Monthly Archives: October 1999

संतों का संग अमोघ होता है


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

जब-जब हम ईश्वर एवं गुरु की ओर खिंचते हैं, आकर्षित होते हैं तब-तब मानों कोई-न-कोई सत्कर्म हमारा साथ देते हैं और जब-जब हम दुष्कर्मों की ओर धकेले जाते हैं तब-तब मानों हमारे इस जन्म अथवा पुनर्जन्म के दूषित संस्कार अपना प्रभाव छोड़ते हैं। अब देखना यह है कि हम किसकी ओर जाते हैं ? हम पाप की ओर झुकते हैं कि पुण्य की ओर ? संत की ओर झुकते हैं कि असंत की ओर ? जब तक आत्मज्ञान नहीं होता तब तक संग का रंग लगता रहता है। संग के प्रभाव से साधु असाधु बन जाता है एवं असाधु भी साधु हो जाता है।

किया हुआ भगवान का स्मरण कभी व्यर्थ नहीं जाता। किया हुआ ध्यान-भजन, किये हुए पुण्यकर्म हमें सत्कर्मों की ओर ले जाते हैं। इसी प्रकार किये हुए पापकर्म, हमारे अंदर के अनंत जन्मों के पाप-संस्कार हमें इस जन्म में दुष्कृत्य की ओर ले जाते हैं। फिर भी वे ईश्वर हमें कभी-न-कभी जगा देते हैं जिसके फलस्वरूप पाप के बाद हमें पश्चाताप होता है और वैराग्य आता है। उसी समय यदि हमें कोई सच्चे संत मिल जायें, किन्हीं सदगुरु का सान्निध्य मिल जाय तो फिर हो जाये बेड़ा पार।

स्वार्थ, अभिमान एवं वासना के कारण हमसे पाप तो खूब हो जाते हैं लेकिन संतों का संग हमें पकड़-पकड़कर, पाप में से खींचकर भगवान के ध्यान में ले जाता है। हजार-हजार असंतों का संग होता है, हजार-हजार झूठ बोलते हैं फिर भी एक बार का सत्संग दूसरी बार और दूसरी बार का सत्संग तीसरी बार सत्संग करा देता है। ऐसा करते-करते संतों का संग करने वाले एक दिन स्वयं संत के ईश्वरीय अनुभव को अपना अनुभव बना लेने में सफल हो जाते हैं।

…तो मानना पड़ेगा कि किया हुआ संग चाहे पुण्य का संग हो या पाप का, असंत का संग हो या संत का, उसका प्रभाव जरूर पड़ता है। फर्क केवल इतना होता है कि संत का संग गहरा असर करता है, अमोघ होता है जबकि असंत का संग छिछला असर करता है। पापियों के संग का रंग जल्दी लग जाता है लेकिन उसका असर गहरा नहीं होता है, जबकि संतों के संग का रंग जल्दी नहीं लगता और जब लगता है तो उसका असर गहरा होता है। पापी व्यक्ति इन्द्रियों में जीता है, भोगों में जीता है, उसके जीवन में कोई गहराई नहीं होती इसलिए उसके संग का रंग गहरा नहीं लगता। संत जीते हैं सूक्ष्म से सूक्ष्म परमात्मतत्त्व में और जो चीज जितनी सूक्ष्म होती है उसका असर उतना ही गहरा होता है। जैसे, पानी यदि जमीन पर गिरता है तो जमीन के अंदर चला जाता है क्योंकि जमीन की अपेक्षा वह सूक्ष्म होता है। वही पानी जमीन में गर्मी पाकर वाष्पीभूत हो जाये, फिर चाहे जमीन के ऊपर आर.सी.सी. बिछा दो तो भी पानी उसे लाँघकर उड़ जायेगा। ऐसे ही सत्संग व्यर्थ नहीं जाता क्योंकि संत अत्यंत सूक्ष्म परमात्मतत्त्व में जगे हुए होते हैं। हमारे घर की पहुँच हमारे गाँव तक होती है, गाँव की पहुँच राज्य तक होती है, राज्य की पहुँच राष्ट्र तक, राष्ट्र की पहुँच दूसरे राष्ट्र तक होती है किन्तु संतों की पहुँच… इस पृथ्वी को तो छोड़ो, ऐसी कई पृथ्वियों, कई सूर्य एवं उसके भी आगे अत्यन्त सूक्ष्म जो परमात्मा है, जो इन्द्रियातीत, लोकातीत, कालातीत है, जहाँ वाणी जा नहीं सकती, जहाँ से मन लौट आता है उस परमात्मपद, अविनाशी आत्म तक होती है। यदि हमें उनके संग का रंग लग जाये तो फिर हम किसी भी लोक-लोकान्तर में, देश-देशान्तर में हों या इस मृत्युलोक में हों, सत्संग के संस्कार हमें उन्नति की राह पर ले ही जायेंगे।

