Monthly Archives: September 1997

सावधान रहो


पूज्यपाद संत श्री आसाराम जी बापू

विश्राम में अदभुत बल है। कितना भी भोजन करो किन्तु बिना आराम के थकान नहीं मिटती है। शरीर की विश्रांति से शरीर की थकान मिटती है और चित्त की विश्रांति से जन्मों-जन्मों की मानसिक थकान मिटती है। मानसिक थकान मिटने से मन प्रेम रस से परिपूर्ण होने लगता है। विश्रांति से दोषों की निवृत्ति और आवश्यक सामर्थ्य की प्राप्ति होती है। जैसे बुढ़ापे में रोगप्रतिकारक शक्ति घटती है तो कई प्रकार की बीमारियाँ उभर आती हैं ऐसे ही हमारा मन जब कमजोर हो जाता है तो अलग-अलग विकारों का रोग प्रगट हो जाता है। फिर हम अपने को दीन हीन और तुच्छ मानने लगते हैं। फलतः दीन-हीन और तुच्छ योनियों में भटकने के लिए मजबूर हो जाते हैं।

यदि चित्त को विश्रांति दिलाने की कला आ जाये तो चित्त शुद्ध, साफ-सुथरा और पवित्र हो जायेगा। जैसे आईना साफ हो तो उसमें प्रतिबिंब ठीक से दिखता है ऐसे ही विश्रांति से हमारा मन पवित्र हो जाता है तो परमेश्वर के स्वरूप की ठीक अनुभूति होती है।

भोग, सुविधाएँ, लापरवाही हमें खोखला बना देती हैं जबकि विघ्न-बाधाएँ और सतर्कता जीवन-संग्राम में विजयी और सजाग बनाती हैं।

जापान में एक प्रसिद्ध बूढ़ा था। एक बार उसने कुछ जवानों को बुलाकर कहाः “इस पेड़ की आखिरी डाल पर कोई चढ़ सकता है?”

जवानों में तो होड़ लग गई। एक जवान आखिरी डाल पर पहुँच गया, हालाँकि वह डाल खतरे से खाली न थी। वह जवान सोचने लगाः “मैं इतनी खतरनाक जगह पर खड़ा हूँ और वह बूढ़ा देखता तक नहीं है। बातों में लगा है !ʹ वह जवान थोड़ी देर उस जीवन-मृत्यु के बीच झोंके खिलाने वाली डाल पर खड़ा रहा और फिर धीरे-धीरे नीचे उतरने लगा। जब करीब 18-20 फीट दूरी बाकी रह गयी तब बूढ़ा बोलाः “ऐ जवान ! संभलकर उतरना… सावधानी से उतरना नहीं तो फ्रेकचर हो जायेगा।”

जवान को हुआ कि यह बूढ़ा पागल है क्या ? जब सबसे ऊँची आखिरी डाल पर था, जीवन-मृत्यु के बीच खेल रहा था तब तो यह बातों में लगा रहा और अब जब जमीन के करीब हूँ तब कहता है ʹसावधान रहना !ʹ

वह युवक नीचे उतरा और बोलाः “आप कमाल के व्यक्ति हैं ! जहाँ खतरा था, मैं मृत्यु के करीब था वहाँ तो आपने कहा नहीं कि सावधान रहना और जब निश्चिंतता की जगह पर आया तब आपने कहा कि सावधान रहना !”

तब बूढ़ा बोलाः “मैं जमाने का खाया हुआ हूँ। मुझे बड़ा अनुभव है। कब बोलना और कब मौन रहना यह मैं अच्छी तरह से जानता हूँ। कब संकेत करना यह भी मैं जानता हूँ। जब तुम आखिरी डाल पर थे तब तुम स्वयं ही सावधान थे। तब मुझे कहने की जरूरत ही नहीं थी लेकिन जब नीचे उतरे, थोड़ी निश्चिंत जगह पर आये तभी लापरवाही की संभावना आ जाती है और जब मनुष्य लापरवाह हो जाता है तभी गड़बड़ी होती है। वह लापरवाह होता है तभी गिरता है।”

