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बीजमंत्रों के द्वारा स्वास्थ्य सुरक्षा


भारतीय संस्कृति ने आध्यात्मिक विकास के साथ शारीरिक स्वास्थ्य को भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है।

आजकल सुविधाओं से संपन्न मनुष्य कई प्रकार की चिकित्सा-पद्धतियों को आजमाने पर भी शारीरिक रोगों व मानसिक समस्याओं से मुक्त नहीं हो सका। एलोपैथी की जहरीली दवाइयों से ऊबकर अब पाश्चात्य जगत के लोग Alternative Medicine के नाम पर प्रार्थना, मंत्र, योगासन, प्राणायाम आदि से हार्ट अटैक और कैंसर जैसी असाध्य व्याधियों से मुक्त होने में सफल हो रहे हैं। अमेरिका में एलोपेथी के विशेषज्ञ डॉ. हर्बट बेन्सन और डॉ दीपक चोपड़ा ने एलोपेथी को छोड़कर निर्दोष चिकित्सा-पद्धति की ओर विदशियों का ध्यान आकर्षित किया है जिसका मूल आधार भारतीय मंत्रविज्ञान है। ऐसे वक्त हम लोग एलोपेथी की दवाइयों की शरण लेते हैं जो प्रायः मरे हुए पशुओं के यकृत (क्लेजा), मीट एक्सट्रेक्ट, माँस, मछली के तेल जैसे अपवित्र पदार्थों से बनायी जाती हैं। आयुर्वैदिक औषधियाँ, होमियोपैथी की दवाइयाँ और अन्य चिकित्सा-पद्धतियाँ भी मंत्रविज्ञान जितनी निर्दोष नहीं हैं।

हर रोग के मूल में पाँच तत्त्व यानी पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश की ही विकृति होती है। मंत्रों के द्वारा इन विकृतियों को आसानी से दूर करके रोग मिटा सकते हैं।

डॉ हर्बट बेन्सन ने बरसों के शोध के बाद कहा हैः Om a day keeps doctors away. अतः का जप करो और डॉक्टर को दूर ही रखो।

विभिन्न बीजमंत्रों की विशद जानकारी प्राप्त करके हमें अपनी सांस्कृतिक धरोहर का लाभ उठाना चाहिए।

पृथ्वी तत्त्व

इस तत्त्व का स्थान मूलाधार चक्र में है। शरीर में पीलिया, कमलवायु आदि रोग इसी तत्त्व की विकृति से होते हैं। भय आदि  मानसिक विकारों में इसकी प्रधानता होती है।

विधिः पृथ्वी तत्त्व के विकारों को शांत करने के लिए लं बीज मंत्र का उच्चारण करते हुए किसी पीले रंग की चौकौर वस्तु का ध्यान करें।

लाभः इससे थकान मिटती है। शरीर में हल्कापन आता है। उपरोक्त रोग, पीलिया आदि शारीरिक व्याधि एवं भय, शोक, चिन्ता आदि मानसिक विकार ठीक होते हैं।

जल तत्त्व

स्वाधिष्ठान चक्र में जल तत्त्व का स्थान है। कटु, अम्ल, तिक्त, मधुर आदि सभी रसों का स्वाद इसी तत्त्व के कारण आता है। असहनशीलता, मोहादि विकार इसी तत्त्व की विकृति से होते हैं।

विधिः वं बीजमंत्र का उच्चारण करते हुए चाँदी की भाँति सफेद किसी अर्धचन्द्राकार वस्तु का ध्यान करें।

लाभः इस प्रकार करने से भूख प्यास मिटती है व सहनशक्ति उत्पन्न होती है। कुछ दिन यह अभ्यास करने से जल में डूबने का भय भी समात्प हो जाता है। कई बार झूठी नामक रोग हो जाता है जिसके कारण पेट भरा रहने पर भी भूख सताती रहती है। ऐसा होने पर भी यह प्रयोग लाभदायक है। साधक यह प्रयोग करे जिससे कि साधना काल में भूख-प्यास साधना से विचलित न करे।

अग्नि तत्त्व

मणिपुर चक्र में अग्नितत्त्व का निवास है। क्रोधादि मानसिक विकार, मंदाग्नि, अजीर्ण व सूजन आदि शारीरिक विकार इस तत्त्व की गड़बड़ी से होते हैं।

