पूज्यपाद संत श्री आशारामजी बापू
गुरु की महिमा अमाप है, अपार है। भगवान स्वयं भी लोककल्याणार्थ जब मानवरूप में अवतरित होते हैं तो गुरुद्वार पर जाते हैं।
राम कृष्ण से कौन बड़ा, तिन्ह ने भी गुरु कीन्ह।
तीन लोक के हैं धनी, गुरु आगे आधीन।।
द्वापर युग में जब भगवान श्रीकृष्ण अवतरित हुए एवं कंस का विनाश हो चुका, तब श्रीकृष्ण शास्त्रोक्त विधि से हाथ में समिधा लेकर और इऩ्द्रियों को वश में रखकर गुरुवर सांदीपनी के आश्रम में गये। वहाँ वे भक्तिपूर्वक गुरु की सेवा करते हुए, गुरु सांदीपनी से भगवान श्रीकृष्ण ने वेद-वेदांग, उपनिषद्, मीमांसादि-षडदर्शन, अस्त्र-शस्त्रविद्या, धर्मशास्त्र एवं राजनीति आदि की शिक्षा प्राप्त की। प्रखर बुद्धि के कारण उन्होंने गुरु के एक बार कहने मात्र से ही सब सीख लिया। विष्णुपुराण के मत से चौसठ दिन में ही श्रीकृष्ण ने सभी चौंसठ कलाएँ सीख लीं।
जब अध्ययन पूर्ण हुआ, तब श्रीकृष्ण ने गुरु से दक्षिणा के लिए प्रार्थना कीः “गुरुदेव ! आज्ञा कीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?”
गुरुः “कोई आवश्यकता नहीं है।”
श्रीकृष्णः “आपको तो कुछ नहीं चाहिए, किन्तु हमें दिये बिना चैन नहीं पड़ेगाग। कुछ तो आज्ञा करें !”
गुरुः “अच्छा… जाओ, अपनी माता से पूछ लो।”
श्रीकृष्ण गुरुपत्नी के पास गये एवं बोलेः
“माँ ! कोई सेवा हो तो बताइये।”
गुरुपत्नी भी जानती थीं कि श्रीकृष्ण कोई साधारण मानव नहीं बल्कि स्वयं भगवान हैं, अतः वे बोलीं- “मेरा पुत्र प्रभास क्षेत्र में मर गया है। उसे लाकर दे दो ताकि मैं उसे पयःपान करा सकूँ।”
श्रीकृष्णः “जो आज्ञा।”
श्रीकृष्ण रथ पर सवार होकर प्रभास क्षेत्र पहुँचे और वहाँ समुद्र तट पर कुछ देर ठहरे। समुद्र ने उन्हें परमेश्वर जानकर उनकी यथायोग्य पूजा की। श्रीकृष्ण बोलेः “तुमने अपनी बड़ी-बड़ी लहरों से हमारे गुरुपुत्र को हर लिया था। अब उसे शीघ्र लौटा दो।”
समुद्रः “मेंने बालक को नहीं हरा है, मेरे भीतर पांचजन्य नामक एक बड़ा दैत्य शंखरूप से रहता है, निःसंदेह उसी ने आपके गुरुपुत्र का हरण किया है।”
श्रीकृष्ण ने तत्काल जल के भीतर घुसकर उस दैत्य को मार डाला, पर उसके पेट में गुरुपुत्र नहीं मिला। तब उसके शरीर से पांचजन्य शंख लेकर श्रीकृष्ण जल से बाहर आये एवं यमराज की संयमनी पुरी में गये। वहाँ भगवान ने उस शंख को बजाया। कहते हैं कि उस ध्वनि को सुनकर नारकीय जीवों के पाप नष्ट हो जाने से वे सब वैकुण्ठ पहुँच गये। यमराज ने बडी भक्ति के साथ श्रीकृष्ण की पूजा की और प्रार्थना करते हुए कहाः “हे लीलापुरुषोत्तम ! मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?”
श्रीकृष्णः “तुम तो नहीं, पर तुम्हारे दूत कर्मवश हमारे गुरुपुत्र को यहाँ ले आये हैं। उसे मेरी आज्ञा से वापस दे दो।”
ʹतथास्तुʹ कहकर यमराज उस बालक को ले आये।
श्रीकृष्ण ने गुरुपुत्र को, जैसा वह मरा था वैसा ही उसका शरीर बनाकर, समुद्र से लाये हुए रत्नादि के साथ गुरुचरणों में अर्पित करके कहाः “गुरुदेव ! और भी जो कुछ आप चाहें, आज्ञा करें।”
गुरुदेवः “वत्स ! तुमने गुरुदक्षिणा भली प्रकार से संपन्न कर दी। तुम्हारे जैसे शिष्य से गुरु की कौन-सी कामना अवशेष रह सकती है ? वीर ! अब तुम अपने घर जाओ। तुम्हारी कीर्ति श्रोताओं को पवित्र करे और तुम्हारे पढ़े हुए वेद नित्य उपस्थित और सारवान् रहकर इस लोक एवं परलोक में तुम्हारे अभीष्ट फल को देने में समर्थ हों।”
गुरुसेवा का कैसा सुन्दर आदर्श प्रस्तुत किया है श्रीकृष्ण ने ! थे तो भगवान, फिर भी गुरु की सेवा उन्होंने स्वयं की है।
सत्शिष्यों को पता होता है कि गुरु की एक छोटी सी सेवा करने से सकामता निष्कामता में बदलने लगती है, खिन्न हृदय आनंदित हो उठता है, सूखा हृदय भक्तिरस से सराबोर हो उठता है। गुरुसेवा में क्या आनंद आता है, यह तो किसी सत्शिष्य से ही पूछकर देखें।
गुरु की सेवा साधु जाने, गुरुसेवा कहाँ मूढ़ पिछाने।
गुरुसेवा सबहुन पर भारी, समझ करो सोई नरनारी।।
गुरुसेवा सों विघ्न विनाशे, दुर्मति भाजै पातक नाशै।
गुरुसेवा चौरासी छूटै, आवागमन का डोरा टूटै।।
गुरुसेवा यम दंड न लागै, ममता मरै भक्ति में जागे।
गुरुसेवा सूं प्रेम प्रकाशे, उनमत होये मिटै जग आशै।।
गुरुसेवा परमातम दरशै, त्रैगुण तजि चौथा पद परशै।
श्रीशुकदेव बतायो भेदा, चरनदास कर गुरु की सेवा।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1999, पृष्ठ संख्या 29,30 अंक 79
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