भोग व्यक्ति को भीतर से कमजोर कर देते हैं। जितनी ऐहिक सुख-सुविधा और ऐश-आराम की चीजें मिल जाती हैं और आदमी अपने को सुखी करने की होड़ में लगता है उतना ही वह अपने लिए भविष्य में दुःख की खाई खोदता चला जाता है। इसलिए मनुष्य को सदैव सावधान रहना चाहिए कि मन में विषय-विकार कहीं डेरा तो नहीं डाल रहे हैं ? दूसरों का ऐश-आराम देखकर हमारा मन कहीं ऐश-आराम की गंदी ख्वाहिश में तो नहीं मर रहा है ? अगर दूसरों का कुछ देखकर अपने में गंदगी आने लगे तो फिर दूसरों के गुण देखो। सोचोः ʹजैसी समाधि बुद्ध की लगी ऐसी हमारी कब लगेगी। महावीर की नाईं हम निर्विकल्प समाधि में कब पहुँचेगे ?ʹ राजा भर्तृहरि कहते हैः “हे प्रभु ! मेरे ऐसे दिन कब आयेंगे कि मैं इस राज-पाट के भोग विलास की खटपट से बचकर, एकान्त अरण्य में किसी गिरि-गुफा में बैठा रहूँगा और ʹशिव…शिव…ʹ करके शांत आत्मा में विश्रांति पाकर समाधिस्थ हो जाऊँगा ? मेरे ऐसे दिन कब आयेंगे कि जंगल के बूढ़े हिरण मेरे शरीर को शिला समझकर, अपने सींगों की खुजली मिटाने के लिए इस शरीर से घर्षण करेंगे ? उऩ्हें भी संकोच न हो और मुझे भी पता न चले। ऐसी मेरी निर्विकल्प समाधि के दिन कब आयेंगे। भोलेनाथ ! क्या मैं जीवनभर इन्हीं भोग-विलासों में पड़ा रहूँगा ?”

जब मनुष्य बाहर की निंदा-स्तुति को सत्य समझने लगता है, स्वीकार करने लगता है, तब भीतर से खोखला होना शुरु हो जाता है। बाहर की वाहवाही को अगर तुमने सच्चा समझा तो कमजोर हो जाओगे। अतः ऐसे किन्हीं आत्मानुभव से तृप्त सदगुरु को खोज लो जो कि तुम्हारी वाहवाही के बीच में भी लगाम खींचकर तुम्हारे मन को संयत कर सकें। इसी में तुम्हारा कल्याण है।

दुर्जन की करूणा बुरी, भलो साँई को त्रास।

सूरज जब गर्मी करे, तब बरसन की आस।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 1997, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 57

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परिस्थितियों के प्रभाव से परे


पूज्यपाद संत श्री आसाराम जी बापू

सारे जन्म-मरण मन की चंचलता और आसक्ति का फल है। सारे दुःख-क्लेश और मुसीबतों का मूल है मन की चंचलता और आसक्ति। गीता में अर्जुन कहता है श्रीकृष्ण सेः

चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढ़म्।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।

ʹहे कृष्ण ! यह मन बड़ा चंचल और प्रमथन स्वभाव वाला है तथा बड़ा दृढ़ और बलवान है, इसलिए इसको वश में करना वायु की भाँति अति दुष्कर मानता हूँ।ʹ

तब श्री कृष्ण कहते हैं-

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।

ʹहे महाबाहो ! निःसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है, परंतु हे कुंतीपुत्र अर्जुन  ! अभ्यास से अर्थात् स्थिति के लिए बारंबार यत्न करने से और वैराग्य से मन वश में होता है।ʹ (गीताः 6.34.35)

ज्यों-ज्यों मन शांत होता जायेगा, त्यों-त्यों उसमें परमात्मा का सुख उभरता जायेगा। ज्यों-ज्यों मन अनासक्त होगा, त्यों-त्यों मन परमात्म-प्रेम में पावन होता जायेगा।

