत कर।ʹ

फिर स्त्री ने गीत के साथ नृत्य करना शुरु किया। साधु ने कानों में उँगलियाँ डाल लीं और आँखें बंद कर लीं। मन-ही-मन ईश्वर से प्रार्थना कीः ʹहे प्रभु ! मैं तुम्हारी शरण हूँ।ʹ तब अंदर से आवाज आयीः ʹजब तू मेरी शरण है तो फिक्र छोड़ दे।ʹ साधु मन-ही-मन हँसाः ʹहे प्रभु ! मेरी छोटी बुद्धि तुझे बार-बार पुकारती है, जबकि तू मेरे नजदीक है, मेरे हृदय में ही है, फिर भी मैं चिंतित हूँ।ʹ

उस साधु को अपनी क्षुद्र बुद्धि पर हँसी आ रही थी। परन्तु उस स्त्री को लगा कि साधु उसके नृत्य और गान का मजाक उड़ा रहा है और हँस रहा है। स्त्री का मन दुर्बल हो गया। उसने अपने साथी युवक से कहाः “जाओ, साधु को अपनी बातचीत से वश में करो। उस साधु को मुझसे बातचीत करने को कहो।” वह युवक जो उसके तोते के समान था, स्त्री-लम्पट था, साधु के पास आया। उसके श्वासोच्छ्वास के संपर्क में आने से साधु का मन भयाक्रान्त हुआ। उसने फिर से ईश्वर का स्मरण किया। फिर अंदर से आवाज आयीः

ʹवत्स ! ईश्वर की शरण होकर भी भयभीत क्यों है ? जिसमें लाखों लाखों स्त्रियाँ पैदा होकर भी भयभीत क्यों है ? जिसमें लाखों स्त्रियाँ पैदा होकर लीन हो गई, ऐसा वह परमात्मा तेरे साथ है और तू घबरा रहा है ?ʹ फिर साधु ने स्थिरचित्त होकर उस युवक को दृढ़ मनोबल से देखा। तब उस युवक ने कहाः “मैं भी पहले ऐसा ही था लेकिन इस देश में आऩे पर तोता बना दिया गया।”

साधु ने कहाः “लेकिन तू तोता कहाँ है ? तू तो इन्सान है !”

युवक बोलाः “नहीं, मैं कभी बन्दर हूँ कभी तोता हूँ क्योंकि वह स्त्री जैसा बोलती है वैसा ही मैं करता हूँ।”

तब साधु को पता चला कि पुरुष को सचमुच में बंदर-तोता नहीं बनाया जाता, लुभावनी बातें करके अहंकार का कचरा ऐसा भर दिया जाता है कि पुरुष स्वयं ही सम्मोहित हो जाता है। सच में पंखवाला तोता या पूँछवाला बंदर नहीं बनाते किन्तु संस्कार-विचार ऐसे भर दिये जाते हैं कि पुरुष अपना पौरूष खोकर स्त्रियों की आज्ञा का पालन करने लगते हैं।

भगवान कहते हैं- “तुम इन्सान या मनुष्य नहीं, तुम हो तो ब्रह्मस्वरूप, परमात्मस्वरूप लेकिन माया के, मन के इन्द्रियों के संस्कारों ने तुम्हें अपना ब्रह्मस्वरूप भुलाकर माया के इशारों पर विलास में नाचने वाला बना दिया।ʹ

तुम्हारे ऊपर सिंधी, गुजराती, मराठी होने का अहंकार थोप दिया है और तुम ईश्वर की शरण न होकर माया की शरण होने के कारण अपने अहंकार का पोषण करके चौरासी के चक्कर खा रहे हो। इससे छूटने का उपाय बतलाते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामी मा शुचः।।

ʹसम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा। तू शोक मत कर।ʹ (गीताः 18.66)

प्रत्येक मनुष्य को दुःख, चिंता, निराशा को त्यागकर, माया के बंधनों को तोड़कर उस चिदघन सच्चिदानंद, आनंदघन परमात्मा के ध्यान में गोता लगाना चाहिए। अपने-आपको गुरुकृपा के द्वारा मुक्ति के रास्ते ले जाना चाहिए। ʹमैंʹ और ʹमेराʹ मिटाकर उस चिदघन नारायण का ध्यान करना चाहिए। उसकी स्मृति से ही अपने-आपको सराबोर रखना चाहिए। ૐૐૐ

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1997, पृष्ठ संख्या 23,24,25,13 अंक 53

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