उन्नति के चार सूत्र

उन्नति के चार सूत्र


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग प्रवचन से

संसाररूपी युद्ध के मैदान में परमात्मा को किस तरह पाया जा सकता है ? यह ज्ञान यदि पाना हो तो इसके लिए ʹश्रीमद् भगवदगीताʹ है। मृत्यु को किस तरह सुधारा जा सकता है ? यह ज्ञान यदि पाना हो तो राजा परीक्षित का अनुकरण करो।

परीक्षित राजा जब विचरण करते थे तब यह चिंतन करते थे कि आखिर क्या ? संसार के सब काम पूरे हो गये तो क्या और अधूरे रह गये तो क्या ? ऋषि कुमार शमीक का शाप मिलने से उनके चित्त में वैराग्य तो था ही। जब शुकदेवजी जैसे महान ब्रह्मवेत्ता का सत्संग मिल गया एवं आत्मचिन्तन में तत्परता से लग गये तो मात्र सात दिनों में ही उन्होंने परम तत्त्व का साक्षात्कार कर लिया। परमात्म-शांति पाई और परमात्म-शांति का उदगम स्थान अपने ʹसोहंʹ स्वभाव को भी जान लिया।

यदि तुम भी अपना काम शीघ्र बनाना चाहते हो, भागवत के धर्म को पाना चाहते हो तो परीक्षित की तरह सजाग हो जाओ कि ʹइतना खाया, इतना पिया, इतना घूमा, इतना छल-कपट किया लेकिन आखिर में इनमें क्या काम आयेगा ?

साधक को अपनी दिनचर्या का विश्लेषण करना चाहिए। महीने भर अथवा साल भर की योजना न बनायें वरन् रोज सुबह योजना बनायें किः ʹआज चाहे कुछ भी हो जाये, बेहोशी में नहीं जीऊँगा, होश में ही जीऊँगा, सजाग रहूँगा। जो कुछ भी करूँगा, खाऊँगा, पियूँगा, लूँगा-दूँगा, उसका परिणाम क्या होगा ? इसका पहले विचार करूँगा। मेरी सारी क्रियाएँ, सारी चेष्टाएँ ईश्वर की ओर ले जाने वाली हैं या ईश्वर से विमुख करने वाली हैं ? ऐसा पहले चिन्तन करूँगा….ʹ इस प्रकार विचार करके कर्म करते रहने से साधक को ईश्वराभिमुख होने में सहायता मिलती है।

यदि अपने चिंतन का, अपनी बुद्धि का सदुपयोग करने की  कला आ जाये तो मनुष्य संसार में खूब आनंद से, खूब शांति से एवं खूब प्रेम से जी सकता है। स्वर्ग के सुख से वह कई गुना ज्यादा सुख पा सकता है। मृत्यु के पहले और बाद भी मुक्ति का अनुभव कर सकता है।

भगवदगीता के सोलहवें अध्याय का उद्देश्य ही यह है कि मनुष्य अपने आत्मदेव के ज्ञान को पाकर मुक्त हो जाये। आसुरी वृत्तियों से किस प्रकार बचा जाये, सांसारिक बंधनों से किस प्रकार छूटा जाये और मुक्ति सरलता से मुट्ठी में कैसे आये ? इसके लिए गीता का सोलहवाँ अध्याय दैवी संपत्ति का अर्जन करने लिए कहता है। दैवी संपत्ति में निर्भयता, मौन, तप, आहार-संयम आदि गुण हैं।

मनुष्य को जीवन में निर्भय होना चाहिए। ʹशादी विवाह में इतना खर्च नहीं करूँगा तो बेइज्जती होगी…. उधार लेकर भी फर्नीचर नहीं खरीदूँगा तो लोग क्या कहेंगे…. इस प्रकार के कई भय मनुष्य को सताते रहते हैं। जिस काम से तुम्हारा चित्त भयभीत होता हो एवं दूसरों की खुशामद करने में लगता हो, उसे छोड़ दो। तुम तो केवल अपने अंतर्यामी परमात्मा को राजी करने का प्रयत्न करो। पफ-पावडर, लिपस्टिक-लाली आदि से शरीर को नहीं सजायेंगे तो लोग क्या कहेंगे ? इसकी परवाह न करो। ʹबाहर के इन सौन्दर्य-प्रसाधनों का उपयोग करके हमें लोगों का भोग्य नहीं बनना है वरन् हमें तो लोकेश्वर को पाने वाला साधक बनना है।ʹ ऐसा निश्चय करके अपना जीवन संयमी, सादा एवं पवित्र बनाना चाहिए।

जीवन में निर्भयता लाओ। शराबी कहता है किः ʹचलो मित्र ! शराब पियें।ʹ अब यदि तुम शराब नहीं पीते हो तो मित्र नाराज हो जाते हैं और यदि पीते हो तो तुम्हारी बरबादी होती है। फिर क्या करें ? अरे, मित्र नाराज होते हैं तो होने दो परन्तु शराब नहीं पीना है-यह निश्चय दृढ़ रखो। जो लोग तुम्हें खराब काम, हल्की संगति और हल्की प्रवृत्तियों की तरफ घसीटते हैं उनसे निर्भय हो जाओ लेकिन माता-पिता, गुरु, शास्त्र एवं भगवान क्या कहेंगे ? इस बात का डर रखो। ऐसा डर रखने से चित्त पवित्र होने लगता है क्योंकि ऐसा डर हल्के कामों, हल्की प्रवृत्तियों एवं हल्की संगति से बचाने वाला होता है।

हरि डर गुरु डर जगत डर, डर करनी में सार।

रज्जब डरिया सो उबरिया, गाफिल खायी मार।।

जीवन में निर्भयता आनी ही चाहिए। झूठे आडंबरों से बचने के लिए निर्भय बनो। आप मेहमानों को भिन्न-भिन्न प्रकार के अच्छे-अच्छे एवं तले हुए व्यंजन न खिला सको तो कोई बात नहीं, चिंता मत करो। परंतु यदि तुम सच्चे दिल से, एक प्रेम भरी नजर से पानी के एक प्याले से भी मेहमान का आदर-सत्कार कर सको तो वह मेहमान तुम्हारे यहाँ से उन्नत होकर जायेगा।

तुम लोगों की परवाह मत करो कि ʹऐसा नहीं करेंगे तो लोग क्या कहेंगे ?ʹ अरे ! तुम अपनी नाक से श्वास लेते हो कि लोगों की नाक से ? अपने जीवन का आयुष्य खर्चते हो कि लोगों के जीवन का ? हम एक दूसरे से ऐसे बँध गये हैं, ऐसे बँध गये हैं कि शराब-कबाब आदि की पार्टियों से भले अपना व दूसरों का सत्यानाश होता हो फिर भी ʹलोग क्या कहेंगे ?ʹ के भूत से ग्रस्त हो जाते हैं एवं अपनी हानि करते रहते हैं। इसीलिए गीता में कहा हैः अभयं सत्त्वसंशुद्धिः। तमोगुणी मत बनो।

मैं कभी-कभी शाम को खेतों में घूमने जाता हूँ। खेतों के आस-पास कुछ घर भी होते हैं। वहाँ के कुत्ते मुझे देखकर भौंकने लगते हैं। मेरा तो विनोदी स्वभाव है। कुत्ते भौंकते हैं तब यदि मैं खड़ा रह जाता हूँ तो उनकी पूँछ भी दबी हुई पाता हूँ लेकिन जान-बूझकर विनोद में दौड़ने लगता हूँ तो कुत्ते तो मेरा पीछा करते ही हैं, साथ में उऩके छोटे-छोटे पिल्ले भी मेरा पीछा करने लग जाते हैं।

दुःख एवं मुसीबतें डरपोक मनुष्य का ही पीछा करती हैं, जबकि निर्भय व्यक्ति के सामने उनकी पूँछ दब जाती हैं। अतः दुःख एवं मुसीबतों को बुलाना हो तो भयभीत रहो और उनकी पूँछे दबानी हो तो निर्भय बनो।

भगवान से, गुरु से, माता-पिता से, शास्त्र से भले अनुशासित रहो परंतु जो हल्का संग करके पतन करा दें, उनसे निर्भय रहना चाहिए। उऩसे किनारा करके निर्भयतापूर्वक अपने जीवन में अच्छे संस्कारों को पकड़े रहना चाहिए।

पहली बात है कि निर्भय रहो। दूसरी बात है कि हृदय शुद्ध रहे ऐसा आहार-विहार और चिंतन करो। कहा भी गया है किः जैसा खाओ अन्न वैसा बनता मन। साधक को अपने आहार पर खूब ध्यान देना चाहिए। ʹआहारʹ शब्द केवल भोजन के लिए ही नहीं है वरन् आँखों से, कानों से, नाक से, त्वचा से जो ग्रहण किया जाता है, वह भी आहार के ही अंतर्गत आता है। अतः उसमें सात्त्विकता का ध्यान रहना चाहिए।

तीसरी बात है तप। हमारे जीवन में तपस्या भी होनी चाहिए। सुबह भले ठंड लगे फिर भी सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान कर लो। देखो इससे हृदय में कितनी प्रसन्नता और सत्त्वगुण बढ़ता है ! फिर थोड़ा ध्यान करो। यह तप हो जाता है। सत्संग अथवा सत्कर्म के समय थोड़ा तन-मन-धन तो अवश्य खर्च होता है किन्तु वह तुम्हारी तपस्या बन जाता है।

चौथी बात है मौन। प्रतिदिन एक-दो घंटे का मौन रखो। ससे तुम्हारी आंतरिक शक्ति बढ़ेगी, तुम्हारी वाणी में आकर्षण आयेगा। जो पतंगे की तरह इधर-उधर भटकते रहते हैं एवं व्यर्थ की बक-बक करते रहते हैं उनके चित्त में न शांति होती है न क्षमा, न विचारशक्ति होती है और न ही अनुमान शक्ति। वे बिखर जाते हैं। स्त्रियों को तो मानो ज्यादा बोलने का ठेका ही मिला हुआ है। सास बहू में, अड़ोस-पड़ोस में व्यर्थ की गप्पें मारकर वे स्वयं ही झगड़े पैदा कर लेती हैं। यदि झगड़े न भी होते हों तो फालतू बातें तो होती ही हैं। उऩ बेचारियों को पता ही नहीं होता कि व्यर्थ की बातें करने से प्राणशक्ति एवं वाक्शक्ति का ह्रास होता है।

अतः साधक को चाहिए कि वह मौन रखें। मौन से बहुत लाभ होता है। यदि एक बार भी तुम लंबे समय तक मौन रखो तो अंदर का आनंद प्रगट होने लगेगा। विचारशक्ति, अनुमानशक्ति के अलावा धैर्य, क्षमा, शांति आदि सदगुण भी आने लगेंगे।

गुजराती में कहावत हैः न बोल्यामां नव गुण। अर्थात् न बोलने में नौ गुण हैं। जो ज्यादा बोलते हैं वे झूठ बोलते हैं, झगड़े उत्पन्न करते हैं और अपनी आयु क्षीण करते हैं। किसी के साथ बात करो तो कम-से-कम, स्नेहयुक्त एवं सारगर्भित बात करो। इससे तुम्हारी वाणी का एवं तुम्हारा प्रभाव पड़ेगा।

ब्रह्मज्ञानी महापुरुष एक स्मितभरी नजर डालते हैं और पूरा जनसमुदाय तन्मय हो जाता है। अरे ! मनुष्यों की तो क्या बात, ब्रह्मलोक तक के देवी-देवता भी उनके अनुकूल हो जाते हैं। हम उनका माहात्म्य नहीं जानते, इसीलिए ʹहा-हा….ही-ही…ʹ में अपना जीवन गँवा डालते हैं। हमें पता ही नहीं है कि हमारे भीतर कितना खजाना भरा पड़ा है और हम कितना, किस प्रकार उसे खर्च कर रहे हैं।

ज्ञानवानों का स्मित ऐसा अनोखा होता है, जिससे कोई भी सहज में ही उऩके प्रति अहोभाव से भर जाता है। श्रीकृष्ण अपनी स्मितभरी नजर डालकर बंसी बजाते थे तो सब ग्वाल-गोपियों के चित्त सहज में ही पवित्र हो जाते थे। उसी प्रकार ब्रह्मज्ञानी महापुरुष की स्मित भरी नजर से लोगों का चित्त पवित्र होने लगता है। सिंधी भाषा में कहा हैः

नूरानी नजरूनसां दिलबर दरवेशन, मुंखे निहाल करे छड्यो।

अर्थात् अपनी नूरानी नजरों से उन दिलबर संत ने मुझे निहाल कर दिया।

निगाहों से वे निहाल हो जाते हैं, जो संतों की निगाहों में आ जाते हैं।

तुम भी अपनी दृष्टि ऐसी ही बनाओ। ऐसा नहीं कि व्यर्थ का इधर-उधर भटकते रहो, व्यर्थ बोलते रहो एवं अपने ज्ञानतंतुओं, अपनी रक्तवाहिनियों, अपने शरीर एवं मन को सताते रहो।

जीवन में निर्भयता, आहारशुद्धि, तप एवं मौन-ये गुण जायें तो जीवन काफी उन्नत हो जाये और ये काम तुम कर सकते हो। युद्ध के मैदान में अगर अर्जुन यह काम कर सकता है तो तुम क्यों नहीं कर सकते ? अर्जुन तो कितनी विपत्तियों के बीच था ! तुम्हारे आगे इतनी झंझटें नहीं हैं, भाई ! यदि अर्जुन युद्ध के मैदान में गीता का अधिकारी है तो तुम भी सत्संग के मैदान में गीता के अधिकारी जरूर हो। बस कमर कस लो इऩ दैवी गुणों को अपनाने के लिए….. निर्भयता, आहार-संयम, तप एवं मौन को आत्मसात् करने के लिए !

ʹहम क्या करें ? हम तो गृहस्थी हैं…. हम तो संसारी हैं…. हम तो नौकरी वाले हैं…ʹ अरे ! तुम्हारे साथ संसार की जितनी झंझटें हैं, उससे ज्यादा झंझटें पहले के समय में थीं। फिर भी हिम्मतवान्, बुद्धिमान पुरुषों ने समय बचाकर विकारों एवं बेवकूफियों पर विजय पा ली एवं अपने आत्मा-परमात्मा को, अपने रब को पहचान लिया।

वर्धमान के जीवन में कितने विघ्न आये ! फिर भी वे अडिग रहे एवं साधना में लगे रहे तो भगवान महावीर के रूप में उभरे। प्रह्लाद के जीवन में कितने विघ्न आये ! मीराबाई के जीवन में कितनी मुसीबतें आयीं ! फिर भी वे अडिग रहीं, निर्भय रहीं, हताश-निराश न हुई तो कितनी उन्नत हो गई !

तुम भी उन्नत हो सकते हो, अपने आपको जान सकते हो। शर्त इतनी ही है कि दैवी गुणों को बढ़ाओ, पुरुषार्थ करो एवं सत्संग अवश्य पूरा करो। सत्संग से ही तुम्हें अपने दैवी गुणों को विकसित करने की प्रेरणा मिलेगी, प्रोत्साहन मिलेगा, मार्गदर्शन मिलेगा, उत्साह उभरेगा। निर्भयता, आहारशुद्धि, वाणी का संयम एवं तप-इन दैवी गुणों का विकास तुम्हारे लिए उन्नति का द्वार सहजता से ही खोल देगा। अतः आज से, अभी से दृढ़ता से लगो। लगोगे न ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 1999, पृष्ठ संख्या 2-5, अंक 81

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