Monthly Archives: May 1997

दीक्षा से दिशा


पूज्यपाद संत श्री आशारामजी बापू

धर्म मनुष्य को जीवन जीने की सही दिशा देता है। धर्म की व्याख्या स्वामी विवेकानंद ने बहुत ही सुन्दर तरीके से की है। वे कहते हैं, ʹधर्म अनुभूति की वस्तु है। मुख की बात, मतवाद अथवा युक्तिमूलक कल्पना नहीं है, चाहे वह कितनी ही सुन्दर हो। आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, तदरूप हो जाना, उसका साक्षात्कार करना-यही धर्म है। धर्म केवल सुनने या मान लेने की चीज नहीं है। समस्त मन-प्राण विश्वास के साथ एक हो जायें – यही धर्म है।ʹ

सीदन्नपि ही धर्मेण न त्वधर्मं समाचरेत्।

धर्मो ही भगवान देवो गतिः सर्वेषु जन्तुषु।।

ʹधर्म पर चलने से कष्ट हो, तो भी अधर्म का आचरण नहीं करना चाहिए, क्योंकि धर्मदेवता साक्षात भगवान के स्वरूप हैं। वे ही सब प्राणियों की गति हैं।ʹ

लेकिन आजकल धर्म के नाम पर लोगों को भड़काया जाता है, फिर दूसरों को सताया जाता है, दूसरों का शोषण किया जाता है या लालच देकर उन्हें पथभ्रष्ट किया जाता है। यह धर्म नहीं है। सच्चा धर्म है अपने आपको सबमें बसे हुए उस एक-के-एक अन्तर्यामी परमात्मा के करीब लाना और उसका ज्ञान पाना।

शिक्षित आदमी के जीवन में यदि धर्म का प्रभाव है तो उसके जीवन की दिशा सही होगी तब वह महान से महान कार्यों का सम्पादन भी कर सकेगा। श्रीरामकृष्णदेव, कबीर, तुकाराम, मीरा, वल्लभाचार्य, रमण महर्षि, लीलाशाहजी महाराज जैसे अनेक महापुरुष हो गये, जिनके जीवन में ऐहिक शिक्षा तो नहीं के बराबर थी लेकिन ज्ञान के प्रभाव से उनके जीवन की दिशा ऐसी थी उनके द्वारा समाज का परम कल्याण हुआ है और आज भी लाखों-लाखों लोग उनके ज्ञान-प्रसाद से आनंदित हो रहे हैं और परम कल्याण के मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं।

जिसके जीवन की दिशा सही है, वह चाहे ऐहिक दृष्टि से अधिक पढ़ा-लिखा हो कि न हो, उसके पास सुख-सुविधाएँ अधिक हों या कम हों, उसकी वह परवाह नहीं करता है। वह बाहर के सुख-सुविधा की अपेक्षा अपने भीतर की शांति, तृप्ति पाता है। उसका जीवन अपने तथा दूसरों के लिए मंगलकारी हो जाता है।

राज्यसत्ता के मार्ग पर चलने वालों के लिए छत्रपति शिवाजी महाराज का जीवन अनुकरणीय है। समर्थ गुरु स्वामी रामदास जी के मार्गदर्शन से उनके जीवन को सही दिशा मिली थी।

शिवाजी जब समर्थ रामदास के पास संन्यास की दीक्षा लेने गये तब समर्थ रामदास ने कहाः “मैं तुम्हें संन्यास की दीक्षा नहीं दूँगा। इस समय देश को तुझ जैसे वीर पुरुषों की जरूरत है।”

दीक्षा के दिन समर्थ रामदास ने शिवाजी महाराज को तीन वस्तुएँ प्रसाद के रूप में दीं- पहले खोबा भरकर मिट्टी दी, फिर खोबा भरकर घोड़ो की लीद दी और अन्त में नारियल दिया।

गुरु जब प्रसाद देते हैं तो प्रसाद में गुरु का संकल्प होता है, गुरु के हृदय का भाव होता है। सत्शिष्य उसे झेल ले तो उसका जीवन सफल हो जाता है।

शिवाजी महाराज दीक्षित होकर जीजामाता के पास गये और गुरु जी के दिए हुए प्रसाद के बारे में पूछाः “माँ ! मुझे कुछ समझ में नहीं आता है कि गुरु जी ने प्रसादरूप में यह सब क्या दिया, क्यों दिया ?”

