बड़े कृपालु होते हैं ब्रह्मवेत्ता सत्पुरुष

बड़े कृपालु होते हैं ब्रह्मवेत्ता सत्पुरुष


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

योगिनामपि सर्वेषां मद् गतेनान्तरात्मना।

श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः।।

ʹसब योगियों में जो भी श्रद्धावान योगी मुझ में एकत्वभाव से स्थित होता है, वह मुझे सर्वश्रेष्ठ मान्य है।ʹ (गीताः 6.47)

अपनी-अपनी जगह पर योगियों का, उनके योगसामर्थ्य का महत्त्व तो है लेकिन भगवान के ʹमाम्ʹ के साथ जो तदाकार हो जाता है वह श्रेष्ठ योगी माना जाता है।

गंगा में स्नान करने से पाप की निवृत्ति, चंद्रमा की चाँदनी में आने से ताप की निवृत्ति और कल्पवृक्ष मिलने से दरिद्रता की निवृत्ति बतायी गयी है लेकिन कल्पवृक्ष मिलने से धन मिल जाता है, बाहर की दरिद्रता मिटती है किन्तु हृदय की दरिद्रता तो फिर भी मौजूद रहती है। जबकि सत्संग से ये तीनों काम एक साथ हो जाते हैं।

गंगा पापं शशि तापं दैन्य कल्पतरूस्तथा।

पापं तापं च दैन्यं च घ्नन्ति संतो महाशयाः।।

संतों के संग से पाप, ताप और दिल की दरिद्रता, सदा-सदा के लिए काफूर हो जाती है क्योंकि संत आत्मलाभ को पाये हुए होते हैं, आत्मसुख को पाये हुए होते हैं, आत्मज्ञान को पाये हुए होते हैं और आत्मज्ञान से बड़ा कोई ज्ञान नहीं है, आत्मसुख से बड़ा कोई सुख नहीं है, आत्मलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं है।

आत्मलाभात् परं लाभ न विद्यते।

आत्मसुखात् परं सुखं न विद्यते।

आत्मज्ञानात् परं ज्ञानं न विद्यते।

दुनिया में बहुत से लोग आदर करने योग्य हैं। जैसे विद्वान, पंडित, धनवान, बलवान, यशस्वी, सदाचारी आदि-आदि। लेकिन इन सबके बीच अगर ब्रह्मवेत्ता आ जाता है तो ये सब उनके समक्ष नन्हें हो जाते हैं। जैसे अन्य प्राणियों के समक्ष हाथी बड़ा होता है किन्तु हाथी भी हिमालय के आगे तो नन्हा ही है, वैसे ही राजा-महाराजाओं के आगे इन्द्र बड़े हैं किन्तु आत्मज्ञानीरूपी हिमालय के आगे तो इन्द्र भी नन्हें ही हैं। और लोग – धऩी, तपी, जपी, विद्वान आदि तो सभा में मान करने योग्य होते हैं जबकि ब्रह्मवेत्ता महापुरुष तो पूजने योग्य होते हैं। उनकी चरणरज भी आदर करने योग्य होती है। ऐसा है ब्रह्मज्ञान।

भगवान श्री राम कितने बुद्धिमान होंगे कि जिन्होंने मात्र 16 वर्ष की उम्र में ही अपने जीवन का परमलाभ आत्मलाभ पा लिया ! उन्होंने गुरुवर वशिष्ठजी के चरणों में बैठकर ब्रह्मविद्या पा ली। रामावतार में जो ʹतत्त्वमसिʹ के रूप में सुना, वही कृष्णावतार में ʹअहं ब्रह्मास्मिʹ के रूप में छलका और श्रीमद् भगवद् गीता के रूप में प्रसिद्ध हुआ। अगर तीन मिनट के लिए भी इस ब्रह्मविद्या की अनुभूति हो जाये तो फिर इन्द्रपद भी तुच्छ लगने लगता है।

एक माई ने और उसके पति ने संकल्प किया कि ʹहम लोग चारों धामों की यात्रा करेंगे और चौरासी सौ ब्राह्मणों को भोजन करायेंगे।ʹ किन्तु दैव योग से पति मर गया एवं मुनीमों ने बेईमानी करके उसका सारा माल हड़प कर लिया। कुछ ही वर्षों में उस माई को मजदूरी करके अपनी जीविका चलाने के लिए विवश होना पड़ा। उसको खटका रहने लगा कि ʹहमने संकल्प किया था चौरासी सौ ब्राह्मणों को भोजन करवाने का एवं चार धाम की यात्रा करने का। अब उसका क्या होगा ?ʹ

