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दान का रहस्य


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन

स्नान-दान आदि पुण्य कर्म हैं किन्तु दान करते समय दाता अगर आनंदित नहीं हुआ, उसके भीतर शुभ का भाव उदित नहीं हुआ तो दान का सुखद फल नहीं मिलता। जो दान जबरदस्ती करवाया गया हो, झिझकते हुए किया गया हो, दबास से कराया गया हो-स्वर्ग में भी उसका कोई सुखद फल नहीं मिलता।

कोई नेता आकर किसी सेठ से कहेः “अरे भाई ! दान करो।”

सेठ कहेः “लिखो, दो हजार।”

“नहीं नहीं, सेठ ! आपका तो 11 हजार लिखेंगे।”

सेठ का मन में होता है कि ʹयह नेता तो जरा ऐसा ही। अगर पाँच नहीं दूँगा तो कहीँ आयकरवालों से छापा न मरवा दे !ʹ अतः वह बोलता हैः “साहब ! ऐसा करें कि दो नहीं, पाँच हजार लिख लें।”

सेठ बाहर से तो पाँच की उदारता दिखाता है किन्तु भीतर से सुखी नहीं होता। उसे दान भाव का एहसास नहीं होता, वरन् ऐसा होता है कि ʹचलो, मुसीबत टली।ʹ

जब दान अपनी ओर से दिया जाता है जैसे किसी दरिद्र को उसकी आवश्यकता की वस्तु का दान दे दिया, किसी रोगी को औषधि का दान दे दिया, किसी थके-हरे, निराश व्यक्ति को सान्त्वना का दान दे दिया, अभक्त को भगवान की भक्ति का दान दिलवा दिया…. तब ऐसे दान का भी यदि अंतःकरण में आनंद आता है तो ठीक, अन्यथा ऐसे दान का भी ज्यादा महत्त्व नहीं है।

इस प्रकार दान का भी अपना एक रहस्य है। इस संदर्भ में शास्त्रों में एक प्रसंग आता हैः

एक बार देवर्षि नारद महीसागर संगम में स्नान हेतु पधारें। उसी समय वहाँ बहुत से ऋषि-मुनि भी आ पहुँचे। नारदजी ने उनसे पूछाः “महात्माओं ! आप लोग कहाँ से पधारे हैं ?”

उन्होंने बतायाः “मुने ! हम लोग सौराष्ट्र देश में रहते हैं, जहाँ के राजा धर्मवर्मा हैं। एक बार राजा धर्मवर्मा ने दान के तत्त्व को समझने के लिए बहुत वर्षों तक तपस्या की। तब आकाशवाणी ने उन्हें निम्नांकित श्लोक सुनायाः

द्विहेतुः षडधिष्ठानं षडंगं च द्विपाकयुक्।

चतुष्प्रकारं त्रिविधं त्रिनाशं दानमुच्यते।।

ʹदान के दो हेतु, छः अधिष्ठान, छः अंग, दो फल, चार प्रकार, तीन भेद एवं तीन विनाश साधन हैं।ʹ

यह श्लोक कहकर आकाशवाणी मौन हो गयी। राजा के पूछने पर भी आकाशवाणी ने उसका अर्थ नहीं बतलाया तब राजा ने ढिंढोरा पिटवाकर यह घोषणा करवायी किः ʹजो इस श्लोक की ठीक-ठीक व्याख्या करेगा, उसे मैं सात लाख गौएँ, उतनी ही स्वर्णमुद्राएँ तथा सात गाँव दूँगा।ʹ हम सब वहीं से आ रहे हैं। श्लोक का अर्थ दुर्बोध होने से कोई उसकी व्याख्या नहीं कर सकता है।”

नारदजी यह सुनकर बड़े प्रसन्न हुए। वे एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप लेकर धर्मवर्मा के पास पहुँचे एवं बोलेः

“राजन ! मुझसे उस श्लोक की व्याख्या सुनिये एवं उसके बदले में जो देने के लिए ढिंढोरा पिटवाया है, उसकी सत्यता प्रमाणित कीजिये।”

