श्रीमद् भगवद् गीताः एक परिचय

श्रीमद् भगवद् गीताः एक परिचय


पूज्यपाद संत श्री आशारामजी बापू

परमात्मा अनादि और अनंत है। सनातन धर्म के ऋषि-मुनियों ने वेदों, उपनिषदों और पुराणों में उस अनादि-अनंत परमात्मा के ज्ञान का, उसके स्वरूप का और उसकी लीलाओं का विस्तार से वर्णन किया है। आर्षदृष्टा भगवान वेदव्यासजी ने अपने ग्रंथों में सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ ʹश्रीमहाभारतʹ की रचना की, जिसे ʹपंचमवेदʹ कहा जाता है। उसमें तरह-तरह के उपदेश दिये गये हैं। उनका सारभूत रहस्य  जिस ग्रंथ में दिया गया है – वह श्रीमद् भगवद् गीता। समग्र महाभारत का नवनीत श्रीमद् भगवद् गीता में है।

शास्त्र में आया हैः

पार्थाय प्रतिबोधितां भगवता नारायणेन स्वयं

व्यासेन ग्रथितां पुराणमुनिना मध्ये महाभारतम्।

अद्वैतामृतवर्षिणीं भगवतीमष्टादशाध्यायिनी-

मम्ब त्वामनुसंदधामि भगवद् गीते भवद्वेषिणीम्।।

ʹૐ भगवान नारायण द्वारा अर्जुन को उपदिष्ट की हुई, प्राचीन महामुनि वेदव्यासजी द्वारा महाभारत के मध्य में गुँथी हुई, अद्वैत ज्ञानामृत बरसाने वाली, अठारह अध्यायवाली, भवरोग को टालने वाली, ऐश्वर्ययुक्त देवी हे भगवद् गीता ! हे माता ! मैं तेरा सतत अनुसंधान करता हूँ।ʹ

ʹश्रीमद् भगवद् गीताʹ के अठारह अध्याय हैं और उनमें कुल मिलाकर 700 श्लोक हैं।

इसमें पहला अध्याय है अर्जुनविषादयोग। अर्जुन ने महाभारत के युद्ध के मैदान में जब अपने सगे-संबंधियों को देखा तो ʹउनके साथ युद्ध करना पड़ेगा और युद्ध में वे मारे जायेंगेʹ – ऐसा सोचकर वह खिन्न हो गया। उसका मन विषाद से इतना भर गया कि वह धनुष-बाण छोड़कर रथ पर बैठ गया।

जीवन में विषाद तो हर किसी को आता है लेकिन उस विषाद को अगर भगवान के सामने रखो, भगवान के आगे अपनी व्यथा प्रकट करो, तो आपका विषाद भी योग बन जायेगा।

जैसे अर्जुन ने श्रीकृष्ण के आगे अपनी व्यथा प्रकट कर दी कि ʹयुद्ध के लिए तैयार खड़े हुए स्वजनों को मारकर पाया हुआ राज्य मुझे नहीं चाहिए। मैं ऐसा पाप कर्म नहीं करूँगा। इससे तो अच्छा यह होगा कि मुझ शस्त्ररहित को कौरव रण में मार दें।ʹ

लेकिन श्रीकृष्ण ने देखा कि स्वजनों के मोह के कारण यह ऐसी कायरतापूर्ण बातें कर रहा है। तब दूसरे अध्याय में उऩ्होंने अर्जुन को हृदय की दुर्बलता का त्याग करके युद्ध के लिए तैयार हो जाने का उपदेश दिया। यह दूसरा अध्याय सांख्ययोग है, ज्ञानयोग है।

संसार में रहकर ईंट, चूना, लोहे-लक्कड़ का ज्ञान तो हर कोई पा लेता है। लेकिन यहाँ भगवान वह ज्ञान पाने को नहीं कह रहे हैं। यहाँ तो वे भगवत्तत्त्व संबंधी ज्ञान की बात कर रहे हैं। देह की नश्वरता और आत्मा की अमरता का ज्ञान पाने की बात कर रहे हैं। स्वधर्म का आचरण कैसे किया जाय, यह समझा रहे हैं। भगवान अर्जुन से कह रहे हैं-