माँ कहती हैं- “शिवा ! तुझे मिट्टी इसलिए दी है कि तू महीपति होगा। घोड़ों की लीद इसलिए दी है कि तेरे  अस्तबल में घोड़े होंगे और युद्ध के समय में या जब कभी तुझ पर संकट आ जाये तो गुरुकृपा घोड़े द्वारा तेरी रक्षा करेगी। यह लीद नहीं है बेटा ! यह तो गुरुदेव के रहस्यमय आशीर्वाद हैं। नारियल इसलिए दिया है कि तेरे भीतर अहंकार न उभर पाये। भीतर से तेरी सम्पूर्ण रक्षा तेरे गुरुदेव करेंगे। इतना ही नहीं, तेरा अहंकार मिटाने की जवाबदारी भी उन्होंने अपने सिर ले ली है। शिवा ! भोग और मोक्ष, दोनों ही तेरे हाथ में हैं। आज तुझे महादीक्षा मिल गई है।

ऐसे समर्थ महापुरुषों द्वारा जब दीक्षा मिल जाती है तो उनके द्वारा अच्छे काम, दूसरों की भलाई के काम सहज में हो जाते हैं। फिर चाहे वह दुकान चलाता हो, चाहे राज्य करता हो, चाहे छोटे-बड़े जो भी काम करता हो, क्योंकि उसके जीवन में महापुरुषों के ज्ञान का प्रभाव होता है, उनकी दुआ का प्रभाव होता है।

ब्रह्मज्ञानी ते कछु बुरा न भया।

ब्रह्मज्ञानी से किसी का कुछ भी बुरा नहीं होता है और ऐसे ब्रह्मवेत्ताओं के सच्चे शिष्यों से भी समाज का बुरा नहीं होता है क्योंकि ब्रह्मवेत्ताओं का ʹबहुजन हिताय बहुजन सुखाय प्रवृत्तिʹ का स्वभाव उनके शिष्यों में भी अनायास ही आ जाता है।

शिवाजी ऐसे महापुरुष द्वारा दीक्षित हुए थे और उनके जीवन की दिशा भी सही थी। एक बार युद्ध में उनकी सेना से परास्त किसी मुगल सरदार की सुन्दर स्त्री को शिवाजी के सिपाही पकड़ लाये और दरबार में पेश करते हुए उऩ्होंने सोचा कि महाराज खुश होंगे लेकिन शिवाजी उस स्त्री से कहते हैं- “यदि मेरा दोबारा जन्म हो तो मैं  प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि मैं ऐसी सुन्दर माता की कोख से जन्म लूँ।”

सैनिकों ने उस मुगल युवती को भोग्या बनाने के लिए शिवाजी के सम्मुख प्रस्तुत किया था लेकिन भारत का यह वीर उसे मातृदृष्टि से निहारता हुआ सम्मानपूर्वक उसे उसके पति के पास लौटा देता है। क्या मुगल सम्राटों के इतिहास में ऐसा दीखने को मिलेगा ?

जिनके जीवन की दिशा सही होती है वे राजसत्ता में भी धर्म को आगे रखकर निर्णय लेते हैं, इसीलिए उनका जीवन दूसरों के लिए आदर्श बन जाता है, प्रेरणादायी बन जाता है।

शिवाजी मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राणों की बाजी लगाकर जूझ रहे थे तो कई लोग उनके विरोधी भी थे, जो अपने ऐशो-आराम तथा वैभव-विलास के लिए वतन को बेच डालना चाहते थे। ऐसे वतन विरोधियों ने एक मजबूर लड़के की मजबूरी का लाभ उठाकर उसके द्वारा शिवाजी की हत्या करवाने का षड्यंत्र रचा। शिवाजी एक रात अपने शयन-खंड में सो रहे थे तब मालवजी नामक एक चौदह वर्षीय बालक अपने को छुपाता हुआ, संभालता हुआ, किसी तांत्रिक विद्या के सहारे शिवाजी के शयनखंड में पहुँच गया।

शिवाजी के सेनापति ताना जी ने उसे देख लिया था। तानाजी जानना चाहते थे कि वह क्या करने आया है। वे सतर्क थे, एकदम सावधान थे। वे भी छुपकर उसके पीछे-पीछे पहुँच गये। जैसे ही मालवजी ने म्यान से तलवार खींची और शिवाजी की गर्दन को धड़ से अलग करना चाहा कि पीछे से ताना जी ने उस बालक को दबोच लिया। शोरगुल सुनकर शिवाजी की नींद खुल गयी।

ताना जी कहते हैं- “महाराज ! इसे मृत्युदंड देना चाहिए। यह आपकी हत्या करने के लिए आया था।”

शिवाजी उस बालक से पूछते हैं- “भाई ! मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है ? तू क्यों मुझे मारने आया है ?”