राजाः “ब्राह्मण ! ऐसी बात तो बहुत-से ब्राह्मण कह चुके किन्तु किसी ने भी उसका वास्तविक अर्थ नहीं बताया। दान के दो हेतु कौन-से हैं ? छः अधिष्ठान एवं छः अंग  कौन से हैं ? दो फल, चार प्रकार, तीन भेद एवं तीन विनाश-साधन कौन-से हैं ? इन सात प्रश्नों के उत्तर यदि आप ठीक-ठीक बतला सकें तो मैं आपको सात लाख गौएँ, सात लाख स्वर्णमुद्राएँ एवं सात गाँव दूँगा।”

ब्राह्मण वेशधारी नारदजी बोलेः “राजन् ! दान के दो हेतु हैं – सामर्थ्य और श्रद्धा। श्रद्धा है और धन नहीं है तो क्या दान दिया जा सकता है ? ऐसे ही सामर्थ्य है पर श्रद्धा नहीं है, तब भी दान नहीं दिया जा सकता।

धर्म, अर्थ, काम, लज्जा, हर्ष और भय-ये दान के छः अधिष्ठान कहे जाते हैं। जो दान सत्पात्र को, सत्प्रवृत्ति के लिए भगवान का समझकर दिया जाये-वह दान उत्तम है। उससे धर्म लाभ होता है।

जो दान इस भाव से दिया जाये कि यहाँ देंगे तो वहाँ (परलोक में) मिलेगाʹ – यह अर्थयुक्त दान है।

कोई कामना पूर्ण हुई और दान कर दिया-यह कामयुक्त दान है। जैसे ʹमेरा इतना काम हो जाये तो मैं बूंदी के सवा मन लड्डू चढ़ाऊँगा।ʹ जिस दान में यह भाव हो कि ʹकई लोग कर रहे हैं। हम कुछ नहीं देंगे तो ठीक नहीं। चलो, कुछ दे देवें।ʹ यह लज्जायुक्त दान है। यदि दान नहीं देंगे तो पता नहीं, यह हमारा अहित न कर दें – इस भाव से जो दान दिया जाता है, वह भययुक्त दान है।

किसी भाट-चारण ने प्रशंसा कर दी और हर्षित होकर उसे कुछ दे दिया – इस प्रकार दान हर्षयुक्त दान कहलाता है।

इस प्रकार धर्म, अर्थ, काम, लज्जा, भय और हर्ष – ये दान के छः अधिष्ठान हैं। इन्हीं के कारण दान होता है।

दान के छः अंग हैं-1. दाता अर्थात् दान करने वाला। 2.  प्रतिगृहता अर्थात् दान लेने वाला। 3. शुद्धि अर्थात् अपनी शुद्ध कमाई का। कसाई, वेश्या आदि का धन अशुद्ध माना जाता है। 4. धर्मयुक्त देय वस्तु अर्थात् पवित्र वस्तु। 5. देश अर्थात् पवित्र स्थान। 6. काल अर्थात् पवित्र समय।

इहलोक एवं परलोक – दान के ये दो फल हैं।

ध्रुव, त्रिक, काम्य और नैमित्तिक – ये दान के चार प्रकार हैं। कुआँ-पोखरा खुदवाना, बगीचा लगाना आदि जो सबके काम आये वह ध्रुव है।

नित्य दान ही त्रिक है। संतान, विजय, स्त्री आदिविषयक इच्छापूर्ति के लिए दिया गया दान काम्य है। ग्रहण-सक्रान्ति आदि पुण्य अवसरों पर दिया गया दान नैमित्तिक  है।

उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ – ये दान के तीन भेद हैं।

दान देकर पछताना, कुपात्र को दान देना, बिना श्रद्धा के दान देना अर्थात् पश्चाताप, कुपात्र और अश्रद्धा – ये दान के तीन नाशक हैं।

