साधकों का पथ-प्रदर्शन

साधकों का पथ-प्रदर्शन


(संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग प्रवचन से)

जब साधक परमात्मा के साक्षात्कार के लिए तन-मन से संकल्पित होता है तो उसके रग-रग में परमात्मप्राप्ति की अनुभूति के लिए तीव्र उत्कंठा होती है। उसका एकमात्र लक्ष्य परमात्मा ही होता है लेकिन साधना में कुछ त्रुटियों और कमियों की वजह से वह अपने परम लक्ष्य की ओर उतनी तेजी से अग्रसर नहीं हो  पाता जितना कि उसे होना चाहिए।

साधक को एकान्त में शुभ-अशुभ सभी संकल्पों को त्याग करके, अपने सच्चिदानंद परमात्मस्वरूप में स्थिर होना चाहिए। घोड़े के रकाब में एक पैर डाल दिया तो दूसरा पैर भी जमीन से उठा लेना पड़ता है। ऐसे ही सुख की लालच मिटाने के लिए यथायोग्य निष्काम कर्म करने के बाद, निष्काम कर्मों से भी समय बचाकर एकान्तवास, लघु भोजन, देखना-सुनना आदि इन्द्रियों का संयम करते हुए साधक को कठोर साधना में उत्साहपूर्वक संलग्न हो जाना चाहिए। कुछ महीने बन्द कमरे में एकाकी रहने से धारणा तथा ध्यान की शक्ति बढ़ जाती है। आन्तर आराम, आन्तर सुख, आन्तर सामर्थ्य प्रकट होने लगता है। धारणा ध्यान में परिणत होती है। हर साधक को कम-से-कम वर्ष में एक बार, अपनी उम्र के जितने वर्ष हों उतने दिन तो मौन-मंदिर की साधना करनी ही चाहिए क्योंकि एकान्त का अपना महत्त्व होता है। उस समय मन बुद्धि संसारी चर्चाओं से मुक्त होते हैं तो उन्हें आराम मिलता है। चिन्तारहित मन-बुद्धि में तत्त्वज्ञान का सत्संग जितनी दृढ़ता से जमता है उतना और कहीं नहीं जमता।

हमारी जीवन शक्ति का ह्रास मूलतः वाणी के क्षय से, संकल्प-विकल्पों की जाल बुनने और वीर्यनाश से होता है। वाणी के अनावश्यक क्षय से बचना मानसिक शांति की कुंजी है। वाणी का उपयोग उतना ही होना चाहिए जितना आवश्यक हो। जैसे, हम तार करते समय संतुलित शब्दों को प्रयुक्त करते हैं और पैसे बचा लेते हैं, वैसे ही कम-से-कम बोलें और अपनी जीवनशक्ति के व्यर्थ क्षय को बचा लें। संकल्पों-विकल्पों को रोकने के लिए बारम्बार दीर्घ प्रणव का जप एक अमोघ साधन है। जैसे ʹहरिः ૐ….ʹ यह ह्रस्व जप है। ʹहरिः ૐ………ʹ यह दीर्घ जप है। ʹहरि ૐ……………………..ʹ यह प्लुत जप है।

प्रणव का जप मन को संकल्पों-विकल्पों से छुड़ाकर शांत पद में आरूढ़ होने में सहायता करता है। ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए ब्रह्मचर्य पर लिखी एक पुस्तक ʹयौवन सुरक्षाʹ में निर्दिष्ट उपायों का अवलम्बन लेकर ब्रह्म-परमात्मा में पहुँचना चाहिए। अपने स्वास्थ्य व जीवन को उन्नत करने के लिए ʹयौवन सुरक्षाʹ बार-बार पढ़ना चाहिए और अपने प्रियजनों का परम हित करने के लिए उन्हें भी ʹयौवन सुरक्षाʹ की ओर मोड़ना चाहिए जिससे उनका भी मंगल हो।

भगवान शंकर ने कहा हैः “बिन्दु अर्थात् वीर्यरक्षण सिद्ध होने के बाद कौन-सी सिद्धि है, जो साधक को प्राप्त नहीं हो सकती ?”

