Monthly Archives: May 1999

किडनी (गुर्दा)


हम गुर्दे के बारे में बहुत कम जानते हैं। इसे अंग्रेजी में किडनी एवं हिन्दी में गुर्दा अथवा वृक्क कहा जाता है। जिस प्रकार नगरपालिका शहर को स्वच्छ रखती है वैसे ही किडनी शरीर को स्वच्छ रखती है। रस-रक्त में से मूत्र बनाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किडनी करती है। शरीर में रस एवं रक्त में उपस्थिति विजातीय व अनावश्यक द्रव्यों एवं कचरों को मूत्रमार्ग द्वारा शरीर से बाहर निकालने का कार्य किडनी का ही है।

किडनी वास्तव में रस-रक्त का शुद्धीकरण करने वाली एक प्रकार की 11 सें.मी. लंबी काजू के आकार की छननी है जो पेट के पृष्ठ भाग में मेरूदंड के दोनों ओर स्थित होती है। प्राकृतिक रूप से स्वस्थ किडनी में हर रोज 60 किलो जितना पानी छानने की क्षमता होती है। फिर भी सामान्य रूप से वह 24 घण्टे में से 1 से 2 लीटर जितना मूत्र बनाकर शरीर को निरोग रखती है। किसी कारणवशात् यदि वह कार्य करना बंद कर दे अथवा दुर्घटना में उसे खो देना पड़े तो उस व्यक्ति की दूसरी किडनी पूरा कार्यभार सँभालकर शरीर को विषाक्त होने से बचाकर स्वस्थ रखती है। जिस प्रकार नगरपालिका की लापरवाही अथवा आलस्य से शहर में गंदगी फैल जाती है एवं धीरे-धीरे महामारियाँ फैलने लगती हैं, वैसे ही किडनी के खराब होने पर शरीर अस्वस्थ हो जाता है।

अपने शरीर में किडनी एक चतुर यंत्रविद् (Technician) की भाँति कार्य करती है। किडनी शरीर का एक अनिवार्य एवं क्रियाशील भाग है, जो अपने तन एवं मन के स्वास्थ्य पर नियंत्रण रखती है। उसके बिगड़ने का असर रक्त, हृदय, त्वचा एवं यकृत पर पड़ता है। वह रस एवं रक्त में स्थित शर्करा (Sugar), रक्तकण एवं उपयोगी आहार द्रव्यों को मूत्र के रूप में बाहर फैंकती है। यदि रस-रक्त में शर्करा का प्रमाण बढ़ गया है तो किडनी मात्र बढ़ी हुई शर्करा के तत्त्व को छानकर मूत्र में भेज देती है।

किडनी का विशेष संबंध हृदय, फेफड़ों, यकृत एवं प्लीहा (तिल्ली) के साथ होता है। ज्यादातर हृदय एवं किडनी परस्पर सहयोग के साथ कार्य करते हैं। इसलिए जब किसी को हृदयरोग होता है तो उसकी किडनी भी बिगड़ती है जब किडनी बिगड़ती है तब उस व्यक्ति का रक्तचाप उच्च हो जाता है और धीरे-धीरे हृदय भी दुर्बल हो जाता है।

आयुर्वेद के निष्णात वैद्य कहते हैं कि किडनी के रोगियों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इसका मुख्य कारण आज कल के समाज में हृदय रोग, दमा, श्वास, टी.बी. डायबिटीज, उच्चरक्तचाप जैसे रोगों में किया जा रहा आधुनिक दवाओं का सेवन है।

इन आधुनिक दवाओं के जहरी प्रभाव के कारण ही किडनी एवं मूत्र-संबंधी रोग उत्पन्न होते हैं। कभी-कभी किसी आधुनिक दवा के अल्पकालीन सेवन की विनाशकारी प्रतिक्रिया के रूप में भी किडनी फेल जैसे गंभीर रोग होते हुए दिखाई देते हैं। अतः मरीजों को हमारी सलाह है कि उनकी कोई भी बीमारी में, जहाँ तक हो सके वहाँ तक वे निर्दोष वनस्पतियों से निर्मित एवं विपरीत परवर्ती असर (Side effect and after effect) से रहित आयुर्वैदिक दवाओं के सेवन का ही आग्रह रखें। आपको यह जानकर अब तो आश्चर्य नहीं होगा कि आधुनिक एलोपैथी के डॉक्टर स्वयं भी अपने संबंधियों के इलाज के लिए आयुर्वैदिक दवाओं का ही आग्रह रखते हैं।

