गोपियों की अनन्य प्रीति

गोपियों की अनन्य प्रीति


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

जब तक नश्वर पदार्थों में आसक्ति होती है, नश्वर चीजों में प्रीति होती है और मिटने वालों का आश्रय होता है जब तक अमिट तत्त्व का बोध नहीं होता तब तक जन्म-मरण का चक्कर नहीं मिटता। यदि हृदय में परमात्मा के प्रति प्रेम हो जाये तो फिर आज तक हमने जो कुछ जाना, जो कुछ पाया, हमारे लिए उसकी कोई कीमत नहीं रहेगी और दूसरा कुछ जानने की या पाने की इच्छा भी नहीं रहेगी। हमें देखना यह है कि हमारी प्रीति सचमुच परमात्मा में है या परमात्मा का अवलंबन लेकर नश्वर चीजों की इच्छाएँ पूरी करने में है।

ईश्वर में यदि सच्चे अर्थ में प्रीति हो जाती है तो फिर भक्त ईश्वर से नश्वर चीजों की माँग नहीं करता, वरन् भगवान में ही अपनी इच्छाओं को मिला देता है।

श्रीकृष्ण भगवान ने भी यह बात सुन्दर तरीके से गीता में कही हैः

मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युंजन्मदाश्रयः।

असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु।।

ʹहे पार्थ ! अनन्य प्रेम से मुझमें आसक्त चित्त तथा अनन्य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणों से युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशयरहित जानेगा, उनको सुन।ʹ गीताः 7.1

ज्ञानं तेहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः।

यज्ज्ञात्वा नेह भूयोन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते।।

“मैं तेरे लिए इस विज्ञानसहित तत्त्वज्ञान को सम्पूर्णतया कहूँगा, जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाता। गीताः 7.2

ईश्वरपरायण होने से, ईश्वर को अनन्य प्रेम करने से भक्त संसार की मोह-माया में से छूट जाता है और मुक्त हो जाता है।

एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पटरानियों का अभिमान दूर करने के लिए तथा उन्हें गोपियों की निंदा करने से रोकने के लिए एक लीला की।

श्रीकृष्ण चिल्लाने लगेः “पेट में जोरों का दर्द है…. सहा नहीं जाता… कुछ करो….”

बहुत सारे हकीम आये, उपचार हुआ लेकिन दर्द कम न हुआ। इतने में नारद मुनि वहाँ पहुँच गये। वे समझ गये कि यह भगवान की ही कोई लीला है। उन्होंने भगवान से विनम्र भाव से पूछाः

“अब आप ही बतायें कि कैसे आपका दर्द ठीक हो सकता है ?”

श्रीकृष्ण भगवानः “एक ही इलाज है… मेरे अनन्य भक्त की चरणरज दवाई के साथ लेने से ही पेट की पीड़ा दूर हो सकती है।”

नारदजी गये भगवान की पटरानियों के पास और बोलेः “आप तो भगवान की सच्ची भक्त हैं। भगवान के पेट की पीड़ा दूर करने के लिए आपमें से कोई भी अपनी चरणरज मुझे दे दीजिये।”

पटरानियों ने तुरंत ही इन्कार करते हुए कहाः “हमारी चरणरज भगवान खायें ? हमें क्या नर्क में जाना है ? नहीं, नहीं, हम अपनी चरणरज हरगिज नहीं देंगे।”

नारदजी गये वृंदावन में गोपियों के पास। उन्होंने गोपियों को भगवान के रोग की बात जैसे ही बतायी, वैसे ही ʹकैसे हुआ…. क्या हुआ.. किस तरह मिटेगा….?ʹ – ऐसे प्रश्नों की झड़ी नारदजी के ऊपर लग गई। नारदजी ने सब वृत्तान्त बताकर आखिर में कहाः “दवाई तो आप सबके पास है लेकिन देगा कोई नहीं।”

गोपियाँ- ऐसा हो सकता है कि हमारे पास इलाज हो और हम न दें ? आप शीघ्र ही बतायें कि हम हमारे प्रेमास्पद के लिए क्या कर सकते हैं ?”

नारदजीः “नहीं, तुम नहीं दे सकोगी। यदि दोगी तो नर्क में जाना पड़ेगा।”

गोपियाँ- “हमारे इष्ट का, हमारे प्रेमास्पद का दुःख यदि मिट सकता है तो हम नर्क में जाने के लिए भी तैयार हैं, सिर्फ आप इलाज बताइये।”

नारदजीः “भगवान के भक्त की चरणरज यदि उन्हें दवाई के साथ मिलाकर पिलायी जाय तो उनके पेट का दर्द दूर हो सकता है।”

गोपियों ने पैर पसार दिये और बोलीं- “ले लो।”

नारदजीः “सोच लो, श्रीकृष्ण के लिए अपनी चरणधुलि दे रही हो, रौरव नर्क मिलेगा।”

गोपियाँ- “हमारे तो प्राण, तन, मन, धन, सर्वस्व श्रीकृष्ण हैं। उनकी पीड़ा दूर करने के लिए हमें एक बार नहीं हजार बार नर्क में जाना पड़े तो भी हमें स्वीकार है।”

नारदजी ने तो खुश होते हुए चरणधूलि की पोटली बनायी और पहुँच गये भगवान के पास।

भगवान श्रीकृष्ण ने नारदजी से कहाः “तुमने गोपियों को बताया नहीं कि ऐसा करने से उन्हें नर्क में जाना पड़ेगा ?”

नारदजीः “मैंने तो बहुत समझाया था लेकिन वे कहती हैं कि एक क्षण के लिए भी यदि भगवान की पीड़ा दूर होती हो तो हम हजार बार नर्क में जाने के लिए राजी हैं।”

गोपियों की अनन्य प्रीति देखकर पटरानियों का मुँह लज्जा से नीचे हो गया। अनन्य भक्त के लिए तो भगवान भी अनुकूल हो जाते हैं। कहा जाता हैः

भक्त मेरे मुकुटमणि, मैं भक्तन को दास।

इस प्रकार भगवान में आसक्त होकर मिथ्या जगत की नश्वर चीजों की आसक्ति छोड़ते जाओ। जितनी नश्वर पदार्थों की इच्छा मिटाते जाओगे, उतना ही उस प्यारे परमेश्वर के करीब आते जाओगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 1997, पृष्ठ संख्या 10,11,12 अंक 56

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