आलस्य को भगाने के लिए परिश्रम, उत्साह, स्फूर्ति और तत्परता के विचार सहायक हैं। ऐसे ही कामुकता को दूर करने के लिए ब्रह्मचर्य के विचार, मातृभावना, पवित्रता एवं संयम के विचार, विकारों के परिणाम के विचार करना मददरूप बनता है। क्रोध को भगाना हो तो शांति, प्रेम, क्षमा, मैत्री, सहानुभूति, सज्जनता, उदारता एवं आत्मभाव के विचार सहायक हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, निराशा-हताशा, आलस्य आदि आत्मसुख को लूटने  वाले विकार हैं।

मन में क्रोध आया, हम क्रोधित हुए। क्रोध चला गया, हम शांत हुए। मन में काम आया, व्यक्ति कामी हो गया। काम चला गया, व्यक्ति शांत हो गया। मन में निराशा-हताशा आयी, चिंता आयी तो नींद हराम हो गयी, खाना खराब हो गया, स्वास्थ्य बिगड़ गया। निराशा-हताशा एवं चिंता के विचारों को हटाने के लिए साहस, आशा, पुरुषार्थ के विचार करो। इस प्रकार एक-एक दोष को निकालने के लिए उसके विपरीत विचार करो।

विकारों की जगह पर निर्विकारता ले आओ। आपका जीवन सुखमय हो जायेगा, आनंदमय हो जायेगा, मधुमय हो जायेगा। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- अगर तुम्हें इसी जीवन में अपने जीवनदाता स्वभाव को पाना है, सारे दुःखों से सदा के लिए छूटना तो…

जितात्मनः प्रशांतस्य परमात्मा समाहितः।

शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।।

जिसने अपने-आप पर विजय कर ली है, वह शीत-उष्ण अर्थात् अनुकूलता और प्रतिकूलता को सहने वाला शरीर के प्रभाव से प्रभावित नहीं होता वरन् शरीर पर उसका प्रभाव बढ़ जाता है। दुःख और सुख मन को होता है। दुःख-सुख में जो सम रहता है, वह मन के प्रभाव से दबता नहीं और वह मन का स्वामी होने में सफल हो जाता है। मान-अपमान की गाँठ बुद्धि को होती है, यह समझकर जो उससे परे हो जाता है, उसे मान-अपमान प्रभावित नहीं कर सकते।

ʹसर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, मान-अपमानादि आते जाते रहते हैं, लेकिन मैं तो नित्य हूँ, निर्विकार हूँ…. निर्विकार नारायण का अविभाज्य अंग हूँ…. ऐसा चिंतन कर। मेरे भाई ! पवित्र आचरण का, संयम सदाचार का आश्रय ले। ऐसा करने से शरीर के साथ का अपना अहं प्रत्यय हटता जायेगा और मन की तमाम वृत्तियों से अपना पिण्ड छूटता जायेगा तथा साधक सिद्धत्व के रास्ते चल पड़ेगा। फिर शरीर का प्रभाव तुम पर नहीं पड़ेगा, मन का प्रभाव तुम पर नहीं पड़ेगा वरन् तुम्हारा प्रभाव शरीर और मन पड़ेगा, तुम्हारा प्रभाव बुद्धि पर पड़ेगा। जैसे, भगवान का प्रभाव प्रकृति पर पड़ता है वैसे ही इस जीवात्मा का प्रभाव शरीर, मन और बुद्धि पर पड़ जाये तो जीवात्मा का प्रभाव शरीर, मन और बुद्धि पर पड़ जाये तो जीवात्मा परमात्मा से अभिन्न हो जाये। अरे ! अभिन्न क्या होना ? वास्तव में तो दोनों अभिन्न ही हैं यह पता चल जाये।

अगर मन पर अपना प्रभाव पड़ा तो वासनाएँ शांत होने लगेंगी और अपने चित्त में परमात्मा से दूरी की जो भ्रांति है, वह दूर हो जायेगी। फिर अपने ही मन में परमात्मा का सुख, परमात्मा का वैभव, परमात्मा का आनंद और परमात्मा का माधुर्य उभरने लगेगा। जैसे, बादल के हटने पर सूर्य दिखता है अथवा तो शीतकाल में आकाश स्वच्छ होता है, वैसे ही शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक प्रभावों से ज्यों-ज्यों अपने को दूर करता जायेगा, त्यों-त्यों अपना साफ-सुथरा आत्मसुख, आत्मवैभव प्रगट होता जायेगा।