चतुर्मास आने पर उस गाँव में एक दण्डी संन्यासी आये। उस भूतपूर्व सेठ की पत्नी ने उनके सामने अपनी व्यथा कथा सुनाते हुए प्रार्थना कीः “बाबाजी ! मेरे मन में यह खटका हमेशा बना रहता है।”

दण्डी संन्यासीः “माई ! तुम्हारे गाँव में एक संतपुरुष रहते हैं, एकनाथ जी महाराज। उनका पुत्र हरिपंडित शास्त्री पढ़ा हुआ है किन्तु वह एकनाथ महाराज की महिमा को नहीं जानता है। मैं उन्हें जानता हूँ। सारे धाम जिस परमात्मा में हैं उनका उन्होंने साक्षात्कार किया है। उन महाराज की प्रदक्षिणा करने पर तुम्हारे चार धाम तो क्या, सभी धामों की यात्रा पूरी हो जायेगी एवं उनको भोजन करवाने से चौरासी सौ तो क्या चौरासी लाख ब्राह्मणों को भोजन करवाने का पुण्य हो जायेगा। अगर वे एकनाथ जी महाराज तुम्हारी प्रार्थना का स्वीकार कर लें तो तुम्हारे ये दोनों मनोरथ पूरे हो जायेंगे।”

माई तो बड़ी खुश हुई। दण्डी संन्यासी आगे बोलेः “किन्तु माई ! वे जल्दी नहीं स्वीकारेंगे क्योंकि उनका बेटा जरा जिद्दी है और उसने एकनाथ जी महाराज से वचन ले रखे हैं।”

माईः “कौन से वचन ?”

दण्डी संन्यासीः “बात यह है कि उनका बेटा जरा पढ़ा-लिखा है, विद्वान है। अतः एकनाथ जी के विरोधियों ने उसे उकसाया ताकि बाप-बेटे के भीतर जरा वैमनस्य हो जाये। बाप के अंदर तो वैमनस्य नहीं था किन्तु बेटा समझता था कि ʹपिताजी यह ठीक नहीं करते। हम ब्राह्मण लोग हैं फिर भी जिस-किसी के यहाँ खा लेना, यह तो धर्मभ्रष्ट होना है।ʹʹ यह सोचकर हरि पंडित काशी भाग गया। उसके भाग जाने से गिरिजाबाई दुःखी रहने लगी, तब एकनाथ जी को हुआ कि ʹइतनी साध्वी पत्नी दुःखी है !ʹ अतः बेटे को मनाने के लिए वे काशी गये और बेटे से कहाः ʹचलो, वापस घर में।ʹ तब बेटे ने पिता से वचन लियाः ʹब्राह्मण होकर किसी के भी हाथ का खा लेना उचित नहीं है। अतः आप किसी के भी हाथ का नहीं खायेंगे यह वचन दीजिये और दूसरी बातः आप संस्कृत में ही सत्संग करें। तभी मैं घर वापस आऊँगा।ʹ

एकनाथ जी महाराज वचन देकर उसे वापस घऱ ले आये है। अब उन्होंने लोकभाषा छोड़कर संस्कृत में सत्संग करना शुरु कर दिया है। जिन्हें श्रद्धा थी वे लोग तो टिके हैं, बाकी के सत्संगी कम हो गये हैं। किन्तु क्या करें ? बेटे का हठ जो है ! अब वे किसी के हाथ का भोजन भी नहीं करते क्योंकि वचन से जो बैठे हैं !”

फिर भी माई ने हिम्मत न हारी। वह गयी एकनाथजी महाराज के पास और प्रार्थना करने लगीः “दण्डी संन्यासी ने मुझे ऐसा-ऐसा कहा है। अब मेरे पास दूसरा उपाय भी नहीं है, अतः आप कृपा कीजिये।”

तब करूणा करके एकनाथ जी ने कहाः “अभी नहीं। जब मेरा बेटा उपस्थित हो तब आना और आग्रह करना किन्तु मैं मना करूँगा। तुम फिर आग्रह करना और मैं कहूँगा कि अगर मेरा हरिपंडित तुम्हारे घर आकर भोजन बनाये तो मैं भोजन करूँगा। तुम इस बात पर राजी हो जाना। वही तुम्हारे घर आकर भोजन बनायेंगा तो सीधा तो तेरा ही होगा अतः तुझे शांति मिल जायेगी।”

माईः “मेरी तो यह भावना थी महाराज ! कि मैं अपने हाथों से कुछ बनाकर खिलाऊँ।”

एकनाथ जी महाराजः “जब भोजन बन जाये, पत्तलों में परोस दिया जाय और आधा भोजन हो जाये तब तुम अपने हाथों से बनाया हुआ एकाध मिष्टान्न पत्तल पर परोस देना। पूछना मत, नहीं तो वह ʹनाʹ बोलेगा। तुम केवल परोस देना और फिर बोल देना कि ʹराम ! राम ! भूल हो गयी….ʹ फिर देखना क्या होता है।”

