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लौंग


मलक्का एवं अंबोय के देश में लौंग के झाड़ अधिक उत्पन्न होते हैं। लौंग का उपयोग मसालों एवं सुगंधित पदार्थों में अधिक होता है। लौंग का तेल भी निकाला जाता है।

लौंग के गुणधर्म

लौंग लघु, कडुवा, चक्षुष्य, रूचिकर, तीक्ष्ण, पाककाल में मधुर, पाचक, स्निग्ध, अग्निदीपक, हृद्य, वृष्य और विशद है। यह वायु, पित्त, कफ, आँव, शूल, आनाहवायु (आफरा), खाँसी, हिचकी, वात दोष, विष, छाती में चाँदी, तृषा, पीनस, रक्तदोष तथा ऊर्ध्व वायु का नाश करता है। लौंग मुँख, आमाशय एवं आँतों में रहने वाले सूक्ष्म कीटाणुओं का नाश करने एवं सड़न को रोकने के गुण हैं।

लौंग के उपयोग

सर्दी लगने परः लौंग का काढ़ा बनाकर मरीज को पिलाने से लाभ होता है।

कफ और खाँसीः मिट्टी का तवा या तवे जैसा टुकड़ा गर्म करें। लाल हो जाने पर बाहर निकाल कर एक बर्तन में रखें और ऊपर सात लौंग डाल कर उऩ्हें सेकें। फिर लौंग को शहद के साथ लेने से लाभ होता है।

दाँत का दर्दः लौंग के अर्क को रुई पर डालकर उस फाहे को दाँत पर रखें। इससे दाँत के दर्द में लाभ होता है।

मूर्छा एवं मिर्गी की शुरुआतः लौंग को घिसकर उसका अंजन करने से लाभ होता है।

रतौंधीः बकरी के मूत्र में लौंग को घिसकर उसको आँजने से लाभ होता है।

सिरदर्दः सिरदर्द में लौंग का तेल सिर पर लगाने से या लौंग को पीसकर ललाट पर लेप करने से राहत मिलती है।

श्वास की दुर्गन्धः लौंग का चूर्ण खाने से अथवा दाँतों पर लगाने से दाँत मजबूत होते हैं। मुँह की दुर्गन्ध कफ, लार, थूक के द्वारा बाहर निकल जाती है। इससे श्वास सुगंधित निकलती है, कफ मिट जाता है और पाचनशक्ति बढ़ती है।

गर्भिणी की उल्टीः 2 लौंग को गरम पानी में भिगोकर वह पानी पीने की सलाह एलौपैथ के डाक्टरों द्वारा भी दी जाती है।

अग्निमांद्य, अजीर्ण एवं हैजाः लौंग का अष्टमांश काढ़ा अर्थात् आठवाँ भाग जितना पानी बचे, ऐसा काढ़ा बनाकर पिलाने से रोगी को राहत मिलती है।

हैजे में प्यास लगने पर अथवा मिचली आने परः 7 लौंग अथवा दो जायफल अथवा दो ग्राम नागरमोथ पानी में उबालकर ठंडा करके रोगी को पिलाने से लाभ होता है।

खाँसी, बुखार, अरूचि, प्रमेह, संग्रहणी एवं गुल्मः लौंग, जायफल एवं लेंडीपीपर 1 भाग, बहेड़ा 3 भाग, काली मिर्च 3 भाग और लौंग 16 भाग लेकर उसका चूर्ण करें। उसके बाद 2 ग्राम चूर्ण में उतनी ही मिश्री डालकर खायें। इससे लाभ होता है।

मूत्रलः लौंग का चूर्ण नित्य 125 मि.ग्रा. से 250 मि.ग्रा. लेने से मूत्रपिंड से मूत्रद्वार तक के मार्ग की शुद्धि होती है और मूत्र खुलकर आता है।