धनबल, जनबल, बाहुबल और बुद्धिबल इन सारे बलों को जहाँ से बल मिलता है वह है आत्मवैभव। अगर आत्मवैभव मिल गया तो बाकी के वैभव तुम्हारे दास होने लगेंगे, बाकी के वैभव फिर तुम्हें आसक्त नहीं कर पायेंगे।

जैसे, व्यक्ति दूसरों को सुधारने के लिए तत्पर होता है, शत्रु का दोष बड़ी तत्परता से खोज निकालता है, ऐसे ही अपनी कमजोरियाँ खोज निकाले तो वह महापुरुष बन जायेगा।

बुद्ध के सत्संग में सत्संगी आते थे, बुद्धिमान, संयमी भिक्षु भी आते थे और आम आदमी भी आते थे। बुद्ध ने सत्संग पूरा किया। आम आदमी तो चल दिये लेकिन एक किशोर और कुछ साधक भिक्षु बैठे रहे। उस किशोर ने बुद्ध से प्रश्न कियाः “भन्ते ! सबसे छोटा आदमी कौन है ?”

वह किशोर बड़ा धीर-गम्भीर, शांत, चंचलतारहित चित्तवाला लग रहा था। बुद्ध ने उसका प्रश्न सुना और वे गंभीर हो गये। बच्चे का प्रश्न बढ़िया था। बुद्ध तनिक देर के लिए अपने-आपमें आ गये, फिर बोलेः

“सबसे छोटा आदमी वह है जो केवल अपने लिये ही सोचता है, जो केवल अपने स्वार्थ में ही मशगूल रहता है। जो केवल अपने लिये ही जीता है, वह सबसे छोटा व्यक्ति है।”

ज्यों-ज्यों सोच का दायरा, विचार का दायरा व्यापक होता जायेगा, त्यों-त्यों व्यक्ति बड़ा होता जायेगा। दूसरों के दुःख हरने में और दूसरों के चित्त में सुख भरने में, दूसरों की अशांति हरने में एवं शांति भरने में जितना-जितना चित्त मशगूल होगा उतना-उतना चित्त चैतन्य के साथ तदाकार होता जायेगा और दूसरों का दुःख हरने का सामर्थ्य आता है दुःखहारी श्रीहरि में गोता मारने से। जरा-जरा बात में, जरा सी शारीरिक सुविधा-असुविधा से प्रभावित मत हो, मानसिक सुख-दुःख से प्रभावित मत हो और बुद्धिगत मान-अपमान से भी प्रभावित मत हो, क्योंकि असुविधाएँ तुम्हें डराकर डरपोक बना देंगी और सुविधाएँ तुम्हें आसक्त करके खोखला कर देंगी। सुख तुम्हें आसक्त करके खोखला कर देगा और दुःख तुम्हारे अंतःकरण को अशुद्ध कर देगा।

भगवान कहते हैं- जितात्मनः प्रशांतस्य। आप प्रशांत रहो। अशांत नहीं, शांत नहीं वरन् प्रशांत रहो अर्थात् सुव्यस्थित शांत रहो। शारीरिक, मानसिक या बौद्धिक चाहे कोई भी प्रतिकूलता आये या अनुकूलता, आप प्रशांतात्मा रहो, जितात्मा रहो। ज्यों-ज्यों आप जितात्मा होंगे, त्यों-त्यों आपका जीवन सशक्त होगा, निखरेगा और आप सफलता के उन शिखरों पर पहुँच जायेंगे, जहाँ पहुँचना साधारण आदमी के लिए असाध्य है, दुर्लभ है।

धनबल, जनबल, बाहुबल की अपेक्षा स्वभावबल ज्यादा हितकारी है। जिसका स्वभाव दिव्य हो जाता है उसके पास धनबल, सत्ताबल आदि अपने आप खिंचकर आ जाते हैं और जिसका स्वभाव बल क्षीण है उसकी थोड़ी-बहुत प्रशंसा करके लोग उसका शोषण कर लेते हैं। जिसका स्वभाव बल कमजोर है, जो जरा-जरा बात से प्रभावित हो जाता है उसे तो दूसरे लोग भी जरा-जरा बात में प्रभावित करके अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं।