अपनी करनी से ही हम संतों के नजदीक या उनसे दूर चले जाते हैं। हमारे कुछ निष्कामता के, सेवाभाव के कर्म होते हैं तो हम भगवान और संतों के करीब जाते हैं। संत-महापुरुष हमें बाहर से कुछ न देते हुए दिखें किन्तु उनके सान्निध्य से हृदय में जो सुख मिलता है, जो शांति मिलती है, जो आनंद मिलता है, जो निर्भयता आती है वह सुख, वह शांति, वह आनंद विषयभोगों में कहाँ ?

एक युवक एक महान संत के पास जाता था। कुछ समय बाद उसकी शादी हो गई, बच्चे हुए। फिर वह बहुत सारे पाप करने लगा। एक दिन वह रोता हुआ अपने गुरु के पास आया और बोलाः “बाबाजी ! मेरे पास सब कुछ है-पुत्र है, पुत्री है, पत्नी है, धन है लेकिन मैं अशांत हो गया हूँ। शादी के पहले जब आता था तो जो आनंद व मस्ती रहती थी, वह अब नहीं है। लोगों की नजरों में तो लक्षाधिपति हो गया लेकिन बहुत बेचैनी रहती है बाबाजी !”

बाबाजीः “बेटा ! कुछ सत्कर्म करो। प्राप्त संपत्ति का उपयोग भोग में नहीं, अपितु सेवा और दान-पुण्य में करो। जीवन में सत्कृत्य कर करने से बाह्य वस्तुएँ पास में न रहने पर भी आनंद, चैन और सुख मिलता है और दुष्कृत्य करने से बाह्य ऐशो-आराम होने पर भी सुख-शांति नहीं मिलती है।”

हम सुखी हैं कि दुःखी हैं, पुण्य की ओर बढ़ रहे हैं कि पाप की ओर बढ़ रहे हैं-यह देखना हो और लंबे चौड़े नियमों एवं धर्मशास्त्रों को न समझ सकें तो इतना तो जरूर समझ सकेंगे कि हमारे हृदय में खुशी, आनंद और आत्मविश्वास बढ़ रहा है कि घट रहा है। पापकर्म हमारा मनोबल तोड़ता है। पापकर्म हमारी मन की शांति खा जायेगा, हमें वैराग्य से हटाकर भोग में रुचि करायेगा जबकि पुण्यकर्म हमारे मन की शांति बढ़ाता जायेगा, हमारी रुचि परमात्मा की ओर बढ़ाता जायेगा।

जो लोग स्नान-दान, पुण्यादि करते हैं, सत्कर्म करते हैं उनको संतों की संगति मिलती है। धीरे-धीरे संतों का संग होगा, पाप कटते जायेंगे और सत्संग में रूचि होने लगेगी। सत्संग करते-करते भीतर के केन्द्र खुलने लगेंगे, ध्यान लगने लगेगा।