खाँसी के लिए लवँगादिवटीः लौंग, काली मिर्च, बहेड़ा-इन तीनों को समान मात्रा में मिला लें। फिर इन तीनों की सम्मिलित मात्रा जितनी खैर की अंतरछाल अथवा सफेद कत्था भी इसमें डालें। इसके पश्चात बबूल की अंतरछाल के काढ़े में तीन-तीन ग्राम वजन की गोलियाँ बनायें। रोज दो-तीन बार एक-एक गोली मुँह में रखने से खाँसी में शीघ्र राहत मिलती है।

खाँसी वगैरह के लिए लवंगादिचूर्णः लौंग, जायफल और लेंडीपीपर आधा तोला, काली मिर्च दो तोला और सोंठ 16 तोला लेकर उसका चूर्ण तैयार करें। अब चूर्ण के बराबर मात्रा में मिश्री मिलायें। यह चूर्ण तीव्र खाँसी, ज्वर, अरूचि, गुल्म, श्वास, अग्निमांद्य एवं संग्रहणी में उपयोगी है। 1 तोला=12 ग्राम।

विशेषः लवंगादि सुगंधी पदार्थों का चूर्ण तभी बनायें जब जरूरत हो, अन्यथा पहले से बनाकर रखने से इसमें विद्यमान तेल उड़ जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1998, पृष्ठ संख्या 23,24 अंक 71

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ध्यान में पूज्य गुरुदेव का संकेत


भगवान हमें प्रेरणा और उत्साह देते हैं। उन भगवान से प्रार्थना करें कि वे हमारे दिल में शीघ्र ही ज्ञान-पिपासा पैदा करें, हमारा साहस बढ़ायें। जीवन की शाम हो जाय, उससे पहले जीवनदाता प्रभु से हमारी मुलाकात हो जाये।

सच्चे हृदय से प्रार्थना करोगे तो आपका मन पवित्र होता जायेगा, रक्त का कण-कण पवित्र होता जायेगा। और भगवदीय धर्म पाने की बुद्धि बनती जाएगी। जो कुछ सत्कर्म एवं दान पुण्य करो, सब भगवान को अर्पण करो तो उसका फल अनन्त हो जाएगा। अहंकार के कारण मन बुद्धि को अपना मानकर जीव परेशानी पैदा करता है। उस मन-बुद्धि को भी परमात्मा को अर्पण कर दो। सत्संग और हरिकीर्तन से आपका अंतःकरण शुद्ध होता है, हृदय पावन होता है और हृदय में भक्तिभाव अठखेलियाँ करता है।

आपके संस्कार मुझे अच्छे लग रहे हैं। भगवान करें कि आपको बार-बार सत्संग सुनने का अवसर प्राप्त हो और आपका भक्तिभाव सदैव बढ़ता रहे। जो घड़ियाँ सत्संग में बीतीं, वे ही सफल हैं। आप सत्संग सुनें और याद न रहे फिर भी वह कितना लाभदायी है, यह तो भगवान जानते हैं। अकेले में मन को बाँध रखना संभव नहीं। जितनी देर आप सत्संग में बैठते हो, उतनी देर के लिए तो आप संतसभा में संतत्व को उपलब्ध हो जाते हो। सत्संग की महिमा आप प्रत्यक्ष देख सकते हो कि जब तक सत्संग में बैठते हो तब तक वाणी का, विकारों का संयम अपने-आप हो जाता है। काम, क्रोध, भय, शोक, लोभ अपने-आप चले जाते हैं।

राजा जनक सत्संग सुनते थे तो उनकी सातवीं पीढ़ी के राजा अज की मुक्ति हुई। कुल में कोई बेटा ब्रह्मज्ञानी संत का सत्संग सुनता है, ईमानादारी से भक्ति करता है तो उसके पितरों का कल्याण होता है। उसके पुत्र-पौत्रों का कल्याण होता है। उसके अपने कल्याण होने में क्या संदेह ? इसे आप समझ नहीं सकते, पर आपने बहुत कमाई की है।

ʹसूरज ढलता है तो पक्षी अपने घोंसले की ओर जाते हैं, वैसे ही प्रभु ! तू मुझे वह पंख देना कि जीवन की शाम होने से पहले मैं तेरी और उड़ान भर सकूँ, ऐसी मेरी मनोबुद्धि हो जाये। किसी ने हीरे-मोती कमाये, कोई जवाहरात कमाएगा लेकिन मैं तो तेरे नाम की कमाई कर लूँ, ऐसी दया करना प्रभु !ʹ यह प्रार्थना तुम करते रहना।