मालवजीः “मेरी माँ बीमार है और मेरे पिता बचपन में ही मुझे बेसहारा छोड़कर राज्य की रक्षा के लिए युद्ध के मैदान में अपनी प्राणहुति दे गये। इसी कारण परिवार की स्थिति अत्यधिक दयनीय हो गई। माँ के इलाज के लिए मेरे पास एक भी पैसा नहीं है। आपके विरोधियों ने मुझसे कहा कि ʹयदि तू शिवाजी की हत्या कर देगा तो हम तुझे बहुत सारा धन ईनाम में देंगेʹ और इसी लोभवश मैं आपकी हत्या करने आया था, लेकिन दुर्भाग्य कि मैं पकड़ा गया।”

ताना जी ने आवेश में आकर तलवार खींचते हुए कहते हैं- “लेकिन नादान ! तू अब मेरी तलवार से नहीं बच सकता।”

मालवजीः “आप मुझे मृत्युदंड दीजिये, उसके लिए मैं सहर्ष तैयार हूँ लेकिन मुझे एक रात की मोहलत दीजिये। मरने से पहले मैं अपनी माँ के पास जाकर उसे सान्त्वना के दो वचन सुनाना चाहता हूँ। मैं वनच देता हूँ कि सुबह तक मैं वापस लौट आऊँगा।”

उस बालक मालवजी की निर्भीकतापूर्वक कही गयी बातों को सुनकर शिवाजी महाराज कहते हैं- “ताना ! यह अपनी माँ के लिए छुट्टी माँग रहा है तो इसे छोड़ दे। इसके बोलने में भी कुछ सच्चाई नजर आ रही है।”

मालवजी को आजाद करते हुए शिवाजी कहते हैं- “जा ! अपनी माँ के सेवा करके, उससे आशीर्वाद लेकर सुबह आ जाना।”

प्रातःकाल का समय है। शिवाजी महाराज अपने दरबार में बैठे हैं तभी द्वारपाल के पास आकर एक बालक कहता हैः “शिवाजी के कह दो कि मालवजी आया है।” द्वारपाल का संदेश सुनकर शिवाजी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उन्होंने उसे भीतर बुलवाया। दरबार में उपस्थित होकर मालव जी कहता हैः “महाराज ! अपने अपराध की सजा पाने को मैं आ गया हूँ। मैं अपनी माँ को सान्त्वना देकर आया हूँ कि मेरे जैसे बेटे तो कई बार आये होंगे। मैं देर-सेबर आऊँ, न भी आऊँ तो तू मेरी चिंता मत करना बल्कि ईश्वर के चिंतन में ही मन को लगाये रखना। मैंने अपनी माँ से ऐसा नहीं कहा है कि मैं मर जाऊँगा, क्योंकि संतों की वाणी में मैंने सुना है कि मैं तो मरता नहीं हूँ। मरती तो देह है। अब आप खुशी से मुझे मृत्युदंड दीजिये।”

शिवाजी का हृदय दया से भर आया। उन्होंने कहाः “मालवजी ! तेरे जैसे सत्यनिष्ठ और वीर युवानों की तो मुझे बहुत आवश्यकता है। मैं तुझे अपने साथ ही रखूँगा।”

कितने बुद्धिमान और गुणग्राही थे शिवाजी ! सामने शत्रु खड़ा है, उसमें भी सदगुण देख रहे हैं ! यह गुणग्राही दृष्टि का प्रभाव। जिनके जीवन में धर्म का प्रभाव है उनके जीवन में सारे सदगुण आ जाते हैं, उनका जीवन ऊँचा उठ जाता है, दूसरों के लिए उदाहरणस्वरूप बन जाता है।

आप भी धर्म के अनुकूल आचरण करके अपना जीवन ऊँचा उठा सकते हो। फिर आपका जीवन भी दूसरों के लिए आदर्श बन जायेगा जिससे प्रेरणा लेकर दूसरे भी अपना जीवन स्तर ऊँचा उठाने को उत्सुक हो जायेंगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1997, पृष्ठ संख्या 14,15,16,22 अंक 53