साधक से गलती यह होती है कि साधना में सतत संलग्न होने के बाद भी उसकी वह उन्नति हो नहीं पाती, जो होनी चाहिए। जबकि वीर्यरक्षण के द्वारा जो साधक अपने वीर्य को ऊर्ध्वगामी बनाकर योगमार्ग में आगे बढ़ते हैं, वे कई प्रकार की सिद्धियों के मालिक बन जाते हैं। ऊर्ध्वरेता योगी पुरुष के चरणों में समस्त सिद्धियाँ दासी बनकर रहती हैं। ऐसा योगी पुरुष जल्दी आत्म-साक्षात्कार कर सकता है। स्वामी शिवानंदजी अक्सर कहा करते थे किः “जब कभी भी अपने मन में अशुद्ध विचारों के साथ किसी स्त्री के स्वरूप की कल्पना उठे तो आप ʹ दुर्गा देव्यै नमः।ʹ इस मंत्र का बार-बार उच्चारण करें और उऩ्हें मानसिक प्रणाम करें ताकि आप पतन से बच जाएँ।”

ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए एक मंत्र भी हैं- नमो भगवते महाबले पराक्रमाय मनोभिलाषितं मनः स्तंभ कुरु कुरु स्वाहा।

रोज दूध में निहारकर 21 बार इस मंत्र का जप करें और वह दूध पी लें। इससे लाभ होता है। जब तक परम पद की प्राप्ति न हो तब तक साधक को खूब सावधान रहना चाहिए। आपके माने हुए मित्र एक  प्रकार से आपके गहरे शत्रु हैं। वे किसी-न-किसी प्रकार से आपको संसार में, नाम-रूप की सत्यता में घसीट लेते हैं। आपकी सूक्ष्म वृत्ति उनके परिचय में आने से फिर स्थूल होने लगती है और पता भी नहीं चलता। अतः सावधान ! उन सांसारिक व्यक्तियों से मिलने के कारण आपके नये आध्यात्मिक संस्कार और ध्यान की एकाग्रता लुप्त हो जायेगी।

ʹमन और इन्द्रियों की एकाग्रता ही परम तप हैʹ – ऐसा आदिगुरु श्री शंकराचार्य जी का मत है। तमाम प्रकार के धर्मों का अनुष्ठान करने से भी एकाग्रतारूपी धर्म,  एकाग्रतारूपी तप श्रेष्ठ है। हम देखते हैं कि जिस-जिस व्यक्ति के जीवन में जितनी-जितनी एकाग्रता होती है, वह उतने ही अंश में उस-उस क्षेत्र में सफल होता है।

साधनाकाल में संसारी लोगों से अनावश्यक मिलना-जुलना बहुत ही अनर्थकारी होता है। दोनों की विचारधाराएँ उत्तर-दक्षिण होती हैं। संसारी व्यक्ति बातचीत का शौकीन होता है, नश्वर भोगप्राप्ति उसका लक्ष्य होता है जबकि साधक का लक्ष्य शाश्वत परमात्मा होता है। संसारियों की बातचीत का फल किसी के प्रति राग-द्वेष होता है और उऩकी बातों में प्रीति होने पर जगत की सत्यता दृढ़ होती है। उनकी जिह्वा वाणी के अतिसार से पीड़ित होती है, जबकि साधक मितभाषी, आध्यात्मिक विषयों पर ही प्रसंगानुसार बोलने वाला होता है। परन्तु लौकिक भावों से प्रभावित होकर अपनी अंतरात्मा की पुकार के विपरीत भी वह संसार की हाँ-में-हाँ करने लगे अथवा उनके संपर्क में आकर बलात् संसार में खिंच जाय तो उसकी वर्षों की कठोर साधना के द्वारा प्राप्त योगरूढ़ता क्षीण होने लगती है।

संसारियों का चिन्तन ऐहिक सुख के विषयों से ग्रस्त होता है जबकि साधक का चिंतन दिव्य अनुभूतियों से सुसंपन्न होता है। संसारी व्यक्ति सदा स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों से प्रेरित होकर कार्य करता है जबकि साधक समग्र संसार को अपना स्वरूप समझकर निःस्वार्थभाव से अहंकार विसर्जित करने के लिए सेवा करता है। संसारी व्यक्ति के पास जो भोग-सामग्रियाँ हैं उन्हें वह बढ़ाना चाहता है और भविष्य के लिए ऐन्द्रिक सुखों के साधनों की व्यवस्था करता है। साधक सारे ऐन्द्रिक विषयों को व्यर्थ समझकर इन्द्रियातीत, देशातीत, कालातीत, गुणातीत आत्मसुख एवं परमात्म-स्थिति चाहता है। संसारी व्यक्ति जटिलता, बहुलता, रोगों के घर देह, क्षणभंगुर भोग और सुख की तुच्छ वासना में मँडराता रहता है जबकि साधक सरल व्यक्तित्त्व से संपन्न होता है, देह से और तुच्छ भोगों से पार आत्मसुख का अभिलाषी होता है।

