माँ पार्वती व जीवन्मुक्त संत

माँ पार्वती व जीवन्मुक्त संत


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

पूरा प्रभु आराधिया पूरा जा का नाँव।

पूरे को ही पाइया पूरे के गुण गाँव।।

ऐसे पूरे प्रभु की आराधना करने वाले एक जीवन्मुक्त संत बैठे हुए थे। पार्वती जी एवं शिवजी विचरण करते हुए उधर से निकले, तब पार्वती जी ने शिवजी से कहाः

“देखिये तो सही, आपका यह भक्त ! घर बार, राज-पाट छोड़कर साधु हुआ है। अब चिंता की अग्नि में बाटी सेंक रहा है। इसको कुछ दे दीजिये।”

शिवजीः “इनको मैं क्या दूँ… इन्होंने तो ऐसा पाया है कि दूसरों को जो चाहे वह दे सकते हैं।”

पार्वती जीः “प्रभु ! क्यों ऐसा कहते हैं ? बेचारे दुःखी हैं, चलिये।”

शिवजीः “तुम कहती हो तो चलो।”

दोनों गये उन महापुरुष के पास और शिवजी बोलेः “भिक्षां देहि।”

महापुरुष में जो दो बाटी सेंक रखी थीं, वे उठाकर पीछे देखे बिना ही दे दी। तब शिवजी ने कहाः “अरे ! जरा पीछे देखो तो सही, किसको भिक्षा दे रहे हो ?”

उन संत पुरुष ने पीछे देखा और बोलेः “अच्छा भोलेनाथ आप आये हैं ?”

शिवजीः “कुछ माँग लो।”

महापुरुषः “क्या माँगू ?”

शिवजीः “मैं तुम्हें इस धरती का राजा बनाता हूँ।”

महापुरुषः “मेरी बाटी वापिस दे दो। अभी मैं प्रेम से निश्चिन्त बैठा हूँ, फिर राज्य की झंझट कहाँ सँभालूँ ? आपकी सेवा का फल मुक्ति होना चाहिए कि राज्य की झंझट ?”

शिवजी पार्वती जी की ओर देखकर मंद-मंद मुस्कराये। दोनों वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गये।

समय पाकर माता पार्वती जी अकेली आयीं। उस समय वे महापुरुष गुदड़ी सी रहे थे। माँ पार्वती ने कहाः “बाबा ! कुछ माँग लो।”

महापुरुषः “माँ ! कुछ देना ही चाहती हो तो जरा यह गुदड़ी सी दीजिये।”

पार्वतीजीः “गुदड़ी क्या गादी तकिये से सजा-सजाया भवन दे दूँ।”

महापुरुषः “माताजी ! छोड़िये ये सब झंझट।”

माता जी चली गयी। कुछ समय बीता। पुनः माता पार्वती जी पधारीं। उस समय वे महापुरुष टाँग पर टाँग चढ़ाकर आकाश की ओर निहारते हुए ब्रह्मानंद की मस्ती में बैठे हुए थे। पार्वती जी आयीं तो वे न खड़े हुए, न कुछ बोले। तब पार्वती जी ने कहाः “क्या बैल की तरह बैठे हो ! जाओ, बैल बन जाओ।”

समय पाकर वे महापुरुष बैल के रूप में प्रगट हुए। पार्वती जी ने पूछाः “क्यों महाराज ! कैसे हैं ?”

बैलरूपी महापुरुष बोलेः “माता जी ! आपकी बड़ी कृपा है। मनुष्य रूप में तो जरा मल-मूत्र त्याग के लिए स्थान का विचार करना पड़ता था। अब तो चलते-चलते भी कर लिया तो कोई हर्ज नहीं है। पहले तो भोजन बनाकर खाना पड़ता था किन्तु अब तो भूख लगी, चारा तैयार।”

माता जी को हुआ कि इनको तो कोई असर ही नहीं होता। ये तो ऊँट जैसे हैं। अतः बोलीं “ऊँट की नाईं गर्दन ऊँची किये बैठे हो, जाओ ऊँट बनो।”

कहानी कहती है कि समय पाकर वे ऊँट बने। कुछ समय बीतने के बाद माता जी ने पूछाः “क्या…. क्या हाल है ?”

ऊँट रूपी महापुरुषः “माँ ! बैल को तो हरा या सूखा घास चाहिए। कभी मिले न भी मिले। किन्तु ऊँट बनाकर तो आपने एकदम आराम दे दिया। जब भूख लगे तो गर्दन ऊँची करके पेड़ों से भोजन मिल जाता है। माताजी ! आप दे-देकर भी क्या देंगी ? या तो अनुकूल वस्तुएँ या प्रतिकूल वस्तुएँ देंगी लेकिन देंगी इस नश्वर शरीर को ही। आप चाहे बैल बनायें चाहे ऊँट, शरीर है प्रकृति का। आपका श्राप प्रकृति के इस बदलने वाले शरीर को लग सकता है। मुझ आत्मा तक उसकी पहुँच नहीं। माता जी ! अब आपको कुछ चाहिए तो आप ही कुछ माँग लीजिये।”

कैसे हैं ब्रह्मवेत्ता संत !