तुम सुबह उठो तो भगवान से  कहो किः ʹप्रभु ! मैं तेरा हूँ। मेरे मन-बुद्धि भी तेरे हैं। तू इसे अच्छे रास्ते पर चलाना।ʹ

रात को सोते वक्त परमात्मा का चिंतन करते करते सो जायें। भोजन करें तो भी अंतर्यामी परमात्मा को भोग लगाकर ही करें। समय निकाल कर ʹईश्वर की ओरʹ पुस्तक बार-बार पढ़ते रहें और विचार करें। ज्यादा समय निकाल सकें तो एक या दो सप्ताह मौनमंदिर में एकांत में जाएँ और अंतर की यात्रा करें। इससे शरीर के रोग तो मिटते हैं, मन के रोग भी मिटते हैं। ध्यान योग साधना शिविर में जाने का लाभ ले सकें तो समय निकालकर अवश्य लें। रात्रि को सोते समय भी थोड़ा सा ध्यान करके सोवें।

साधक आत्मा में विश्रांति पाता है तो गुरु की प्रेमपूर्ण कृपा उस पर बरसती है। गुरु उसको गुप्त बातें बताते हैं। गुप्त बातें भी दो प्रकार की होती हैं- एक तो वे जो अपने जीवन में अनुभव हुए हों। जैसे कि ʹमुझे ऐसा प्रकाश हुआ…. ऐसे देवदर्शन हुए… मुझे मेरे गुरु ने ऐसे डाँटा था…. मेरे गुरु ने ऐसी कृपा की थी…. मैं ऐसे-ऐसे विकारों में गिरा था…. मैं ऐसे विकारों से बचा था…. मेरे पास ऐसी-ऐसी सिद्धियाँ आई थीं…. ऐसे ऐसे चमत्कार हुए थे… किन्तु चमत्कार प्रकृति में होते हैं अतः मेरे गुरु देव ने मुझे प्रकृति से परे जाने की प्रेरणा की थी।ʹ आदि-आदि। गुरु लोग इस प्रकार के अनुभव और आपबीती बताते हैं। दूसरी बात, वे अपना वास्तविक स्वरूप, जो आपबीती से परे हैं, ब्रह्मांड से परे है, उस तत्त्व की बात बताते हैं। गुरु बताते हैं-

“वत्स ! जो मैं देह रूप होकर दिख रहा हूँ, वह मैं नहीं हूँ। यह एक देह, नात-जात या मत-पंथ मेरा नहीं है। जो दिख रहा हूँ, वैसा मैं नहीं हूँ। किसी देश में या प्रांत में या किसी काल में या किसी रूप में जैसा दिखता हूँ, वैसा मैं नहीं हूँ। तू ईश्वर के नाते मुझे मिला और मैं तुझे ईश्वर से मिलाने के लिए मिला। तेरा और मेरा मधुर संबंध है। हे वत्स ! प्यार से भरी तेरी आँखें और श्रद्धा की धाराएँ मुझे प्रेमवश करती हैं। तूने बार-बार श्रद्धा-भक्ति से मुझे देखा है। इसलिए हे वत्स ! मैं तुझे अपना अनुभव कहता हूँ। तू ध्यान से सुन। मेरे हृदय को छूकर निकलती हुई वाणी तेरे हृदय को पावन करती है। तेरे प्रेम की धारा मेरे अनुभव को खींचती है और मेरे प्रेम की नजर तेरे पर बरसती है।

