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भागवत प्रसाद


पूज्यपाद संत श्री आशाराम जी बापू

कलियुगे के आदमी का जीवन कोल्हू के बैल जैसा है। उसके जीवन में कोई ऊँचा लक्ष्य नहीं है। किसी ने कलियुग के मानव की दशा पर कहा हैः

पैसा मेरा परमेश्वर और पत्नी मेरी गुरु।

लड़के-बच्चे शालिग्राम अब पूजा किसकी करूँ।।

लोग इतने अल्प मति के हो गये हैं कि जिधर का झोंका आया उधर मुड़ जाते हैं। अपनी इष्ट की, गुरु की पूजा कभी नहीं करते हैं, उपासना नहीं करते हैं, पर किसी ने लिख दिया किः

ʹजय संतोषी माँ…. यह पत्र पढ़कर, ऐसे और पत्र आप लिखोगे तो आपका कल्याण होगा। अगर इसका अनादर करोगे तो आपका बहुत बुरा होगा….ʹ तो आदमी भयभीत हो जाते हैं और पत्र लिखने लग जाते हैं। संतोषी माँ की पूजा भी करने लग जाते हैं, पाठ भी करने लग जाते हैं

वेदव्यासजी ने अपनी दीर्घदृष्टि से यह जान लिया था कि कलियुग के आदमी में इतनी समता, इतनी शक्ति न होगी कि वह घर-बार छोड़कर ऋषियों के द्वार पर जाए और सेवा-सुश्रुषा करके हृदय शुद्ध कर सके….. ऋषियों के पास जाकर नम्रतापूर्वक प्रार्थना करके आत्मज्ञान, आत्मशांति के विषय में प्रश्न पूछे। इसलिए उऩ्होंने कृपा करके श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करने के साथ साथ तत्त्वज्ञान की, आत्मज्ञान की बातें भी जोड़ दीं। ग्वालों के साथ गाय चराईं, मक्खन चुराया, गोपियों के चीर हरण किये, कभी तो बंसी बजाई, कभी धेनकासुर-बकासुर को यमसदन पहुँचाया। ऐसी बातों से हास्यरस, श्रृंगाररस, विरहरस, वीररस जैसे रस भरकर रसीला ग्रंथ ʹश्रीमद् भागवतʹ बनाया। इस ग्रंथ की रचना करके वेदव्यास जी ने जगत पर बड़ा उपकार किया है।

ʹश्रीमद् भागवतʹ की रचना के पहले वेदव्यास जी ने कई ग्रन्थों की रचना की थी, पुराणों का संकलन किया था, पर उनके मन में कुछ अभाव खटकता रहता था।

एक बार नारदजी पधारे, तब वेदव्यासजी ने अपनी मनोव्यथा सुनाई। उन्होंने कहाः “देवर्षि ! मैंने पुराण लिखे, ब्रह्मसूत्र की रचना की, कई भाष्य लिखे, उपनिषदों का विवरण लिखा, लेकिन अभी भी मुझे लगता है कि मेरा कार्य अभी पूरा नहीं हुआ है। कुछ अधूरा रह गया है, कुछ छूट गया है। मुझे आत्मसंतोष नहीं मिल रहा है।”