माता पार्वती जी ने कहाः “यदि आप मुझ पर प्रसन्न ही हैं तो मुझे एक वरदान दे दीजिये कि आप जैसे जीवन्मुक्त पुरुष मेरे यहाँ बालक रूप अवतरें।”

उन संत महापुरुष ने स्वीकार कर ली बात और वे ही स्वामी कार्तिकेय होकर माता पार्वती के घर अवतरित हुए।

औलिया की जूती

निजामुद्दीन औलिया एक सूफी फकीर एवं बाबा फरीद के प्रेमभाजन थे। एक बार निजामुद्दीन औलिया के पास एक गृहस्थ मुसलमान आया और बोलाः “बाबा ! मुझे अपनी लड़की के हाथ रंगने हैं। हो जाये कुछ रहमत…”

औलियाः “आज कोई धनवान नहीं दिखता। कल आना।”

दूसरे दिन भी वह गृहस्थ आया किन्तु उस दिन औलिया का कोई सेठ भक्त नहीं आया। पुनः निजामुद्दीन औलिया ने कहाः “कल आना।” इस प्रकार ʹकल… कल…ʹ करते कुछ दिन बीत गये किन्तु कोई सेठ आया नहीं।

तब वह गृहस्थ बोलाः “बाबा ! मुझ गरीब का भाग्य भी गरीब है। अब आपसे जो रहमत हो सके, वही दे दीजिये।”

निजामुद्दीन औलियाः “भाई ! मेरे पास तो इस वक्त मेरी जूती पड़ी है। वही ले जाओ।”

औलिया की जूती लेकर वह गृहस्थ निकल पड़ा और सोचने लगा कि,  ʹइस जूती के तो दो चार आने मिल जायेंगे। चलो, उसी पैसों से गुड़ लेकर खा लेंगे।ʹ इस प्रकार के विचार करते-करते वह जा रहा था।

इधर अमीर खुसरो अपने वजीरपद से इस्तीफा देकर चालीस ऊँटों पर अपने पूरे जीवन की कमाई लदवाकर औलिया के चरणों में जीवन धन्य बनाने के लिए आ रहा था। इस गृहस्थ के पास आने पर उस प्यारे शिष्य अमीर खुसरो को अपने गुरुदेव निजामुद्दीन की बू आयी तो वह सोचने लगा कि मानो-न-मानो, मेरे औलिया की खुशबू इसी आने वाले आदमी की ओर से आ रही है। अमीर खुसरो ने फिर गौर किया। जब वह आदमी पीछे गया तो खुशबू पीछे से आने लगी। उसे जाते देखकर अमीर खुसरो ने आवाज लगायीः “ठहरो भाई ! मेरे औलिया के यहाँ से तुम क्या लिये जा रहे हो ? मेरे औलिया का ओज दिखाई दे रहा है। क्या है तुम्हारे पास ?”

उस आदमी ने सारी बात अमीर खुसरो को बता दी और कहाः “उन्होंने मुझे अपनी यह जूती दी है।”

खुसरोः “अच्छा ! बताओ, तुम कितने में इसे दोगे ?”

व्यक्तिः “आप जो मूल्य लगायें।”

अमीर खुसरोः “मेरे औलिया की जूती का मूल्य चुकाने की सामर्थ्य तो मुझमें नहीं है। फिर भी मैं मुफ्त में लेना भी नहीं चाहूँगा। मेरे जीवन की सारी कमाई चालीस ऊँटों पर लदी है। इनमें से एक ऊँट, जिस पर सीधा-सामान है, केवल वही मैं रखता हूँ बाकी के उनतालीस ऊँट तुम्हें देता हूँ। यदि दे सको तो मेरे शहंशाह की यह जूती मुझे दे दो।”

वह व्यक्ति तो हैरान हो गया कि जिसे मैं दो चार आने की जूती मान रहा था, उसके लिए अमीर खुसरो अपने पूरे जीवन की कमाई देने पर भी सौदा सस्ता मान रहा है ! उसने औलिया की जूती भी अमीर खुसरो को दे दी।

अमीर खुसरो पहुँचा गुरु के द्वार पर और प्रणाम किया अपने औलिया को। एक रेशमी रूमाल से ढँककर सौगात पेश की औलिया के कदमों में।

निजामुद्दीनः “क्या लाये हो ?”