हमें पता ही नहीं है कि एक बार के सत्संग से कितने पाप-ताप क्षीण होते हैं, अंतःकरण कितना शुद्ध हो जाता है और कितना ऊँचा उठ जाता है मनुष्य ! यह बाहर की आँखों से नहीं दिखता। जब ऊँचाई पर पहुँच जाते हैं तब पता चलता है कि कितना लाभ हुआ ! हजारों जन्मों के माता-पिता, पति-पत्नी आदि जो नहीं दे सके, वह हमको संत सान्निध्य से हँसते खेलते मिल जाता है। कोई-कोई ऐसे पुण्यात्मा होते हैं जिनको पूर्वजन्म के पुण्यों से इस जन्म में जल्दी गुरु मिल जाते हैं। फिर ब्रह्मज्ञानी संत का सान्निध्य भी मिल जाता है। ऐसा व्यक्ति तो थोड़े से ही वचनों से रँग जाता है। जो नया है वह धीरे-धीरे आगे बढता है। जिसके जितने पुण्य होते हैं, उस क्रम से वह प्रगति करता है।

जैसे वृक्ष तो बहुत हैं लेकिन चंदन के वृक्ष कहीं-कहीं पर ही होते हैहं। ऐसे ही मनुष्य तो बहुत हैं लेकिन ज्ञानी महापुरुष कहीं-कहीं पर ही होते हैं। ऐसे ज्ञानवानों के संग से हमारा चित्त शांत और पवित्र होता है एवं धीरे-धीरे उस चित्त में आत्मज्ञान का प्रवेश होता है और आत्मज्ञान पाकर मनुष्य मुक्त हो जाता है। जिस तरह अग्नि में लोहा डालने से लोहा अग्निरूप हो जाता है, उसी तरह संत-समागम से मनुष्य संतों की अनुभूति को अपनी अनुभूति बना सकता है। ईश्वर की राह पर चलते हुए संतों को जो अनुभव हुए हैं, जैसा चिन्तन करके उनको लाभ हुआ है ऐसे ही उनके अनुभवयुक्त वचनों को हम अपने चिंतन का विषय बनाकर इस राह की यात्रा करके अपना कल्याण कर सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1999, पृष्ठ संख्या 5-7 अंक 82

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वाल्मीकिजी द्वारा भगवान को बताये हुए घर


वाल्मीकि जयंतीः 24 अक्तूबर 1999

वनवास के समय भगवान श्रीराम माँ सीता एवं अनुज श्री लक्ष्मणजी के साथ वाल्मीकि जी के आश्रम में आये। महर्षि वाल्मीकिजी ने कन्दमूल-फलादि से उनका आतिथ्य सत्कार किया। तत्पश्चात श्रीराम ने अत्यंत विनम्रतापूर्वक महर्षि वाल्मीकिजी से अपने रहने योग्य स्थान के बारे में पूछा।

महर्षि वाल्मीकि जी श्रीराम की महिमा का वर्णन करते हुए बोलेः “आप पूछते हैं कि मैं कहाँ रहूँ ? परन्तु मैं यह पूछते हुए सकुचाता हूँ कि जहाँ आप न हों, वह स्थान बता दीजिये। फिर मैं आपके रहने के लिए स्थान बताऊँ।”

वाल्मीकि जी के रहस्ययुक्त वचनों को सुनकर श्रीरामजी मुस्कराये। फिर वाल्मीकि जी ने श्रीरामजी को सीता जी एवं लक्ष्मणजीसहित निवास करने के लिए स्थान बतलाये। वाल्मीकिजी ने उन स्थानों का जो वर्णन किया है वह मानवमात्र के लिए अऩुकरणीय है क्योंकि उसमें उन सुन्दर साधनों का वर्णन किया गया है, जिनके द्वारा साधक अपने साध्य तत्त्व को, परमात्मा को अवश्य ही पा सकता है।

वाल्मीकि जी कहते हैं- “जिनके कान समुद्र की भाँति आपकी सुंदर कथारूपी अनेकों सुंदर नदियों से निरंतर भरते रहते हैं, परन्तु कभी पूरे तृप्त नहीं होते, उनके हृदय आपके लिए सुंदर घर हैं।

जिन्होंने अपने नेत्रों को चातक बना रखा है, जो आपके दर्शनरूपी मेघ के लिए सदा लालायित रहते हैं तथा जो बड़ी-बड़ी नदियों, समुद्रों और झीलों का निरादर करते हैं और आपके सौन्दर्यरूपी मेघ के एक बूँद जल से सुखी हो जाते हैं, हे रघुनाथजी ! उन लोगों के हृदयरूपी सुखदायी भवनों में भाई लक्ष्मणजी और सीतासहित आप निवास कीजिये।

