ब्रह्मज्ञानी की गत ब्रह्मज्ञानी जाने

ब्रह्मज्ञानी की गत ब्रह्मज्ञानी जाने


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

परमात्मा सदा से है, सर्वत्र है। उसके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं। इस बात को जो समझ लेता है, जान लेता है वह परमात्मारूप हो जाता है। सूर्य के उदित होते ही संपूर्ण जीव सृष्टि अपने-अपने गुण स्वभाव के अनुसार अपने अपने कार्य में संलग्न हो जाती है। सूर्य को कुछ नहीं करना पड़ता है। जैसे सूर्य अपनी महिमा में स्थित रहकर चमकता रहता है, ऐसे ही परमात्मा-प्राप्त महापुरुष का जीवन आत्मसूर्य के प्रकाश में प्रारब्ध वेग से व्यतीत होता रहता है।

अजमेर में ऐसे ही एक संत बूलचंद सोनी ही गये जिन्होंने अपना जीवन आत्मसूर्य के प्रकाश में बिताया। पूर्व के पुण्य-प्रभाव से उनकी बुद्धि में विवेक का उदय हुआ। उन्होंने सोचाः ʹजिंदगी भर संसार की खटपट करते रहने में कोई सार नहीं है। आयुष्य ऐसे ही बीता जा रहा है। ऐसा करते-करते एक दिन मौत आ जायेगी। अतः अपने कल्याण के लिए भी कुछ उपाय करने चाहिए।ʹ

ऐसा सोचकर वे कोई ऐसा संग ढूँढने में लग गये जो उऩ्हें ईश्वर के रास्ते ले चलें, उसमें सहयोगी हो सके। ढूँढते-ढूँढते उन्हें कुछ पण्डित मिल गये। वे कुछ समय तक उन लोगों के साथ रहे और उनके कथनानुसार सब कुछ करते रहे, परंतु थोड़े ही दिनों में वो ऊब गये। उन्हें लगा कि चित्त में आनंद नहीं उभर रहा है, भीतर की शांति नहीं मिल रही है। अतः पंडितों का साथ छोड़कर वे पुनः किसी सत्पुरुष की खोज में चल पड़े।

मिल जाये कोई पीर फकीर, पहुँचा दे भव पार।

खोजते-खोजते वे पहुँच गये एक तत्त्वज्ञानी महापुरुष के श्रीचरणों में।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।

ʹउस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भली भाँति दण्डवत प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक  प्रश्न करने से वे परमात्मतत्त्व को भली-भाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।ʹ (श्रीमद् भगवद् गीताः 4.34)

बूलचंद सोनी विनम्रतापूर्वक उन महापुरुष की शरण में रहे। उनके आदेशानुसार जप-ध्यानादि करते हुए धीरे-धीरे वे भी ब्रह्मज्ञान पाने के अधिकारी हो गये और संत की करुणा कृपा सरे आत्म-परमात्मज्ञान में उनकी स्थिति हुई।

अब उन्हें कर्मकाण्ड आदि बातें व्यर्थ लगने लगीं। उनमें उनकी दिलचस्पी ही नहीं रही। पंडितों की बातों से उनका मेल नहीं बैठता था क्योंकि उन्होंने अब जान लिया था कि कर्मकाण्ड क्या है और सत्यस्वरूप आत्मा का ज्ञान क्या है।

उन पंडितों ने देखा कि अब ये हमारे पास नहीं आते हैं, अतः वे उन्हें समझाने लगे कि “भाई ! तुम अब यहाँ क्यों नहीं आते हो ? यज्ञादि में भाग क्यों नहीं लेते हो ?”

उन्होंने कहाः “प्रार्थना से भगवान प्रसन्न होते हैं, यज्ञ से भगवान प्रकट होते हैं, यह सब ठीक तो है लेकिन यह सब तभी तक ठीक था जब तक मैंने अपने भगवद् स्वरूप को नहीं जाना था। अब मैंने जान लिया है कि मैं भी भगवद् स्वरूप हूँ तो क्यों गिड़गिड़ाऊँ ?”

उनकी ऐसी बात सुनकर वे लोग चिढ़ गयेः “तुम क्या बकते हो ? क्या तुम भगवान हो ? अपने को भगवान मानते हो ?”

बूलचन्द सोनीः “यह तो आप भगवान को सब कुछ समझ रहे हो, इसलिए कहता हूँ कि ʹमैं भगवान हूँʹ अन्यथा तो भगवान की सत्ता जिससे है और सब देवी-देवता जिसकी सत्ता से प्रगट होते हैं वह चैतन्य ब्रह्म मैं हूँ। इस बात को मैं मानता हूँ और जानता भी हूँ।”

पंडितः “अच्छा… तो तुम भगवान को नहीं मानते हो ?”