आधुनिक विज्ञान कहता है कि किडनी अस्थि मज्जा (Bone Marrow) बनाने का कार्य भी करती है। इससे भी यह सिद्ध होता है कि आज की रक्तकैंसर की व्यापकता का कारण भी आधुनिक दवाओं का विपरीत एवं परवर्ती प्रभाव ही है।

किडनी दर्द के कारण

आधुनिक समय में मटर, सेम आदि द्विदलों जैसे प्रोटीनयुक्त आहार का अतिरेक, मैदा, शक्कर एवं बेकरी की चीजों का अधिक प्रयोग, चाय-काफी जैसे उत्तेजक पेय, दारू एवं ठंडे पेय, आधुनिक जहरीली दवाइयाँ जैसे-ब्रुफेन, मेगाडोल, आईब्युजेसीक, वोवेरीन जैसी एनालजेसिक दवाएँ, एन्टीबायोटिक्स, सल्फा ड्रग्स, एस्पीरीन, केनासेटीन, केफीन, ए.पी.सी., एनासीन वगैरह का ज्यादा उपयोग, आहार का जहर अथवा मादक पदार्थों का ज्यादा सेवन, सूजाक (गोनोरिया), उपदंश (सिफलिस) जैसे लैंगिक रोग त्वचा की अस्वच्छता या उसके रोग, जीवनशक्ति एवं रोगप्रतिकारक-शक्ति का अभाव, आँतों में संचित मल, शारीरिक परिश्रम का अभाव, अत्यधिक शारीरिक या मानसिक श्रम, अशुद्ध दवा एवं अयोग्य जीवन, उच्च रक्तचाप तथा हृदयरोगों में लंबे समय तक किया जाने वाला दवाओं का सेवन, आयुर्वैदिक परंतु अशुद्ध पारे से बनी दवाओं का सेवन, आधुनिक मूत्रल (Diuretic) औषधियों का सेवन, तम्बाकू या ड्रग्स के सेवन की आदत, दही, तिल नया गुड़, मिठाई, वनस्पति घी, श्रीखंड, मांसाहार, फ्रूट जूस, इमली ,टमाटर-केच अप, अचार केरी, खट्टा आदि सब किडनी दर्द के कारण हैं।

सामान्य लक्षण

आधुनिक विज्ञान के अनुसार किडनी खराब होने पर निम्नांकित लक्षण दिखाई देते हैं-

आँख के नीचे की पलकें फूली हुईं, पानी से भरी एवं भारी दिखती हैं।

जीवन में चेतनता, स्फूर्ति तथा उत्साह कम हो जाता है।

सुबह बिस्तर से उठते वक्त स्फूर्ति के बदले उबान, आलस्य एवं बेचैनी रहती है।

थोड़े श्रम से ही थकान लगने लगती है।

श्वास लेने में कभी-कभी तकलीफ होने लगती है।

कमजोरी महसूस होती है।

भूख कम होती जाती है।

सिर दुखने लगता है अथवा चक्कर आने लगते हैं।

कइयों का वजन घट जाता है।

कइयों को पैरों अथवा शरीर के दूसरे भागों पर सूजन आ जाती है, कभी जलोदर हो जाता है तो कभी उलटी उबकाई जैसा लगता है।

रक्तचाप उच्च हो जाता है।

पेशाब में एल्ब्यूमिन दिखता है।

आयुर्वेदानुसार किडनी रोग के सामान्य लक्षण

सामान्य रूप से शरीर के किसी अंग में अचानक सूजन होना, सर्वांग वेदना, बुखार, सिरदर्द, वमन, रक्ताल्पता, पाण्डुता, मंदाग्नि, पसीने का अभाव, त्वचा का रूखापन, नाड़ी का तीव्र गति से चलना, रक्त का उच्च दबाव, पेट में किडनी के स्थान को दबाने पर पीड़ा होना, प्रायः बूँद-बूँद करके अल्प मात्रा में जलन व पीड़ा के साथ गर्म पेशाब आना, हाथ-पैर ठंडे रहना, अनिद्रा, यकृत-प्लीहा के दर्द, कर्णनाद, आँखों में विकृति आना, कभी मूर्च्छा और कभी उलटी होना, अम्लपित्त, ध्वजभंग (नपुंसकता), सिर तथा गर्दन में पीड़ा, भूख नष्ट होना, खूब प्यास लगना, कब्जियत होना-जैसे लक्षण होते हैं। ये सभी लक्षण सभी मरीजों में विद्यमान हो, यह जरूरी नहीं है।

किडनी रोग से होने वाले अन्य उपद्रव

किडनी का दर्द ज्यादा समय तक रहे तो उसके कारण मरीज को श्वास, हृदयकंप, न्यूमोनिया, प्लुरसी, जलोदर, खांसी, हृदयरोग, यकृत एवं प्लीहा के दर्द, मूर्च्छा एवं अंत में मृत्यु तक हो सकती है। ऐसे मरीजों में ये उपद्रव विशेषकर रात्रि के समय बढ़ जाते हैं।

उपचार

आज की एलोपैथी में किडनी रोग का सरल व सुलभ उपचार उपलब्ध नहीं है जबकि आयुर्वेद के पास इसका सचोट, सरल व सुलभ इलाज है।

आहार

प्रारंभ में रोगी को 3-4 दिन का उपवास करायें अथवा मूँग या जौ के पानी पर रखकर लघु आहार करायें। आहार में नमक बिल्कुल न दें या कम दें। नींबू के शर्बत में शहद या ग्लुकोज डालकर 15 दिन तक दिया जा सकता है। चावल की पतली घेंस या राब दी जा सकती है। फिर जैसे-जैसे यूरिया की मात्रा क्रमशः घटती जाय वैसे-वैसे दलिया, रोटी, सब्जी आदि दिया जा सकता है। मरीज को चने का पानी, सहजने का सूप, धमासा या गोखरन का पनी चाहे जितना दे सकते हैं। किन्तु जब फेफड़ों में पानी का संचय होने लगे तो उसे ज्यादा पानी न दें, पानी की मात्रा घटा दें।

रोगी को दारू, मांस, मछली, अण्डे, काफी, हींग, मिर्ची, अचार, पापड़, फल, पेड़े, मिठाई, पनीर, नमकीन, सेम, मटर, चौरा, बेकरी एवं फ्रिज की चीजें बिल्कुल न देवें।

विहार

किडनी के मरीज को आराम जरूर करायें। सूजन ज्यादा हो अथवा यूरेमिया या मूत्रविष के लक्षण दिखें तो मरीज को पूर्ण शय्या आराम (Complete Bed Rest) करायें। मरीज को थोड़े गरम एवं सूखे वातावरण में रखें। हो सके तो पंखे की हवा न खिलायें। तीव्र दर्द में गरम कपड़े पहनायें। गर्म पानी से ही स्नान करायें। थोड़ा गुनगुना पानी पिलायें।

औषध उपचार

किडनी के रोगी को लिए कफ एवं वायु का नाश करने वाली चिकित्सा लाभप्रद है। जैसे कि स्वेदन, वाष्पस्नान, गर्म पानी से कटिस्नान।

रोगी को आधुनिक तीव्र मूत्रल औषधि न दें क्योंकि लंबे समय के बाद उससे किडनी खराब होती है। उसकी अपेक्षा यदि पेशाब में शक्कर हो या पेशाब कम होता हो तो नींबू का रस, सोडा बायकार्ब, श्वेत पर्पटी, चंद्रप्रभा, शिलाजित आदि निर्दोष औषधियों का उपयोग करना चाहिए। गंभीर स्थिति में रक्त मोक्षण (शिरा मोक्षण) खूब लाभदायी है किंतु यह चिकित्सा मरीज को अस्पताल में ही रखकर दी जानी चाहिए।

सरलता से सर्वत्र उपलब्ध पुनर्नवा नामक वनस्पति का रस, कालीमिर्च अथवा त्रिकटु चूर्ण डालकर पीना चाहिए। कुलथी का काढ़ा या सूप पीयें। रोज 100 से 200 ग्राम की मात्रा में गोमूत्र पीयें। पुनर्नवादि मंडूर, दशमूल क्वाथ, पुनर्नवारिष्ट, कुमारी आसव, दशमूलारिष्ट, गोक्षुरादि क्वाथ, गोक्षुरादि गूगल, जीवित प्रदावटी वगैरह का उपयोग दोषों एवं मरीज की स्थिति को देखकर करना चाहिए।

रोज 1-2 गिलास जितना लौहचुंबकीय जल पीने से भी किडनी के रोग में लाभ होता है।

स्वामी श्री लीलाशाहजी उपचार केन्द

जहाँगीर पुरा, सूरत

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1999, पृष्ठ संख्या 23-26, अंक 77

