Monthly Archives: May 1997

परमानंद की प्राप्ति का साधन


 

पूज्यपाद संत श्री आशाराम जी बापू

आत्मकल्याण के इच्छुक व ईश्वरानुरागी साधकों को आत्मशान्ति, आत्मबल प्राप्त करने के लिए, चित्तशुद्धि के लिए ज्ञानमुद्रा बड़ी सहाय करती है। ब्रह्ममुहूर्त की अमृतवेला में शौच-स्नानादि से निवृत्त होकर गर्म आसन बिछाकर पद्मासन, सिद्धासन या सुखासन में बैठ जाओ। 10-15 प्राणायाम कर लो। यदि त्रिबन्ध के साथ प्राणायाम हो तो बहुत अच्छा है। तदनन्तर दोनों हाथों की तर्जनी यानी पहली अंगुली के नाखून को अंगूठों से हल्का सा दबाकर दोनों हाथों को घुटनों पर रखो। शेष तीनों अंगुलियाँ सीधी व परस्पर जुड़ी रहें। हथेली ऊपर की ओर रहे। गर्दन व रीढ़ की हड्डी सीधी। आँखें अर्धोन्मिलित एवं शरीर अडोल रहे।

अब गहरा श्वास लेकर ʹૐ….ʹ का दीर्घ गुँजन करो। प्रारंभ में ध्वनि कण्ठ से निकलेगी, फिर गहराई में जाकर हृदय से ʹૐʹ की ध्वनि निकालिये। बाद में और गहरे जाकर नाभि या मूलाधार से ध्वनि उठाइये। उस ध्वनि से सुषुम्ना का द्वार खुलता है और जल्दी से आनंद प्राप्त होता है। चंचल मन तब तक भटकता रहेगा, जब तक उसे भीतर का आनंद नहीं मिलेगा। ज्ञानमुद्रा व ʹૐʹ की ध्वनि से मन की भटकान शीघ्र बन्द होने लगेगी। ध्यान के समय जो काम करने की जरूरत न हो उसका चिन्तन छोड़ दो। चिन्तन आ जाय तो ʹૐ अगड़ं-बगड़ं स्वाहाʹ करके उस व्यर्थ चिन्तन से अपना पिण्ड छुड़ा लो।

संकल्प करके बैठो कि हम अब ज्ञानमुद्रा में, ʹૐʹ की पावन ध्वनि के साथ वर्त्तमान घड़ियों का पूरा का आदर करेंगे। मन कुछ देर टिकेगा… फिर इधर-उधर के विचारों की जाल बुनने लग जायेगा। दीर्घ स्वर से ʹૐʹ की ध्वनि करके मन को पुनः खींचकर वर्त्तमान में लाओ। मन को प्यार से, पुचकार से समझाओ। 8-10 बार ʹૐʹ की ध्वनि करके शान्त हो जाओ। शऱीर के भीतर वक्षस्थल में तालबद्ध धड़कते हुए हृदय को मन से निहारते रहो…. निहारते रहो…. मानो शरीर को जीने के लिए उसी धड़कन के द्वारा विश्व-चैतन्य से सत्ता-स्फूर्ति प्राप्त हो रही है। हृदय की उस धड़कन के साथ ʹૐ….. राम…..ʹ मंत्र का अनुसंधान करते हुए मन को जोड़ दो। हृदय की धड़कन के रूप में हर क्षण अपने को प्रकट करने वाले उस सर्वव्यापक परमात्मा को स्नेह करते जाओ। हमारी शक्ति को क्षीण करने वाली, हमारा आत्मिक खजाना लूटकर हमें बेहाल करने वाली भूतभविष्य की कल्पनाएँ हृदय की इन वर्त्तमान धड़कनों का आदर करने से कम होने लगेंगी। हृदय में प्यार व आनंद उभरता जायेगा। जैसे मधुमक्खी सुमधुर सुगंधित पुष्प पाकर चूसने के लिए वहाँ चिपक जाती है वैसे ही चित्त रूपी भ्रमर को परमात्मा से प्यार प्रफुल्लित होते हुए अपने हृदयकमल पर बैठा दो, दृढ़ता से चिपका दो। अपने को वृत्तियों से बचाकर निःसंकल्पावस्था का आनंद बढ़ाते जाओ। मन विक्षेप डाले तो बीच-बीच में ૐ का पावन गुँजन करके उस आनंद-सागर में मन को डुबाते जाओ। जब ऐसा निर्विषय निःसंकल्प अवस्था में आनंद आने लगे तो समझो यही आत्मदर्शन हो रहा है क्योंकि परमात्मा आनंदस्वरूप है।