विधिः आसन पर बैठकर रं बीजमंत्र का उच्चारण करते हुए अग्नि के समान लाल प्रभाववाली त्रिकोणाकार वस्तु का ध्यान करें।

लाभः इस प्रयोग से मंदाग्नि, अजीर्ण आदि विकार दूर होकर भूख खुलकर लगती है व धूप तथा अग्नि का भय मिट जाता है। इससे कुण्डलिनी शक्ति के जागृत होने में सहायता मिलती है।

वायु तत्त्व

यह तत्त्व अनाहत चक्र में स्थित है। वात, दमा आदि रोग इसी की विकृति से होते हैं।

विधिः आसन पर बैठकर यं बीजमंत्र का उच्चारण करते हुए हरे रंग की गोलाकार वस्तु (गेंद जैसी वस्तु) का ध्यान करें।

लाभः इससे वात, दमा आदि रोगों का नाश होता है व विधिवत् दीर्घकाल के अभ्यास से आकाशगमन की सिद्धि प्राप्त होती है।

आकाश तत्त्व

इसका स्थान विशुद्ध चक्र में है।

विधिः आसन पर बैठकर हं बीजमंत्र का उच्चारण करते हुए नीले रंग के आकाश का ध्यान करें।

लाभः इस प्रयोग से बहरापन जैसे कान के रोगों मे लाभ होता है। दीर्घकाल के अभ्यास से तीनों कालों का ज्ञान होता है तथा अणिमादि अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

विभिन्न तत्त्वों की विकृतियों से होने वाले सभी रोगों में निम्न पथ्यापथ्य का पालन करना आवश्यक है।

पथ्यः दूध, घी, मूँग, चावल, खिचड़ी, मुरमुरे (मूढ़ी)

अपथ्यः देर से पचने वाला आहार (भारी खुराक), अंकुरित अनाज, दही, पनीर, सूखी सब्जी, माँस-मछली, फ्रीज में रखी वस्तुएँ, बेकरी की बनी हुई वस्तुएँ, मूँगफली, केला, नारंगी आदि।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 1997, पृष्ठ संख्या 30,16 अंक 57

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आत्मबल ही वास्तविक बल है


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

जो बलवान है, प्राणशक्ति से युक्त है उसके लिए पराये भी अपने हो जाते हैं जबकि दुर्बलों के लिए अपने भी पराये हो जाते हैं।

वीरभोग्या वसुन्धरा।

बल ही जीवन है। निर्बलता ही मौत है। समस्त बलों का उदगमस्थल है आत्मा। आत्मा के कारण ही सब प्रिय लगता है और सफलता, सौन्दर्य, माधुर्य, आनंद आदि भी आत्मा  आभा से ही निखरते हैं। इस असत्, जड़, दुःखरूप, परिवर्तनशील और क्लेशों से परिपूर्ण जगत में भी उन्हीं लोगों  रस, आनंद, माधुर्य आदि मिलता है, जिनके जीवन में जगमगाते हुए आत्मभाव का प्रकाश है।

जिन वस्तुओं से आपका अपनत्व है वे ही वस्तुएँ प्यारी लगती है। ʹअपना मकान… अपनी गाड़ी…. अपना बेटा…ʹ आदि क्यों प्यारे लगते हैं ? क्योंकि उनमें आपका अपनत्व है। दुनियाभर के प्रिय व्यंजन आपके समक्ष रख दिये जाते हैं, फिर भी यदि आपका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है तो वे सारे व्यंजन आपको फीके लगेंगे, नीरस लगेंगे क्योंकि जिह्वा में अपना रस नहीं है। जिह्वा में जब अपनत्व , चैतन्य का रस होता है, तभी व्यंजन रसमय लगते हैं नहीं तो उन जड़ व्यंजनों में रस कहाँ ? इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के साथ भी है।

जिन चीजों को भोगने योग्य मानकर तुम अपनी आभा, अपनी ऊर्जा, अपने आत्मचैतन्य की शक्ति बिखेर देते हो, उन्हीं चीजों के इन बाह्य आकर्षणों की अपेक्षा, उनमें जो आत्मसत्ता है उसका ख्याल रखकर अपनी आत्मसत्ता का विकास करो तो तुम्हारा बल बढ़ जायेगा।

