ऋषि विज्ञान की रहस्यमयी खोज

ऋषि विज्ञान की रहस्यमयी खोज


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

सृष्टि के अधिष्ठाता सच्चिदानंद  परमात्मा की सोलह कलाएँ हैं। जगत के जड़ चेतन पदार्थों तथा मानवेतर प्राणियों में उनमें से अलग-अलग कलाएँ निश्चित संख्या में विकसित होती हैं परन्तु मनुष्य में ईश्वर की संपूर्ण कलाओं को विकसित करने का सामर्थ्य होता है।

श्रीकृष्ण में समस्त सोलह कलाएँ पूर्ण रूप से विकसित थीं। श्रीरामचन्द्रजी में बारह कलाओं का विकास हुआ था। इसी प्रकार अनेक ऋषि-मुनियों में भिन्न-भिन्न संख्याओं में ईश्वरीय कलाओं का विकास हुआ था।

पत्थर तथा उसके जैसे अन्य जड़ पदार्थों में परमात्मा की एक ही अस्तित्त्वकला का विकास होता है। उसे तोड़ डालो तो उसके टुकड़े बन जाएँगे। पीस डालो तो चूर्ण हो जायेगा और उसे फूँक मारकर उड़ा दो तो वातावरण में ओझल हो जायेगा परन्तु फिर भी वह कहीं-न-कहीं रहता अवश्य है। उसका होना ही ईश्वर की  अस्तित्त्वकला है।

पेड़ पौधों में ईश्वर की दो कलाएँ होती हैं- पहली अस्तित्त्वकला तथा दूसरी ग्राह्यकला। वे पृथ्वी एवं वातावरण से अपना भोजन भी ग्रहण कर सकते हैं।

पशु-पक्षियों में उस सत्यस्वरूप परमात्मा की चार कलाएँ विकसित होती हैं- पहली अस्तित्त्वकला, दूसरी ग्राह्यकला, तीसरी स्थानान्तरणकला तथा चौथी अल्प स्मृतिकला।

पशु-पक्षी भोजन के साथ-साथ गमनागमन भी कर सकते हैं तथा उनमें थोड़ी स्मृति (यादशक्ति) भी होती है। पक्षी अपने घोंसलों को पहचान लेते हैं। गाय का बछड़ा सैंकड़ों गायों के बीच भी अपनी माँ को पहचान लेता है। कोई बछड़ा किसी दूसरी गाय का दूध पीने जाये तो वह उसे लात-सींगों से मारती है। यह ईश्वर की स्मृतिकला है परन्तु उनमें यह कला अल्पविकसित होती है।

बछड़ा जब बड़ा हो जाता है तब वह अपनी माँ को नहीं पहचानता अथवा जो कुछ महीने बछड़े को माँ से दूर रखा जाय और बाद में फिर उन्हें मिलाया जाय तो वे एक-दूसरे को नहीं पहचान पाते।

मनुष्य में पाँच कलाएँ विकसित होती हैं- अस्तित्त्वकला, ग्राह्यकला, स्थानान्तरणकला, स्मृतिकला तथा विचारकला।

मनुष्य में स्मृतिकला अधिक विकसित होती है। उसे अपने सम्बन्धों, जाति तथा वर्ण आदि की आजीवन स्मृति बनी रहती है।

मनुष्य की पाँचवीं कला है विचारकला जिसके द्वारा वह विचारने तथा जानने की क्षमता रखता है, नये-नये आविष्कार कर सकता है।

मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सभी वस्तुएँ तथा जीव अपनी कुछ निश्चित कलाओं में बँधे हुए हैं। गाय आज से सौ वर्ष  पहले भी चार पैरों से चलती थी और आज भी चार पैरों से ही चलती हैं। पत्थर की कभी भी दूसरी कला विकसित नहीं हुई।

योनि बदल जाने के बाद कलाओं का बदलना और बात है परन्तु अपने एक जीवनकाल में ये जीव तथा वस्तुएँ अपनी निश्चित कलाओं तक ही सीमित रहते हैं।

मनुष्य का यह सौभाग्य है कि वह पाँच कलाओं से लेकर दस, पन्द्रह अथवा सम्पूर्ण सोलह कलाओं को  विकसित करत सकता है। वह छः भागवी कला बढ़ाकर भगवदीय सामर्थ्य प्राप्त कर सकता है।

दस कलाओं का विकास कर लेने पर मानव मुक्तात्मा हो जाता है। यदि योगाभ्यास बढ़ाकर और भी आगे बढ़े तो वह सोलह कलाओं तक की यात्रा कर सकता है। इसीलिए मनुष्य को सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहा जाता है।

आज के मनुष्य का यह दुर्भाग्य है कि वह अन्य जीवों की भाँति अपनी पाँच कलाओं में ही बँधकर रह जाता है। सामर्थ्य होते हुए भी आज का मानव अपने जीवन को पूर्ण विकसित नहीं कर पाता। इसका कारण है भौतिकवाद की चकाचौंध के पीछे मनुष्य का मोहित हो जाना तथा समाज में आध्यात्मिकता एवं योगविद्या का अभाव हो जाना।

हे मानव ! ईश्वर ने तुझे ईश्वर-पद तक की यात्रा करने का सामर्थ्य दिया है। अतः इस सामर्थ्य का उपयोग करके अपने जीवन-पुष्प को पूर्ण विकसित करके पूर्णता को प्राप्त कर। इसी में मानव जीवन की सार्थकता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1999, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 77

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