Monthly Archives: September 1999

सूखा नारियल


फरीद बड़े फक्कड़ संत थे। एक बार एक व्यक्ति ने उनके पास जाकर कहाः “महाराज ! ईसा मसीह को क्रॉस पर चढ़ना पड़ा और उनके हाथ पैरों में खीलें ठोक दी गयीं… मंसूर को भी शूली पर चढ़ना पड़ा… सुकरात को जहर दे दिया गया लेकिन ʹहम मर रहे हैंʹ ऐसा महसूस उनको क्यों नहीं हुआ ? ʹहम मौत को देख रहे हैं… हमारा कुछ नहीं बिगड़ सकता….ʹ ऐसा  वो क्यों बोलते थे ? हमें तो एक छोटी सी सुई चुभती है तब भी पीड़ा होती है किन्तु उन्हें शूली पर चढ़ने पर भई दुःख क्यों नहीं हुआ ?”

फरीद ने अपने सामने पड़े हुए नारियल के ढेर में से एक नारियल उसे देते हुए कहाः “जा इसको तोड़कर आ, लेकिन ध्यान रखना कि गिरी साबूत रहे।”

वह व्यक्ति गया और नारियल तोड़ने की युक्ति का विचार करने लगा। नारियल हरा था अतः बिना गिरी टूटे नारियल कैसे टूट सकता था ? काफी देर सोच-विचार कर वह पुनः बाबा फरीद के पास आया और बोलाः “महाराज ! यह काम मुझसे नहीं हो पायेगा। जैसे नारियल का टूटना होगा, वैसे ही भीतर की गिरी भी टूट जायेगी।”

फरीद ने सूखा नारियल देते हुए कहाः “इसको तोड़कर आ लेकिन इसकी भी गिरी साबूत ही रहे।”

उस व्यक्ति ने नारियल हिलाकर देखा। नारियल सूखा था। अंदर की गिरी के हिलने की आवाज आ रही थी। वह बोलाः “महाराज ! इसकी गिरी तो बिना तोड़े भी साबूत ही है। हिलने मात्र से ही पता चल जाता है।”

फरीदः “उस हरे नारियल को तोड़ने से उसकी गिरी भी टूट जाती क्योंकि वह गिरी अपने बाह्य स्थूल भाग से चिपकी थी। यह सूखा हुआ नारियल है। धीरे-धीरे अपने बाह्य भाग से, छिलके से, गिरी की पकड़ हट गयी है। इसी प्रकार मंसूर, सुकरात आदि सूखे नारियल थे और तुम हरे नारियल हो। वे लोग केवल गिरी ही बचे थे, केवल ब्रह्मानंदस्वरूप ही बचे थे। उनका स्थूल और सूक्ष्म शरीर देखने मात्र का था जबकि तुम्हारी गिरी अभी चिपकी  हुई है।

जप, ध्यान, प्राणायाम आदि का फल यही है कि गिरी अलग हो जाये। कीमत तो गिरी की ही  होती है, बाकी तो बाहर का आवरण दिखावा मात्र होता है। कीमत तुम्हारे बाह्य सौन्दर्य की नहीं, वरन् भीतर स्थित अंतर्यामी परमात्मा की ही है।

ऐसे सूखे नारियल की तरह ब्रह्म में प्रतिष्ठित फकीर यदि तुम्हारी ओर केवल निहार भी लें और तुम उऩ्हें झेल पाओ तो उसके आगे करोड़ों की संपत्ति का मूल्य भी कौड़ी के समान है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 1999, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 81

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पुनर्नवा-साटी-श्वेता-विषखपरा


पुनर्नवा, साटी या विषखपरा के नाम से विख्यात यह वनस्पति वर्षा ऋतु में बहुतायत से पायी जाती है। शरीर की आंतरिक एवं बाह्य सूजन को दूर करने के लिए यह अत्यन्त उपयोगी है।

यह तीन प्रकार की होती हैः सफेद, लाल एवं काली। काली पुनर्नवा प्रायः देखने में भी नहीं आती। जो देखने में आती है वह प्राय सफेद ही होती है। काली प्रजाती बहुत कम स्थानों पर पायी जाती है। पुनर्नवा की सब्जी बनाकर खायी जाती है। जैसे तांदूल तथा पालक की भाजी बनाते हैं, वैसे ही इसे बनायें। इसकी सब्जी शोथ (सूजन) की नाशक, मूत्र तथा स्वास्थ्यवर्धक है।