जैसे पक्षी को फँसाने के लिए शिकारी जाल बिछाते हैं वैसे मैंने उपदेश देने के लिए वाणीरूपी जाल बिछाकर तेरे कानों को अपनी तरफ खींचा और तू इससे सहमत हुआ। इसलिए मैं तुझे अपनी ओर खींचता हूँ। तू प्रतीति में मत जाना, निज प्राप्ति में आना। तुझे इस आकृति में मैं दिख रहा हूँ, इतना ही मैं नहीं हूँ। ऐसी जगह नहीं , जहाँ से तू मुझसे बाहर निकल सके। ऐसा कोई समय नहीं, जब मैं नहीं हूँ। ऐसा कोई कर्म नहीं जो तू मुझसे छिपा सके। तत्त्व से तू मेरा अनुभव करे तो तू मुझमें ही रहता है, मुझमें ही बोलता है। मैं तुझे यह गोपनीय बात बता रहा हूँ।”

गुरु ने अपने श्रीमुख से कहाः “देह की आकृति से मैं लेता-देता, कहता सुनता दिखता हूँ, इतना मैं नहीं हूँ। तू देह में बँधा है, इसलिए देह में रहकर तुझे जगाना होता है।”

श्रीमद् राजचंद्र ने ठीक कहा हैः

देह छतां जेनी दशा वर्ते देहातीत।

ते ज्ञानीना चरणमां हो वंदन अगणीत।।

“हे वत्स ! तू देह को ʹमैंʹ मत मानना। यह देह तो प्रतीति मात्र है। तू अपने स्वरूप की प्राप्ति करने आया है। जब तक तू लक्ष्य को नहीं पायेगा, मैं तेरा पीछा नहीं छोड़ूँगा। मेरे दिल में तेरे कल्याण के सिवाय और कुछ नहीं है। हे साधक ! कई बार तू गलती करता है, फिर प्रायश्चित करता है, रोता है, पुकारता है। कई बार मेरे से दूर होकर विकारों में जाता है, लेकिन मैं तेरे से दूर नहीं हो सकता हूँ। मैं तेरी कमजोरियाँ जानता हूँ। तेरी मनमानियाँ भी जानता हूँ। संसार में तू संभल-संभलकर कदम रखना। तू कहीं भी रहे लेकिन मुझमें रहना। जैसे श्रीकृष्ण और उद्धव का मिलन हुआ था, जैसे श्रीकृष्ण और अर्जुन का मिलन हुआ था, जैसे अष्टावक्र और जनक का मिलन हुआ था वैसे ही तेरा और मेरा मिलन हो जाये, साक्षात्कार हो जाये, यही उद्देश्य बनाय रखना। हे साधक ! तेरा और मेरा बाहर का मिलन हो, ऐसा मिलन नहीं। तू अपने को देह मानता है। देह तो आती जाती है और तू मुझे भी आता-जाता मानता है।

बाहर के ये संबंध तो मिटने वाले हैं लेकिन हे वत्स ! तेरा और मेरा संबंध अमिट है। आत्मा और परमात्मा का संबंध, भगवान और भक्त का संबंध तथा गुरु और शिष्य का संबंध सत्य है, अमिट है। जितना तू सत्य में ठहरता जायेगा, उतना ही तू मुझसे एक होता जायेगा।”

गुरु ने अपने सिद्धावस्था के अनुभव सुनने की इच्छा शिष्य में देखी तब अपने दृष्टिपात में, अपनी नूरानी निगाहों से स्नान कराके अपने शिष्य को कहाः

“हे वत्स ! कई बार तूने मुझे श्रद्धा-भक्ति से निहारा है। मैं भी तुझ पर आत्मप्रेम न्यौछावर किया है।”

शिष्य ने गुरुदेव से कहाः “गुरुदेव ! आपका प्रेम माँ की तरह ममता से पूर्ण और उऩ्मुख करने वाला है। संसारियों के प्रेम से आपका प्रेम निराला है, बेजोड़ है। प्रभु ! मैं बार-बार इन मलिन हाथों से आपके प्रेम को बिखेरता जाता हूँ, फिर भी आप नाराज नहीं होते हो। कभी नाराज हुए दिखते हो तो भी हमें बचाने के लिए संकेत करते हो।”

शिष्य की योग्यता का परिचय पाकर गुरु ने दोहरायाः “पुत्र कुपुत्र हो सकता है किन्तु माता कभी कुमाता नहीं होती।