आपके यशरूपी निर्मल मानसरोवर में जिनकी जीभ हंसिनी बनी हुई आपके गुणसमूहरूपी मोतियों को चुगती रहती है, हे रामजी, आप उनके हृदय में बसिये।

जिनकी नासिका प्रभु के पवित्र और सुगंधित (पुष्पादि) सुन्दर प्रसाद को नित्य आदर के साथ ग्रहण करती (सूँघती) है और जो आपको अर्पण करके भोजन करते हैं और आपके प्रसाद रूप ही वस्त्राभूषण धारण करते हैं, जिनके मस्तक देवता, गुरु और ब्राह्मण को देखकर बड़ी नम्रता के साथ प्रेमसहित झुक जाते हैं, जिनके हाथ नित्य प्रभुचरणों की पूजा करते हैं और जिनके हृदय में प्रभु का ही भरोसा है दूसरा नहीं तथा जिनके चरण प्रभु के तीर्थों में चलकर जाते हैं, हे राम जी ! आप उनके मन में निवास कीजिये।

जो नित्य आपके रामनामरूप मंत्रराज को जपते हैं और परिवारसहित आपकी पूजा करते हैं, जो अनेकों प्रकार से तर्पण और हवन करते हैं तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर बहुत दान देते हैं तथा हृदय में गुरु को  आपसे भी अधिक बड़ा जानवर सर्वभाव से सम्मान करके उनकी सेवा करते हैं  इऩ सब कर्मों का एकमात्र फल आपके श्रीचरणों की प्रीति ही चाहते हैं उन लोगों के मनरूपी मंदिरों में आप श्रीसीताजी सहित बसिये।

जिनको न काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह है, न लोभ है, न क्षोभ है, न राग है, न द्वेष है और न कपट, दंभ और माया ही है, हे रघुनाथ ! आप उनके हृदय में निवास कीजिये।

जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले हैं, जिन्हें दुःख और सुख तथा प्रशंसा और निन्दा समान हैं, जो विचारकर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं तथा जो जागते-सोते आपकी ही शरण हैं और आपको छोड़कर जिनकी दूसरी कोई गति नहीं है, हे रामजी ! आप उनके मन में बसिये।

जो परायी स्त्री को उसे जन्म देने वाली माता के समान मानते हैं और पराया धन जिन्हें विष से भी भारी लगता है, जो दूसरों की संपत्ति देखकर हर्षित होते हैं और विपत्ति देखकर विशेष रूप से दुःखी होते हैं तथा हे रामजी ! जिन्हें आप प्राणों के समान प्यारे हैं उनके मन आपके रहने योग्य शुभ भवन हैं।

हे तात ! जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता और गुरु सब कुछ आप ही हैं, उनके मनरूपी मंदिर में आप दोनों भाई सीतासहित निवास कीजिये।

जो अवगुणों को छोड़कर सबके गुणों को ग्रहण करते हैं, ब्राह्मण और गौ के लिए संकट सहते हैं, नीति निपुणता में जिनकी जगत में मर्यादा है, उनका सुंदर मन आपका घर है।

जो गुणों को आपका और दोषों को अपना समझते हैं, जिन्हें सब प्रकार से आपका ही भरोसा है और रामभक्त जिन्हें प्यारे लगते हैं उऩके हृदय में आप सीतासहित निवास कीजिये।

जाति, पाँति, धन, धर्म, मान-बड़ाई, प्यारा परिवार और सुख देने वाला घर-इन सबको छोड़कर जो केवल आपको ही हृदय में धारण किये रहते हैं, हे रघुनाथजी ! आप उनके हृदय में रहिये।

स्वर्ग, नरक और मोक्ष जिनकी दृष्टि में समान हैं क्योंकि वे सर्वत्र आपको ही देखते हैं और जो कर्म, वचन और मन से आपके दास हैं, हे रामजी ! आप उनके हृदय में डेरा डालिये।

जिनको कभी कुछ भी नहीं चाहिए और जिनका आपसे स्वाभाविक प्रेम है, आप उनके मन में निरन्तर निवास कीजिये, वह आपका अपना घर है।”