इस आत्मध्यान से, आत्मचिन्तन से भोक्ता की बर्बादी रूकती है। भोक्ता स्वयं आनंदस्वरूप परमात्मामय होने लगता है, स्वयं परमात्मा होने लगता है। परमात्मा होना क्या है…. अनादि काल से परमात्मा था ही यह जानने लगता है।

ठीक से अभ्यास करने पर कुछ ही दिनों में आनंद और अनुपम शान्ति का एहसास होगा। आत्मबल की प्राप्ति होगी। मनोबल व बुद्धिबल में वृद्धि होगी। चित्त के दोष दूर होंगे। अपने अस्तित्त्व का बोध होने मात्र से आनंद आने लगेगा। ध्यान-भजन-साधना से अपनी योग्यता ही बढ़ाना है। परमात्मा एवं परमात्मा से अभिन्नता सिद्ध किये हुए सदगुरु को आपके हृदय में आत्मखजाना देने में देर नहीं लगती। बस, साधक को अपनी योग्यता का विकास करने भर की देर है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1997, पृष्ठ संख्या 26,19 अंक 53

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परम शांति


पूज्यपाद संत श्री आशारामजी

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तत्प्रसादात्परां शांतिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।

ʹहे भारत ! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा शाश्वत परमधाम को प्राप्त होगा।ʹ श्रीमद् भगवद् गीता 18.62)

शांति तीन प्रकार की होती है।

आधिभौतिक शांति।

आधिदैविक शांति।

आध्यात्मिक शांति।

उपरोक्त तीनों प्रकार की शांति हमारे व्यवहार में दिखती है।

किसी भी प्रकार का उपद्रव होवे और वह दूर हो जाये  कहेंगे किः ʹहाशઽઽઽ…..! शांति……!ʹ यह है आधिभौतिक शांति।

किसी देवी देवता का कोप हुआ हो, नौकरी नहीं मिलती हो, लड़के लड़की की शादी की चिंता सताती हो, आदि। जब ये विघ्न हट जाते हैं तो कहेंगे किः ʹहाशઽઽઽ…. ! शांति….!ʹ यह है आधिदैविक शांति।

ये शांतियाँ तो बेचारी दिन में कितनी ही बार आएँ और फिर चली जायें लेकिन एक बार परम शांति मिल जाय तो मौत भी तुमको अशांत नहीं कर सकेगी, इन्द्र का वैभव भी तुमको प्रलोभन में नहीं डाल सकेगा और शुकदेवजी जैसी कौपीनधारी अवस्था भी तुमको अपने में दीनभाव उत्पन्न नहीं करने देगी।

धन से जो गरीब है वह गरीब नहीं है, सत्ता से जो गरीब है वह गरीब नहीं है लेकिन विचारों से जो गरीब है, वह महादरिद्र है और विचारों से जो सेठ है वो सेठों का भी सेठ है।

राजा परीक्षित कोई साधारण राजा न थे। उनके पास सात द्वीपों का स्थायी राज्य था और अनेक राजाओं पर उन्होंने विजय प्राप्त की थी। इतना विशाल राज्य और सैन्यबल होते हुए भी परीक्षित कहते हैं कि कोई महापुरुष मिले और ईश्वर-तत्त्व का प्रसाद दे तभी मुझे परम शांति मिलेगी, बाकी सब तो मैंने देख लिया।

जब शुकदेवजी महाराज मिले तब परीक्षित पहला प्रश्न करते हैं- “जब मृत्यु निकट हो तब जीव को क्या करना चाहिए ?”

शुकदेवजी कहते हैं- “इन्द्रियों के भोगों में रत जीवों के लिए सात दिन तो क्या सात जन्म भी कम हैं लेकिन तुझ जैसे बुद्धिमान के लिए  सात दिन भी अधिक हैं। जो नश्वर पदार्थों को नश्वर जानते हुए शाश्वत में प्रीति रखें, ऐसों के लिए तो सात दिन भी अधिक हैं। हे परीक्षित ! तू  भगवान की शऱण जा।”

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

गाँधी जी के जीवन में भी जब चमत्कार होते तब गाँधी जी वे अनुभव लोगों को सुनाते थे। गोलमेज कार्यक्रम में भाग लेने आईऩ्स्टीन जर्मनी से आये थे और गाँधी जी भारत से गये थे। उसमें गाँधीजी ने इतना सुन्दर व्याख्यान किया कि उनका उपहास करने वाले लोग भी उऩसे प्रभावित हो गये तथा उऩकी हँसी उड़ाने वाले अंग्रेजों ने भी तालियाँ बजाईं और उऩका अनुमोदन किया।

लोगों ने गाँधी जी से पूछाः “आप ऐसा प्रवचन कहाँ से पढ़कर आये ? यह सब तैयारी कैसे की ?”