संसार में तुम कहीं भी जाओ तो सब तुम्हारे शोषण की ताक में ही रहते हैं। जैसे दुकानदार ग्राहक के शोषण की ताक में रहते हैं कि ʹज्यादा पैसे लेकर माल दूँ।ʹ फिर अगर तुम्हारा स्वभाव बल दिव्य नहीं है तो तुम उनके शोषण के शिकार हो जाओगे। लोग तुम्हें थोड़ी-सी सुविधा देकर तुम्हारा शोषण कर लेंगे। अतः तुम सुविधाओं गुलाम मत बनो, उनमें फंसो मत वरन् याद रखो श्रीकृष्ण की दिव्य वाणी को किः शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः। शीत और उष्ण ये दो शब्द कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने तमाम शारीरिक सुविधा-असुविधाओं से अप्रभावित रहने की प्रेरणा दी है। ʹसुख-दुःखʹ ये दो शब्द कहकर मानसिक प्रभावों से अप्रभावित रहने की प्रेरणा दी है और मान-अपमान ये दो शब्द कहकर बौद्धिक प्रभावों से अप्रभावित रहने की प्रेरणा दी है ताकि आपका अपना दिव्य स्वभाव प्रगट हो सके।

अनुकूलताएँ और प्रतिकूलताएँ आयें तो तुम उनमें फँसो मत, नहीं तो वे तुम्हें ले डूबेंगी। शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक तीनों ही प्रभावी से अगर थोड़े-से सावधान हो गये तो योगी का योग सफल होने लगेगा, तपी का तप सफलता की सुवास बिखरेगा, ध्यानी का ध्यान सफल होने लगेगा, भक्त की भक्ति सफल होने लगेगी और जपी का जप भी आत्मरस प्रगटने में सफल हो जायेगा।

जो दुनिया की ʹतू-तू… मैं-मैंʹ से प्रभावित नहीं होता, जो दुनियादारों की निंदा-स्तुति से प्रभावित नहीं होता और जो दुनिया के सुख-दुःख से प्रभावित नहीं होता, वह दुनिया को हिलाने में अवश्य सफल हो जाता है।

सुविधा-असुविधा, यह इन्द्रियों का धोखा है, सुख-दुःख, यह मन की वृत्तियों का धोखा है और मान-अपमान यह बुद्धिवृत्ति का धोखा है। इन तीनों से बच जाओ तो संसार आपके लिए नंदनवन हो जायेगा। अगर इन तीन प्रभावों से आप ऊपर उठ गये तो आपका चित्त कहीं जाकर नहीं, कुछ पाकर नहीं, कुछ छोड़कर नहीं, मरने के बाद नहीं वरन् आप जहाँ हो वहीं के वहीं और उसी समय चैतन्य का सुख पा लेगा।

सरदार वल्लभभाई पटेल, लौह पुरुष एक बार रेल के दूसरे दर्जे में यात्रा कर रहे थे। कम्पार्टमेन्ट में भीड़-भाड़ नहीं थी, वरन् वे अकेले थे। इतने में स्टेशन पर गाड़ी रूकी और एक अंग्रेज माई आयी। उसने देखा कि ʹइनके पास तो खूब सामान-वामान है।ʹ

“यह सामान देकर तुम चले जाओ, नहीं तो मैं शोर मचाऊँगी। राज्य हमारा है और तुम इण्डियनʹ आदमी हो। मैं तुम्हारी बुरी तरह पिटाई करवाऊँगी।ʹ

जो आदमी परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होता, वह परिस्थतियों को प्रभावित कर देता है. सरदार वल्लभभाई पटेल को युक्ति लड़ाने में देर नहीं लगी। उन्होंने माई की बात सुनी तो सही किन्तु ऐसा स्वांग किया कि मानो वे बहरे हों। वे इशारे से बोलेः “तुम क्या बोलती हो, वह मैं नहीं सुन पा रहा हूँ। तुम जो बोलना चाहती हो, वह लिखकर दे दो।”