वत्स ! तुम जहाँ भी जाओगे, वहाँ तुम्हें कई प्रलोभन मिलेंगे। तुम्हारी और हमारी प्रेमसगाई में विघ्न डालने  वाले कई लोग होंगे, कई बाधाएँ आयेंगी। उन बाधाओं को चीरते-चीरते तुम उस प्रेमास्पद की प्रेमभरी यादों में सराबोर रहना। वत्स ! प्रेम की पराकाष्ठा ही परमात्मा का साक्षात्कार है। तू अपने परमात्मपद को संभालना। कभी तुझे मान-बड़ाई घेर लेंगे और कभी तू विकारों में गिरेगा। यदि तू विकारों से सफलतापूर्वक बच निकला तो तुझे पुजवाने की इच्छा होगी और तेरी वह इच्छा बनी रहेगी तो मुझे उससे दुःख होगा कि तू पूज्यपद में पहुँचे बिना ही पुजवाने की इच्छा करता है। पुजवाने की इच्छा परमपद में पहुँचने में बाधक है। वत्स ! जब तक तू पूज्यपद में नहीं ठहरा तब तक मेरा प्रयत्न बंद नहीं होगा, मुझे चैन नहीं मिलेगा। मेरे चैन के खातिर साधना करते रहना, श्रद्धा-भक्ति बढ़ाते रहना। साधना छोड़ना मत। साधना छोड़ेगा तो विकार और अहंकार तुझे धोखा देंगे। तू मेरे हाथों की कठपुतली बनकर रहना। तू गुरु के दैवी कार्यों में लगे रहना, ताकि विकारी कार्य तुझे बरबाद न करें। तू मेरे प्रेम-दरवाजे पर खड़े रहना, ताकि काम का दरवाजा तेरे लिए आकर्षक न बने। तू राम के दरवाजे पर ही डटे रहना क्योंकि,

जहाँ राम तहँ नहीं काम। जहाँ काम तहँ नहीं राम।।

जब-जब तुझे काम सताये तब-तब तू अपने राम को पुकारना। उस स्थान को तुरंत छोड़ देना। वत्स ! मैं तेरी कमजोरियाँ जानता हूँ। तेरी संभावना भी जानता हूँ। तेरे अंदर छिपा हुआ देवत्व मुझे प्रतीत हो रहा है। मैं तेरी पुरानी निर्बलता भी जानता हूँ और जब तेरी पुरानी आदतों की ओर देखता हूँ तो मुझे नहीं होता कि तुझे विकारों में गिराने वाली परिस्थितियों में, संसार की अग्नि में जाने की इजाजत दूँ। लेकिन तेरी प्रेमाभक्ति पर, तेरी साधना पर मुझे भरोसा है। मैं हिम्मत करता हूँ कि तू श्रद्धा बनाये रखेगा, तू साधना करता रहेगा। तू मुझसे विश्वासघात नहीं करेगा, मेरे रत्नों को नाली में नहीं डाल देगा। तुझ पर मुझे विश्वास है। इसलिए मैं तुझे संसार में जाने की इजाजत देता हूँ।

संसार में तू जाये तो संभल-संभलकर कदम रखना। संसार में उत्साह से कर्त्तव्यपालन करना। संसार का कार्य उत्साह से करना लेकिन परिणाम की चिन्ता मत करना। यदि परिणाम चाहे भी तो शाश्वत चाहना और शाश्वत परिणाम आत्म-साक्षात्कार ही है। तू अहंकार, वासना या काम की कठपुतली होकर कार्य नहीं करना, राम की कठपुतली होकर कार्य करना। तभी तू राम में विश्रांति पायेगा। जितना तू राम में विश्रांति पायेगा उतना ही मेरा चित्त प्रसन्न होगा। जब-जब विकारों का सामना हो, तब सावधान रहना। तू फिसल जाये यह दुःख की बात है, पर निराशा की बात नहीं है। तू फिर-फिर से खड़ा होना। मैं फिर से तेरा हाथ पकड़ूँगा। तू डरना मत। मेरा विशाल प्यार तेरे साथ है। तू मुझे इतना प्यार करता है, तो मैं कंजूस क्यों बनूँगा ? तू अपने ʹमैंʹ को मिटाता है तो हे वत्स ! मैं अपने-आप को दे डालने का इन्तजाम करता हूँ।