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आत्मज्ञान की महिमा


पूज्यपाद संत श्री आशारामजी बापू

आत्मज्ञान की बड़ी महिमा है। एक व्यक्ति को दुनियाभर का धन दे दो, दुनियाभर का सौन्दर्य दे दो लेकिन आत्मज्ञान से अगर वचिंत रखा तो वह अभागा रह जायेगा। उसके हृदय में अशांति जरूर रहेगी, खटकाव जरूर रहेगा और जन्म-मरण का चक्र उसके सिर पर मँडराता ही रहेगा। फिर किसी-न-किसी माता के गर्भ में उलटा लटकता ही रहेगा। यदि उसे आप और कुछ भी न दो, परन्तु किसी ब्रह्मज्ञानी गुरु की मधुर निगाहों की माधुर्यता की एक झलक दिला दो, उसकी रूचि ईश्वराभिमुख कर दो तो महाराज ! आपने उसे ऐसा दे डाला, ऐसा दे डाला कि हजारों जन्मों के माँ-बाप तक न दे सकें। हजारों-हजारों जन्म कों के दोस्त रिश्ते-नाते न दे सकें, ऐसी चीज आपने उसको हँसते-हँसते दिला दी। आप उसके परम हितैषी हो गये।

आत्मज्ञान की ऐसी महिमा है। भगवान श्रीकृष्ण युद्ध के मैदान में मुस्कराते हुए अर्जुन को आत्मज्ञान दे रहे हैं। श्रीकृष्ण आये हैं तो कैसे ? विषम परिस्थितियों में आये हैं। गीता का भगवान कैसा अनूठा है ! किसी का भगवान सातवें अर्स पर रहता है, किसी का खुदा कहीं होता है, किसी का भगवान कहीं होता है लेकिन भारत का भगवान ! जीव को रथ पर बिठाता है और खुद सारथि होकर, छोटा होकर भी जीव को ब्रह्म का साक्षात्कार कराने में संकोच नहीं करता। श्रीकृष्ण तो यह भी नहीं कहते कि ʹइतना नियम करो, इतना व्रत करो, इतना तप करो, फिर मैं मिलूँगा।ʹ नहीं ! वे तो कहते हैं-

अपि चेदसी पापेभ्यः सर्वेभ्य पापकृत्तमः।

सर्व ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सतंरिष्यसि।।

ʹयदि तू सब पापियों से भी अधिक ताप करने वाला है तो भी ज्ञानरूप नौका द्वारा निःसन्देह संपूर्ण पापों को अच्छी प्रकार तर जायेगा।ʹ गीताः 4.36

भगवान कहते हैं ʹपापकृत्तमʹ। जैसे प्रिय, प्रियतर, प्रियतम होता है ऐसे ही कृत, कृत्तर और कृत्तम अर्थात् पापियों में भी आखिरी पंक्ति का हो, वह भी यदि इस ब्रह्मज्ञान की, आत्मज्ञान की नाव में बैठेगा तो तर जायेगा।

भगवदगीता जिस देश में हो, उसे देश के वासी जरा-जरा सी बात में चिढ़ जायें, दुःखी हो जायें, भयभीत हो जायें, ईर्ष्या करने लगें तो यह गीता से विमुखता के ही दर्शन हो रहे हैं। यदि हम गीता के ज्ञान के सन्मुख हो जायें तो हमारा यह दुर्भाग्य नहीं रह सकता।

जरा-जरा सी बात में जर्मन टॉय जैसा बन जाना, कोई दो शब्द बोल जाये तो आग बबूला हो जाना अथवा किसी ने जरा सी बड़ाई कर दी, दो शब्द मीठे कह दिये तो फूल जाना, इतना तो लालिया, मोतिया और कालिया कुत्ता भी जानता है। जलेबी देखकर पूँछ हिलाना और डण्डा देखकर दुम दबा देना, इतनी अक्ल तो उसके पास भी है। अगर इतना ही ज्ञान आपके पास है तो इतनी पढ़ाई-लिखाई का फल क्या ? मनुष्य होने का फल क्या ? फिर तो हम लोग भी द्विपाद पशु हो गये।