गाँधी जी कहते हैं- “मैं जब बोलता हूँ तब मैं नहीं रहता, भगवान की शरण चला जाता हूँ। मेरे बोलने के पीछे मेरे राम का हाथ होता है इसलिए मेरी बोली प्रभावयुक्त होती है।”

हम भी शिष्टाचार में कह देते हैं कि मेरे काम के पीछे ईश्वर का हाथ है लेकिन यदि सफल हुए तो भीतर ʹमैंʹ बैठा ही होता है कि ʹयह तो मैंने कियाʹ और यदि विफल हुए तो कहेंगे कि ʹइसकी गलती…. उसकी गलती….ʹ या ʹजो भगवान की मर्जी….ʹ मानो भगवान ही काम बिगाड़ते को बैठे हैं।

वस्तुतः जीव के प्रत्येक कार्य के पीछे ईश्वर की सत्ता है। ईश्वर की सत्ता जब तक महसूस नहीं होती तब तक मनुष्य अहं में, जीवभाव में बैठा होता है। जब तक मनुष्य सत्संग नहीं करता तब तक उसे ईश्वर के रस की अनुभूति नहीं होती। जब तक ईश्वरीय रस की अनुभूति नहीं होती तब तक बाहर के रस का आकर्षण-विकर्षण एवं अशांति नहीं मिटती एवं दुःख निर्मूल नहीं होते। दुनिया की सब चीजें एक व्यक्ति को दे दो। खुशियों का उसे सरताज पहना दो, सारा सौन्दर्य, सारा धन एक व्यक्ति को दे दो लेकिन जब तक उसके जीवन में गीता रूपी ज्ञान नहीं होगा, उपनिषदों का अमृत नहीं होगा तब तक उसका दुर्भाग्य तो उसके साथ ही रहेगा। मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है बार-बार जन्मना और बार-बार मरना। बड़े में बड़ा सौभाग्य हैः

लभ्ध्वा ज्ञानं परां शांतिमचिरेणाधिगच्छति।

उस आत्मज्ञान की उपलब्धि होवे तो परम शांति। शुकदेव जी उस परम शांति को प्राप्त हुए महापुरुष थे। परीक्षित के सभामंडप में पहुँचने से पहले कुछ अज्ञानी लोगों ने उनका अपमान किया, पत्थर उछाले लेकिन उनके चित्त में अशांति नहीं हुई और सोने के सिंहासन पर बिठाकर परीक्षित उनका अर्घ्य-पाद्य से पूजन करते हैं तब भी शुकदेव जी को हर्ष नहीं होता।

जैसे सूर्य के निकट रात्रि नहीं जा सकती, सूर्य को दीमक नहीं लग सकती,  ऐसे ही जिसको परम शांति हो गई हो, आत्मा-परमात्मा का जिसको अनुभव हो चुका हो, ज्ञान का दीपक जिसमें एक बार प्रकाशित हो चुका हो उसे कोई आँधी नहीं बुझा सकती। उसी की प्राप्ति के लिए मनुष्य को बुद्धि मिली है। सच में सुखी भी वही रह सकता है जिसने परम शांति का अनुभव कर लिया है।

लभ्ध्वा ज्ञानं परां शांतिम्…..