“जो जन्मा है उसकी मृत्यु निश्चित है और आत्मा तो न कभी जन्मता है, न मरता है। फिर शोक किसका करना ? अगर स्वधर्म को नहीं निभायेगा यानी सहज कर्त्तव्य कर्म नहीं करेगा, क्षात्रधर्म के अनुसार युद्ध नहीं करेगा तो तेरी अपकीर्ति होगी जो तेरे लिए मरण से भी बढ़कर दुःखदायी होगी।”

इसलिए हरेक मनुष्य को संस्कारप्राप्त सहज कर्त्तव्यकर्म को करते-करते अमर आत्मा का ज्ञान पा लेना चाहिए। फल की आशा छोड़कर अपने कर्त्तव्यकर्म को उत्तम रीति से करने वाला पुरुष स्थितप्रज्ञ (स्थिर बुद्धिवाला) हो जाता है। समय पाकर वह जन्म-मरणरूप बन्धन से मुक्त होकर परमपद को प्राप्त हो जाता है।

तीसरा अध्याय कर्मयोग है। कर्म तो सब करते हैं लेकिन वे कर्म करके बंधन बनाते हैं। कोई बिरला गुरुमुख कर्म का योग बना लेता है। कर्म के ऐहिक फल का त्याग करके कर्मयोगी अनंतगुना फल पा लेता है। जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा हैः “मुझ अंतर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त के द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझ में अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर।”

ज्ञानकर्मसंन्यासयोग नाम के चौथे अध्याय में भगवान कहते हैं- “बहुत काल से लुप्तप्राय हुए इस अविनाशी योग को मैंने सूर्य से कहा था।”

तब आश्चर्य प्रकट करते हुए अर्जुन ने कहाः “आपका जन्म अर्वाचीन है और सूर्य तो प्राचीन है, फिर आपने सूर्य से अविनाशी योग कैसे कहा ?”

श्रीकृष्ण कहते हैं- “जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है तब मैं अपनी योगमाया से, अपने अविनाशी स्वरूप को साकार रूप में प्रकट करने की शक्ति से साकार रूप में प्रकट होता हूँ। मेरे बहुत अवतार हो चुके हैं एवं तुम्हारे भी बहुत जन्म हो चुके हैं। मैं उन सबको जानता हूँ, तुम नहीं जानते।

स्वधर्म का पालन करते रहना ठीक है, पर उसके साथ चित्तशुद्धि भी जरूरी है। कर्म करें लेकिन वह कर्म पूरे मनोयोग से करें तो वह कर्म  विकर्म बन जायेगा, विशेष कर्म बन जायेगा।

कर्म की गति गहन है, इसलिए कर्म के तत्त्व को भली-भाँति समझकर कर्मबन्धन से मुक्त हो जाना ही बुद्धिमानी है। आसक्तिरहित होकर कर्म करने वाले के यज्ञरूप कर्म विलीन हो जाते हैं।”

सर्व प्रकार के यज्ञों में ज्ञानयज्ञ की श्रेष्ठता बताते हुए भगवान कहते हैं-

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।

उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ। उनको भली भाँति दण्डवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्मतत्त्व को भली-भाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।

यह उस ज्ञान की बात है, जिसके समान इस संसार में पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं है। इस ज्ञान का आश्रय लेकर विवेकरूपी तलवार से अपने हृदय में स्थित अज्ञानजनित संशय का छेदन करके समत्वरूप कर्मयोग करता हुआ युद्ध के लिए खड़ा हो जा।”

यह संसार भी युद्ध का मैदान है। इसमें जो ज्ञान का आश्रय लेकर बाहर-भीतर के शत्रुओं से युद्ध करेगा, वह सफल हो जायेगा।

कर्मसंन्यासयोग नाम के पाँचवें अध्याय में सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय है। सांख्ययोगी और कर्मयोगी का व्यवहार बाह्य रूप से भले अलग दिखाई पड़ता हो, किन्तु अंत में दोनों सच्चिदानंद परमात्मा के ज्ञान, आनंद और शांतिरूपी एक ही लक्ष्य को प्राप्त होते हैं।

एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।

जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक देखता है, वही यथार्थ देखता है। मनुष्य के शुभाशुभ कर्मों के फल को सर्वव्यापी परमेश्वर ग्रहण भी नहीं करता, त्याग भी नहीं करता परंतु अज्ञान के द्वारा ज्ञान ढँका हुआ है, उसी से सब मनुष्य मोहित हो रहे हैं। लेकिन जिस मनुष्य ने परमात्मा के तत्त्वज्ञान द्वारा अपना अज्ञान नष्ट किया है, वह मुक्त है।