इस प्रकार संसारी और साधक दोनों की विचारधाराएँ पृथक-पृथक होती हैं। फिर भी साधक को आखिरकार रहना तो संसार में ही है। अतः संसार से भागकर नहीं, वरन् युक्ति से काम बनाना होगा। परमात्मा स्वयं साधु  पुरुषों की जिह्वा पर विराजमान होकर ये युक्तियाँ बताते हैं। संत तुलसीदासजी से परमात्मा ने कितनी सुंदर युक्ति कहलवायी है !

तुलसी जग में यूँ रहो, ज्यों रसना मुख माँहि।

खाती घी अरु तेल नित, फिर भी चिकनी नाँहि।।

हम संसार में रहें, संसार के स्वामी के सेवक होकर। साधक संसार में रहता है मगर निर्लेप। वह सुविधाओं का उपयोग करता है, उपभोग नहीं। वेदान्त आपसे नौकरी-धन्धा अथवा संसार नहीं छुड़ाता वरन् उसमें जो सत्यबुद्धि है, जो आसक्ति है उसे छुड़ाकर संसार के स्वामी से भेंट करा देता है।

संतों ने कितनी मार्मिक बात कही है !

साधक के पास जितने रूपये, विद्या, शक्ति सामग्रियाँ आदि हैं, उतने से ही वह संसार की बड़ी-से-बड़ी सेवा कर सकता है। हम प्रभु से तत्त्वज्ञान चाहते हैं परंतु इसमें साधक की यह मान्यता ही सबसे बड़ी भूल है कि, ʹइतना साधन करेंगे….इतना जप-अनुष्ठान करेंगे…. ऐसी-ऐसी वृत्तियाँ बनेंगी…. इतना अन्तःकरण शुद्ध होगा… इतना वैराग्य होगा… ऐसी अवस्था-योग्यता होगी… तब कहीं परमात्मा की प्राप्ति होगी।ʹ जिस क्षण साधक के भीतर यह उत्कट अभिलाषा जागृत हो जाय कि परमात्मा अभी ही प्राप्त होना चाहिए, तो अभी… इस क्षण उसे तत्त्व की प्राप्ति हो सकती है।

सच्चे हृदय से प्रार्थना, जब भक्त सच्चा गाय है।

भक्तवत्सल के कान में, वह पहुँच झट ही जाय है।।

ज्ञानप्राप्ति के लिए साधक की जिज्ञासा जब जोर पकड़ती है तब कुछ मुश्किल नहीं। यह काम दिन-महीनों-सालों पर निर्भर नहीं करता वरन् यह उसकी तीव्रता पर निर्भर है। यह वह ʹडिग्रीʹ (उपाधि) है जिसे जिज्ञासु साधक क्षणभर में प्राप्त कर सकता है, लेकिन शर्त यह है कि वह साधना में सतत लगा रहे। जिन कारणों से गति नहीं हो पाती, उन पर सदगुरु के, भगवदकृपा-प्राप्त महापुरुषों के सत्संग से, सत्शास्त्रों के अध्ययन से युक्तियाँ पाकर विजय प्राप्त करें और आखिरकार पहुँच जाय उस प्रियतम के द्वार तक।

यदि साधनकाल में रूकावटें, बाधाएँ नहीं आयीं तो साधकरूपी स्वर्ण उतना निखरता भी नहीं है। कसौटियाँ ही तो आपको परिपक्व बनाती हैं। फिर घबराहट किस बात की ? आपके पास गुरुमंत्र है, सत्संग है, ध्यान कि विविध पद्धतियाँ हैं। बस… एक बार ईमानदारी से चलना आरंभ करके तो देखो ! फिर आपको ज्यादा चलना नहीं पड़ेगा। आपको अपनी मंजिल अपने-आप में नजर आयेगी। आप खुद, साधक खुद ही सिद्ध हो जायगा।

इन वचनों को हृदयरूपी दीवार पर स्वर्णिम अक्षरों से लिख लो किः “हजार बार असफलता मिलने के बाद भी सफलता की एक और उम्मीद अभी शेष है।”

बस… जुटे रहो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 1999, पृष्ठ संख्या 2-5, अंक 80

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *