ऋषि पंचमी

ऋषि पंचमी


 

(14 सितम्बर 1999)

भारत ऋषि मुनियों का देश है। इस देश में ऋषियों की जीवन-प्रणाली का और ऋषियों के ज्ञान का अभी भी इतना प्रभाव है कि उनके ज्ञान के अऩुसार जीवन जीने वाले लोग शुद्ध, सात्त्विक, पवित्र व्यवहार में भी सफल हो जाते हैं और परमार्थ में भी पूर्ण हो जाते हैं।

ऋषि तो ऐसे कई हो गये, जिन्होंने अपना जीवन केवल ʹबहुजन हिताय-बहुजनसुखायʹ बिता दिया। हम उन ऋषियों का आदर करते हैं, पूजन करते हैं। उनमें से भी वशिष्ठ, विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, अत्रि, गौतम और कश्यप आदि ऋषियों को तो सप्तर्षि के रूप में नक्षत्रों के प्रकाशपुंज में निहारते हैं ताकि उऩकी चिरस्थायी स्मृति बनी रहे।

ऋषियों को ʹमंत्रदृष्टाʹ भी कहते हैं। ऋषि अपने को कर्ता नहीं मानते हैं। जैसे वे अपने साक्षी-दृष्टा पद में स्थित होकर संसार को देखते हैं, वैसे ही मंत्र और मंत्र के अर्थ को साक्षी भाव से देखते हैं। इसलिए उन्हें ʹमंत्रदृष्टाʹ कहा जाता है।

ऋषि पंचमी के दिन इन मंत्रदृष्टा ऋषियों का पूजन किया जाता है। इस दिन माताएँ विशेष रूप से व्रत रखती हैं।

ऋषि की दृष्टि में न तो कोई स्त्री है न पुरुष। सब अपना स्वरूप है। जिसने भी अपने-आपको नहीं जाना है, उन सबके लिए आज का पर्व है। जिस अज्ञान के कारण यह जीव कितनी ही माताओं के गर्भ में लटकता आया है, कितनी ही यातनाएँ सहता आया है उस अज्ञान को निवृत्त करने के लिए उऩ ऋषि-मुनियों को हम हृदयपूर्वक प्रणाम करते हैं उनका पूजन करते हैं।

उन ऋषि मुनियों का वास्तविक पूजन है-उनकी आज्ञा शिरोधार्य करना। वे तो चाहते हैं-

देवो भूत्वा देवं यजेत्।

देवता होकर देवता की पूजा करो। ऋषि असंग, दृष्टा, साक्षी स्वभाव में स्थित होते हैं। वे जगत के सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान, शुभ-अशुभ में अपने दृष्टाभाव से विचलित नहीं होते। ऐसे दृष्टाभाव में स्थित होने का प्रयत्न करना और अभ्यास करते-करते अपने दृष्टाभाव में स्थित हो जाना ही उनका पूजन करना है। उन्होंने खून पसीना एक करके जगत को आसक्ति से छुड़ाने की कोशिश की है। हमारे सामाजिक व्यवहार में, त्यौहारों में, रीत-रिवाजों में कुछ-न-कुछ ऐसे संस्कार डाल दिये कि अनंत काल से चली आ रही मान्यताओं के परदे हटें और सृष्टि को ज्यों-का-त्यों देखते हुए सृष्टिकर्ता परमात्मा को पाया जा सके। उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए ऋषियों का पूजन करना चाहिए, ऋषिऋण से मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 1999, पृष्ठ संख्या 13,14 अंक 81

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