छठा अध्याय है आत्मसंयमसंयोग।

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।

स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।।

जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है।

आरूरूक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।

योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।

ʹयोग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा है और योगारूढ हो जाने पर सर्वसंकल्पों का अभाव ही कल्याण में हेतु कहा है।ʹ

भगवान कहते हैं- “हे अर्जुन ! कामनारहित होकर सत्कर्म करता है वह संन्यासी है, वह योगी है।”

निष्काम कर्म तो करने चाहिए लेकिन कर्मों से समय बचाकर फिर अन्तरात्मा में डूबने का, अंतर्मुख होने का अभ्यास भी करना चाहिए।

भगवान कहते हैं-

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।

ʹसंसार-समुद्र से अपने द्वारा अपना उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले, क्योंकि मनुष्य आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।ʹ

इस तरह आत्मसंयमयोग में आत्मोद्धार की प्रेरणा दी है। इसमें भगवद् प्राप्त महापुरुषों के लक्षण दिये गये हैं। ध्यानयोग की समझ और महत्त्व बताकर योगी की श्रेष्ठता का वर्णन करते हुए कहा है कि तपस्वी, ज्ञानी और विद्वानों से भी योगी श्रेष्ठ है।

तस्माद्योगी भवार्जुन।

सातवाँ अध्याय ज्ञानविज्ञानयोग है।

विज्ञानसहित ज्ञान का विषय और संपूर्ण पदार्थों में कारणरूप व्यापक भगवान का वर्णन करते हुए कहा हैः

मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय।

मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।

ʹहे धनंजय ! मेरे सिवाय किंचित्मात्र भी दूसरी वस्तु नहीं है। यह संपूर्ण जगत सूत्र में पिरोये गये सूत्र के मणियों के सदृश मेरे में गुँथा हुआ है।ʹ

भगवान कहते हैं कि माया में फँसे हुए मूढ़ जन मेरे उस सर्वव्यापक रूप को नहीं जानते हैं, लेकिन जो पुरुष मेरी शरण में आता है, निरन्तर मेरे को ही भजता है, वह संसार से तर जाता है।

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

ऐसा सुगम उपाय होने पर भी माया द्वारा हरे हुए ज्ञान वाले और आसुरी स्वभाव को धारण किये हुए तथा मनुष्यों में नीच और दूषित कर्म करने वाले मूढ लोग मेरे को नहीं भजते हैं।

इस प्रकार यहाँ आसुरी भाव को प्राप्त हुए पुरुष की निंदा और भगवद् भक्तों की प्रशंसा की गई है। देवताओं की उपासना और उससे प्राप्त होने वाले फल नाशवान हैं। अतः उसमें लगे हुए पुरुष भगवदभक्ति से होने वाले विशुद्ध आनंद के लाभ से वंचित रह जाते हैं।

आठवाँ अध्याय हैं अक्षरब्रह्मयोग। इस जगत की सब चीजें तो क्षर हैं किन्तु ब्रह्म-परमात्मा अक्षर है, अविनाशी है। यह बताते हुए यहाँ ब्रह्म, अध्यात्म और कर्म के विषय में प्रश्नोत्तर किये गये हैं। शुक्ल और कृष्ण पक्ष में जीव की गति का वर्णन आता है।

इसमें यह सिद्धान्त पेश किया गया है कि जो विचार मृत्यु के समय स्पष्ट और गहराई से उठा हुआ हो, वही विचार आगे के जन्म में पायी हुई धरोहर बाँधकर मरण की लम्बी नींद से उठकर फिर से दूसरे जन्म में अपनी यात्रा शुरु होती है। इस जन्म का अंत अगले जन्म की शुरुआत होती है। इसलिए हमेशा मरण का स्मरण रखकर जीवन का व्यवहार चलाओ। और सब तो अनिश्चित है लेकिन मरण निश्चित है। सूर्य अस्त होता है और आयुष्य क्षीण होता जाता है। एक-एक दिन करके आयु खत्म होती जाती है लेकिन मनुष्य को उसका विचार नहीं आता है।