पुनर्नवा कड़वी, उष्ण, तीखी, कसैली, रूच्य, अग्निदीपक, रूक्ष, मधुर, खारी, सारक, मूत्रल एवं हृदय के लिए लाभदायक है। यह वायु, कफ, सूजन, खांसी, बवासीर, व्रण, पांडुरोग, विषदोष एवं शूल का नाश करती है।

पुनर्नवा में से पुनर्नवादि क्वाथ, पुनर्नवा मंडूर, पुनर्नवामूल घनवटी, पुनर्नवाचूर्ण आदि औषधियाँ बनती हैं। बड़ी पुनर्नवा को साटोडो (वर्षाभू) कहा जाता है। उसके गुण भी पुनर्नवा के जैसे ही हैं। पुनर्नवा का संस्कृत पर्याय ʹशोथघ्नीʹ (सूजन को हरने वाली) है।

पुनर्नवा साटी के औषधि प्रयोग

नेत्रों की फूलीः पुनर्नवा की जड़ को घी में घिसकर आँजें।

नेत्रों की खुजली (अक्षीकंडू)- पुनर्नवा की जड़ को शहद अथवा दूध में घिसकर आँजने से लाभ होता है।

नेत्रों से पानी गिरना (अक्षीस्राव)- पुनर्नवा की जड़ को शहद में घिसकर आँखों में आँजने से लाभ होता है।

रतौंधीः पुनर्नवा की जड़ को कांजी में घिसकर आँखों में आँजें।

खूनी बवासीरः पुनर्नवा की जड़ को हल्दी के काढ़े में देने से लाभ होता है।

पीलिया (Jaundice) पुनर्नवा के पंचांग को शहद एवं मिश्री के साथ दें अथवा उसका रस या काढ़ा पियें।

मस्तक एवं ज्वर रोगः पुनर्नवा के पंचांग का 2 ग्राम चूर्ण 10 ग्राम घी एवं 20 ग्राम शहद में सुबह शाम देने से लाभ होता है।

जलोदरः पुनर्नवा की जड़ के चूर्ण को शहद के साथ खायें।

सूजनः पुनर्नवा की जड़ की काढ़ा पिलाने एवं सूजन पर लेप करने से लाभ होता है।

पथरीः पुनर्नवामूल को दूध में उबालकर सुबह-शाम पियें।

विषः

चूहे का विषः सफेद पुनर्नवामूल का 2-2 ग्राम चूर्ण 10 ग्राम शहद के साथ दिन में दो बार दें।

पागल कुत्ते का विषः सफेद पुनर्नवा के मूल का रस 25 से 50 ग्राम, 20 ग्राम घी में मिलाकर रोज पियें।

विद्रधी(फोड़ा)- पुनर्नवा के मूल का काढ़ा पीने से कच्चा फोड़ा-मूढ़ (दुष्ट) फोड़ा भी मिट जाता है।

अनिद्राः पुनर्नवामूल का क्वाथ 100-100 मि.ली. दिन में दो बार पीने से निद्रा अच्छी आती है।

संधिवातः पुनर्नवा के पत्तों की भाजी सोंठ डालकर खायें।

वातकंटकः वायु-प्रकोप से पैर की एड़ी में वेदना होती हैं तो पुनर्नवा में सिद्ध किया हुआ तेल पैर की एड़ी पर घिसें एवं सेंक करें।

योनिशूलः पुनर्नवा के हरे पत्तों को पीसकर बनाई गई उँगली जैसे आकार की सोगठी को योनि में धारण करने से भयंकर योनिशूल भी मिटता है।

विलंबित प्रसव मूढ़गर्भः थोड़ा तिल का तेल मिलाकर पुनर्नवा के मूल का रस योनि में लगायें। इससे रुका हुआ बच्चा तुरंत बाहर आ जाता है।

गैसः पुनर्नवा के मूल का चूर्ण 2 ग्राम, हींग आधा ग्राम तथा काला नमक एक ग्राम पानी से लें।

स्थूलता(Obesity) मेदवृद्धिः पुनर्नवा के 5 ग्राम चूर्ण में 10 ग्राम शहद मिलाकर सुबह शाम लें। पुनर्नवा की सब्जी बनाकर खायें।