एक समय था जब बालक माँ की गोद से पलभर भी दूर नहीं होना चाहता था। जब माँ जवान थी और बालक लाचार था, उसे माँ से पोषण मिलता था, तब वह बार-बार माँ की गोद में पहुँच जाता था। माँ की गोद में पाने के लिए चीखता-पुकारता था। लेकिन वही बालक बड़ा होकर माँ को बूढ़ी पाता है और अब माँ से उसका स्वार्थ नहीं सिद्ध होता तो वह माँ की और देखता तक नहीं। माँ के पास कुछ देर बैठने की उसे फुर्सत तक नहीं क्योंकि अब जिससे स्वार्थ सिद्ध होता है वह पत्नी अब मिल चुकी है। यह सारा संसार ही अपने स्वार्थ से एक-दूसरे के साथ जुड़ा है। तुलसीदासजी ने भी कहा हैः

सुर नर मुनि सबकी यह रीति।

स्वारथ लागहिं करहिं सब प्रीति।।

जितनी-जितनी तुम्हारी प्राणशक्ति उस आत्मदेव से संचालित होती है, जितने-जितने तुम प्राणवान हो, तेजवान हो, ओजवान हो उतने-उतने लोग तुम्हारे इर्द-गिर्द मंडराते हैं। बुढ़ापे में प्राणशक्ति क्षीण हो जाती है, ओज-तेज कम हो जाता है तो अपने भी पराये होने लगते हैं। नौकरी में से भी रिटायरमैंण्ट दे दिया जाता है।

जिसके कारण तुम्हारी कीमत है, उस आत्मसत्ता की जानोगे, उसे जितना अधिक अपना मानोगे और उसमें विश्रांति पाओगे उतने ही तुम महानता के शिखरों को छू सकोगे। नहीं तो थोड़ी-बहुत शक्ति लाकर उसे जगत की बाह्य चकाचौंध में ही खर्च कर दिया तो फिर बुढ़ापे में तुम्हारी खैर नहीं, मृत्यु के बाद तुम्हारी खैर नहीं…. न जाने प्रकृति फिर किस शरीर में पटक कर तुम्हें अनाथ कर दे ? इसलिए कृपा करके प्राणबल रहते ही उस सर्व-सौन्दर्य के सर्वसत्ता  के उदगम स्थान को जानकर उसके साथ एक हो जाओ। इसी में तुम्हारा भला है, कुटुम्ब का भला है, देश का भला है।

ʹमेग्नेटʹ से जुड़ी हुई प्लेट से लोहे के कण चिपके रहते हैं, लेकिन ज्यों ही मेग्नेट का आश्रय प्लेट ने छोड़ा तो लोहे के कण भी प्लेट को छोड़ देंगे। ऐसे ही मेग्नेटों का मेग्नेट तुम्हारा आत्मदेव है और यह जड़ शरीर जब तक उस मेगनेट के करीब है तब तक बाहर के व्यक्ति, बाहर की वस्तुएँ, बाहर का वातावरण आपके साथ सहयोग करता है। जैसे जैसे उस मेग्नेट से तुम्हारी प्राणशक्ति दूर होती जाती है वैसे-वैसे बाहर के व्यक्ति वस्तु वातावरणरूपी लोहे के कण भी तुमसे दूर होते जायेंगे।

धिक् बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजो बलं बलम्।

विश्वामित्र को अनुभव हुआ कि क्षात्रबल को धिक्कार है। आत्मबल ही वास्तविक बल है। जवानी में क्षत्रियबल जरा दिखता है किन्तु बुढ़ापा आते ही बूढ़े राजा का राज्य छीन लिया जाता है। बुढ़ापा आते ही नौकर भी मुकरने लगते हैं और पड़ोसी भी आपकी जमीन जागीर पर निगाह डालने लगते हैं, आपके अपने कुटुम्बी भी आपका अधिकार छीनने की ताक में रहते हैं।

……… तो मानना पड़ेगा कि जीवनशक्ति जिस जीवनदाता से आती है उसी जीवनदाता को पाने में लगाना ही बुद्धिमत्ता है, अन्यथा अज्ञानता है।

शारीरिक स्वास्थ्य अर्थात् शारीरिक बल, मानसिक प्रसन्नता अर्थात् मनोबल एवं बौद्धिक योग्यता अर्थात् बौद्धिक बल ये जितने अधिक होंगे, जितनी आपकी प्राणशक्ति सूक्ष्म होगी और उस आत्मा के साथ आपकी तदाकारता होगी, उतने ही आप इस संसार  नंदनवन की नाई देख सकेंगे… आप उसी ब्रह्म परमात्मा के विषय में जानो, उसी का चिंतन करो एवं उसी में विश्रांति पाओ ताकि आपकी मति को ऐसा बल मिले कि आपकी मति ʹमतिʹ न बचे, ऋतंभरा प्रज्ञा हो जाये। ʹऋतʹ अर्थात् ʹसत्यʹ सत्य से पूर्ण आपकी प्रज्ञा हो जाये…

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 1997, पृष्ठ संख्या 11,12 अंक 57

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अनेक में एक – पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू


वेदांत के ज्ञान की महिमा अमाप है। वेदांत का ज्ञान सुनने से जितना पुण्य होता है उतना पुण्य चांद्रायण व्रत रखने से या पैदल यात्रा करके पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से या अश्वमेध यज्ञ करने से भी नहीं होता है।

किसी आश्रम में कोई नया साधक गुरुजी के दर्शन-सत्संग के लिए आ पहुँचा। उस साधक ने अपनी शंका का समाधान पाने के लिए गुरुजी से पूछाः “गुरुजी ! कोई कहता है कि भगवान मंदिर में रहते हैं और कोई कहता है कि भगवान अपने हृदय में रहते हैं तो सचमुच में भगवान कहाँ रहते हैं ?”

गुरुजी ने कहाः “इतनी सी बात है न ! वह तो तू मेरे पुराने शिष्य से ही पूछकर समझ ले।” साधक ने शिष्य के पास जाकर वही  बात दुहराई कि ʹभगवान कहाँ रहते हैं ?ʹ

शिष्य ने उसकी शंका का समाधान करते हुए कहाः “भगवान सर्वत्र हैं, सर्वव्यापक हैं। वे एक-के-एक अनेक रूपों में दिखत हैं। जैसे आकाश एक है फिर भी घट में आया हुआ आकाश घटाकाश, मठ में आया हुआ आकाश मठाकाश, मेघ में आया हुआ आकाश मेघाकाश और खुला आकाश महाकाश कहलाता है, वैसे ही भगवान परमात्मा एक हैं लेकिन जिस रूप में आते हैं वैसे दिखते हैं।

अनेक रूपों में बसे हुए वे एक-के-एक सच्चिदानंद परमात्मा ही मेरा आत्मा है, ऐसा ज्ञान जिसे हो जाता है उसका जीवन सफल हो जाता है।”

शिष्य की बात समझने की कोशिश करता हुआ वह साधक अपनी शंका का कुछ तो समाधान पा रहा था लेकिन उसे पूर्ण संतोष नहीं हुआ था। शिष्य और साधक की बातों को गुरु जी सुन रहे थे। गुरु जी ने उसी बात को और स्पष्ट रूप से समझाते हुए कहाः “बेटा ! सुनो। एक हजार घट लेकर उसमें पानी भरकर चंद्रमा का प्रतिबिम्ब देखो तो साफ (शुद्ध) पानी में प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखेगा और मैले पानी में प्रतिबिंब साफ नहीं दिखाई देगा। वैसे ही परमात्मा का प्रतिबिंबरूप जीवात्मा अनेक अंतःकरणों में अलग-अलग स्वरूप में दिखाई देता है।

जैसे, विद्युत शक्ति तो एक ही होती है लेकिन टयूबलाईट में ज्यादा प्रकाश देती है, बल्ब में उसके रंग के अनुरूप प्रकाश देती है, माईक्रोफोन में आवाज बनाती है, हीटर में से गर्मी देती है, फ्रीज में बर्फ बनाती है, रेकोर्डिंग में उसका उपयोग होता है तो आवाज टेप करती है। एक ही विद्युत शक्ति अनेक रूपों में अलग-अलग कार्य करती दिखाई देती है। स्थूल भौतिक शक्ति भी यदि अनेक रूपों में कार्य करती हुई दिखती है तो वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म चैतन्य परमात्मा अनेक रूपों में एक ही दिखाई दें इसमें क्या आश्चर्य है ?”

मूलतः एक-का-एक परमात्मा कार्य-कारण की भिन्नता से अलग-अलग रूपों में दिखाई देता है।

अनुभवी महापुरुषों के ग्रंथों के, शास्त्रों के, भगवान श्रीकृष्ण, भगवान श्रीराम, याज्ञवल्क्य, अष्टावक्र, राजा जनक जैसे ब्रह्मवेत्ताओं के वचनों के लिए अलावा ऐसा दिव्य ज्ञान कहीं सुनने को नहीं मिलता है। सब लोग इसे नहीं सुन पाते हैं। कई लोग सुनना भी चाहते हैं तो अभागे अश्रद्धालु लोग उनकी श्रद्धा को डगमगाते हैं, कई तरह के बहाने बताकर उस आध्यात्मिक रास्ते पर चलने से रोक लेते हैं। जो ईश्वर के मार्ग से किसी को दूर करते हैं ऐसे लोग महापाप के भागी बनते हैं।

किसी व्यक्ति ने मुझसे कहाः “बापू ! आपके गुरु लीलाशाहजी महाराज ने तो आत्मसाक्षात्कार किया था न ? वे आये थे हमारे गाँव। उनके दर्शन से मुझे बहुत आनंद आया और श्रद्धा भी हुई लेकिन उनकी बातों पर मुझे विश्वास नहीं हुआ।”

मुझे आश्चर्य हुआ। मैं उसे देखता ही रह गया कि ʹजिसे मेरे गुरुजी की बात पर विश्वास नहीं हुआ, उसे मेरी बात पर विश्वास कैसे आयेगा ?ʹ

मैंने पूछाः “मेरे गुरुजी की कौन सी बात पर विश्वास नहीं आया ?”

उसने कहाः “लीलाशाहजी बापू कहते थे कि अपना आत्मा ही परमात्मा है और वही आत्मा सबमें बस रहा है।”

उसने कहाः “बापू ! अभी कुछ समय पहले मेरी माँ मर गई। सबमें एक ही आत्मा है तो हम सब भी मर जाने चाहिए थे न ?”

मैंने कहाः “ऐसा कोई जरूरी नहीं है।”

उसने पूछाः “यह कैसे हो सकता है ?”

मैंने कहाः “भाई ! दस घड़ों में पानी भरकर रखो, उनमें पूनम की रात को चंद्रमा का प्रतिबिंब देखो तो दस चंद्रमा दिखेंगे कि नहीं ?”

“हाँ।”

“उनमें से एक घड़ा फोड़ डालो तो नौ प्रतिबिंब दिखेंगे कि नहीं ?”

“हाँ, दिखेंगे।”

“बाकी नौ को भी फोड़ डालो तो असली चंद्रमा रहेगा कि नष्ट हो जायेगा ?”

“असली तो रहेगा।”

“जैसे एक घड़ा फूट जाय या उसका पानी ढुल जाये तो उससे दूसरे प्रतिबिंब या असली चंद्रमा को कुछ हानी नहीं होती। वैसे ही यह देहरूपी घड़ा फूट जाये तो उससे शाश्वत आत्मा को कुछ हानि नहीं होती। वह अमर आत्मा ही परमात्मा है। सबके हृदय में वही है।”

उसने फिर से पूछाः “बापू ! सबके हृदय में सुख का अनुभव होता है तब सबको सुख होना चाहिए और मुझे दुःख का अनुभव होता है तब सबको दुःख होना चाहिए। यह नहीं होता है। क्यों ?”

“क्योंकि जैसे दस घड़ों को भट्ठी पर रखेंगे तो उनमें भरा हुआ पानी उबलेगा लेकिन उसमें आया हुआ प्रतिबिंब उबलेगा क्या ? उसे ताप लगेगा क्या ?”

“नहीं।”

जैसे, भट्ठी पर रखने से घड़ा भी तपेगा, घड़े का पानी भी तपेगा, पर उससे चन्द्रमा के प्रतिबिंब पर या चंद्रमा पर कोई असर नहीं होगा। वैसे ही हरेक मनुष्य के अंतःकरण अलग-अलग होते हैं, उनमें सुख-दुःख का अनुभव तो होता है परंतु उन सबसे परे सबका साक्षी, चैतन्य परमात्मा सुख-दुःख से परे होने के बदले अपने में उसका अनुभव करने लगते हैं।

शरीर को ʹमैंʹ मानने के बजाय अपने को आत्मा मान लो और आत्मा-परमात्मा  एक जान लो तो समस्त सुख-दुःख के लिए पार हो जाओगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 1997, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 57

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