इस प्रकार वाल्मीकिजी ने श्रीरामजी को निवास स्थान बताये। वास्तव में यदि कोई वाल्मीकि जी द्वारा दर्शाये गये संकेतों के अनुसार अपना हृदय बना ले तो उस हृदय में हृदयेश्वर परमात्मा अवश्य निवास करने लगें।

वाल्मीकि जी के तीन अवतार हुए। ʹश्रीयोगवाशिष्ठमहारामायणʹ के ʹकागभुशुण्डी-वशिष्ठ संवादʹ में वर्णन आता है। जो लोग वाल्मीकि जी के नाम या और किसी नाम से समाज और संत को बीच विद्रोह फैलाकर आगेवानी चाहते हैं उनको वाल्मीकि जी के वचन ठीक से समझने चाहिए। वालिया में से वाल्मीकि बने वे वाल्मीकि या तीन बार वाल्मीकि आये वे वाल्मीकि ? आप कौन-से वाल्मीकि को मानकर विद्रोह फैलाना चाहते हैं ? कृपा करके आप महापुरुष के होकर महापुरुषों के प्रति स्नेह रखें और उनके अंतःकरण को समझें। विद्रोह करके या करवाके अपने को, जाति को, समाज को खोखला न बनायें।

सभी समाजों की गहराई में राम जी, वाल्मीकि जी की आत्मा है। वाल्मीकि जी की समझ कितनी ऊँची है ! उनकी समझ सभी के लिए है, उनका ज्ञान सभी के लिए है। उनके ज्ञान का आदर करें, उनकी प्रेमदृष्टि का आदर करें। उनका नाम आगे रखकर विद्रोह का…..

भगवान सबको सदबुद्धि दे। देशवासी परस्पर मिलजुलकर रहें। सभी वर्ग, सभी जातियाँ इस विराट भारत माँ की संतानें हैं।

तुझमें राम मुझमें राम, सबमें राम समाया है।

कर लो सभी से प्यार जगत में, कोई नहीं पराया है।।

एक ही माँ के बच्चे हम सब, एक ही पिता हमारा है।

फिर भी ना जाने किस मूरख ने, लड़ना तुम्हें सिखाया है।।

भिड़ना-भिड़ाना तुम्हें सिखाया है।

बदला जमाना तुम भी बदलो, कलह के कृत्य छोड़ो…

प्रेम से समजा को जोड़ो….

तुझमें राम मुझमें राम, सबमें राम समाया है।

कर लो सभी से प्यार जगत में, कोई नहीं पराया है।।

क्यों भैया ! समझ गये न !

हाथ में जल लें और आज से ही संकल्प करें कि ऐसे विद्रोह में आयेंगे नहीं और विद्रोह फैलायेंगे नहीं। ૐ…..ૐ…..ૐ…. शांति….

जय वाल्मीकि ऋषि

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1999, पृष्ठ संख्या 19-21 अंक 82

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मुक्ति कैसे पायें ?


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

असमाधेरविक्षेपान्न मुमुक्षर्न चेतरः।

निश्चित्य कल्पितं पश्यन्ब्रह्मैवास्ते महाशयः।।

ʹज्ञानी पुरुष समाधिरहित होने के कारण मुमुक्षु नहीं है और विक्षेप (द्वैतभ्रम) के अभाव के कारण उसके विपरीत अर्थात् बद्ध भी नहीं है परंतु निश्चयपूर्वक इस सब जगत को कल्पित समझता हुआ ब्रह्मवत् स्थित रहता है।ʹ (अष्टावक्रगीताः 18.28)

अष्टावक्र मुनि कहते हैं कि ज्ञानी महापुरुष को न समाधि है, न विक्षेप है, न मुमुक्षा है। मुमुक्षा उसे प्राप्त होती है जिसे छूटना होता है। ज्ञानी को न छूटना है न बँधना है।