उस अंग्रेज माई ने समझा कि ʹयह बहरा है, सुनता नहीं हैʹ अतः उसने लिखकर दे दिया। जब चिट्ठी सरदार के हाथ में आ गयी तो वे खूब जोर से हँसने लगे। अब माई बेचारी क्या करे ? उसने तो धमकी देनी चाही थी किन्तु अपने हस्ताक्षर वाली चिट्ठी देकर खुद ही फँस गयी।

ऐसे ही प्रकृति माई से हस्ताक्षर करवा लो तो फिर वह क्या शोर मचायेगी ? क्या पिटाई करवायेगी और क्या तुम्हें जन्म-मरण के चक्कर में डालेगी ? इस प्रकृति माई की यही तीन बाते हैं- शीत-उष्ण, सुख-दुःख और मान-अपमान। इनसे अपने को अप्रभावित रखो तो विजय तुम्हारी है। किन्तु गलती यह करते हैं कि हम साधन भी करते हैं और असाधन भी साथ में रखते हैं। हम सच्चे भी बनना चाहते हैं और झूठ भी साथ में रखते हैं। हम सच्चे भी बनना चाहते हैं और झूठ भी साथ में रखते हैं। भले बने बिना भलाई खूब करते हैं और बुराई भी साथ में रखते हैं। भय भी साथ में रखते हैं और निर्भय होना भी चाहते हैं। आसक्ति साथ में रखकर अनासक्त होना चाहते हैं, इसीलिए परमात्मा का पथ लंबा हो जाता है।

अतः अपने स्वभाव में जागो। ʹस्वʹ भाव अर्थात् स्व का भाव। परभाव नहीं। सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, मान-अपमान आदि परभाव हैं क्योंकि ये शरीर, मन और बुद्धि के हैं, हमारे नहीं। सर्दी आयी तब भी हम थे, गर्मी आयी तब भी हम हैं। सुख आया तब भी हम थे और दुःख आया तब भी हम थे और दुःख आया तब भी हम हैं। अपमान आया तब भी हम थे और मान आया तब भी हम हैं। हम पहले भी थे, अब भी हैं और बाद में भी रहेंगे। अतः सदा रहने वाले अपने इसी ʹस्वʹ भाव में जागो।

शरीर की अनुकूलता और प्रतिकूलता, मन के सुखाकार और दुःखाकार भाव, बुद्धि के रागाकार और द्वेषाकार भाव इनको आप सत्य मत मानिये। ये तो आऩे जाने वाले हैं, बनने-मिटने वाले हैं, बदलने वाले हैं लेकिन अपने स्वभाव को जान लीजिये तो काम बन जायेगा। जितना-जितना आदमी जाने-अनजाने ʹस्वʹ के भाव में होता है उतना-उतना वह परिस्थितियों के प्रभाव से अप्रभावित रहता है और जितना वह अप्रभावित रहता है उतना ही उसका प्रभाव परिस्थितियों पर पड़ता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 1997, पृष्ठ संख्या 2,3,4,5 अंक 57

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करने में सावधान


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

कर्मप्रधान बिस्व करि राखा।

जो जस करहिं सो तस फल चाखा।।

जो कर्म अभानावस्था में होते हैं, उन कर्मों का संचय नहीं होता है। बाल्यावस्था में किये गये कर्मों का, मूढ़ावस्था में किये गये कर्मों का संचय नहीं होता है। पशु-पक्षियों के कर्मों का संचय नहीं होता है। जो अहंकार से रहित होकर कर्म करते हैं उनके कर्मों का संचय नहीं होता है। ज्ञानवानों के कर्मों का संचय नहीं होता है। ऐसे ही फल की इच्छा के बिना किये गये निष्काम कर्मों का भी संचय नहीं होता है।

कोई छोटा बच्चा नाचता-कूदता खेल रहा है और नासमझी में वह किसी बच्चे का गला दबा दे तो उसके ऊपर दफा 302 का केस नहीं चलेगा। ज्यादा से ज्यादा उसे दो-चार चाँटे लगा देंगे। किसी ने शराब पी हो, बेहोश अवस्था में हो और गालियाँ बकने लग जाये तो उसके ऊपर बदनक्षी का केस लगाना उचित नहीं होगा क्योंकि उसे कर्म करने का भान ही नहीं है, नशे-नशे में कर्त्तापन का भाव ही नहीं है। ज्ञानी महापुरुष भी अकर्त्ता भाव से कर्म करते हैं इसलिए कर्मबन्धन नहीं लगता।