नारदजी ने कहाः “तुम्हारा कहना ठीक ही है, तुम्हारा कार्य सचमुच में अधूरा है। ये ʹब्रह्मसूत्रʹ उपनिषद सब लोग समझ नहीं पायेंगे। जिनके पास विवेक-वैराग्य तीव्र होगा, मोक्ष की तीव्र इच्छा होगी उनके लिए ʹब्रह्मसूत्रʹ जरूरी है। जैसे, किसी आदमी का गला पकड़कर पानी में डुबा दें और वह बाहर निकलने के सिवाये और कुछ नहीं चाहता-ऐसी जिसमें ईश्वर प्राप्ति की इच्छा हो, उसके लिए ʹब्रह्मसूत्रʹ अच्छा है। लेकिन जिन लोगों में परमात्म प्राप्ति की तड़प नहीं है, जो संसार में रचे पचे हैं और जो संसार को सत्य मानते हैं, संसार को ही सार मानते हैं, देह में जिनकी आत्मबुद्धि है, जगत में सत्यबुद्धि है और परमात्म-प्राप्ति के लिए जिनके पास समय नहीं है-ऐसे लोगों में ब्रह्मसूत्र और उपनिषद पढ़ने की रूचि नहीं होगी। कदाचित् वे पढ़ेंगे तो समझ भी नहीं पायेंगे। विवेक-वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मोक्ष की इच्छा-इन चार साधनों से युक्त आदमी वेदान्त को सुनेगा, ब्रह्मसूत्र सुनेगा तो उसे आत्मसाक्षात्कार हो जायेगा। लेकिन जो साधन-चतुष्टय से सम्पन्न नहीं होगा, वह कितना भी सुनेगा, उस पर असर नहीं होगा। जगत में प्रायः ऐसे लोग ही ज्यादा होते हैं। आपने उन लोगों के उत्थान के लिए क्या उपाय किया है ?

ईश्वर को पाने की तड़पवाला तो कोई विरला ही होगा, बाकी लोग तो यूँ ही अपना समय गँवा देते हैं। आप कोई ऐसे ग्रंथ की रचना कीजिये जिसमें वीरों के लिए वीररस भी हो, विनोद चाहने वालों के लिए हास्यरस भी मिले, भक्तिमार्गवालों के लिए भक्तिरस भी मिले, जो सँसार में प्रेम रखते हैं उनको कुछ प्रेम की बातें मिल जायें और साथ में तत्त्व का चिंतन भी हो। सब प्रकार के लोगों की मनोदशा का विचार करके ऐसा ग्रंथ बनाया जाये जो सब प्रकार के रसों में सराबोर करते हुए तत्त्वज्ञान का रास्ता दिखाकर परमात्मरस तक पहुँचा सके।”

नारदजी की बात व्यासजी को सौ प्रतिशत जँची। व्यासजी ने समाधि में बैठकर श्लोकों की रचना की। भागवत में तीन सौ पैंतीस अध्याय और अठारह हजार श्लोक हैं। ऐसा नहीं कि वेदव्यासजी श्रीकृष्ण के पीछे लेखनी लेकर घूमे और ग्रंथ की रचना की। समाधि में बैठने पर उन्हें युग-युगान्तर में, कल्प-कल्पान्तर में श्रीकृष्ण की मधुर लीलाएँ आदि जो जो दिखा उसे लिखने के लिए उन्होंने गणपति जी का आवाहन किया। वेदव्यासजी श्लोक बोलते गये और गणपति जी लिखते गये। गणपति जी तो ऋद्धि सिद्धि के दाता हैं। उन्होंने श्लोक लिखने में मदद की और इस तरह ʹश्रीमद् भागवतʹ का ग्रंथ तैयार हो गया।

वेदव्यासजी ने वृद्धावस्था में ʹश्रीमद् भागवतʹ की रचना की थी। उऩ्हें लगा कि वे खुद इसका प्रचार नहीं कर पायेंगे इसलिए उऩ्हें चिन्ता हुई किः ʹयह शास्त्र मैं किसको दूँ ?ʹ आखिर उऩ्होंने शुकदेवजी को पसंद किया। शुकदेव जी जन्म से ही विरक्त थे, निर्विकार थे। जन्म से ही उन्हें संसार के विषयों में राग नहीं था। वेदव्यास जी ने यह ग्रंथ शुकदेव जी को पढ़ाया और उन्हीं के द्वारा इस ग्रंथ का प्रचार हुआ।

शुकदेवजी ने इस पवित्र ग्रंथ ʹश्रीमद् भागवतʹ की कथा परिक्षित को सुनाई। शुकदेवजी उत्तम वक्ता थे और परीक्षित उत्तम श्रोता थे।

इस कथा के प्रारम्भ में आता है कि भक्तिरूपी स्त्री रो रही हैः “मेरे ज्ञान और वैराग्यरूपी दो पुत्र अकाल वृद्ध हो गये हैं और मूर्च्छित होकर पड़े हैं।”

जवान माँ के बेटे अकाल वृद्ध होकर मृतप्रायः हो रहे हैं – यह कुछ मर्म की बात है।

कलियुग के आदमी के पास भक्ति तो होगी परन्तु ज्ञान और वैराग्य बेटे अगर मूर्च्छित होंगे तो भक्ति रोती रहेगी। भक्ति को स्त्री का रूप देकर और ज्ञान-वैराग्य को बेटों का रूप देकर ऐसी कथा बनाकर लोगों को जगाने का प्रयास जिन्होंने किया है, उन वेदव्यासजी की दृष्टि कितनी ऊँची होगी ! कितनी विशाल होगी !