छूटने की चाह भी तो एक इच्छा है। हालाँकि धन की इच्छा, मान की इच्छा, नश्वर भोगों की इच्छा से तो भगवान की भक्ति की इच्छा अच्छी है। फिल्म देखने की इच्छा से तो भजन कीर्तन में जाने की इच्छा ठीक है लेकिन है तो इच्छा ही। फिल्म देखकर मनुष्य थोड़ा रजस-तमस का मजा लेता है तो कीर्तन करके थोड़ा सात्त्विक मजा लेता है लेकिन मजा जहाँ से आता है वहाँ तो उसकी अभी गति नहीं हुई है।

यह बात ठीक है कि अन्य इच्छाओं को मिटाने के लिए मुक्ति की इच्छा की जाये, किन्तु जब मनुष्य ऊँचा उठता है तो एक ऐसी घड़ी आती है कि मुक्ति की इच्छा भी उसे बाधक लगने लगती है। मुक्ति की इच्छा भी जब छूट जाती है तब मनुष्य परम पद पाने का मोक्ष पाने का अधिकारी बनता है।

मुक्ति की इच्छा भी तो भविष्य की इच्छा ही है और जो भविष्य में सुखी होने की इच्छा रखते हैं, भविष्य में भगवान से मिलने की इच्छा करते हैं वे तो मानों संसार की इच्छा को ही दृढ़ करते हैं। जो वर्त्तमान में ही इच्छाओं को छोड़ देते हैं, उनके हृदय में उसी समय परमात्म-प्रेम, परमात्म-रस छलकने लगता है।

मेरे गुरुदेव से किसी व्यक्ति ने प्रश्न किया किः “मुक्ति कैसे पायें ? संसार की इच्छाएँ कैसे छूटें ?”

गुरुदेव बोलेः “मान लो एक कुआँ है जिसमें काई हो जाने के कारण गंदगी हो गयी है। अब कोई पूछे कि ʹइस कुएँ का पानी तो काम नहीं आ सकता। इसको काम में कैसे लाया जाये ?ʹ

जवाब होगाः “मछलियाँ डाल दो।”

काई को तो मछलियाँ साफ कर देती हैं किन्तु धीरे-धीरे मछलियों का परिवार बढ़ जाता है। फिर कछुआ डाल दो। कछुआ धीरे मछलियों को साफ कर देगा। फिर कछुए को भी निकाल दो तो पानी निर्मल हो जायेगा।

ऐसे ही सुख लेने की इच्छाएँ हमें चंचल कर देती हैं, विक्षिप्त कर देती हैं। अतः उस विक्षेप को हटाने के लिए, चंचलता और आसक्ति को हटाने के लिए, सुख लेने की इच्छा हटाने के लिए सुख देने की इच्छा डाल दो तो संसार की विषय-विकारों रूपी काई को साफ करने में मदद मिलेगी और भीतरी सुख उभरने लगेगा।”

वैसे भी सुख लेने की इच्छा हमें वास्तव में दुःख ही देती हैं जबकि सुख देने की इच्छा से आनंद आने लगता है। सेवा लेने वाले को उतना आनंद नहीं आता जितना सेवा करने वाले को आता है। भोजन करने वाले को उतना आनंद नहीं आता, जितना भोजन कराने वाले को आता है। दान लेने वाले को उतना आनंद नहीं आता, जितना उत्साह से दान देने वाले को आता है। यह तो कईयों का अनुभव है।

सेवा करके सुखी होना यह आदर्श भोक्ता के लक्षण हैं जबकि सेवा लेकर सुखी होना यह बीमार भोक्ता के लक्षण हैं… लेकिन हैं दोनों भोक्ता ही। अभी परम शांति से वे दोनों दूर हैं। सेवा करते-करते अन्तःकरण की शुद्धि होने लगती है और उसमें लीन होने से शांति प्राप्त होती है। शांति दोषों की निवर्तक व प्रसाद की जननी है। वह परमात्मशांति ही सार है। परमात्मशांति जहाँ से प्रकट होती है उस परमात्मभाव में जाग जाना परम सार है।