मैं अपने और गुरुदेव के बीच की बातें तो कह ही देता हूँ। मैं तेरे और मेरे बीच के अनुभव का इन्तजार करता हूँ। मेरे पास आने पर तुझे जो अनुभूतियाँ हुईं, उनमें रूकना मत, आगे ही चलते रहना। मैं तुझे जितना उन्नत देखना चाहता हूँ, उसके लिए तू प्रयत्न करना। तू प्यार और उत्साह बढ़ाकर प्रयत्न करते रहना। मैं तुझे समता के सिंहासन पर बिठाना चाहता हूँ। तेरे चित्त की दशा सुख-दुःख में, मान-अपमान में, शीत-उष्ण में सम रहे, यही मेरी आकांक्षा है।

वत्स ! तू ऐसा सोचना किः ʹमेरे ऐसे दिन कब आयेंगे कि मैं सुख-दुःख, मान-अपमान में सम रहूँगा ? ऐसे दिन कब आयेंगे कि गुरुदेव मुझे अपने-आपका दान दे डालेंगे ? ऐसे दिन कब आयेंगे कि गुरु और शिष्य की दूरी खत्म हो जायेगी ?ʹ

गुरु के अनुभव में शिष्य टिक जाये और शिष्य, शिष्य न रहे, पर गुरु बन जाये। वत्स, तू ऐसी ही तमन्ना करना। आत्मपद पाने का लक्ष्य बनाय रखना। अभी तो तू अज्ञान से घिरा है, प्रलोभन भी बहुत आयेंगे, नासमझ लोग तुझे समझाने आएँगे, पर तू बाहर की सहायता मत लेना। क्या परमात्मा की सहायता से तेरी तृप्ति नहीं होगी ? बाहर के व्यक्ति और बाहर के कार्यों के सहारे तू अपनी यात्रा खत्म मत करना। बाहरी सहारों में उलझ मत जाना। अंतरयात्रा को भूल मत जाना।

तुझे संसार में जाने की इजाजत तो देता हूँ, पर सावधान भी करता हूँ क्योंकि मैं तुझे प्यार करता हूँ। तू अपने को कभी अकेला मत समझना, कभी अनाथ नहीं समझना। दीक्षा के दिन से तेरा-मेरा मिलन हुआ है, तब से तू अकेला नहीं है। मैं सदा तेरे साथ हूँ। देह की दूरी चाहे दिखे, पर आत्मराज्य में दूरी की कोई गुंजाइश नहीं। आत्मराज्य में देश काल की कोई विघ्न-बाधाएँ आ नहीं सकती। तू आत्मराज्य में प्रवेश पाता जायेगा।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1998, पृष्ठ संख्या 9-12, अंक 71

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ईश्वर की आद्यशक्ति और उसका विस्तार


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

ईश्वर की जो मायाशक्ति है, उसी को आद्यशक्ति कहते हैं। उसी से इस संपूर्ण संसार का व्यवहार चलता है। उसी शक्ति से सत्त्व, रज एवं तम – ये तीन गुण उत्पन्न हुए हैं। सत्त्वगुण के अधिष्ठाता भगवान विष्णु, रजोगुण के अधिष्ठाता भगवान ब्रह्माजी एवं तमोगुण के अधिष्ठाता भगवान शिव माने जाते हैं। गुरुवाणी में आता हैः

एक माई जगत वियायी, तीन चेले परवान।

एक संसारी, एक भंडारी, एक देवे निर्वान।।

ये ही तीन देव क्रमशः सृष्टि का सर्जन, पालन एवं संहार करते हैं। इन सबका जो शुद्ध-बुद्ध स्वरूप है, उसी को परब्रह्म परमात्मा कहते हैं। जैसे, हजारों-हजारों लहरों का जो आधार है, उसको सागर कहते हैं वैसे ही ब्रह्म सागर है, अवतार उसमें लहरियाँ हैं और जीव हैं बुदबुदे। बाहर से लहरें एवं बुदबुदे एक दूसरे से भिन्न-भिन्न दिखते हैं, बड़े छोटे दिखते हैं, किन्तु तत्त्व से तो दोनों एक ही हैं। इसीलिए कहा जाता है – आत्मा सो परमात्मा।