राजन ! इस प्रकार मैंने तुम्हें तुम्हारे सात प्रश्नों के जवाब के रूप में दान का माहात्म्य सुना दिया।”

प्रश्नों के समुचित उत्तर पाकर धर्मवर्मा अत्यन्त चकित हुआ एवं बोलाः “जिस प्रश्न को बड़े-बड़े विद्वान तक न सुलझा पाये, उन्हें आपने बड़ी सरलता से बता दिया। वृद्ध ब्राह्मण के वेश में छुपे हुए आप कौन हैं ? कृपा आप अपने असली स्वरूप में प्रगट होइए।”

तब देवर्षि नारद अपने असली स्वरूप में आकर बोलेः “मैं देवर्षि नारद हूँ। मृत्युलोक के ब्राह्मण तुम्हें जवाब नहीं दे सके इसीलिए बूढ़े ब्राह्मण का रूप बनाकर मैं स्वयं उत्तर देने आया।”

राजा ! मेरा अहोभाग्य ! अब आप ये सात लाख गौएँ, सात लाख मुद्राएँ एवं सात गाँव लेने की कृपा कीजिये।”

देवर्षि नारदः “ठीक है। तुम्हारा संकल्प मैं ले लेता हूँ। अभी इन चीजों को मैं तुम्हारे पास ही धरोहर के रूप में छोड़ रहा हूँ। आवश्यकता पड़ने पर ले लूँगा।

ऐसा कहकर नारद जी रैवतक पर्वत पर चले गये और विचारने लगे कि मैंने भूमि, गौएँ एवं स्वर्णमुद्राएँ पा लीं, पर अब योग्य ब्राह्मण कहाँ मिले जिसे मैं ये सब दान दे सकूँ ? यह सोचकर उन्होंने बारह प्रश्न बनाये और उन्हें ही गाते हुए वे ऋषियों के आश्रमों पर विचरने लगे। नारदजी उन प्रश्नों को पूछते हुए सारी पृथ्वी घूम आये, पर कहीं उन प्रश्नों का समाधान न हुआ। योग्य ब्राह्मण न मिलने के कारण नारदजी बड़े दुःखी हुए और हिमालय पर्वत पर एकान्त में बैठकर विचारने लगे। सोचते-सोचते अकस्मात् उनके ध्यान में आया कि ʹमैं कलापग्राम तो गया ही नहीं। वहाँ 84 हजार विद्वान ब्राह्मण नित्य तपस्या करते हैं। सूर्य-चन्द्र वंश एवं सदब्राह्मणों के पुनः प्रवर्त्तक देवापि और मरूत वहीं रहते हैं।ʹ यों विचारकर वे आकाशमार्ग से कलापग्राम पहुँचे। वहाँ उन्होंने बड़े तेजस्वी, विद्वान एवं कर्मनिष्ठ ब्राह्मणों को देखा। उन्हें देखकर नारदजी बड़े प्रसन्न हुए। ब्राह्मण जहाँ बैठे शास्त्र-चर्चा कर रहे थे, वहाँ जाकर नारदजी ने कहाः “आप लोग यह क्या काँव-काँव कर रहे हैं ? यदि कुछ समझने की शक्ति है तो मेरे कठिन प्रश्नों का समाधान कीजिये।”

यह सुनकर ब्राह्मण बड़े अचंभे में पड़ गये और बोलेः “वाह ! सुनाओ तो जरा अपने प्रश्नों को।”

नारदजी ने कहाः “मेरे बारह प्रश्न इस प्रकार हैं- 1 मातृका क्या और कितनी हैं ? 2 . पच्चीस वस्तुओं से बना अदभुत गृह क्या है ? 3. अनेक रूपोंवाली स्त्री को एक रूपवाली बनाने की कला का ज्ञान किसको है ? 4. संसार में विचित्र कथा की रचना कौन जानता है ? 5. समुद्र में बड़ा ग्राह कौन है ? 6. आठ प्रकार के ब्राह्मण कौन हैं ? 7. चार युगों के आरम्भ दिन कौन से हैं ? 8. चौदह मन्वन्तरों का आरम्भ किस दिन हुआ ? 9. सूर्यनारायण रथ पर पहले-पहल किस दिन बैठे ? 10. काले साँप की तरह प्राणियों का उद्वेजक कौन है ? 11. इस घोर संसार में सबसे बड़ा चतुर कौन है ? 12. दो मार्ग कौन-से हैं ?”