अधिकांश लोग कहते हैं- “बाबा जी ! समय नहीं मिलता…. समय का अभाव है।ʹʹ अरे भाई ! आपके पास जो काम है, उससे भी अधिक काम पुराने समय के राजाओं के पास रहता था और आप लोगों के पास जितनी सुविधाएँ हैं, पुराने व्यक्तियों के पास उतनी न थीं। अभी हम बस में, रेल में, हवाई जहाज में सफर कर कार्य शीघ्रता से पूरा कर सकते हैं। पुराने समय में तो बैलगाड़ी जोतनी पड़ती थी। कहीं दूर जाना हो तो हफ्ताभर पहले से तैयारियाँ करनी पड़ती थीं।

गाड़ा जोतते-जोतते पटेल शहर जाय।

गाम का लाय और घर का भूल आय।।

ऐसा करते हुए भी लोग समय बचाते थे। गलाडूब व्यवहार में रहते हुए भी राजा-महाराजा लोग समय बचाकर गुरुओं के द्वार पर जाते थे और आत्मज्ञान पाते थे। आत्मतेज से वे तेजस्वी रहते थे और परम शांति पाते थे।

साधुओं का नाम लेवें तो शुकदेव जी महाराज का नंबर पहले आता है। ऐसे शुकदेव जी महाराज के गुरु राजा जनक योगशक्ति से सम्पन्न अठारह वर्षीय युवती सुलभा का पूजन करते हैं।

सुलभा जब राजा जनक के दरबार में पहुँची  उसके निर्दोष, संयमी व प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं ज्ञाननिष्ठा को देखकर राजा जनक की दृष्टि स्थिर हो गई। उन्होंने पूछाः “तुम क्या चाहती हो ?”

सुलभा ने कहाः “राजन् ! में आपसे शास्त्रार्थ करना चाहती हूँ। आपको राजकाज के गलाडूब व्यवहार में परमशांति कैसे हुई ? अगर मेरा परिचय पूछो तो ʹसुलभाʹ मेरा नाम है। क्षत्रिय कुल में मेरा जन्म हुआ है।”

संतशिरोमणी शुकदेव जी के गुरु आनंदित होकर योगिनी सुलभा का पूजन करते हैं। यह आत्मविद्या कैसी है ! जनक जैसे राजा बारह वर्षीय अष्टावक्र का पूजन करते हैं। यह आत्मविद्या की ही महिमा है।

बारह वर्षीय अष्टावक्र के शरीर में आठ चक्र हैं। ठिगना कद, काला रंग व टेढ़े मेढ़े अंग….. एकदम कुरुप…. और चलें  तो ऐसा लगे कोई विचित्र प्राणी आया। फिर भी उऩमें आत्मविद्या चमकती है और उऩकी पूजा होती है।

हम सब भी अपने ʹमैंʹ रूपी अहंकार का विसर्जन करते हुए उस परमेश्वर की, परमेश्वर के अनुभव का रसपान कराने वाले आत्मविद्या के समर्थ आचार्य किसी सदगुरु की शऱण लेकर उस परम शांति व परमानंद को प्राप्त करने का यत्न करें जिसकी प्राप्ति के बाद और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रहता तथा जिससे बढ़कर अन्य कोई लाभ नहीं होता, हम उसी की प्राप्ति का दृढ़ संकल्प करें…..

ૐ आनंद… ૐ शांति….. ૐ…..ૐ…..ૐ…..

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1997, पृष्ठ संख्या 2,3,4 अंक 53

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जनकपुरी में लगी आग


पूज्यपाद संत श्री आशारामजी बापू

महर्षि याज्ञवल्क्य के सत्संग-प्रवचन में जब राजा जनक पहुँचते तभी महर्षि प्रवचन का प्रारम्भ करते थे। प्रतिदिन ऐसा होने से सत्संग में आने वाले अन्य ऋषि-मुनि एवं तपस्वियों को मन में ऐसा होता था कि याज्ञवल्क्य जैसे महर्षि भी सत्तावानों की, धनवानों की खुशामद करते हैं। क्या हम साधु-महात्मा उनके श्रोता नहीं हैं ?

साधु-महात्माओं के मन का बात महर्षि भाँप गये। उनके मन में आया कि गुरु के प्रति यदि थोड़ी-सी भी श्रद्धा में कमी आयेगी तो इन्हें लाभ नहीं हो पायेगा। उनकी शंका को दूर करने के लिए महर्षि ने एक लीला रची।

जनकपुरी के चहुँ ओर आग लग गई। अनुचर भागता हुआ आया। सत्संग-श्रवण में तल्लीन राजा जनक को समाचार दियाः “महाराज ! जनकपुरी को चारों ओर आग लग गई है।”

राजा ने उसे धीरे से कहाः “अभी तो मेरे मन में अज्ञान की भीषण आग लगी है, उसे सत्संगरूपी अमृतवर्षा से बुझा रहा हूँ। इस कार्य में विघ्न मत डाल। तू भी यहाँ शांति से बैठ जा।