मूत्रावरोधः पुनर्नवा का 40 मि.ली. रस अथवा उतना ही काढ़ा पियें। पेढ़ू पर पुनर्नवा के पान बाफकर बाँधें। 1 ग्राम पुनर्नवाक्षार (आयुर्वैदिक स्टोर से मिलेगा) गरम पानी से पीने से तुरंत फायदा होता है।

खूनी बवासीरः पुनर्नवा के मूल को पीसकर फीकी छाछ (200 मि.ली.) या बकरी के दूध (200 मि.ली.) के साथ पियें।

उदर (पेट के रोग) गौमूत्र एवं पुनर्नवा का रस समान मात्रा में मिलाकर पियें।

श्लीपद(हाथीरोग) पुनर्नवा का रस 50 मि.ली. और उतना ही गौमूत्र मिलाकर सुबह शाम पियें।

वृषण शोथः पुनर्नवा का मूल दूध में घिसकर लेप करने से वृषण की सूजन मिटती है। हाइड्रोसील(Hydrocele) में भी फायदा होता है।

हृदयरोगः हृदय रोग के कारण सर्वांग सूजन हो गई हो तो पुनर्नवा के मूल का 10 ग्राम चूर्ण और अर्जुन के छाल का 10 ग्राम चूर्ण 200 मि.ली. पानी में काढ़ा बनाकर सुबह शाम पियें।

श्वास(दमा)- भारंगमूल चूर्ण 10 ग्राम और पुनर्नवा चूर्ण 10 ग्राम को 200 मि.ली. पानी में उबालकर काढ़ा बनाएँ। जब 50 मि.ली. बचे तब उसमें आधा ग्राम शृंगभस्म डालकर सुबह-शाम पियें।

गर्भाशय के रोगः आर्तवदृष्टि या गर्भाशय दृष्टि में पुनर्नवा क्वाथ की बस्ति या उत्तर बस्ति दें।

रसायन प्रयोगः हमेशा स्वास्थ्य बनाये रखने के लिए रोज सुबह पुनर्नवा के मूल का या पत्ते का दो चम्मच (10 मि.ली.) रस पियें अथवा पुनर्नवा के मूल का चूर्ण 2 से 4 ग्राम की मात्रा में दूध या पानी से लें या सप्ताह में 2 दिन पुनर्नवा की सब्जी बनाकर खायें।

मूँग व चने की छिलके वाली दाल मिलाकर इसकी बढ़िया सब्जी बनती है। ऊपर वर्णित तमाम प्रकार के रोग होवें ही नहीं, स्वास्थ्य बना रहे इसलिए इसकी सब्जी या ताजा पत्तों का रस काली मिर्च व शहद मिलाकर पीना हितावह है। बीमार तो क्या, स्वस्थ व्यक्ति भी अपना स्वास्थ्य मजबूत रखने के लिए इसकी सब्जी खा सकते हैं। संत श्री आसारामजी आश्रम, दिल्ली अमदावाद, सूरत आदि में इसका नमूना देखा जा सकता है। आपके इलाकों में यह पर्याप्त मात्रा में होती होगी। भारत में यह सर्वत्र पायी जाती है।

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कुछ उपयोगी बातें

घी, गेहूँ, दूध, मूँग, लाल साठी चावल, आँवले, हरड़े, अनार, अँगूर, परवल – ये सभी के लिए हितकर हैं।

अजीर्ण एवं बुखार में उपवास या लंघन हितकर है।

दही, खटाई, पनीर, अचार, कटहल, कुन्दरू, मावे की मिठाई – ये सभी के लिए हानिकारक हैं।

अजीर्ण में भोजन एवं बुखार में दूध विष तुल्य है।

उत्तर भारत में अदरक के साथ गुड़ खाना अच्छा है।

मालवा प्रदेश में सूरन यानी जिमिकंद को उबालकर कालीमिर्च के साथ खाना लाभदायक है।

अत्यन्त सूखे प्रदेश जैसे कि कच्छ, सौराष्ट्र आदि में भोजन के बाद पतली छाछ पीना अच्छा है।