नारदजी के प्रश्नों को सुनकर वे मुनि कहने लगेः “मुने ! आपके ये प्रश्न तो बालकों के प्रश्न जैसे हैं। आप यहाँ जिसे सबसे छोटा एवं मूर्ख समझते हों, उसी से पूछिये। वही इनका उत्तर दे देगा।”

अब नारदजी बड़े विस्मय में पड़ गये ! उन्होंने एक बालक से, जिसका नाम सुतनु था, ये प्रश्न पूछेः सुतनु ने कहाः “इन बालोचित प्रश्नों के उत्तर में मेरा मन नहीं लगता। फिर भी आपने मुझे सबसे छोटा एवं मूर्ख समझा है, इसलिए कहना पड़ता है। आपके प्रश्नों के उत्तर क्रमशः इस प्रकार हैं-

1.अ,आ,इ,ई…..वगैरह बावन अक्षर ही मातृका हैं। 2. पच्चीस तत्त्वों से बना हुआ गृह यह शरीर ही है। 3. बुद्धि ही अनेक रूपों वाली स्त्री है। जब इसके साथ धर्म का संयोग होता है तब यह एकरूपा हो जाती है। 4. विचित्र रचनायुक्त कथन करना पण्डित ही जानते हैं। 5. इस संसारसागर में लोभ ही महाग्राह है। 6. मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनूचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि – ये आठ प्रकार के ब्राह्मण हैं। इनमें जो केवल ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हैं और संस्कार आदि से हीन हैं, वह ʹमात्रʹ हैं। कामनारहित होकर सदाचारी, वेदोक्त कर्मकाण्डी ब्राह्मण ʹब्राह्मणʹ कहा जाता है। वेद-वेदांगों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर षट्कर्मपरायण ब्राह्मण ʹश्रोत्रियʹ है। वेद का पूर्ण तत्त्वज्ञ, शुद्धात्मा, केवल शिष्यों को अध्यापन कराने वाला ब्राह्मण ʹअनूचानʹ है। यज्ञावशिष्ट भोजी पूर्वोक्त अनूचान ही ʹभ्रूणʹ है। लौकिक, वैदिक समस्त ज्ञान से परिपूर्ण, जितेन्द्रिय ब्राह्मण ʹऋषिकल्पʹ है। ऊर्ध्वरेता, निःसंशय, शापानुग्रह-सक्षम, सत्यसन्ध ब्राह्मण ʹऋषिʹ है। सदा ध्यानस्थ, मृत्तिका और सुवर्ण में तुल्य दृष्टिवाला ब्राह्मण ʹमुनिʹ है।

अब सातवें प्रश्न का उत्तर सुनिये। कार्तिक शुक्ल नवमी को सतयुग का, वैशाख शुक्ल तृतिया को त्रेता का, माघ कृष्ण अमावस्या को द्वापर का और भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी को कलियुग का आरंभ हुआ। अतः उक्त तिथियाँ युगादि कही जाती हैं।

8.आश्विन शुक्ल नवमी, कार्तिक शुक्ल द्वादशी, चैत्र शुक्ल तृतिया, भाद्रपद शुक्ल तृतिया, फाल्गुन कृष्ण अमावस्या, पौष शुक्ल एकादशी, आषाढ़ शुक्ल दशमी, माघ शुक्ल सप्तमी, श्रावण कृष्ण अष्टमी, आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा और ज्येष्ठ की पूर्णिमा – ये स्वायम्भुव आदि चौदह मन्वन्तरों की आदि तिथियाँ हैं।