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

ऋषि विज्ञान की रहस्यमयी खोज


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

सृष्टि के अधिष्ठाता सच्चिदानंद  परमात्मा की सोलह कलाएँ हैं। जगत के जड़ चेतन पदार्थों तथा मानवेतर प्राणियों में उनमें से अलग-अलग कलाएँ निश्चित संख्या में विकसित होती हैं परन्तु मनुष्य में ईश्वर की संपूर्ण कलाओं को विकसित करने का सामर्थ्य होता है।

श्रीकृष्ण में समस्त सोलह कलाएँ पूर्ण रूप से विकसित थीं। श्रीरामचन्द्रजी में बारह कलाओं का विकास हुआ था। इसी प्रकार अनेक ऋषि-मुनियों में भिन्न-भिन्न संख्याओं में ईश्वरीय कलाओं का विकास हुआ था।

पत्थर तथा उसके जैसे अन्य जड़ पदार्थों में परमात्मा की एक ही अस्तित्त्वकला का विकास होता है। उसे तोड़ डालो तो उसके टुकड़े बन जाएँगे। पीस डालो तो चूर्ण हो जायेगा और उसे फूँक मारकर उड़ा दो तो वातावरण में ओझल हो जायेगा परन्तु फिर भी वह कहीं-न-कहीं रहता अवश्य है। उसका होना ही ईश्वर की  अस्तित्त्वकला है।

पेड़ पौधों में ईश्वर की दो कलाएँ होती हैं- पहली अस्तित्त्वकला तथा दूसरी ग्राह्यकला। वे पृथ्वी एवं वातावरण से अपना भोजन भी ग्रहण कर सकते हैं।

पशु-पक्षियों में उस सत्यस्वरूप परमात्मा की चार कलाएँ विकसित होती हैं- पहली अस्तित्त्वकला, दूसरी ग्राह्यकला, तीसरी स्थानान्तरणकला तथा चौथी अल्प स्मृतिकला।

पशु-पक्षी भोजन के साथ-साथ गमनागमन भी कर सकते हैं तथा उनमें थोड़ी स्मृति (यादशक्ति) भी होती है। पक्षी अपने घोंसलों को पहचान लेते हैं। गाय का बछड़ा सैंकड़ों गायों के बीच भी अपनी माँ को पहचान लेता है। कोई बछड़ा किसी दूसरी गाय का दूध पीने जाये तो वह उसे लात-सींगों से मारती है। यह ईश्वर की स्मृतिकला है परन्तु उनमें यह कला अल्पविकसित होती है।

बछड़ा जब बड़ा हो जाता है तब वह अपनी माँ को नहीं पहचानता अथवा जो कुछ महीने बछड़े को माँ से दूर रखा जाय और बाद में फिर उन्हें मिलाया जाय तो वे एक-दूसरे को नहीं पहचान पाते।

मनुष्य में पाँच कलाएँ विकसित होती हैं- अस्तित्त्वकला, ग्राह्यकला, स्थानान्तरणकला, स्मृतिकला तथा विचारकला।

मनुष्य में स्मृतिकला अधिक विकसित होती है। उसे अपने सम्बन्धों, जाति तथा वर्ण आदि की आजीवन स्मृति बनी रहती है।

मनुष्य की पाँचवीं कला है विचारकला जिसके द्वारा वह विचारने तथा जानने की क्षमता रखता है, नये-नये आविष्कार कर सकता है।

मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सभी वस्तुएँ तथा जीव अपनी कुछ निश्चित कलाओं में बँधे हुए हैं। गाय आज से सौ वर्ष  पहले भी चार पैरों से चलती थी और आज भी चार पैरों से ही चलती हैं। पत्थर की कभी भी दूसरी कला विकसित नहीं हुई।

योनि बदल जाने के बाद कलाओं का बदलना और बात है परन्तु अपने एक जीवनकाल में ये जीव तथा वस्तुएँ अपनी निश्चित कलाओं तक ही सीमित रहते हैं।

मनुष्य का यह सौभाग्य है कि वह पाँच कलाओं से लेकर दस, पन्द्रह अथवा सम्पूर्ण सोलह कलाओं को  विकसित करत सकता है। वह छः भागवी कला बढ़ाकर भगवदीय सामर्थ्य प्राप्त कर सकता है।