इसी प्रकार तुम जहाँ भी रहो, जो करो वह अकर्त्ता होकर करो तो तुम्हें भी कर्मबन्धन नहीं लगेगा। कर्त्ताभाव होता है तो चलते-फिरते कीड़े-मकोड़े मर जाएँ तो भी कर्म का संचय नहीं होता है। किसी को पानी पिलाओ तब भी और किसी का कुछ ले लो तब भी कर्म का संचय होता है। किन्तु अकर्त्ता भाव से कर्म करने पर वे ही कर्म बँधनकारक नहीं होते।

एक बार बुद्ध और उनके शिष्य घूमते-घामते कहीं जा रहे थे। मार्ग में उन्होंने देखा कि एक साँप को बहुत सी चींटियाँ चिपककर काट रही थीं और साँप छटपटा रहा था।

शिष्यों ने पूछाः “भन्ते ! ऐसा क्यों ? इतनी सारी चींटियाँ इस एक साँप को चिपककर काट रही हैं और इतना बड़ा साँप इन चींटियों से परेशान होकर छटपटा रहा है ! क्या वह अपने किन्हीं कर्मों का फल भोग रहा है ?”

बुद्धः “कुछ साल पहले हम इस तालाब के पास से गुजर रहे थे, तब एक मच्छीमार मछलियाँ पकड़ रहा था। हमने उसे कहा भी था कि पाप-कर्म मत कर। केवल पेट भरने के लिए जीवों की हिंसा मत कर लेकिन उसने हमारी बात नहीं मानी। वही अभागा मच्छीमार साँप की योनि में जन्मा है और उसके द्वारा मारी हुई मछलियाँ ही चींटियाँ बनी हैं और वे अपना बदला ले रही हैं। मच्छीमार निर्दोष जीवों की हिंसा का फल भुगत रहा है।”

महाभारत के युद्ध के पश्चात् एक बार अत्यंत व्यथित हृदय से धृतराष्ट्र ने वेदव्यासजी से पूछाः “भगवान ! यह कैसी विडंबना है कि सौ के सौ पुत्र मर गये और मैं अंधा बूढ़ा बाप जिंदा रह गया ? मैंने इस जन्म में इतने पाप तो नहीं किये हैं और पूर्व के कुछ पुण्य होंगे तभी तो मैं राजा बना हूँ। फिर किस कारण से यह घोर दुःख भोगना पड़ रहा है ?”

वेदव्यासजी आसन लगाकर बैठे और समाधि में लीन हुए। धृतराष्ट्र के पूर्वजन्मों को जाना तब पता चला कि पहले वह हिरन था, फिर हाथी हुआ, फिर राजा बना।

समाधि से उठकर उन्होंने धृतराष्ट्र से कहाः “आज से एक सौ चौबीस वर्ष पहले तू राजा था और शिकार करने के लिए जंगल गया। वहाँ हिरन को देखकर उसके पीछे दौड़ा लेकिन तू हिरन का शिकार नहीं कर पाया। वह जंगल में अदृश्य हो गया। तेरे अहं को ठेस पहुँची। गुस्से में आकर तूने वहाँ आग लगा दी तो थोड़ा हरा-सूखा घास और सूखे पत्ते जल गये। वहीं पास में साँप का बिल था। उसमें साँप के बच्चे थे जो अग्नि से जलकर मर गये और सर्पिणी अंधी हो गयी। तेरे उस कर्म का बदला इस जन्म में मिला है। इससे तू अंधा बना है और तेरे सौ बेटे मर गये हैं।”

तुम जहाँ भी रहो, जो भी करो लेकिन अपने परमात्म-स्वरूप को जानकर, अकर्त्ता होकर कर्म करोगे तो कई कर्मबन्धन नहीं लगेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 1997, पृष्ठ संख्या 23,24 अंक 57

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