9.माघ शुक्ल सप्तमी को पहले-पहल भगवान सूर्य रथ पर सवार हुए थे। 10. सदा माँगने वाला ही उद्वेजक है। 11. पूर्ण चतुर या दक्ष वही है, जो मनुष्य जन्म का मूल्य समझकर इससे अपना पूर्ण निःश्रेयसादि सिद्ध कर लेता है। 12. ʹअर्चिʹ और ʹधूमʹ ये दो मार्ग हैं। अर्चि मार्ग से जाने वालों को मोक्ष होता है और धूममार्ग से जाने वालों को पुनः लौटना पड़ता है।

इन उत्तरों को सुनकर नारदजी बड़े प्रसन्न हुए और उस बालक को धर्मवर्मा से प्राप्त अपनी भूमि, सात लाख गौएँ आदि सब दान कर दिया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1999, पृष्ठ संख्या 13-16, अंक 83

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जीवन की सहजता


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

जो सहज जीवन जीता है, उसका जीवन खूब सरल एवं आनन्द से परिपूर्ण होता है। मूर्ख एवं अहंकारी लोग जीवन को जटिल बना देते हैं। उनका जीवन अपने तथा औरों के लिए समस्या बन जाता है।

तीन प्रकार के लोग होते हैं- एक वे होते हैं जो ʹयह करूँ…. यह न करूँ…. यह छोड़ूँ…. यह पकड़ूँ…..ʹ ऐसी मान्यता रखते हैं। दूसरे प्रकार के वे लोग होते हैं जो कुछ भी करके अपने को बड़ा दिखाना चाहते हैं। ऐसे लोगों का जीवन उलझा हुआ होता है अथवा अधमतापूर्वक नष्ट होता है। तीसरे प्रकार के वे लोग होते हैं जो अपना व्यवहार इस ढंग से करते हैं कि जहाँ हैं, जैसे हैं, ठीक हैं। व्यवहार में अनाग्रहपूर्ण बुद्धि रखकर जीवन के रहस्य को, जीवन के छुपे खजाने को प्राप्त करने में अपना जीवन बिताते हैं, उनका जीवन सार्थक है।

जिसे कुछ बनने की, कुछ करने की इच्छा होती है वे तो किसी-न-किसी प्रकार के आग्रह से घिरे ही रहते हैं। कोई अपने को तपस्वी मानता हो। उसके पास यदि आप जाओ तो वह आपको कहेगा कि ʹबीड़ी सिगरेट छोड़ दो, मांस-मछली-अण्डे छोड़ दो…।ʹ आपने यह सब छोड़ा हा है तो कहेगा कि ʹलहसुन, प्याज छोड़ दो।ʹ आप ये छोड़कर आगे बढ़ना चाहोगे तो कहेगा कि ʹतीन बार भोजन करते हो तो दो बार ही करो।ʹ आप दो बार खाने लगोगे तो कहेगा कि ʹअब एक वक्त का भोजन बंद कर दो।ʹ एक बार खाते होगे तो कहेगा कि ʹनमक बंद कर दोʹ। आप वह भी बन्द कर दोगे तो कहेगा कि ʹअनाज छोड़ दो। अब फलाहार करने लगो।ʹ छोड़ो….. छोड़ो…. छोड़ते जाओ… छोड़ते जाओ…. फिर कहेगा कि ʹफल खाते हो, तपस्वी हो तो अब संसार में क्या रहना ? पत्नी और बच्चों को भी छोड़ दो।ʹ मान लो, वह भी छूट गया तो कहेगा कि ʹसब छूट गया, अब वस्त्रों को भी छोड़ दो। कौपीन पहनो।ʹ