फिर मनुष्य के मन में जिज्ञासा उठने लगती है कि ʹमैं कौन हूँ ? जगत क्या है ? भगवान कैसे हैं ? मुक्ति क्या है ?ʹ आदि। ऐसे प्रश्न जिसके हृदय में अपने-आप उठने लगे तो समझना चाहिए कि उसका भजन फलित हो रहा है। उसमें मोक्ष की आकांक्षा जाग उठती है। फिर साधक देखने लगता है कि ʹकौन सी इच्छा आयी ? इच्छा पूरी हुई तो क्या ?ʹ इस प्रकार उसकी सात्त्विक इच्छाएँ भी छूटने लगती हैं।

सब इच्छाओं को हटाते-हटाते अंत में मुक्ति की इच्छा आये या भगवद्-दर्शन की इच्छा आये तो उसको भी हटा दो। फिर देखो, कितनी शांति और कितना आनंद आपके हृदय में अपने-आप प्रगट होने लगता है ! फिर तो नानकजी की भाषा में आपकी ऐसी स्थिति हो जायेगी किः

भोग-जोग जाके नहीं, वैरी मीत समान।

कह नानक सुन रे मना, मुक्त ताहि ते जान।।

मलिन वासनाओं को हटाने के लिए शुद्ध वासनाओं की आवश्यकता होती है। जगत के आकर्षण और चिंतन से बचने के लिए भगवान के भजन-कीर्तन की, भगवद्-चिंतन की आवश्यकता है लेकिन जब आप वासनाओं को, इच्छाओं को महत्त्व देना बंद कर देते हो, मन से संबंध-विच्छेद कर लेते हो तो फिर शुभ वासनाओं की, शुभ इच्छाओं की भी कोई जरुरत नहीं रह जाती।

तुच्छ इच्छा वासनाओं का  प्रभाव आप पर तब तक ही रहता है जब तक आप सावधान नहीं रहते हो। आप सावधान हो गये तो फिर वासनाओं का प्रभाव भी नष्ट हो जायेगा। वासनाएँ आती हैं मन में और आप असावधान रहते हैं तो उनकी पूर्ति में लग जाते हैं। यदि आप सावधान हो गये तो आप उन्हें पूरी करने में नहीं लग जायेंगे, बल्कि थोड़ा विचार करेंगे। अतः इच्छाओं को मिटाने के लिए सतत् मन का निरीक्षण करते रहो। उसे तुच्छ विषय-विकारों की ओर जाने से रोकते रहो। जैसे पंखा घूमता है किन्तु यदि आप बटन बंद कर दें, विद्युत संपर्क काट दें तो उस पंखे का घूमना कब तक जारी रहेगा ? ऐसे ही आप मन का संबंध काट दोगे तो इच्छाएँ भी कोई प्रभाव नहीं रख सकेंगी।

आप जब मन को सत्ता देते हो तभी वासनाएँ आपको दबा देती हैं। मन को सत्ता देने से, स्वीकृति देने से ऐहिक जगत के नश्वर भोग आप पर हावी हो जाते हैं जबकि मन के द्रष्टा बनने पर आपकी जीत हो जाती है। इसीलिए अष्टावक्र मुनि कहते हैं-

ʹमहापुरुष लोग सारे जगत को कल्पित जानते हैं। उनको न समाधि है न विक्षेप है, न मुमुक्षा है न अन्य कुछ है। वे तो समस्त दृश्य जगत को निश्चित रूप से कल्पित जानकर ब्रह्म में स्थित हो जाते हैं।ʹ

यह जगत कल्पित है। जिस वक्त जैसी कल्पना होती है उस वक्त जगत वैसा ही लगता है। जिन्होंने थोड़ा सा भी सत्संग सुना है उनके मन पर दूसरे की कल्पना का अधिक प्रभाव नहीं पड़ता। …..और यदि वह अपनी कल्पना से आप पार हो जाये तो पूरे विश्व का भी उसके चित्त पर प्रभाव नहीं पड़ता है। वह ʹविश्वजितʹ कहलाता है।