जो बुदबुदा है वही लहर है और जो लहर है वही  बुदबुदा है। तात्त्विक दृष्टि से देखें तो लहर, लहर नहीं एवं बुदबुदा, बुदबुदा नहीं – दोनों पानी ही हैं। ऐसे ही जीव भी चेतन है और ईश्वर भी चेतन है। जो शुद्ध चेतन है, उसका नाम है ब्रह्म। मायाविशिष्ट चेतन का नाम है ईश्वर एवं अविद्याग्रसित चेतन का नाम है जीव। यदि जीव की अविद्या मिट जाये, तो उसका वास्तविक स्वरूप तो है ही ब्रह्म। जैसे बुदबुदा अपने को पानी रूप में जान ले तो वह सागर ही है।

किन्तु जीव बेचारा माया अर्थात् अविद्या में ही जीता है और इसलिए भयभीत, दुःखी और चिंतित होता रहता है। वह धन कमाता है तब भी दुःखी होता है और नहीं कमाता है तब भी दुःखी होता है। शादी करता है तो भी दुःखी होता है और कुँवारा रहता है तो भी दुःखी होता है। यश में भी भयभीत रहता है एवं अपयश में भी भयभीत रहता है। जीव बेचारे की हालत ही ऐसी है कि वह स्वयं को सदा जोखिम में ही पड़ा महसूस करता है। उसकी ऐसी हालत होती है, अपनी बेवकूफी के कारण। नहीं तो वह सदा मुक्त और निर्लेप नारायण है। यह बेवकूफी मिटती है परमात्मा के ज्ञान से और परमात्म-ज्ञान मिलता है परमात्मा की शरण जाने से, परमात्मा-प्राप्त संतों की शरण जाने से।

यह बात जानने के बावजूद भी जीव भटकता रहता है। उसका कारण क्या है ? जीव (मनुष्य) का जगत-विषयक स्पंदन।

स्पंदन दो प्रकार का होता है-

ज्ञान प्रधान और संकल्प-विकल्प प्रधान। परमात्मा का चिंतन करते हैं, लेकिन संकल्प-विकल्प प्रधान स्पंदन वाले जीव जगत का चिंतन करके जगतमय ही हो जाते हैं। बार-बार जगत का चिंतन करने से उन्हें संकल्प-विकल्प की आदत पड़ जाती है और आत्मविषयक चिंतन छूट जाता है। जैसे शेर का बच्चा बाल्यकाल से बकरों के बीच रहने से अपना शेरपना भूल जाता है, वैसे ही जगत का चिंतन करते-करते जीव भी अपना वास्तविक स्वरूप (ब्रह्मत्व) भूल जाता है। ऐसे ही असाधु के साथ साधु रहने लगता है तो साधु भी असाधु हो जाता है, लेकिन यदि असाधु साधु के साथ रहने लगे तो वह भी साधु होकर पूजनीय हो जाता है।

वशिष्ठजी महाराज कहते हैं- “हे रामजी ! संग की बड़ी बलिहारी है। मिट्टी पवन का संग करती है तो गगनगामी होकर पुष्पवाटिका में पहुँच जाती है, साधुओं की जटाओं में पहुँच जाती है…. यदि पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के नियम को लाँघकर और ऊपर चली जाये तो फिर सदा के लिए ऊपर ही रह जाती है। किन्तु यदि वही मिट्टी पानी का संग करती है तो कीचड़ बन जाती है। मिट्टी तो एक ही है, किन्तु संग का बड़ा प्रभाव है। ऐसे ही जीव जब परमात्मा की शरण लेता है, संत-महापुरुषों का संग करता है तो देर-सबेर परमात्मामय हो जाता है। किन्तु यदि जगत के व्यक्तियों-वस्तुओं का संग करता है, नश्वर पदार्थों का संग करता है, तो नश्वरता की आदत पड़ जाती है।”