जीवन जीने का यह एक मार्ग हैः त्याग….त्याग….त्याग…

जिन्होंने सब छोड़ दिया है, जो केवल कौपीन पहनते हैं, फलाहार अथवा भिक्षा पाते हैं एवं ईश्वर का चिंतन करते हैं उनके जीवन में यदि सत्संग नहीं है तो कोई दिव्य संगीत नहीं होता। जीवन में जो दबा हुआ होता है, वह कभी-कभार समय पाकर प्रगट हो जाता है कि ʹतू मुझे नहीं जानता, मैं कबसे घर-बार छोड़कर यहाँ बैठा हूँ ? संसारी लोग क्या जानें कि भजन क्या होता है ? तपस्या क्या होती है ? मैं लहसुन नहीं खाता, प्याज नहीं खाता…. मैंने बार-बच्चों को छोड़ दिया, पत्नी को छोड़ दिया…. मैं कोई जैसा-तैसा साधु थोड़े ही हूँ ? मेरे आगे तू क्या डींग मारता है?ʹ

अच्छा है, ठीक है कि छोड़ पाये हो, लेकिन छोड़कर आने की याद चित्त में अभी तक बनी हुई है। यह उचित नहीं है। अपने अहंकार को सजाने के लिए जो कुछ करते हो वह अनुचित है। आपके पास चीज-वस्तुएँ, रूपये पैसे होना कोई खराब बात नहीं है लेकिन दूसरों का शोषण करके, दूसरों को सताकर एकत्रित की गयी अथवा जिनका सदुपयोग न किया जा सका हो ऐसी चीजों, रुपयों पैसों का होना न होना बराबर ही है।

कुछ वर्ष पहले किसी व्यक्ति ने मुझे बताया किः “चार गधे लेकर जो आदमी यहाँ रोड पर काम करता था, उसके पास अब 25-30 लाख रूपये हैं लेकिन उसकी पत्नी हमारी कॉलोनी में 10-10 पैसे में नींबू बेचती है।”

बाह्य पदार्थ पाकर तो हम खूब ऊँचे दिखते हैं लेकिन समझ नहीं होती तो भीतर से हम खूब नीचे रह जाते हैं। अंदर या बाहर से न ऊँचे दिखने की कोशिश करो, न अपने को नीचा मानने की भूल करो। दिखना-मानना, यह सब सापेक्ष है। अपने को ऊँचा तब मानोगे, जब दूसरे को नीचा मानोगे। अपने को नीचा तब मानोगे जब दूसरे को ऊँचा मानोगे। लव-कुश आपके आगे बहुत अच्छे लगेंगे, बड़े समर्थ लगेंगे लेकिन श्रीराम के आगे उतने बड़े व समर्थ नहीं लगेंगे। तहसीलदार किसी  क्लर्क के आगे बड़ा दिखेगा लेकिन कलेक्टर के पास जाये तो छोटा दिखेगा। कलेक्टर मंत्री के आगे छोटा लगेगा। वह मुख्यमंत्री भी प्रधानमंत्री के आगे छोटा लगेगा।

बड़ों के आगे आप छोटे हो जाते हो और छोटों के आगे आप बड़े बन जाते हो। मूर्ख के आगे आप विद्वान लगते हो परन्तु अपने से अधिक विद्वान के आगे आप मूर्ख लगते हो। यह सापेक्ष दृष्टि है और सापेक्ष दृष्टि में हमेशा भय, घृणा, लज्जा आदि बने ही रहते हैं।

एक सुनी हुई घटना है, एक फौजी था। उसी पदोन्नति होते-होते वह कमाण्डर बन गया। जब वह परेड लेने जात अथवा कहीं घूमने जाता, तब दूसरे फौजी उसे सलाम करते। उनके सलाम करने पर कमाण्डर के मुख से स्वाभाविक ही निकल जाता किः “ऐसे ही तो करते हो !”

उसके निकट के दो अंगरक्षक बार-बार यह सुनते। वे आपस में कहते किः “जब भी कमाण्डर को कोई सलाम करता है तो उनके मुख से स्वाभाविक ही निकल जाता है कि ʹऐसे ही तो करते हो !ʹ इसका क्या कारण है ?” आखिर एक दिन उन्होंने अपने कमाण्डर से पूछ ही लियाः “साहब ! पिछले काफी समय से हम आपके साथ रह रहे हैं। जब कोई आपको सलाम करता है तब आप उसके ऊपर नाराज हो जाते हैं एवं कहते हैं किः ʹऐसे ही तो करते हो !ʹ इसका कारण क्या है ?”