भगवान कहते हैं कि तुम कितने भी ठगे गये हो लेकिन जब गीता की शरण आ जाओ। अभी-अभी तुमको हम राजमार्ग दिखा देते हैं। जैसे हवाई जहाज छः घण्टों में दरिया पार पहुँचा देता है किन्तु बैलगाड़ी वाला छः साल चलता रहे फिर भी दरिया-पार करना उसके लिए संभव नहीं। मनमानी सुख की बैलगाड़ी को छोड़कर अब तुम आत्म-परमात्मसुख के जहाज में बैठ जाओ तो भवसागर से भी तर जाओगे।

ज्ञान भिडई ज्ञानडी ज्ञान तो ब्रह्मज्ञान।

जैसे गोला तोप का सोलह सो मैदान।।

जगत के और ज्ञान, छोटे-मोटे तो ज्ञानडो हैं लेकिन ब्रह्मज्ञान तोप का गोला है, जो सारी मुसीबतों को मार भगाता है। उस ज्ञान को पाने का तरीका भी भगवान सहज, सरल बता रहे हैं और वह तुम कर सकते हो। उसमें जो अड़चनें आती हैं उनका कारण भी भगवान बता रहे हैं और उन अड़चनों को कुचलने का उपाय भी भगवान बता रहे हैं। केवल तुमको गाँठ बाँधनी है कि ʹईश्वरप्राप्ति करके ही रहेंगे। हमको इस संसारभट्ठी में पच-पचकर नहीं मरना है बल्कि हमको शहंशाह होकर जीना है और शहंशाह होकर ही परम शहंशाह से मिलना है।ʹ

राजा से मिलने जब जाते हैं तो भीखमंगों के कपड़े पहनकर नहीं जाते। किसी मिनिस्टर, कलेक्टर से मिलने जब व्यक्ति जाता है तो उस दिन कपड़े जरा ठीकठाक करके जाता है। जब मिनिस्टर, चीफ मिनिस्टर से मिलना है तो सज-धजकर जाते हैं तो उस ब्रह्मांडनायक परमेश्वर से मिलना हो तो शहंशाह होकर जाओ। दीनता, हीनता, वासना, चिंता, मुसीबतें, काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, मात्सर्य, यह कचरा लेकर कहाँ मुलाकात करने जाते हो ? इन विकारों से बचने का उपाय, संसार में सुगमता से स्वर्गीय जीवन जीने का उपाय और परमसुखस्वरूप उस परमेश्वर को पाने का उपाय, ये सब बातें श्रीमदभागवत में व भगवदगीता में बतायी गयी हैं। कोई भी व्यक्ति गीता के अध्ययन, मनन और निदिध्यासन से अपने जीवन-पुष्प को महका सकता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1997, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 53

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आपकी सबसे बड़ी कमजोरी


पूज्यपाद संत श्री आशारामजी बापू

आज के दौर में मनुष्य श्रद्धा रखने के पूर्व, श्रद्धावान बनने के पूर्व तर्क पहले रखता है। हर बात में अपनी बुद्धि की बुद्धिमानी दर्शाना चाहता है लेकिन ऐसी बुद्धिमानी किस काम की जो आपको बुद्धिदाता से ही दूर रखे ? यह भी कैसा संयोग है कि आप स्वयं को बुद्धिमान मानते हैं फिर भी दुःखी, चिन्तित, भयभीत और शोकातुर हैं। जब आप सचमुच बुद्धिमान हैं तो ये सारी परेशानियाँ क्यों ? कोई बुद्धिमान भी हो और अज्ञानवश दुःख भी उठाये यह कैसे संभव है ?

दरअसल, यह आपकी सबसे प्रमुख कमजोरी है कि आप अपने-आपको बुद्धिमान मानकर दुःख झेल रहे हैं। दुःखों की निवृत्ति के लिए सिर्फ आपका बुद्धिमान होना ही पर्याप्त नहीं है। आपके पास जो बुद्धि है उससे ज्ञानवानों के वचनों को समझने से, उन्हें जीवन में उतारने से, उनमें श्रद्धा रखने से ही सच्ची शांति मिलेगी। श्रद्धा के सामने कोई तर्क मायना नहीं रखता। कितने ही लोगों का यह सवाल होता है किः “हम ईश्वरपरायण नहीं हुए, सत्संग-सेवा का लाभ नहीं लिया तो क्या घाटा पड़ जाएगा ? करोड़ों लोगों की तरह हम भी ऐसे ही खायें, पियें और जियें तो क्या फर्क पड़ेगा ?”