बंबई, गुजरात में अदरक, नींबू एवं सैंधव नमक का सेवन अच्छा है।

दही की लस्सी बिल्कुल हानिकारक है।

दक्षिण गुजरात वाले पुनर्नवा (विषखपरा) की सब्जी का सेवन करें अथवा उसका रस पियें तो अच्छा है।

दही एवं मावे की मिठाई खाने की आदतवाले पुनर्नवा का  सेवन करें एवं नमक की जगह सैंधव नमक का उपयोग करें तो अच्छा है।

शराब पीने की आदतवाले अँगूर एवं अनार खायें तो अच्छा है।

आँव होने पर सोंठ का सेवन, लंघन अथवा पतली खिचड़ी और पतली छाछ का सेवन लाभप्रद है।

अत्यन्त पतले दस्त में सोंठ एवं अनार का रस लाभदायक है।

आँख के रोगी के लिए घी, दूध, मूँग एवं अँगूर का आहार अच्छा है।

व्यायाम तथा अति परिश्रम करने वाले के लिए केले, इलायची के साथ घी खाना अच्छा है।

सूजन के रोगी के लिए नमक, खटाई, दही, फल, गरिष्ठ आहार, मिठाई अहितकर है।

यकृत (लीवर) के रोगी के लिए दूध अमृत के समान है एवं नमक, खटाई, दही एवं गरिष्ठा आहार विष के समान है।

वात रोगी के लिए अदरक के रस में घी लेना अच्छा है लेकिन आलू, मूँग के सिवाय के दलहन एवं गरिष्ठ आहार विषवत है।

कफ के रोगी के लिए सोंठ एवं गुड़ हितकर है परंतु दही, फल, मिठाई विषवत है।

साँईं श्री लीलाशाह जी उपचार केन्द्र

वरियाव रोड, जहाँगीरपुरा, सूरत (गुजरात)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 1999, पृष्ठ संख्या 26-29

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गुरु महिमा


वत्स ! गुरु में पूर्ण विश्वास रखो। उनकी कृपा से, उनकी ज्ञानज्योति से तुम्हारी अंतरात्मा पुनर्जीवित हुई है। उन्होंने तुम्हें ढूँढा और पूर्ण बनाया है। गुरु का साक्षात्कार शिष्य के ऊपर वर्षा की झड़ी सा गिरता है। यह अबाधित है और इसे कोई रोक नहीं सकता। तुम्हारे लिए उनका प्रेम असीम है। वे तुम्हारे लिये दूर से दूर तक जायेंगे। वे तुम्हें कभी भी नष्ट नहीं होने देंगे। उनका प्रेम ही उनकी दिव्यता का प्रमाण है। उनका शाप भी दूसरे रूप में आशीर्वाद ही है।

गुरु का साक्षात्कार तुम्हारे लिए प्रत्यक्ष और मूर्तिमान है। उऩ्हीं की प्रकृति-रूपान्तर से ही तुम ईश्वर को देखते हो।

तुम्हारे लिए अन्य मार्ग नहीं है। अपने को गुरु के प्रति पूर्णतया और सर्वभावेन समर्पित कर दो। अन्तस्तल में जो कुछ है वह ईश्वर ही है। जिसने उसकी प्रकृति का साक्षात्कार किया है वह सबसे बड़ा देव है। मनुष्य, जिसने आत्म-साक्षात्कार किया है, उसकी महान महिमा को देखते हुए उस साक्षात्कार को बहुत रूपों में देखता है। गुरु मनुष्य से विशेष होते हैं। उनके द्वारा ही ईश्वर के संपूर्णभाव प्रकाशित होते हैं। क्या वे स्वयं शिव नहीं हैं ? स्वयं शिव महान् गुरु का एक भागमात्र हैं। अपने गुरु को शिव समझकर ध्यान करो। उन्हें अपना इष्ट समझकर ध्यान करो और आत्मसाक्षात्कार की शुभ घड़ी में तुम समग्र प्रकृति को अपने इष्ट में मिली हुई पाओगे।

तुम्हारे सामने एक पुरुष खड़े हैं जो आत्म-साक्षात्कार के द्वारा अवतीर्ण ईश्वर हैं। तब फिर तुम्हें निराकार ईश्वर अथवा दैवी संकल्पों, भावों से क्या मिलेगा ? जहाँ भी जाओगे वे तुम्हारे पीछे चलेंगे। मनुष्य जाति की सहायता के लिए ही उन्होंने निर्वाण तक को त्याग दिया है। इस रूप में वे दूसरे बुद्ध ही हैं। जिसने उनके स्वर को पहचाना है, वह उनके व्यक्तित्व को और भी अधिक सत्य तथा शक्तिमान बना देता है। ब्रह्मज्ञान प्राप्त करके वह अमानुषी जीवन और ज्ञान से संपन्न होता है।