आज तो कोई भागवत की कथा करवाते हैं तो उसका फल ऐहिक ही चाहते हैं और इसकी कथा करने वाला भी अगर लोभी होगा तो कथा के द्वारा भी धन पाना चाहेगा। ʹआज तो श्रीकृष्ण का जन्म है… चाँदी का पालना ले आओ…  आज तो श्रीकृष्ण की शादी है….. रुक्मणि के लिए गहने लाओ….ʹ ऐसा कहकर कथाकार धन कमाना चाहेगा। इसलिए वेदव्यासजी ने ʹभक्तिरूपी स्त्री के ज्ञान-वैराग्य दो बेटे मूर्च्छित हैं…ʹ ऐसा उदाहरण देकर लोगों को समझाया है कि ज्ञानसहित, वैराग्यसहित दृढ़ भक्ति करोगे तो शीघ्र ही कल्याण होगा।

इस ग्रंथ के और भी कई नाम हैं। एक नाम है ʹभागवत महापुराणʹ शेष 17 पुराणों को पुराण कहते हैं लेकिन इस भागवत को महापुराण कहा जाता है क्योंकि इसमें जगह-जगह पर उस महान तत्त्व का चिन्तन और ज्ञान की बातें विशेष मिलती हैं। दूसरा नाम है ʹपरमहंस संहिताʹ। शुकदेव जी जैसे आत्मानंद में मस्त रहने वाले व्यक्ति को भी भागवत के श्लोक और भागवत के आधाररूप मुख्य पात्र श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन बड़ा आनंदमयी लगता है। इसका एक और नाम है ʹकल्पद्रुमʹ। जो मनोकामना रखकर श्रवण-मनन करोगे तो वह तुम्हारी मनोकामना देर-सबेर पूरी होगी ही। ऐसे ग्रंथ ʹश्रीमद् भागवतʹ में श्रीकृष्ण की लीलाओं के साथ तत्त्वज्ञान की बातें इस ढंग से लिखी गई हैं कि पढ़ने वाले और सुनने वाला इसमें सराबोर हो जाता है और आनंद को पा लेता है।

कई पुण्यशाली लोग अनेक प्रसंगों पर ʹभागवतʹ की कथा का आयोजन करते हैं। जहाँ भी ʹभागवत सप्ताहʹ होता है, ʹभागवतʹ की कथा होती है वहाँ कथा के चौथे दिन श्रीकृष्ण का जन्म मनाया जाता है। ऐसा नहीं है कि श्रीकृष्ण का जन्म बारह महीने में एक बार ही मनाते हैं। जब-जब, जहाँ-जहाँ ʹभागवत कथाʹ होती है तब-तब श्रीकृष्ण का जन्म मनाते हैं। सुबह को भी मनाते हैं, शाम को भी मनाते हैं, अमावस्या को भी मनाते हैं, पूनम को भी मनाते हैं। वैसे तो ऐतिहासिक ढंग से लोग भादों (गुजरात-महाराष्ट आदि के अनुसार श्रावण) मास की कृष्ण-अष्टमी की रात को बारह बजे श्रीकृष्ण-जन्म मनाते हैं, पर भक्त लोग तो जब अनुकूलता हुई, जब मौका मिला कि श्रीकृष्ण-जन्म मनाने को उत्सुक रहते हैं। जब पुण्य जोर पकड़ते हैं, जब हृदय से ʹमेरे-तेरेʹ का भाव मिट जाता है, तब हृदय में आनंदरूपी श्रीकृष्ण प्रकट हो जाते हैं। हृदय में कृष्णतत्त्व का आनंद छलकने लगता है।