ऐसा नहीं कि किसी की संस्था को देखकर कोई प्रभावित हो जाये कि हम भी ऐसी ही संस्था बनायें, किसी के सौन्दर्य को देखकर आप भी सुन्दर दिखना चाहे, किसी की गाड़ी देखकर खुद भी वैसी ही गाड़ी खरीदने की सोचने लगे। ना ना…. जैसे हर फूल अपनी जगह पर अपने ही ढंग से, सहज रूप से खिलता है, वैसे ही निर्वासनिक पद में आने पर आपसे सहज स्वाभाविक रूप से जो होगा वह बहुत अच्छा होगा। किसी के महल-बँगले, गाड़ी-वाड़ी, बगीचा देखकर वैसा ही बनाने या लेने की इच्छा हो गयी तो वह सब न मिलने पर मन में खटकेगा और मिल गया तो उतना सुख नहीं मिलेगा जितना निर्वासनिक होने पर मिलता है। उन भोगों से प्राप्त सुख तो क्षणिक होगा जबकि निर्वासनिक होने पर सुख का दरिया आपके भीतर ही लहरा उठेगा।

हकीकत में परम पद पाना कठिन नहीं है, लेकिन ये इच्छाएँ ही मनुष्य को जन्म-मरण के चक्र में घुमाती रहती हैं। हाँ, कई बार ऐसा भी होता है कि तुच्छ इच्छाओं की जगह कुछ अच्छी इच्छाएँ उठती हैं, परमात्म-प्राप्ति की भी इच्छा उठती है किन्तु है तो इच्छा ही। तुच्छ इच्छाएँ लोहे की जंजीर हैं तो ये अच्छी इच्छाएँ सोने की जंजीर हैं।ʹ अभी यहाँ ईश्वर नहीं हैं, हिमालय में जाऊँगा तब मिलेंगे….. अभी तो धन कमा लूँ फिर ʹडिपोजिटʹ रखकर पेंशन मँगाकर आराम से भजन करूँगा….ʹ यदि ऐसा सोचने लगे तो समझो आपने मुक्ति के द्वार बंद कर दिये। अतः इच्छाओं का त्याग करो।

इच्छाओं का त्याग करते-करते एक ऐसी ऊँची अवस्था आती है जहाँ समाधि की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। रोग हो तब तक औषधि की आवश्यकता पड़ती है और रोग ही न रहे तो औषधि की कोई आवश्यकता ही नहीं है। ऐसे ही जिसकी वासनाएँ पूर्णतः निर्मूल हो गयीं, जिसने निर्वासनिक पद को पा लिया उसके लिए समाधि को भी आवश्यता नहीं रह जाती।

अष्टावक्रजी महाराज इसीलिए कहते हैं- “महाशय ज्ञानी को न समाधि है न विक्षेप है, न मुमुक्षा है न अन्य कुछ। समस्त दृश्य जगत को निश्चय ही कल्पित जानकर वह ब्रह्म में स्थित हुआ है।”

इसी बात को श्री भोलेबाबा ने ʹवेदान्त छन्दावलीʹ में इस प्रकार कहा हैः

करता समाधि है नहीं, जिसमें नहीं विक्षेप है।

नहीं मोक्ष ही है चाहता, रहता सदा निर्लेप है।।

विश्व कल्पित जानकर, नहीं चित्त को भटकाय है।

संलग्न रहता ब्रह्म में, सो धीर शोभा पाय है।।

जिसका महान् आशय है, उसे ʹमहाशयʹ कहा जाता है। महान् आशय है अपने जीवन तत्त्व को जानना। जो अपने ऊपर किसी भी प्रकार की इच्छा वासनाओं की रेखा न खींचे अथवा खींची हुई रेखा को जिसने हटा दिया है, वह ʹमहाशयʹ है। ऐसा महाशय ही समस्त दृश्य जगत को कल्पनामात्र मानकर ब्रह्मस्वरूप में स्थित होता है।

हे मानव ! तू भी उठ, जाग और समस्त इच्छा वासनाओं को त्यागकर एक बार निर्वासनिक पद पाकर तो देख ! फिर मनुष्य तो क्या, समस्त यक्ष, गंधर्व, किन्नर तेरे चरणों में सिर झुकाने को तैयार हो जायेंग… देवता भी तेरे दर्शन कर अपना भाग्य बनायेंगे…. ऐसा तू महिमावान् हो जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1999, पृष्ठ संख्या 2-5, अंक 82

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