इस तरह के सवाल  आपके मन-मस्तिष्क में विषयों, सुख-सुविधा और जगत के प्रति गहरे आकर्षण के प्रभाव को दर्शाते हैं। ईश्वरपरायण होने के पीछे भी आपका दगेबाज मन लाभ हानि खोजता है, यह कितने अफसोस की बात है ! सही है…. यदि आप ईश्वरपरायण नहीं हुए तो किसे क्या फर्क पड़ेगा ? न तो इससे ईश्वर आपसे नाराज होंगे और न ही आपको किसी दण्ड का भागीदार बनना पड़ेगा। मगर आपको जो कुछ सहना होगा, वह किसी दण्ड से कम नहीं होगा। ईश्वर को छोड़कर जगतपरायण होना ही समस्त दुःखों का घर है। ईश्वर का सहारा त्यागकर नश्वर संसार का सहारा लेना, यही तो दुःखों का मूल है। जहाँ अशान्ति है, वहाँ से शान्ति कैसे मिलेगी ?

ईश्वरपरायण होने का अर्थ है हृदय में परमात्मशांति का प्राकट्य। भैया ! ईश्वरपरायण नहीं होने के पीछे कारण यही है कि आप संसार की तपन में इतने झुलसे हैं कि आपको शांति के शीतल स्रोत में तपन शांत करने की उत्कंठा भी नहीं रही। आप उस स्रोत को ही भूल गये। यदि आप ईश्वरपरायण हैं तो संसार भी आपको सुखदायी लगेगा क्योंकि आप संसार में रहेंगे, संसार के संबंधों में उलझने के लिए नहीं वरन् जिससे सच्चा संबंध है उससे संबंध प्रगाढ़ करके सत्य स्वरूप की अनुभूति करने के लिए।

मगर धोखबाज मन आपको हमेशा तर्क-कुतर्क के सहारे उलझाये रखता है। ईश्वरपरायण न होने से विषयों का चिंतन होगा और विषयों का चिन्तन विष से भी अधिक खतरनाक है, हानिकारक है क्योंकि विषपान से मनुष्य एक बार मरता है परन्तु विषयों के चिन्तन से तो वह हर क्षण, हर पल, हर दिन मरता ही रहता है। विषयों के चिन्तन से कामना उठेगी और वह पूरी होगी तो आसक्ति होगी। कामना पूरी नहीं होगी तो क्रोध आयेगा। क्रोध होगा तो बुद्धि का नाश होगा। बुद्धि का नाश हुआ तो सर्वनाश हुआ। यह बुद्धि के नाश का ही तो परिणाम है कि जहाँ आपको श्रीहरि के सहारे उन्नत होना है वहाँ आप तर्क-कुतर्क लड़ाकर अशांति बढ़ाते रहते हैं। मन में अशान्ति से ही क्रोध होता है।

स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में यही बात कही हैः

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।

संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधाभिजायते।।

क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

ʹविषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है। मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है। स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है।ʹ भगवद् गीताः 2.62.63

जो भगवान का चिन्तन नहीं करेगा उसको संसार का चिन्तन होगा। संसार का चिन्तन क्या है ? राग-द्वेष की अग्नि, अहंकार का सर्जन, विषयों में गहरी प्रीति, जन्म-मृत्यु का लगातार जारी रहना। ब्रह्मचिन्तन करने वाला थोड़े ही जन्म-मृत्यु जरा व्याधि की चक्की में पिसता है ! जो आदमी विषय विकारों में फँसा रहता है उसकी बुद्धि दबी रहती है। ईश्वर को पीठ दिखाना ही पतन की शुरुआत है।

जिसने सत्संग और सेवा का लाभ नहीं लिया, इसका महत्त्व नहीं समझा वह सचमुच अभागा है। आत्मवेत्ताओं का सत्संग तो मनुष्य के उद्धार का सेतु है। सत्संग माने सत्यस्वरूप परमात्मा में विश्रान्ति। जिसके जीवन में सत्संग नहीं होगा, वह कुसंग तो जरूर करेगा और एक बार कुसंग मिल गया तो समझ लो तबाही ही तबाही, लेकिन अगर सत्संग मिल गया तो आपकी 21-21 पीढ़ियाँ निहाल हो जाएँगी। हजारों यज्ञों, तपों, दानों से भी आधी घड़ी का सत्संग श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि सदगुरु का सत्संग-सान्निध्य जीव को जीवपद से शिवपद में  आरूढ़ करता है। इतना ही नहीं, सत्संग से आपके जीवन को सही दिशा मिलती है, मन में शान्ति, बुद्धि में बुद्धिदाता का ज्ञान छलकता है।

सत्संग की आधी घड़ी, सुमिरन वर्ष पचास…..