दस कलाओं का विकास कर लेने पर मानव मुक्तात्मा हो जाता है। यदि योगाभ्यास बढ़ाकर और भी आगे बढ़े तो वह सोलह कलाओं तक की यात्रा कर सकता है। इसीलिए मनुष्य को सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहा जाता है।

आज के मनुष्य का यह दुर्भाग्य है कि वह अन्य जीवों की भाँति अपनी पाँच कलाओं में ही बँधकर रह जाता है। सामर्थ्य होते हुए भी आज का मानव अपने जीवन को पूर्ण विकसित नहीं कर पाता। इसका कारण है भौतिकवाद की चकाचौंध के पीछे मनुष्य का मोहित हो जाना तथा समाज में आध्यात्मिकता एवं योगविद्या का अभाव हो जाना।

हे मानव ! ईश्वर ने तुझे ईश्वर-पद तक की यात्रा करने का सामर्थ्य दिया है। अतः इस सामर्थ्य का उपयोग करके अपने जीवन-पुष्प को पूर्ण विकसित करके पूर्णता को प्राप्त कर। इसी में मानव जीवन की सार्थकता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1999, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 77

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

आखिरी बात


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

एक बार एक ब्रह्मवेत्ता महापुरुष को उनके शिष्य समुदाय ने घेर लिया एवं प्रार्थना कीः “गुरुजी ! हम सब आपके दर्शन तो कई बार करते हैं और अब हमें प्रभु के दर्शन करना चाहिए, प्रभुतत्त्व का साक्षात्कार करना चाहिए-यह सब भी हम समझते हैं, मानते हैं। अतः गुरुजी ! अब एक बार आप हमें आखिरी बात सुनाने की कृपा कर दीजिये।”

गुरुः “हम तो ढूँढते ही रहते हैं कि आखिरी बात सुनने वाला कोई मिल जाए। लगता है तुम लोगों को भगवान ने ही भेजा है।”

शिष्यः “गुरुजी ! अब आप आखिरी बात सुना ही दीजिये।”

गुरुः “जिस किसी को भी आखिरी बात सुननी है, वह मेरे जन्मदिन पर आ जाये।”

शिष्यः “किस जन्मदिन पर ?”

गुरुः “जिस दिन मेरे गुरु ने मुझे आत्म-साक्षात्कार कराया था, जिस दिन गुरूरूप में मेरा जन्म हुआ था, उस दिन तुम लोग आ जाना।”

चारों तरफ खबर फैल गयी कि अपने आत्म-साक्षात्कार के दिन गुरु जी आखिरी बात बताने वाले हैं। अतः दूर दराज से लोग गुरु आश्रम में एकत्रित होने लगे। कई विद्वान, पंडित एंव शास्त्रज्ञ लोग भी आये। इस प्रकार वहाँ बड़ी भीड़ जमा हो गयी। बड़े-बड़े मण्डप बन गये। किन्तु उन महापुरुष को मानो, इन सबसे कोई लेना देना ही नहीं था। वे तो अपनी कुटिया से सहज स्वाभाविक मस्ती में बाहर निकले।

सदगुरु महाराज की जय….

इस जयघोष से गगनमंडल गूँज उठा। जयघोष के बाद दो चार प्रतिनिधि साधकों ने आगे बढ़कर कहाः “गुरुजी ! आज वही दिन है, जिस दिन आप आखिरी बात सुनाने वाले हैं।”

गुरुजीः “ठीक है। अच्छा हुआ, मुझे याद दिला दिया। आज आखिरी बात सुनानी है। सब लोग तैयार होकर बैठ जाओ।”

सब लोग शांत होकर बैठ गये ताकि गुरुजी की आखिरी बात का एक शब्द भी कहीं छूट न जाये। आज तो मानो, कानों को भी आँखें फूट निकलीं कि हम सुनेंगे भी और देखेंगे भी। मानो, आँखों को कान फूट निकले कि हम निहारेंगे भी और सुनेंगे भी।

इतने में वे महापुरुष मंच पर आये और सो गये। दस…. बीस…. तीस… चालीस…. पचास मिनट हो गये, घण्टा… दो घण्टा हो गये… शिष्यों ने सोचा किः ʹपता नहीं, गुरु जी को क्या हो गया है ?ʹ लल्लू पंजू शिष्य तो रवाना हो गये लेकिन जो जिज्ञासु थे उन्होंने सोचा किः “बैठे बैठे तो गुरु जी को कई बार सुना है, आज वे लेट गये हैं तो लेटे लेटे ही कुछ न कुछ कहेंगे।ʹ