आदत भी तीन प्रकार की होती हैः सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।

सब आदतें तो गुलामी करवाती हैं लेकिन संत-महापुरुष इन तीनों आदतों से परे अपने स्वरूप में मस्त रहते हैं और वे ही पूर्ण स्वतंत्र रह पाते हैं। ऐसे ही एक पूर्ण स्वतंत्र महापुरुष हो गये मस्तराम  बाबा।

एक बार उनके चरणों में एक राजा ने आकर प्रणाम किया और कहाः “बाबाजी ! चाचा ने खटपट करके जो राज्य मुझसे छीन लिया था, वह राज्य मुझे वापस मिल गया। चूँकि मैं आपको  प्रणाम करके आपका आशीर्वाद लेकर गया था, इसलिए मुझे अपना राज्य वापस मिल गया। यह आपकी ही कृपा है।”

मस्तराम बाबाः “अरे, बिल्कुल झूठ।”

राजाः “नहीं, नहीं बाबाजी ! आपकी ही कृपा से राज्य मिला है।”

तब मस्तराम बाबा ने खुलासा करते हुए कहाः “अरे मेरी कृपा होती तो तुझे यह नश्वर राज्य तो क्या, मैं ही मिल जाता। यह तो मेरी दासी की कृपा हुई है।”

सच ही तो है। जिन्होंने आत्म-राज्य पा लिया हो, ऐसे ब्रह्मवेत्ता संतों के लिए माया दासी के समान ही होती है। ऐसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों की मनौती मानने से, उनका दर्शन करने से और उनके आशीर्वाद लेने से यदि कोई सांसारिक सफलता मिल जाए तो यह कोई आखिरी उपलब्धि नहीं है। आखिरी उपलब्धि तो यह है कि,

जहाँ में उसने बड़ी बात कर ली।

जिसने अपनी आत्मा से मुलाकात कर ली।।

श्रीमद् भगवद् गीता के छठवें अध्याय के 22वें श्लोक में आता हैः

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।

यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।

ʹपरमेश्वर की प्राप्तिरूप लाभ को प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा लाभ नहीं मानता है और भगवद्-प्राप्तिरूप अवस्था में स्थित हुआ योगी बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता है।ʹ

जो ऐसे संत-महापुरुषों को छोड़कर माया की शरण में जाता है, जगत की शरण में जाता है, वह फिर चाहे संसार का सारा राज्य ही क्यों न पा ले, सारे शत्रुओं पर विजय ही क्यों न पा ले अथवा सारी संपत्ति ही क्यों न पा ले, फिर भी सदा के लिए पूर्ण सुखी, पूर्ण स्वतंत्र नहीं हो सकता क्योंकि काम-क्रोध आदि विकारों के प्रभाव से यह सब फीका हो जाता है अथवा तो मृत्यु का झटक एक साथ ही सब कुछ छीन लेता है और चौरासी का चक्कर शुरु हो जाता है।

माया तामसिक लोगों को पाप में, राजसी लोगों को काम एवं लोभ मोह में तथा सात्त्विक लोगों को भजनादि में सुख दिखाती है, किन्तु परमात्मा का दर्शन नहीं करने देती। परमात्म-दर्शन तो वही कर सकता है अथवा पूर्ण सुखी, पूर्ण स्वतंत्र एवं पूर्ण आनंदित तो वही हो सकता है, जो अपनी पुरानी जीवभाव की आदतों को मिटा दे। किन्तु यह तभी संभव है जब जीव जगत का चिंतन छोड़कर परमात्म-चिंतन करने लगे, माया को छोड़कर मायाधीश की शरण में जाये, नश्वर को छोड़कर शाश्वत का मार्ग बतलाने वाले संत-महापुरुषों के चरणों का आश्रय ले ले।

ૐ शांति…. ૐ आनंद …….. ૐ माधुर्य।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1998, पृष्ठ संख्या 13,14 अंक 71

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