आदमी कितना भी छोटा हो, कितना भी गरीब हो, कितना भी असहाय हो मगर उसे सत्संग मिल जाये तो वह इतना महान बन सकता है कि उसकी महिमा कोई नहीं बतला सकता। जो सुख, सत्ता मिलने से और जो भोग, स्वर्ग मिलने से भी नहीं मिलता, वह सत्संग से सहज ही प्राप्त हो जाता है। सत्संग से आत्मशान्ति, परमात्मसुख की प्राप्ति होती है। यह वह सत्संग है जो हमें राग-द्वेष की अग्नि से, अहंकार सजाने की आदत से, विषयों में आसक्ति से बचाकर अंततोगत्वा जन्म-मृत्यु के बंधन से भी विनिर्मुक्त कर नारायण पद में विश्रान्ति दिला देता है। तुलसीदास जी ने कहा हैः

एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुनि आध।

तुलसी संगत साध की हरे कोटि अपराध।।

जीवन में जितना-जितना सेवा का महत्त्व समझ में आयेगा उतना-उतना कल्याण होता जायेगा। विवेकानन्द कहा करते थेः “भगवान ने दरिद्रों को जन्म देकर तुम्हें सेवा का अवसर दिया है। उऩकी सेवा करके उन पर कोई एहसान नहीं करते हो।”

अंतःकरण की शुद्धि का, अहंकार से मुक्ति का सीधा सरल उपाय है कि आप निःस्वार्थभाव से सेवा में जुट जाइये। जो समझदार है व कहीं-न-कहीं से सेवा का अवसर ढूँढकर अपना काम बना लेते हैं।

आपने यदि सत्संग-सेवा का लाभ नहीं लिया तो कोई खास घाटा नहीं पड़ेगा। बस, सत्संग से वंचित रहे तो मनुष्य जन्म का महत्त्व नहीं समझ पायेंगे और सेवा से वंचित रहे तो जन्म-जन्मान्तर से आपके मन में ʹमेरे-तेरेʹ का जो मैल जमा है उसे कभी धो नहीं पायेंगे। आप  भी करोड़ों लोगों की तरह दुःखी, चिन्तित रहेंगे। सब कुछ होते हुए भी आप सुख के लिए हाथ फैलाते रहेंगे। जो मन में आया वह खाया-पिया, जैसे चाहा वैसे जिया तो जीवन मुसीबतों का घर बन जायेगा। आज यही तो हो रहा है। जीवन से श्रद्धा और संयम उठ गया तो मानव घोर अशान्त हो गया। जब तक संयम नहीं होगा, तब तक कष्ट सहना पड़ेगा।

इसलिए कृपानाथ ! ऐसे बेबुनियादी प्रश्नों, तर्कों-कुतर्कों में अपने मत को मत उलझाइये। यदि हजारों-लाखों लोग आज ईश्वरपरायण होकर, सत्संग-सेवा का महत्त्व समझकर, जीने का ढंग सीखकर अपने जीवन को सफल कर रहे हैं तो आप क्यों व्यर्थ को मान्यताओं में जकड़कर दुःखी, चिन्तित हैं ? आप भी उन महापुरुषों का परम प्रसाद पाकर अपने जीवन को महकाइये। हे प्रेमस्वरूप ! हे आनन्दस्वरूप ! हे सुखस्वरूप मानव ! सुख, प्रेम और आनंद के लिए अपने को क्यों बाहर भटका रहा है, झुलसा रहा है…. खपा रहा है…. तपा रहा है ? ठहर…. रूक जा। अपने आपको देखने की कला किन्हीं ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों से सीख ताकि पता चले कि तू कितना मधुर है… तु कितना प्यारा है… तू कितना सुखस्वरूप महान् आत्मा है….!

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1997, पृष्ठ संख्या 20,21,22 अंक 53

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