फिर सब पंडित आपस में कहने लगेः “यह तो नास्तिक हो गया है।”

शेर अकेला होता है, भीड़ भेड़ियों की होती है। सब पंडितों ने मिलकर घेर लिया बूलचंद सोनी को और कहने लगेः “तुम ब्रह्म हो-यह बात हम तब मानेंगे, जब तुम कोई करिश्मा दिखाओगे।”

साधारण लोग यह बना-बनाया जगत देखते हैं तो समझते हैं कि भगवान ने बनाया है, परंतु ऐसी बात नहीं है। ब्रह्म में जगत विवर्तरूप होकर भासता है, भ्रांतिरूप होकर भासता है। इसे किसी ने बैठकर बनाया नहीं है। यदि जगत ऐसे बना है जैसे कुम्हार मिट्टी से घड़ा बनाता है तो जिन पाँच महाभूतों से जगत बना है वह मिट्टी, हवा, जल आदि बनाने का कच्चा माल भी त चाहिए ! वह कच्चा माल भगवान लाये कहाँ से ?

ऐसा तो नहीं है कि भगवान ने कुछ कच्चा माल लाकर पृथ्वी, जल, वायु आदि बनाकर चिड़िया आदि जीवों को रख दिया है कि जाओ खेलो। परंतु लोग ऐसा समझ रहे हैं कि भगवान ने दुनियाँ बनायी और वो खेल देख रहा है। मंद मति के लोगों को असरी बात का पता ही नहीं है। भेड़ों की भीड़ की तरह वे चल रहे हैं। इसलिए भगवान को वे मानते हैं, भगवान में श्रद्धा रखते हैं। लेकिन उनमें से कोई विरला होता है जो अपने-आपको भगवद् स्वरूप जान लेता है, बाकी तो सब ठनठनपाल रह जाते हैं।

पंडितों की करिश्मा दिखाने की बात सुनकर बूलचंद हँस पड़े।

“भाई ! क्यों हँसते हो ?”

“अरे ! तुम मुझे करिश्मा दिखाने के लिए कहते हो ? तुम कितने भोलेभाले हो ! तुम मैनेजर का काम सेठ को सौंपते हो। सृष्टि बनाने का संकल्प ब्रह्मजी करते हैं। बूलचंद का शरीर तो ब्रह्माजी का दास है किन्तु मैं बूलचंद नहीं हूँ। मैं तो वह हूँ जिससे चेतना लेकर ब्रह्माजी संकल्प करते हैं। ब्रह्माजी का चित्त एकाग्र है, इसलिए उनका संकल्प फलता है। बूलचन्द का अंतःकरण एकाग्र नहीं है, इसलिए उसका संकल्प नहीं फलता है। लेकिन बूलचंद एवं ब्रह्माजी दोनों के अंतःकरण को चेतना देने वाला चैतन्य आत्मा एक है और मैं वही हूँ।”

वे पंडित तो  मूढ़वत उऩकी बातें सुनते रहे उनको ये बातें जँची नहीं और वे सब वहाँ से उठकर चल दिये।

यह जरूरी नहीं है कि आपको आत्म-साक्षात्कार हो जाये तो आप भी कुछ चमत्कार कर सको। करना धरना अंतःकरण में है और वह एकाग्रता से होता है। ब्रह्म में कुछ नहीं है। ब्रह्म कुछ नहीं करता है। ब्रह्म तो सत्ता मात्र है। सारी क्रियाएँ, सारी सत्ताएँ उसी से स्फुरित होती है। जिनका अंतःकरण एकाग्र होता है, उनके जीवन में चमत्कारिक घटनाएँ घट सकती हैं। लेकिन चमत्कार के बिना भी ज्ञान हो सकता है।

वेदव्यासजी और वशिष्ठजी के जीवन में चमत्कार भी है और ज्ञान भी है। साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज के जीवन में भी चमत्कार और ज्ञान दोनों हैं। किसी के पास अकेला ज्ञान है, तब भी वह मुक्त ही है। योग-सामर्थ्य हो चाहे न हो किन्तु मुक्ति पाने के लिए तत्त्वज्ञान हो-यह बहुत जरूरी है। ज्ञान से ही मुक्ति होती है। ऐसा ज्ञान पाया हुआ आदमी सब प्रकार के शोकों से तर जाता है। उसका मन निर्लेप हो जाता है। शोक के प्रसंग में शोक बाधित होता है एवं राग के प्रसंग में राग बाधित होता है। काम और क्रोध के प्रसंग में काम और क्रोध बाधित होते हैं। नानकजी ने भी यह कहा हैः

ब्रह्मज्ञानी सदा निर्लेपा, जैसे जल में कमल अलेपा।

ब्रह्मज्ञानी की मत कौन बखाने, नानक ब्रह्मज्ञानी की गत ब्रह्मज्ञानी जाने।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1999, पृष्ठ संख्या 15-17, अंक 77

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