बिना दवा स्मरणशक्ति का विकास

बिना दवा स्मरणशक्ति का विकास


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

परब्रह्म परमात्मा में सोलह कलाएँ होती हैं। सृष्टि में प्रत्येक वस्तु तथा जीव उन सोलह कलाओं में से कुछ कलाओं के साथ जीवित अथवा स्थित रहते हैं। अलग-अलग वस्तुओं तथा जीवों में ईश्वर की अलग-अलग कलाएँ विकसित होती हैं। उन कलाओं में एक विशेष कला है – स्मृतिकला।

स्मृतिकला तीन प्रकार की होती हैः तात्कालिक स्मृति, अल्पकालिक स्मृति तथा दीर्घकालिक स्मृति।

कई जीवों में अल्पकालिक अथवा तात्कालिक स्मृतिकला ही विकसित होती है परन्तु मनुष्य में स्मृतिकला के तीनों प्रकार विकसित होते हैं। अतः मनुष्य को प्रकृति का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहा जाता है।

मनोवैज्ञानिक विश्लेषणानुसार, ʹकुछ याद रखनाʹ एक प्रकार की जटिल मानसिक प्रक्रिया है। स्मरणशक्ति अर्थात् सुनी, देखी एवं अनुभव की हुई बातों का वर्गीकरण करके मस्तिष्क में उन्हें संगृहीत करना तथा भविष्य में जब भी उनकी आवश्यकता पड़े उन्हें फिर से जान लेना।

स्मृति के लिए दिमाग का जो हिस्सा कार्य करता है उसमें एसीटाइलकोलीन, डोयामीन तथा प्रोटीन्स के माध्यम से एक रासायनिक क्रिया होती है। एक प्रयोग के द्वारा यह भी सिद्ध हुआ है कि मानव-मस्तिष्क की कोशिकाएँ आपस में जितनी सघनता से गुंथित होती हैं उतनी ही उसकी स्मृति का विकास होता है।

मानसिक विशेषज्ञों के अनुसार, प्रायः सभी प्रकार के मानसिक रोग स्मृति से जुड़े होते हैं, जैसे कि चिन्ता, मानसिक रोग स्मृति से जुड़े होते हैं, जैसे कि चिन्ता, मानसिक अशांति आदि। ऐसे ढंग के व्यक्तियों में कोई भी कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व इतनी घबराहट बढ़ जाती है कि वे समय पर जरूरत की चीजों को अच्छी तरह से याद नहीं रख सकते।

विद्यार्थियों में यह समस्या अधिक पायी जाती है। परीक्षाकाल निकट आने पर अथवा परीक्षा-पत्र को देखकर घबरा जाने से अऩेक विद्यार्थी याद किये हुए पाठ भी भूल जाते हैं। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि स्मरणशक्ति पर मानसिक रोगों का सीधा प्रभाव पड़ता है।

हमारे प्राचीन ऋषियों ने स्मरणशक्ति को बढ़ाने के लिए प्राणायाम, ध्यान, धारणा आदि अनेक यौगिक प्रयोगों का आविष्कार किया है। उऩ्होंने तो ध्यान के द्वारा एक ही स्थान पर बैठे-बैठे अनेक ग्रहों एवं लोकों की खोज कर डाली।

महर्षि वाल्मीकि ने ध्यान के द्वारा अपनी बौद्धिक शक्तियों का इतना विकास किया कि श्रीरामावतार से पूर्व ही उन्होंने श्रीराम की जीवनी को ʹरामायणʹ के रूप में लिपिबद्ध कर दिया।

इसी प्रकार महर्षि वेदव्यासजी श्रीमद् भागवत महापुराण में आज से हजारों वर्ष पूर्व ही कलियुगी मनुष्यों के लक्षण बता दिये थे।

हमें मानना पड़ेगा कि हमारा ऋषिविज्ञान इतना विकसित था कि उसके सामने आजे के विज्ञान की कोई गणना ही नहीं की जा सकती।

महर्षि वाल्मीकि तथा वेदव्यासजी द्वारा रचित ये दो ग्रंथ-रामायण तथा महाभारत, उनकी चमत्कारिक तथा विकसित स्मरणशक्ति के उदाहरण स्वरूप हैं।

स्मरणशक्ति को बढ़ाने वाला भ्रामरी प्राणायाम हमारे ऋषियों की एक विलक्षण खोज है। भ्रामरी प्राणायाम द्वारा मस्तिष्क की कोशिकाओं में स्पंदन होता है जिसके फलस्वरूप एसीटाइलकोलीन, डोयामीन तथा प्रोटीन के बीच होने वाली रासायनिक क्रिया को उत्तेजना मिलती है तथा स्मरणशक्ति का चमत्कारिक विकास होता है।

कैसे करें भ्रामरी प्राणायाम ?