आपकी मति सुसंस्कृत हो जाये, आत्मज्ञान के रंग से रंग जाये, आपकी मति आत्मदेव के कृष्णतत्त्व के प्रकाश से प्रकाशित हो जाये-इसके लिए जिन ग्रन्थकारों ने, आत्मवेत्ता महापुरुषों ने, वेदव्यासजी जैसे नामी-अनामी ऋषियों ने, महर्षियों ने अपना सर्वस्व लुटा दिया, आपको जगाने के लिए ही अपने जीवन का हर क्षण गुजार दिया उन महापवित्र आत्माओं के चरणों में हमारे हजारों-हजारों प्रणाम हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1999, पृष्ठ संख्या 25-28, अंक 79

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गुरुवर को प्रणाम


चैतन्यं शाश्वतं शान्तं व्योमातीतं निरंजनम्।

नादबिन्दुकलातीतं तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ʹजो चैतन्य, शाश्वत, शांत, आकाश से परे हैं, इन्द्रियों से परे हैं, जो नाद, बिंदु और कला से परे हैं, उन श्रीगुरुदेव को प्रणाम हैं !ʹ

यत्सत्येन जगत्सत्यं यत्प्रकाशेन विभाति यत्।

यदानन्देन नन्दन्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ʹजिसके अस्तित्त्व से संसार का अस्तित्त्व है, जिसके प्रकाश से जगत प्रकाशित होता है, जिसके आनंद से सब आनंदित होते हैं उन श्रीगुरुदेव को प्रणाम है !ʹ

कर्मणा मनसा वाचा सर्वादઽઽराधयेद् गुरुम्।

दीर्घदण्डनमस्कृत्य निर्लज्जो गुरुसन्निधौ।।

ʹगुरुदेव के समक्ष निःसंकोच होकर लंबा दण्डवत प्रणाम करके मन, कर्म तथा वचन से हमेशा गुरुदेव की आराधना करनी चाहिए।ʹ

आनन्दमानन्दकरं प्रसन्नं ज्ञानस्वरूपं निजभावयुक्तम्।

योगीन्द्रमीडयं भवरोगवैद्यं श्रीसदगुरुं नित्यमहं नमामि।।

ʹजो आनन्दस्वरूप हैं, जो आनंदमय करने वाले हैं, जो सदैव प्रसन्न हैं, जो ज्ञानस्वरूप हैं, जो निज भाव से युक्त हैं, जो योगियों के आराध्यदेव हैं, जो संसाररूपी रोग के वैद्य हैं ऐसे श्री सदगुरु को मैं नित्य प्रणाम करता हूँ।ʹ

नित्यशुद्धं निराभासं निराकारं निरंजनम्।

नित्यबोधं चिदानंदं गुरुं ब्रह्म नमाम्यहम्।।

ʹजो नित्यशुद्ध हैं, जो आभासरहित हैं, जो निराकार हैं, जो इन्द्रियों से परे हैं, जो नित्य ज्ञानस्वरूप हैं, जो चिदानंद हैं ऐसे ब्रह्मस्वरूप श्रीगुरुदेव को मैं प्रणाम करता हूँ।ʹ

नमः शिवाय गुरवे सच्चिदानन्दमूर्तये।

निष्प्रपंचाय शान्ताय निरालम्बाय तेजसे।।

ʹशिवस्वरूप, सच्चिदानंदस्वरूप, प्रपंचों से रहित, शान्त निरालम्ब, तेजयुक्त श्रीगुरुदेव को प्रणाम है !ʹ

नमः शान्तात्मने तुभ्यं नमो गुह्यतमाय च।

अचिन्त्यायाप्रमेयाय अनादिनिधनाय च।।

ʹहे रहस्यमय, अचिन्तनिय, अपरिमित और आदि-अंत से रहित, शान्त आत्मस्वरूप ! तुझे प्रणाम है !ʹ