इस प्रकार सब अपनी अपनी मति एवं भावना के अनुसार विचारने लगे। फिर उनमें से भी कुछ लोग ऊबकर चले गये।

इस प्रकार लगभग चार घण्टे व्यतीत हो गये। अब कुछ गिने गिनाये लोग ही बचे। तब गुरु जी उठे। उन्हें उठा हुआ देखकर प्रतिनिधि शिष्यों ने कहाः “गुरुजी ! आज तो आपने बहुत देर तक आराम किया। अब तो चारों ओर लोग आपकी और हमारी मखौल उड़ायेंगे कि ʹअच्छी आखिरी बात सुनायी….ʹ गुरु जी ! आपने तो कुछ सुनाया ही नहीं, वरन् आराम करने लगे। आप कुटिया में आराम कर लेते। इधर लोगों के सामने मंच पर….? गुरु जी ! आपने यह क्या किया ?”

गुरुजीः “मैं सोया नहीं था।”

शिष्यः “आप सोये नहीं थे ?”

गुरुजीः “नहीं। तुम लोगों ने आखिरी बात सुनाने के लिए कहा था न ? मैंने वही आखिरी उपदेश दिया था। आत्म-साक्षात्कार कैसा होता है, यही मैंने बताया।

गहरी नींद में क्या होता है ? क्या उस वक्त पता चलता है कि ʹमैं हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई पारसी, गुजराती, पंजाबी या सिंधी हूँ ?ʹ अथवा ʹकुछ है…. कुछ खोया है?ʹ या फिर ʹकुछ लेना है…. कुछ देना है….ʹ आदि ? नहीं। गहरी नींद में कुछ पता नहीं चलता, उस वक्त कोई स्फुरणा नहीं होती। ऐसे ही आत्म-साक्षात्कार का भी मतलब है कि चित्त में कोई स्फुरणा न हो। ज्ञानी के सब काम निःस्फुरण, निःसंकल्प एवं कर्त्तृत्वभाव से रहित होते हैं। अभी तक मैं यह बात सैद्धान्तिक तौर पर तो बोल ही रहा था किन्तु तुमने सुना नहीं, अतः आज मैंने प्रयोग करके बताया।”

शिष्यः “गुरुजी ! क्या आत्म-साक्षात्कार सचमुच ऐसा ही होता है ?”

गुरुजीः “हाँ सचमुच में, झूठमूठ में नहीं। जब आत्म-साक्षात्कार करना हो तो उठो… जागो…. अपने-आपसे पूछो किः “मैं कौन हूँ ?ʹ अपने आपको खोजो। खोजते समय जो कुछ तुम्हारे देखने में आता जाये, उसको हटाते जाओ। जैसे, यह भी नहीं….. यह भी नहीं…. मैं हाथ भी नहीं… पैर भी नहीं…. हाथ और पैरों को क्रिया करने की प्रेरणा देने वाला मन भी नहीं… मन को चलाने वाला प्राण भी नहीं… प्राण को चलाने वाली चिदावली भी नहीं…. इस प्रकार सूक्ष्म दृष्टि से मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि को हटाते-हटाते जब तुम्हारी वृत्ति सूक्ष्म हो जायेगी, तब मौन को उपलब्ध हो जाओगे।

जैसे, अन्धेरे कमरे में पड़ी हुई किसी वस्तु को देखना है तो दीया, टॉर्च आदि काम आता है किन्तु वही दीया जब सूर्य के सामने रखा जाता है तो उसका प्रकाश सूर्य के प्रकाश में समा जाता है। ऐसे ही व्यवहार-काल में, लेन-देन में, इधर-उधर के प्रसंगों में अथवा परमात्मा की खोज में मन-बुद्धि काम तो आते हैं किन्तु जब वे परमात्मप्रकाश में आ जाते हैं तो उनका यानी मन-बुद्धि का, टिमटिमाते दीये जैसा प्रकाश परमात्मा के प्रकाश में लीन हो जाता है। वे अंतर्मुख हो जाते हैं… शुद्ध हो जाते हैं।

