गुरु महिमा

गुरु महिमा


वत्स ! गुरु में पूर्ण विश्वास रखो। उनकी कृपा से, उनकी ज्ञानज्योति से तुम्हारी अंतरात्मा पुनर्जीवित हुई है। उन्होंने तुम्हें ढूँढा और पूर्ण बनाया है। गुरु का साक्षात्कार शिष्य के ऊपर वर्षा की झड़ी सा गिरता है। यह अबाधित है और इसे कोई रोक नहीं सकता। तुम्हारे लिए उनका प्रेम असीम है। वे तुम्हारे लिये दूर से दूर तक जायेंगे। वे तुम्हें कभी भी नष्ट नहीं होने देंगे। उनका प्रेम ही उनकी दिव्यता का प्रमाण है। उनका शाप भी दूसरे रूप में आशीर्वाद ही है।

गुरु का साक्षात्कार तुम्हारे लिए प्रत्यक्ष और मूर्तिमान है। उऩ्हीं की प्रकृति-रूपान्तर से ही तुम ईश्वर को देखते हो।

तुम्हारे लिए अन्य मार्ग नहीं है। अपने को गुरु के प्रति पूर्णतया और सर्वभावेन समर्पित कर दो। अन्तस्तल में जो कुछ है वह ईश्वर ही है। जिसने उसकी प्रकृति का साक्षात्कार किया है वह सबसे बड़ा देव है। मनुष्य, जिसने आत्म-साक्षात्कार किया है, उसकी महान महिमा को देखते हुए उस साक्षात्कार को बहुत रूपों में देखता है। गुरु मनुष्य से विशेष होते हैं। उनके द्वारा ही ईश्वर के संपूर्णभाव प्रकाशित होते हैं। क्या वे स्वयं शिव नहीं हैं ? स्वयं शिव महान् गुरु का एक भागमात्र हैं। अपने गुरु को शिव समझकर ध्यान करो। उन्हें अपना इष्ट समझकर ध्यान करो और आत्मसाक्षात्कार की शुभ घड़ी में तुम समग्र प्रकृति को अपने इष्ट में मिली हुई पाओगे।

तुम्हारे सामने एक पुरुष खड़े हैं जो आत्म-साक्षात्कार के द्वारा अवतीर्ण ईश्वर हैं। तब फिर तुम्हें निराकार ईश्वर अथवा दैवी संकल्पों, भावों से क्या मिलेगा ? जहाँ भी जाओगे वे तुम्हारे पीछे चलेंगे। मनुष्य जाति की सहायता के लिए ही उन्होंने निर्वाण तक को त्याग दिया है। इस रूप में वे दूसरे बुद्ध ही हैं। जिसने उनके स्वर को पहचाना है, वह उनके व्यक्तित्व को और भी अधिक सत्य तथा शक्तिमान बना देता है। ब्रह्मज्ञान प्राप्त करके वह अमानुषी जीवन और ज्ञान से संपन्न होता है।

जो ब्रह्म से एक हो चुके हैं उन्हें सब देवता नमन करते हैं। अपनी गुरुपूजा की दृष्टि से ही विद्यमान संपूर्ण दिव्यता को देखो। इस प्रकार सब एक बन जायेगा और सर्वोच्च अद्वैत ज्ञान प्राप्त होगा, क्योंकि गुरु और भी अधिक बड़े दृष्टिकोण से दिखेंगे। तुम्हारे निज के ज्ञान और भक्ति की बुद्धि के अनुसार ही वे दीख पड़ेंगे।

व्यक्तित्व के उत्तम विकास से ही सर्वोच्च निःस्वार्थता, जो  आत्मा है, पहचानी जाती है। वहाँ गुरु, ईश्वर और तुम भी, इतना ही नहीं, समस्त सृष्टि एक हो जाती है। यही लक्ष्य है। गुरु को अनंत के दृष्टिकोण से देखो। यही बुद्धिमत्ता है। गुरुभक्ति से ही तुम श्रेष्ठ मार्ग पर चलते हो। अक अर्थ में दैवी मनुष्य शुद्ध ईश्वरत्व से भी अधिक सत्य है। पिता को केवल पुत्र के द्वारा ही समझा जा सकता है। ईश्वर की पूजा करने से पहले भी मनुष्य की पूजा करो। मनुष्य की ब्रह्म-साक्षात्कार की भावना से पृथक ईश्वर कहाँ है ? शिष्य के लिए गुरु पूजा सर्वोपरि है क्योंकि उनके व्यक्तित्व की पूजा में ही व्यक्तित्व का भी सम्पूर्ण ज्ञान अन्त में नष्ट हो जायेगा। आध्यात्मिक दृष्टिकोण विस्तृत होता जायेगा। पहले गुरु की शारीरिक उपस्थिति आवश्यक है, तब गुरु की साकार पूजा होती है। दूसरा कदम इस शारीरिक उपस्थिति से और गुरु की पूजा से भी परे जाना है, क्योंकि वे शिक्षा देते हैं कि शरीर आत्मा नहीं है। शिष्य को बच्चे के समान ही शिक्षा देनी पड़ती है। शारीरिक भाव से गुरु के सन्देंशों और विचारों को पहचानना, व्यक्तित्व से भाव की ओर जाना, मन और शरीर उत्तम और घनिष्ठ सम्बन्धों में नहीं गिने जा सकते।

गुरु के स्वरूप में शिष्य के व्यक्तित्व का अधिकाधिक लय होता है औऱ गुरु का व्यक्तित्व अधिकाधिक उसमें लय हुआ दिखाई पड़ता है, जिसमें उनका शरीर व्यक्त था। तब सर्वोत्कृष्ट एकता प्राप्त होती है। गुरु और शिष्य के द्वैत-व्यक्तित्व की धाराएँ अनन्त ब्रह्म का समुद्र बन जाती हैं। उस श्रेष्ठ सौन्दर्य की प्राप्ति के लिए जहाँ कहीं भी जाने की वे आज्ञा देते हैं, वहाँ नहीं जाओगे क्या ? यदि वे ऐसा चाहते हैं तो तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक सहस्रों जन्म-मृत्यु में जाना होगा। तुम उनके प्रिय सेवक जो हो ! उनकी इच्छा तुम्हारा धर्म है, तुम्हारी इच्छा उनकी इच्छा की यंत्र बन गयी है। उनका अनुसरण करना ही तुम्हारा धर्म है। शास्त्र कहते हैं कि गुरु ही ईश्वर हैं। गुरु ब्रह्मा, विष्णु और महादेव हैं। वे वास्तव में परब्रह्म हैं। गुरु से बढ़कर कोई नहीं है।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो….

गुरुगोविन्द दोऊ खड़े किसको लागूँ पाँय…..

श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ ब्रह्मलीन

स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 1999, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 81

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