थोड़ी देर में दूसरा आदमी आता है। फिर तीसरा आया। उन सबको राजा जनक ने यही समझाकर बिठा दिया- ” वह तो संसार की बाह्य आग है। एक दिन तो सबको उसमें जलना ही है। तुम लोग चुपचाप बैठ जाओ। मेरी अज्ञानरूपी आग पर हो रही सत्संगरूपी अमृतवर्षा से मेरी भीतरी आग बुझा लेने दो।”

इतने में राजा का मंत्री आया और बोलाः “राजन ! आग लगी है। महल के इर्द-गिर्द आग की लपटें नियंत्रण से बाहर हो रही हैं।”

यह सुनकर सत्संग में बैठे अन्य साधु-महात्मा उठे और भागने लगे।

उन्हें भागते देखकर याज्ञवल्क्य ने पूछाः “आप लोग क्यों भाग रहे हो ?”

तब किसी ने कहा मेरा तुम्बा जल जायेगा तो किसी ने कहा मेरी कौपीन जल जायेगी।

महर्षि याज्ञवल्क्यः “अरे महात्माओं ! राजा जनक तो अपने महल की भी चिन्ता नहीं करते और आप लोग ऐसी छोटी-मोटी वस्तुओं की चिंता कर रहे हो ? बैठ जाओ। यह वास्तविक आग नहीं है। यह तो मेरी योगशक्ति की लीला थी।”

तब साधुओं को अपनी स्थिति एवं राजा जनक की स्थिति का अंतर समझ में आया।

वे समझ गये कि महर्षि याज्ञवल्क्य सत्संग शुरु करते समय धनवान और सत्तावान राजा जनक की खुशामद करने के लिए उनकी प्रतीक्षा नहीं करते थे अपितु अपने सच्चे मुमुक्षु शिष्य की प्रतीक्षा करते थे। साधु महात्माओं को समझ में आ गया कि महाराज जनक राज्य भोगते भोगते भी साधु हैं। उनके मन पर संसार की परिस्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वास्तव में वे ही ब्रह्मज्ञान के अधिकारी हैं।

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संसार कर्मभूमि है

एक बार माँ पार्वती ने भगवान शिव से पूछाः “भगवन ! कई ऐसे लोग देखे गये जो थोड़ा सा ही प्रयत्न करते हैं और सहज में ही उनके पास अनायास ही रथ, वस्त्र-अलंकार आदि धन-वैभव मंडराता रहता है और ऐसे भी कई लोग हैं जो खूब प्रयास करते हैं फिर भी उन्हें नपा तुला मिलता है। ऐसे भी कई लोग हैं जो जिंदगीभर प्रयत्न करते हैं फिर भी वे ठनठनपाल ही रह जाते हैं। जब सृष्टिकर्ता एक ही है, सबका सुहृद है, सबका है तो सबको एक समान चीजें क्यों नहीं मिलतीं ?”

भगवान शिव ने कहाः “जिसने किसी भी मनुष्य जन्म में, फिर चाहे दो जन्म पहले, दस जन्म पहले या पचास जन्म पहले बिना माँगे जरूरतमन्दों को दिया होगा और मिली हुई संपत्ति का सदुपयोग किया होगा तो प्रकृति उसे अनायास सब देती है। जिन्होंने माँगने पर दिया होगा, नपा-तुला दिया होगा, उन्हें इस जन्म में मेहनत करने पर नपा-तुला मिलता है और तीसरे वे लोग हैं जिन्होंने पूर्वजन्म में न पंचयज्ञ किये, न अतिथि सत्कार किया, न गरीब-गुरबों के आँसू पोंछे, न गुरुजनों की सेवा की वरन् केवल अपने लिये ही संपत्ति का उपयोग किया और कंजूस बने रहे ऐसे लोग इस जन्म में मेहनत करते हुए भी ठीक से नहीं पा सकते हैं और प्रकृति उन्हें देने में कंजूसी करती है।”

तब माँ पार्वती कहती हैं- “ऐसे लोग भी तो हैं, प्रभु ! कि जिनके पास धन-संपदा तो अथाह है लेकिन वे प्राप्त संपदा का भोग नहीं कर सकते।”

शिवजी ने कहाः “जिन्होंने जीवनभर संग्रह किया लेकिन मरते समय उन्हें ऐसा लगा कि कुछ तो कर जायें ताकि भविष्य में मिले…. इस भाव से अनाप-शनाप दान कर दिया तो उन्हें दूसरे जन्म में धन-संपदा तो अनाप-शनाप मिलती है किन्तु वे उसका उपयोग नहीं कर सकते क्योंकि जो पहले भी किसी के काम नहीं आया, वह उनके काम में कैसे आ सकता है ?”