नमस्ते सते ते जगत्कारणाय। नमस्ते चिते सर्वलोकाश्राय।।

नमोद्वैततत्त्वाय मुक्तिप्रदाय। नमो ब्रह्मणे व्यापिने शाश्वताय।।

ʹजगत के कारण सत् तुझे प्रणाम है ! सर्व लोकों के आश्रयस्वरूप चित् तुझे प्रणाम है ! मुक्ति प्रदान करने वाले अद्वैत तत्त्व तुझे प्रणाम है ! शाश्वत, सर्वत्र व्याप्त ब्रह्म तुझे प्रणाम है !ʹ

सत्यानन्दस्वरूपाय बोधैकसुखकारिणे।

नमो वेदान्तवेद्याय गुरवे बुद्धिसाक्षिणे।।

ʹजो सत्य और आनंदस्वरूप हैं, चेतनानंद के साधनस्वरूप हैं, बुद्धि के साक्षी हैं, वेदांत के द्वारा ज्ञेय हैं ऐसे श्रीगुरुदेव को नमस्कार है !ʹ

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।

चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ʹअज्ञानरूपी अंधकार से अंधे बने हुए की आँखों को ज्ञानरूपी अंजन-शलाका से खोलने वाले उऩ श्रीगुरुदेव को प्रणाम है !ʹ

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ʹजो चर और अचर सृष्टि में अखण्ड-मण्डलाकार रूप में व्याप्त हैं, जिन्होंने ʹतत्पदʹ का दर्शन कराया है, उन श्रीगुरुदेव को प्रणाम है !ʹ

स्थावरं जङ्गमं व्याप्तं यत्किंचित्सचराचरम्।

त्वंपदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ʹजो चर और अचल सृष्टि में स्थावर एवं जंगम सब जीवों में व्याप्त हैं, जिन्होंने ʹत्वंपदʹ का दर्शन कराया है, उऩ श्रीगुरुदेव को प्रणाम है !ʹ

चिन्मयं व्यापितं सर्व त्रैलोक्यं सचराचरम्।

असित्वं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ʹजो चिन्मयस्वरूप, तीनों लोकों के चल एवं अचल सब जीवों में व्याप्त है, जिन्होंने ʹअसिपदʹ का दर्शन कराया है, उन श्रीगुरुदेव को प्रणाम है !ʹ

(स्कन्दपुराण)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1999, पृष्ठ संख्या 13,14 अंक 79

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गुरुद्वार पर कैसे रहें


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

श्री महाभारत में आता हैः

न विना ज्ञानविज्ञाने मोक्षस्याधिगमो भवेत्।

न विना गुरुसम्बन्धं ज्ञानस्याधिगमः स्मृतः।।

गुरु प्लावयिता तस्य ज्ञानं प्लव इहोत्यते।

विज्ञाय कृतकृत्यस्तु तीर्णस्तदुभयं त्यजेत्।।

“जैसे ज्ञान विज्ञान के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता, उसी प्रकार सदगुरु से संबंध हुए बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। गुरु इस संसारसागर से पार उतारने वाले हैं और उनका दिया हुआ ज्ञान नौका के समान बताया गया है। मनुष्य उस ज्ञान को पाकर भवसागर से पार और कृतकृत्य हो जाता है। फिर उसे नौका और नाविक दोनों को ही अपेक्षा नहीं रहती।ʹʹ (महा. शांति. 326.22,23)

छल, कपट, धोखा-धड़ी पलायनवादिता आदि आसुरी वृत्तियों से बचाकर जो हमें सच्चाई, पवित्रता एवं तत्परता की ओर ले जायें, ऐसे सदगुरु मिलना-यह मानव जन्म की सबसे बड़ी उपलब्धि है। लेकिन ऐसे सदगुरु मिल जायें, फिर भी हम सुधरे नहीं तो मनुष्य जन्म का दुर्भाग्य भी तो पूरा है। अतः गुरुद्वार पर कैसे रहना चाहिए-यह सभी को ज्ञात होना चाहिए।

शिष्य को चाहिए कि गुरु-आश्रम में वह अपना सारा समय सेवा, साधना, जप-ध्यान आदि में ही लगाये और अपनी गलती हो तो गलती को गलती मानकर उसका प्रायश्चित करे।