अमीर खुसरोः “आपकी दी हुई चीज आपके चरणों में लाया हूँ।”

निजामुद्दीनः “आखिर क्या लाये हो ? कौन से मेवे-मिठाइयाँ हैं ?”

अमीर खुसरोः “गुरुदेव ! मेरे औलिया ! मेवे-मिठाइयों से भी ज्यादा कीमती चीज है।”

निजामुद्दीनः “क्या है ?”

अमीर खुसरोः “औलिया ! मेरे सारे जीवन की कमाई का सार है।”

निजामुद्दीनः “आखिर है क्या ?”

अमीर खुसरोः “मेरे मालिक ! मेरे आका ! मैं क्या बोलूँ ? मेरे लिये तो मेरे पूरे जीवन की कमाई है।”

निजामुद्दीनः “अच्छा ! खोलो तो सही !”

धीरे से रेशम का रूमाल हटाया अमीर खुसरो ने। देखते ही चौंक पड़े निजामुद्दीन औलिया और बोलेः “अरे ! यह तो मेरी जूती ! थोड़ी देर पहले ही एक गरीब को दी थी। क्या तूने छीन ली उससे ?”

अमीर खुसरोः “मेरे रब ! मैंने छीनी नहीं है।”

निजामुद्दीनः “तो क्या खरीदी है ?”

अमीर खुसरोः “इस बंदे में क्या ताकत कि आपकी जूती खरीद सके ?”

निजामुद्दीनः “फिर कैसे लाया है ?”

अमीर खुसरोः “मेरे औलिया ! मेरे जीवन भर की कमाई से लदे जो चालीस ऊँट थे उनमें से एक सीधे सामान, बोरी-बिस्तरवाले ऊँट को छोड़कर बाकी के उनतालीस ऊँट देकर इसे लाया हूँ।”

तब निजामुद्दीन बोलेः “फिर भी सौदा सस्ता है।”

संतों का समय व्यर्थ न करो

चाणोद करनाली में श्री रंगअवधूत महाराज नर्मदा के किनारे बैठकर नर्मदा की शांत लहरों को निहार रहे थे। वहाँ एक अधिकारी ने देखा कि जिनका काफी नाम सुना है, वे ही श्री रंगअवधूत महाराज बैठे हुए हैं। अतः वह उनके पास जाकर प्रणाम करके बोलाः

“बाबा जी ! बाबाजी ! 42 वाँ साल चल रहा है…. अभी तक घर में झूला नहीं बँधा, संतान नहीं हुई।”

श्रीरंगअवधूत जी बोलेः ʹ”यहाँ भी संतान की बात करता है ? जा अब।”

अधिकारी बोलाः “किन्तु बाबा जी ! अभी तक संतान नहीं हुई… मुझे संतान होगी कि नहीं ?”

“हाँ ! जा अब यहाँ से।”

“बाबा जी ! बेटा होगा क्या मुझे ?”

“हाँ बाबा, हाँ। जा अब यहाँ से।”

“बाबा जी ! क्या सचमुच मुझे बेटा होगा ?”

“अरे ! तुझे कहा न ! जा यहाँ से।”

“किन्तु बाबा जी ! एक बार फिर से कह दीजिये न कि बेटा होगा।”

“जा साले ! अब कभी नहीं होगा।”

जो संत दिव्य सात्त्विक भाव में होते हैं उनका संकेत भी काफी होता है। अतः बार-बार एक ही बात पूछकर ऐसे निजानंद की मस्ती में मस्त रहने वाले संतों का समय नष्ट करना मूर्खता है। संतों के पास श्रद्धा-भक्ति से बैठकर सत्संग-श्रवण करना और उसका मनन-चिंतन करना तो बढ़िया है किन्तु संसार की नश्वर वस्तुओं के लिए बार-बार उनका समय लेना अपराध है।

कोई जाय संत के पास और कहेः “महाराज ! इसे यह बीमारी है… डाक्टरों ने ऐसा कहा है।”

संतः “अच्छा….. जाओ, देखो कोई इलाज करो।”

अब वह इलाज करे न करे फिर भी उसे स्वतः फायदा होने लगेगा। केवल महापुरुष के कानों में बात पहुँचायी तो भी फायदा हो जाता है। सत्त्वगुण में जागे हुए महापुरुष का संकेत भी काफी होता है। सत्त्वगुण में जो महापुरुष हैं वे तो नजरों-नजरो में ही दे देते हैं। उनके आगे माँगना नहीं पड़ता। अतः एक ही बात बार-बार पूछकर उनका समय खराब करना माने अपना भाग्य ही खराब करना है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1997, पृष्ठ संख्या 12 से 15, अंक 55

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