दयालु संत क्या करें ? युक्ति ही अजमानी पड़ती है। एकनाथ जी महाराज ने युक्ति बता दी और माई ने वैसा ही किया।

निश्चित दिवस पर दोनों गये उस माई के घर और हरिपंडित सब धो-धाकर भोजन बनाने लगा। भोजन बन जाने पर दो पत्तलें परोसी गयीं और भगवान को भोग लगाकर एकनाथ जी महाराज एवं हरिपंडित ने भोजन का आरंभ किया।

ʹआज मैं धन्य हो गयी… धन्य हो गयी। हरिपंडित जी ! आपने बड़ी कृपा की…ʹ यह कहते-कहते माई ने शीघ्रता से लड्डू रख दिये दोनों की पत्तलों पर।

एकनाथ जी महाराजः “यह क्या ? कच्चा भोजन ले आई ?”

माईः “ऩहीं नहीं महाराज ! यह कच्चा नहीं है। इसमें मैंने पानी नहीं डाला। दूध में ही यह बनाया है। महाराज ! यह पक्का भोजन है।”

एकनाथ जी महाराजः “हरिपंडित ! यह तो पक्का भोजन है। खा लें ?

हरिपंडितः “अब तो खाना ही पड़ेगा पिताजी ! आप भी खा लें और मैं भी खा लेता हूँ।”

लोभी को धन से वश किया जाता है, अहंकारी को प्रशंसा करके वश किया जाता है, मूर्ख को उसकी ʹहाँʹ में ʹहाँʹ मिलाकर वश में किया जाता है जबसि संत और भगवान को सच्चाई और श्रद्धा से वश किया जाता है। देखो, हम सब कुँजियाँ आपको बता रहे हैं। अपने को फँसाने की चाबी भी खुद ही आपको दे रहे हैं। सत्संग जो है !

भोजन हो गया। हरि पंडित को मन में जरा क्षोभ तो हुआ किन्तु क्या करे ? उठाई दोनों पत्तलें। तब एकनाथ जी ने कहाः “अरे, संकल्प तो कर जिसके घर का भोजन किया है उसकी मनोकामना तृप्त हो।”

अब संकल्प क्या करना ? हरि पंडित ने तो उठायी पत्तलें। एकनाथ जी की पत्तल साफ थी, किन्तु हरि पंडित की पत्तल पर भोजन बचा था। अतः एकनाथ जी की पत्तल पर अपनी पत्तल रखी तो देखता है कि एकनाथ जी की पत्तल अपनी पत्तल के ऊपर आ गई। वह दंग रह गयाः ʹअरे ! मेरी पत्तल नीचे कैसे ! फिर से उसने एकनाथ जी की पत्तल नीचे रखी किन्तु फिर वही पत्तल ऊपर ! ऐसा दो-चार बार हुआ।

कथा कहती है कि यह देखकर हरिपंडित का हृदय बदल गया। गिर पड़ा पिता के चरणों में। उसने पिता से माँगे हुए दो वचनों के बारे में आग्रह छोड़ दिया। तब से एकनाथ जी महाराज लोकभोग्य शैली में, आम जनता समझ सके ऐसी भाषा में सत्संग करने लगे।

कैसी है करूणा संतों की ! कितनी दयालुता है ब्रह्म-परमात्मा को पाये हुए महापुरुषों की ! यदि सीधे-सीधे लोग नहीं समझ पाते तो युक्तियाँ-प्रयुक्तियाँ लड़ाकर भी वे समझा देते हैं और करूणा-कृपावश अपना पूरा जीवन लोकसेवा में बिता देते हैं। ʹलोकसेवा… लोकसेवा…ʹ का ढोल तो खूब बजता है लेकिन सच्ची सेवा तो सत्पुरुषों के द्वारा ही होती है। नहीं तो उन्हें क्या जरूरत कि अपने एकान्त की, ब्रह्मानंद की मस्ती को छोड़कर लोगों के बीच आयें ? ʹकाश कोई लग जाये, कोई चल पड़े इस ब्रह्मविद्या के पथ पर और बना ले अपना काम….ʹ यह सोचकर वे भी अहर्निश लगे रहते हैं लोककल्याण में। धन्य हैं ऐसे एकनाथ जी महाराज जैसे महापुरुष और धन्य हैं उन्हें पहचानकर अपना आध्यात्मिक काम लेने वाले साधक और भक्त !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 1997, पृष्ठ संख्या 8,9,10 अंक 56

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