हमारी जो भी गलत आदत है उसको सामने रखकर सुबह संकल्प करो किः “अब मैं ऐसा नहीं करूँगा।” फिर भी गलत आदत नहीं निकलती है तो सदगुरु से, भगवान से प्रार्थना करो, गुरुभाइयों से कहो किः “मुझमें यह गलती है।” अपनी गलती को चिल्लाकर भगाओ तो भागेगी, नहीं तो गलती को गलती के रूप में भी नहीं स्वीकार कर सकोगे।

मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन लाना बड़ा विकट है। कोई भी व्यक्ति अपनी प्रकृति का बदलाव सरलता से स्वीकार नहीं करता है। जो आदतें पड़ गयी हैं, जो पुराने संस्कार पड़ गये हैं, उनको यह छोड़ना नहीं चाहता। इसीलिए पत्थर को भगवान बनाना बड़ा आसान है लेकिन झूठ-कपट करने वाले इस मिट्टी के पुतले को ब्रह्म बनाना बड़ा कठिन है। किसी मठ-मंदिर या संस्था को चलाना भी सरल है लेकिन बेईमानों-कपटियों को ब्रह्मसुख देना असंभव है क्योंकि वे अपनी गलत आदतों को छोड़ने के लिए राजी नहीं होते। दुर्गुणों का त्याग किये बिना सब ऐच्छिक साधन एवं सुख गुरु से प्राप्त कर लेना चाहते हैं। वे तो मानो, डामर की सड़क पर खेती करना चाहते हैं। यदि ब्रह्मसुख पाना है, आत्मसुख पाना है तो साधक को आगे झूठ-कपट, बेईमानी, अपने बचाव की आदत आदि दुर्गुणों का त्याग करना ही पड़ेगा।

साधक को चाहिए कि वह जप-ध्यान, सेवा, साधना तत्परता से करता रहे और नियम में निष्ठा रखे। ऐसा करने से पुरानी गंदी आदतें दूर होंगी एवं मनसुखता मिटेगी। लेकिन यदि जप-ध्यान से, सेवा से वह कतरायेगा, नियम में नहीं रहेगा तो भ्रष्ट हो जायेगा, पतित हो जायेगा।

साधारण जगह पर किये गये किसी भी कार्य़ की अपेक्षा तीर्थ व गुरुद्वार पर किये गये कार्य का फल अनंतगुना होता है। साधारण जगह पर किये हुए जप-तप की अपेक्षा तीर्थ व गुरुद्वार पर किया गया जप-तप अनंतगुना फल देता है। इसी प्रकार साधारण जगह पर किये गये झूठ-कपट, बेईमानी की अपेक्षा तीर्थ व गुरुद्वार पर किये गये झूठ-कपट एवं बेईमानी से ज्यादा पाप लगता है।

मन में जैसा आता है, वैसा ही जो करने लग जाता है उसका पतन हो जाता है। कोई भी काम करो तब सोचो की गुरु देखेंगे तो उनको कैसा लगेगा ? उनके मन में क्या होगा ?

ईश्वन ने मनुष्य जन्म दिया है, स्वास्थ्य दिया है, मार्गदर्शक सदगुरु मिले हैं, खाने-पीने रहने की सुविधा मिली है, फिर भी जो अपनी बुरी आदतें निकालकर अपना कल्याण न करे, अपनी उन्नति न करे तो किसका दोष ?

कई लोग ऐसे होते हैं जो शत्रु को भी मित्र बना लेते हैं और कई ऐसे होते हैं कि मित्र को भी शत्रु बना लेते हैं। कई ऐसे होते हैं कि असंत के आगे भी संत जैसा व्यवहार करते हैं तो असंत के अंदर भी छुपा हुआ संतत्व जग जाता है और कई मूर्ख ऐसे होते हैं कि संत के आगे भी ऐसा व्यवहार करते हैं कि संत को भी असंत जैसा नाटक करना पड़ता है। उनको क्रोध होता नहीं है, फिर भी क्रोध लाना पड़ता है। अतः अपना व्यवहार ऐसा होना चाहिए कि जहाँ से न मिलता हो वहाँ से भी मिलना शुरु हो जाये। ऐसा व्यवहार न करो कि जहाँ से छलकता हो, वहाँ से भी छलकना बंद हो जाये। इन्सान अपने कर्मों से ही ईश्वर और सदगुरु के करीब या उनसे दूर होता है। संत कभी किसी को अपने से दूर नहीं करते।