जो ब्रह्म से एक हो चुके हैं उन्हें सब देवता नमन करते हैं। अपनी गुरुपूजा की दृष्टि से ही विद्यमान संपूर्ण दिव्यता को देखो। इस प्रकार सब एक बन जायेगा और सर्वोच्च अद्वैत ज्ञान प्राप्त होगा, क्योंकि गुरु और भी अधिक बड़े दृष्टिकोण से दिखेंगे। तुम्हारे निज के ज्ञान और भक्ति की बुद्धि के अनुसार ही वे दीख पड़ेंगे।

व्यक्तित्व के उत्तम विकास से ही सर्वोच्च निःस्वार्थता, जो  आत्मा है, पहचानी जाती है। वहाँ गुरु, ईश्वर और तुम भी, इतना ही नहीं, समस्त सृष्टि एक हो जाती है। यही लक्ष्य है। गुरु को अनंत के दृष्टिकोण से देखो। यही बुद्धिमत्ता है। गुरुभक्ति से ही तुम श्रेष्ठ मार्ग पर चलते हो। अक अर्थ में दैवी मनुष्य शुद्ध ईश्वरत्व से भी अधिक सत्य है। पिता को केवल पुत्र के द्वारा ही समझा जा सकता है। ईश्वर की पूजा करने से पहले भी मनुष्य की पूजा करो। मनुष्य की ब्रह्म-साक्षात्कार की भावना से पृथक ईश्वर कहाँ है ? शिष्य के लिए गुरु पूजा सर्वोपरि है क्योंकि उनके व्यक्तित्व की पूजा में ही व्यक्तित्व का भी सम्पूर्ण ज्ञान अन्त में नष्ट हो जायेगा। आध्यात्मिक दृष्टिकोण विस्तृत होता जायेगा। पहले गुरु की शारीरिक उपस्थिति आवश्यक है, तब गुरु की साकार पूजा होती है। दूसरा कदम इस शारीरिक उपस्थिति से और गुरु की पूजा से भी परे जाना है, क्योंकि वे शिक्षा देते हैं कि शरीर आत्मा नहीं है। शिष्य को बच्चे के समान ही शिक्षा देनी पड़ती है। शारीरिक भाव से गुरु के सन्देंशों और विचारों को पहचानना, व्यक्तित्व से भाव की ओर जाना, मन और शरीर उत्तम और घनिष्ठ सम्बन्धों में नहीं गिने जा सकते।

गुरु के स्वरूप में शिष्य के व्यक्तित्व का अधिकाधिक लय होता है औऱ गुरु का व्यक्तित्व अधिकाधिक उसमें लय हुआ दिखाई पड़ता है, जिसमें उनका शरीर व्यक्त था। तब सर्वोत्कृष्ट एकता प्राप्त होती है। गुरु और शिष्य के द्वैत-व्यक्तित्व की धाराएँ अनन्त ब्रह्म का समुद्र बन जाती हैं। उस श्रेष्ठ सौन्दर्य की प्राप्ति के लिए जहाँ कहीं भी जाने की वे आज्ञा देते हैं, वहाँ नहीं जाओगे क्या ? यदि वे ऐसा चाहते हैं तो तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक सहस्रों जन्म-मृत्यु में जाना होगा। तुम उनके प्रिय सेवक जो हो ! उनकी इच्छा तुम्हारा धर्म है, तुम्हारी इच्छा उनकी इच्छा की यंत्र बन गयी है। उनका अनुसरण करना ही तुम्हारा धर्म है। शास्त्र कहते हैं कि गुरु ही ईश्वर हैं। गुरु ब्रह्मा, विष्णु और महादेव हैं। वे वास्तव में परब्रह्म हैं। गुरु से बढ़कर कोई नहीं है।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो….

गुरुगोविन्द दोऊ खड़े किसको लागूँ पाँय…..

श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ ब्रह्मलीन

स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 1999, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 81

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