भगवान कहते हैं- “हे अर्जुन ! तू सब काल में समत्वबुद्धिरूप से योग से युक्त हो अर्थात् निरन्तर मेरी प्राप्ति के लिए साधन करने वाला हो।”

नौवाँ अध्याय है राजविद्याराजगुह्ययोग। इसमें भगवान कहते हैं-

राजविद्याराजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।

यह राजविद्या है। दुनियाँ की सारी विद्याएँ अच्छी हैं, अपनी-अपनी जगह पर ठीक हैं लेकिन आत्मविद्या सब विद्याओं में राजा है। नीतियों में राजनीति और विद्याओं में ब्रह्मविद्या राजा है। राजनीति कोई बुरी चीज नहीं है लेकिन राजनीति में जब दुष्ट लोग घुस जाते हैं, स्वार्थ बढ़ जाता है तो कुर्सीनीति बन जाती है, घृणास्पद बन जाती है। राजा अगर धर्म को और समाज के हित को ध्यान में रखकर राज्य चलाता है तो राजनीति सही है, नहीं तो फिर वह कुर्सीनीति हो जाती है। अगर राजनीति सही है तो समाज  का कल्याण होने में देर नहीं होती, समाज के लोगों के जीवन में उसका असर देखने को मिल सकता है। वैसे ही यह राजविद्या भी गुह्य विद्या है, पवित्र है, प्रत्यक्ष फल देने वाली है और पाने में सरल है।

हँसिबो खेलिबो धरिबो ध्यान। अहर्निश कथिबो ब्रह्मज्ञान।।

खावे पीवे न करे मनभंगा। कहे नाथ मैं तिसके संगा।।

जो कुछ करें वह उस सर्वव्यापक परमेश्वर को भक्तिभावपूर्वक अर्पण करके परमेश्वरमय हो जायें। उसी को प्राप्त करने की बात भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं।

दसवाँ अध्याय है विभूतियोग।

भगवान की महिमा का थोड़ा-बहुत ख्याल जीव को आये, इसलिए भगवान ने इसमें अपने प्रभाव को बताते हुए कहा है किः “हे अर्जुन ! यहाँ बहुत जानने से तेरा क्या प्रयोजन है ? मैं इस संपूर्ण जगत को अपनी योगमाया के एक अंशमात्र से धारण करके स्थित हूँ। इसलिए मेरे को तत्त्व से जानना चाहिए।”

ग्यारहवाँ अध्याय विश्वरूपदर्शनयोग है। भगवान के विश्वरूप का दर्शन करने की इच्छा रखने वाले अर्जुन को भगवान ने दिव्य चक्षु प्रदान किये। उन दिव्यों चक्षुओं से भगवान को असंख्य हाथ-मुख-नेत्रवाले और अनंत रूपवाले देखकर अर्जुन को आश्चर्य और रोमांच के साथ कुछ भय भी हुआ। तब श्रीकृष्ण ने अपने चतुर्भुज रूप का दर्शन कराके अपने सौम्यरूप को पुनः धारण किया और अनन्य भक्ति से उसे प्राप्त करने की बात बताई।

भक्तियोग नामक बारहवें अध्याय में सगुण और निर्गुण भक्ति की महिमा और भक्त के प्रति भगवान की प्रीति का वर्णन है।

तेरहवाँ अध्याय क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग है। इसमें शरीर तो क्षेत्र है और उस क्षेत्र को जानने वाला क्षेत्रज्ञ आत्मा है। यह शरीर, यह अंतःकरण, यह संसार क्षेत्र है, उसे जानने वाला साक्षी चैतन्य आत्मा है और वह क्षेत्रज्ञ है। तो तुम शरीर या प्रकृति का अंतःकरण नहीं, पर उसे जानने वाले हो।

गुणत्रयविभागयोग नाम के चौदहवें अध्याय में प्रकृति के तीन गुणों का वर्णन हैः सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण। इन तीनों गुणों का प्रमाण जैसा कम-ज्यादा होता है, वैसा जीवन का व्यवहार होता है। आदमी कभी सज्जन लगता है, कभी स्वार्थी लगता है और कभी दुष्ट लगता है। जिस वक्त जिस गुण का प्रभाव ज्यादा होता है वैसा वह लगता है। वास्तव में, प्रकृति के गुणों का जो आधार है वह आत्मा तो वैसे-का-वैसा, अचल, अधिकारी रहता है। लेकिन आदमी शरीर और मन के साथ एक होकर गुणों के प्रभाव में आकर अपने को वैसा मान लेता है। अपने अविनाशी स्वरूप को जानना है, आत्मा का ज्ञान पाना है तो सत्त्वगुण बढ़ाना चाहिए। सात्त्विक वातावरण, सात्त्विक आहार-विहार और सात्त्विक संग से सत्त्वगुण बढ़ता है। सत्त्वात्संजायते ज्ञानं… सत्त्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है।