माँ पार्वतीः “हे ज्ञाननिधे ! ऐसे भी कई लोग हैं जिनके पास धन, विद्या, बाहुबल बहुत है फिर भी वे अपने कुटुम्बियों के, पत्नी के प्रिय नहीं दिखते और कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके पास धन-संपदा नहीं है, बाहुबल, सत्ता नहीं है, सौन्दर्य नहीं है, मुट्ठीभर हाड़पिंजर शरीर है फिर भी कुटुम्बियों का, पत्नी का बड़ा स्नेह उन्हें मिलता है।

शिवजीः “हे उमा ! जिन्होंने अपना बाल्यकाल, अपना पूर्जन्म संयमपूर्वक एवं दूसरों को मान देकर गुजारा है उनको कुटुम्बी स्नेह करते हैं और वे गरीबी में भी सुखी जीते हैं लेकिन जिन्होंने पूर्वजन्म के दान-पुण्य के बल से धन-सत्तादि तो पा ली है किन्तु दूसरों को हृदयपूर्वक स्नेह नहीं किया है, मान नहीं दिया है, दूसरों का शोषण करते हैं उन्हें कुटुम्बी मान नहीं देते।”

संसार एक कर्मभूमि है। Every action creates reaction. आप जो भी करते हैं वह घूम-फिरक आपके ही पास आता है। अतः आप स्नेह देंगे तो स्नेह मिलेगा, मान देंगे तो मान मिलेगा लेकिन मान मिले इस वासना से नहीं वरन् जिनको भी मान दें ʹउऩकी गहराई  में मेरा परमात्मा हैʹ इस भाव से मान दें तो आपके भाव में परमात्मा प्रगटेगा और सामने वाले के हृदय में आपके लिए मान-आदर प्रगट हो जायेगा।

मान लेने के लिए नहीं वरन् मान देने के लिए व्यवहार करो। हम बड़े में बड़ी गलती क्या करते हैं ? पत्नी चाहती है मेरी चले, पति चाहता है मेरी चले। बहू चाहती है मेरी चले, सास चाहती है मेरी चले। देवरानी चाहती है मेरी चले, जेठानी चाहती है मेरी चले। पति-पत्नी, माँ-बाप, पुत्र-बहू, देवर-जेठ आदि सब चाहते हैं मेरी चले, मुझे सुख मिले, मुझे मान मिले।

हकीकत में सुख और मान लेने की चीज नहीं, देने की चीज है। जो सुख का दाता है वह दुःखी कैसे रह सकता है ? आप सुख के भिखारी न बनो, मान के भिखारी न बनो अपितु सुख और मान देने लगो। कोई सुख और मान दे या न दे इसकी परवाह न करो तो आपके हृदय में सुख और मान का प्रकाश और माधुर्य प्रगट होने लगेगा।

कोई कहता हैः “बाबा जी ! फलाना आदमी बड़ी गुप्त सेवा करता है। उसने सत्संग में बहुत सेवा की। उसको तो हार पहनाने का मौका तक नहीं मिला।”

अरे ! हार पहनाने का मौका नहीं मिला तो क्या हुआ ? अखबार में नाम नहीं आया तो क्या हुआ ? वह ईश्वर का दैवी कार्य करता है तो उसका हृदयेश्वर तो उसकी सेवा स्वीकार कर ही रहा है। क्या ईश्वर के दो ही हाथ हैं कि जिस हाथ से सेवा लेता है उसी हाथ से बदला दे क्या ? नहीं, हजारों-हजारों हाथ ईश्वर के हैं और बिना हाथ भी ईश्वर आपको अपना कृपा-प्रसाद देता है, आपके हृदय में आनंद, माधुर्य और सदबुद्धि देता है इसलिए ईश्वर के दैवी कार्य में प्रशंसा की चाहना न रखो। प्रशंसनीय सत्कार्य करो और वह सत्कार्य ईश्वर को अर्पण कर दो। ईश्वरीय सुख, ईश्वरीय आनंद देर-सबेर आपको प्राप्त हो जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1997, पृष्ठ संख्या 27,28,29 अंक 53

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