करणी आपो आपनी के नेड़े के दूर।

आश्रम में आते हो तो ध्यान करने वाले व्यक्ति को मददरूप हो जाओ। यदि मददरूप नहीं हो सकते हो तो कम-से-कम उसे विघ्न मत डालो। यहाँ कई ऐसे नये-नये अटपटे लोग आ जाते हैं जो कि हम ध्यान में होते हैं, साधक लोग शांति से बैठे होते हैं फिर भी जोर से बड़बड़ाने लगते हैं किः “आश्रम अच्छा है…. महाराज कहाँ हैं ?ʹʹ ऐसा नहीं करना चाहिए। इतना बोलो, ऐसा बोलो और इसीलिए बोलो कि जिससे तुम्हारे भी पाप नष्ट हों, तुम्हारा मन भी शीतल हो, शांत हो और सुनने वाले का मन भी गहरी शांति में खो जाये। आश्रम की शांति बनी रहे।

इसी प्रकार आश्रम की स्वच्छता बनाये रखने में भी सावधान रहना चाहिए। ऐसा नहीं कि फल खाकर छिलके बगीचे में ही छोड़ दिये… आश्रम में कोई नौकर नहीं है। यहाँ साधक लोग रहते हैं। तुम जूठा पदार्थ छोड़कर जाओगे और साधक बुहारी करके उसे कचरापेटी में डालेंगे तो तुम्हारे पाप बढ़ेंगे और पुण्य नष्ट होंगे। हो सके तो तुम भी आश्रम में तिनका उठाकर किनारे लगाओ। हो सके तो जूठन उठाकर फेंक दो। तुम जूठा छोड़कर मत जाओ। पहले का काफी ʹजूठाʹ तुम्हारे सिर पर पड़ा है, और कब तक ढोते रहोगे ?

आश्रम में संत-दर्शन की भी कोई विधि होती है। जहाँ से हवा आती है उस तरफ संत हों, संत की हवा का हमें स्पर्श हो – ऐसी जगह पर खड़े रहना चाहिए। हमारा श्वास छूकर, हमारी हवा छूकर संत को लगे-यह ठीक नहीं है। नहीं तो हमारी खिन्नता और मूढ़ता वहाँ जाती हैं और वहाँ से जो छलकता है, उसमें 19-20 हो जाता है। फिर तुम्हारे विचार और तुम्हारी गंदगी का कुछ मिश्रण ही तुम्हें मिल जाता है। इसीलिए कुछ दुष्ट प्रकृति के लोग या तामसी लोग आ जाते हैं और ऐसे ढंग से खड़े होते हैं तो उनको प्रेम की जगह पर डाँट मिल जाती है क्योंकि उनके पास जो है वे ही आंदोलन मिश्रित हो जाते हैं।

संत यदि ध्यान में हों, किसी काम में हों या किसी से बात करते हों तो उनकी छाती पर ख़ड़े नहीं रहना चाहिए। संत जितना धीरे बोलेंगे उतना सारगर्भित होगा। जितनी भीड़ होगी उतना जोर से बोलना पड़ेगा। अतः ऐसे समय पर दूर खड़े रहो। अवसर पाकर ही बात करो।

इस प्रकार गुरुद्वार पर रहने की, गुरुदर्शन करने की युक्ति जानकर, उनका अमल करके तुम बहुत लाभ उठा सकते हो।

एक भगवान, भगवान के प्यारे संत सदगुरु एवं शास्त्र ही हमको परमात्मा के रास्ते पर चढ़ाते हैं, बाकी तो सब गिराने वाले ही मिलते हैं। बुद्धिमान वही है जो ससांररूपी ताप से बचने के लिए संतों का संग करता है, सत्शास्त्रों का विचार करता है एवं आत्मविद्या को पाकर संसार में तपाने वाली अविद्या को मिटा देता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1999, पृष्ठ संख्या 10-12, अंक 79

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