मन-बुद्धि से तुम जगत को जान सकते हो, परमात्मा को नहीं। फिर भी मन-बुद्धि ज्यों-ज्यों परमात्मा के अभिमुख होते जाते हैं, त्यों-त्यों परमात्मा में तदाकार होते जाते हैं। जैसे, नमक की पुतली सागर की थाह पाने जाये तो स्वयं सागर में ही समा जायेगी। फिर उसका अपना अलग से अस्तित्व नहीं रह जायेगा। ऐसे ही जब बुद्धि परमात्मा में स्थिर हो जाती है तो फिर वह बुद्धि, बुद्धि नहीं रहती, ऋतंभरा प्रज्ञा हो जाती है।

महापुरुष जब परमात्मा में डुबकी लगाकर कोई कार्य करते हैं, तब लोगों को लगता है कि उनके मन-बुद्धि एवं इन्द्रियों से कार्य हो रहा है। स्वयं महापुरुषों को कभी नहीं लगता कि ʹये मन, बुद्धि एवं इन्द्रियाँ हैं।ʹ वे तो सदैव एक चैतन्य का अनुभव करते हैं…. फिर भी यह बात वाणी से नहीं कही जा रही है। अन्यथा उस अनुभव के आगे तो वाणी भी अधूरी है। नानक जी ने कहा हैः

मत करो वर्णन हर बेअंत है। क्या जाने वो कैसो है ?

फिर भी उसके इर्द-गिर्द की बातें सुनने से जो पुण्य होता है वह पुण्य न तो तप करने से होता है, न यज्ञ करने से चऔर न ही चांद्रायण व्रत करने से। इसीलिए बड़े-बड़े तपस्वी, यति-योगी, संन्यासी आदि भी सत्संग के अभाव में कई बार आत्म-साक्षात्कार की बात से चूक जाते हैं।

संत निश्चलदासजी ने ʹविचारसागरʹ नाम का एक ग्रन्थ लिखा है। उसमें आत्म-साक्षात्कार से संबंधितच बातें भरी हुई हैं। एक दिन संत निश्चलदासजी ने कुछ साधुओं से कहाः “सुबह पाँच बजे के समय बुद्धि सात्त्विक रहती है। वह समय ध्यान-भजन के लिए भी उपयुक्त रहता है। यदि तुम लोग चाहो तो उस समय तुम्हें ʹविचार सागरʹ पढ़ाऊँगा।”

उनके पास अनेकों साधु आते थे। ʹविचार सागरʹ का सत्संग एक दिन… दो दिन…. तीन दिन…. चार दिन… चला। फिर एक-एक करके साधु कम होने लगे। ज्यों-ज्यों संत गहरी बात सुनाते गये, त्यों-त्यों लोग ऊबते गये। आखिरकार धीरे-धीरे सब साधु भाग गये क्योंकि मन को रूखा लगता था न !

मन को थोड़ा मनोरंजन चाहिए। इन्द्रियों को भी इन्द्रियविषयक भोगों का त्याग करते-करते, मन का त्याग करते-करते जब पूर्ण त्याग की घड़ियाँ आती हैं तब आत्म-साक्षात्कार हो जाता है। जैसे लोहे के टुकड़े को एक बार पारस का स्पर्श करा दो तो फिर उसे कीचड़ में रखने पर भी जंग नहीं लगता, ऐसे ही मन बुद्धि को परमात्मतत्त्व का एक बार अनुभव हो जाये, तो फिर उनमें जगत की सत्यता नहीं टिकती।

फिर वह पुरुष व्यवहार करता हुआ तो दिखेगा लेकिन उसका व्यवहार दिखने मात्र का होगा। जैसे भुना हुआ बीज और कच्चा बीज, दोनों दिखते तो एक जैसे हैं लेकिन कच्चा बीज, दोनों दिखते तो एक जैसे हैं लेकिन कच्चा बीज दूसरे बीज उत्पन्न करने की क्षमता रखता है जबकि भुना हुआ बीज दिखने मात्र का होता है, वह अपनी वंश परंपरा नहीं चला सकता। ऐसे ही मन जब ब्रह्मविद्या में भुना जाता है, तो उस मन से प्रारब्धवेग से थोड़ा-बहुत सांसारिक व्यवहार होता है लेकिन वह दूसरे कर्मों की जाल उत्पन्न नहीं करता। उसका जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है। इसीलिए कबीर जी कहते हैं-

मन की मनसा मिट गयी, भरम गया सब छूट।

गगनमंडल में घर किया, काल रहा सिर कूट।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1999, पृष्ठ संख्या 2-4, अंक 77

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