यह प्राणायाम करने के लिए सर्वप्रथम पाचनशक्ति मजबूत करने की आवश्यकता होती है। पाचनतंत्र में ग्रहण किये गये खाद्य पदार्थों को पचाने तथा उन्हें निष्कासित करने की पूर्ण क्षमता होनी चाहिए।

जिसका पाचनतंत्र कमजोर हो, उसे सर्वप्रथम ʹप्रातः पानी प्रयोगʹ तथा पाद-पश्चिमोत्तानासन के द्वारा अपने पाचनतंत्र को सुदृढ़ बनाना चाहिए। यह प्राणायाम करने वाले के लिए उपयुक्त पोषक तथा सात्त्विक आहार लेना भी अति आवश्यक है क्योंकि शुद्ध तथा पोषक तत्त्व न मिलने के कारण मस्तिष्क की कार्यक्षमता मन्द पड़ जाती है। अतः प्राणायाम करने वाले व्यक्ति के दैनिक भोजन में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, विटामिन तथा खनिज तत्त्वों की उपयुक्त मात्रा उसकी शारीरिक क्षमता के अनुसार होनी चाहिए।

इस प्रकार शुद्ध, सात्त्विक तथा पौष्टिक आहार लेते हुए प्रातः, मध्याह्न एवं सायंकालीन तीनों संध्याओं के समय खाली पेट भ्रामरी प्राणायाम करने से स्मरणशक्ति का चमत्कारिक विकास होता है।

विधिः प्रातः काल शोच-स्नानादि से निवृत्त होकर कम्बल अथवा ऊन के बने हुए किसी स्वच्छ आसन पर पद्मासन, सिद्धासन अथवा सुखासन में बैठ जायें और आँखें बन्द कर लें।

ध्यान रहे कि कमर व गर्दन एक सीध में रहें। अब दोनों हाथों की तर्जनी (अँगूठे के पासवाली) उँगलियों से अपने दोनों कानों के छिद्रों को बन्द कर लें। इसके बाद खूब गहरा श्वास लेकर कुछ समय तक रोके रखें तथा मुख बन्द करके श्वास छोड़ते हुए भौंरे की तरह ʹૐ…..ʹ का लम्बा गुंजन करें।

इस प्रक्रिया में यह ध्यान अवश्य रखें कि श्वास लेने तथा छोड़ने की क्रिया नथुनों के द्वारा ही होनी चाहिए। मुख के द्वारा श्वास लेना अथवा छोड़ना निषिद्ध है।

श्वास छोड़ते समय होंठ बन्द रखें तथा ऊपर व नीचे के दाँतों के बीच में कुछ फासला रखें। श्वास अन्दर भरने तथा रोकने की क्रिया में ज्यादा जबरदस्ती न करें। यथासम्भव श्वास अंदर खींचे तथा रोकें। अभ्यास के द्वारा धीरे-धीरे आपकी श्वास लेने तथा रोकने की शक्ति स्वतः ही बढ़ती जायेगी।

प्रत्येक श्वास छोड़ते समय ʹૐʹ का गुंजन करें। इस गुंजन द्वारा मस्तिष्क की कोशिकाओं में हो रहे स्पन्दन (कम्पन) पर अपने मन को एकाग्र रखें।

प्रारम्भ में इस प्राणायाम का अभ्यास दस-दस मिनट सुबह-दोपहर अथवा शाम जिस संध्या में समय मिलता हो, नियमित रूप से करें। एक माह बाद प्रतिदिन एक-एक मिनट बढ़ाते हुए तीस मिनट तक यह प्राणायाम कर सकते हैं। किन्तु शारीरिक रूप से कमजोर तथा अस्वस्थ लोगों को प्राणायाम की संख्या का निर्धारण अपनी क्षमता के अनुसार करना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 1999, पृष्ठ संख्या 9-11, अंक 78

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