पंद्रहवाँ अध्याय है पुरुषोत्तमयोग। पुरुषों में जो उत्तम है उस सच्चिदानंद चैतन्य परमात्मा का ज्ञान देने वाला यह अध्याय है। भगवान कहते हैं-

गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।

ʹ…..जो मूढ़ नहीं हैं, वे अव्यय पद को प्राप्त होते हैं।ʹ

वह अव्यय पद कैसा है ?

न तद् भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः।

यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।

उस स्वयं प्रकाशस्वरूप परमपद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकता है और जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य फिर संसार में वापस नहीं आते हैं, वही मेरा परम धाम है।

दैवासुरसंपद्विभागयोग नामक सोलहवें अध्याय में दैवी संपदा और आसुरी संपदा प्राप्त किये हुए लोगों का वर्णन है।

श्रद्धा भी तीन प्रकार की होती है, यह बात श्रद्धात्रयविभागयोग नाम के सत्रहवें अध्याय में आता है। तामसी श्रद्धा वाले अपना उल्लू सीधा करने के लिए भूत-भैरव को रिझाते हैं। वे गधे के पूँछ के बाल और ऊँट के दाँतों की मणियों की माला बनाकर मुर्दे पर बैठकर तांत्रिक साधना करते हैं और भूत-भैरव या कर्णपिशाचिनी आदि साधते हैं, जिससे उऩ्हें कुछ ऐहिक चुटकुले प्राप्त हो जाते हैं। जो देवताओं को रिझाकर यहाँ भी और स्वर्गादि में भी सुख पाना चाहते हैं उनकी श्रद्धा राजसी श्रद्धा है। किन्तु आत्मदेव सब देवों का देव है, परमात्मदेव है। उसे जानने के लिए उसे पाने के लिए जो लगा रहता है, जो यहाँ के सुख की या स्वर्ग के सुखों की भी परवाह नहीं करता है, जो मानता है कि ʹमेरा आत्मा सुखस्वरूप है…. मैं सुखस्वरूप आत्मा हूँ…. मुझे अपने इस सोઽहं स्वरूप का साक्षात्कार करना है…ʹ उसकी श्रद्धा सात्त्विक श्रद्धा है। ऐसे लोग जीवन्मुक्ति के पद को पा लेते हैं। सात्त्विक श्रद्धावाला कभी फरियाद नहीं करता, राजसी श्रद्धावाला मनुष्य फरियाद करता रहता है और तामसी श्रद्धावाला तो विरोधी हो जाता है।

श्रीमद् भगवद् गीता का अठारहवाँ और आखिरी अध्याय है मोक्षसंन्यासयोग।

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

ʹसर्व धर्मों को यानी सर्व कर्मों के आश्रय को त्यागकर केवल एक मुझ सच्चिदानंदघन वासुदेव परमात्मा की अनन्य शरण को प्राप्त हो। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा। तू शोक मत कर।ʹ

यहाँ भगवान श्रीकृष्ण शरणागत भक्त के प्रति अपनी भक्तवत्सलता बताते हुए अभय वचन देते हैं। भक्त और भगवान की महिमा लाबयान है।

श्रीमद् भागवत परमहंससंहिता है। जीते जी भक्ति और मरने के बाद मुक्ति चाहिए तो श्रीमद् भागवत की कथा है। संसार में रहते हुए, जीवन में आने वाले विघ्न-बाधाओं से जूझते हुए भी परम पद को, परम सुख को पाना है, जीते जी मुक्ति पाना है तो श्रीमद् भगवद् गीता का ज्ञान है जिसे पाकर आप तो मुक्ति का अनुभव कर ही सकते हैं, औरों को भी इस परम सुख के मार्ग पर ले जा सकते हैं।

ૐ शांति….. ૐ आनंद…. ૐ….ૐ….ૐ….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1998, पृष्ठ संख्या 5-8, अंक 71

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