कमाण्डर ने कहाः “इसका एक ही कारण है। मैं भी पहले सिपाही था। सलाम कर-करके बड़े पद पर पहुँचा हूँ। मैं जब सिपाही था, तब कोई साहब आता तो मुझे जबरदस्ती सलाम करनी पड़ती थी। ʹवे कब यहाँ से जायें ?ʹ इस भाव से, बिना प्रेम के उन्हें सलाम करता था। अब सभी मुझे सलाम करते हैं तो मुझे लगता है कि ये सब भी मुझे आदर नहीं देते, मुझे सलाम नहीं मारते, वरन् इस पद को सलाम करते हैं। वह भी करना पड़ता है, इसलिए करते हैं। इसीलिए मेरे मुँह से ʹऐसे ही तो करते होʹ – यह स्वाभाविक निकल जाता है।”

जीवन में जो भी प्रेम बिना का होगा, वह लेने वाला को भी बोझा लगेगा और देनेवाले को भी आनंद नहीं आयेगा। जो कुछ होगा, उसमें अहंकार की दुर्गंध आयेगी। लेकिन जिसके जीवन में हृदय की विशालता होगी, शुद्ध प्रेम होगा, उसका जीवन खिल उठेगा, सहज आनंदस्वभाव से परितृप्त हो उठेगा। फिर ʹयह करना है… यह छोड़ना है… यह पाना है….ʹ आदि नहीं बचेगा। जो भी करना होगा, वह सहज स्वाभाविक होता जायेगा। ऐसा जीवन जीने वाला ही अपने सहज स्वरूप को पा लेता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1999, पृष्ठ संख्या 2,3 अंक 83

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क्या गुरु बनाना आवश्यक है ?


ब्रह्मलीन ब्रह्मनिष्ठ स्वामी श्री अखण्डानंद सरस्वतीजी महाराज से किसी ने पूछाः “क्या मनुष्य को आत्मिक सुख व शांति के लिए गुरु बनाना आवश्यक है ?”

उन्होंने उत्तर देते हुए कहाः “भाई साहब ! जब आपको कोई जरूरत मालूम नहीं पड़ती है, तब  आप क्यों इस चक्कर में पड़ते हैं ? हाँ, जब आपके भीतर से आवाज आये कि ʹगुरु बनाने की जरूरत है…ʹ तब बना लेना। देखो कि आपको संतोष कहाँ है। यदि गुरु न बनाने का संतोष आपके मन में होता, तो यह प्रश्न ही नहीं उठता कि गुरु बनाना आवश्यक है कि नहीं।

गुरु बनाना कोई बहुत आसान बात नहीं है कि जिस किसी ने कोई मंत्र बता दिया, जप बता दिया और आप उस रास्ते पर चल पड़े। जब सत्संग करेंगे तब समझेंगे कि गुरु क्या होता है, शिष्य क्या होता है और दोनों का सम्बन्ध क्या होता है। यह बात समझनी पड़ेगी।

आखिर पति-पत्नी का ब्याह ही तो होता है ना ? कहाँ वे एक साथ पैदा होते हैं, कहाँ-कहाँ से आते हैं, मिलते हैं, साथ रहते हैं फिर भी पति-पत्नी का इतना गम्भीर सम्बन्ध हो जाता है कि एक-दूसरे के लिए मरते हैं। गुरु-शिष्य का सम्बन्ध भी इससे कुछ हल्का नहीं है। यह तो उससे भी गम्भीर है, बहुत गम्भीर है। जैसे पति-पत्नी के सम्बन्ध का निर्वाह करना कठिन होता है, वैसे ही गुरु शिष्य के सम्बन्ध का निर्वाह करना भी कठिन होता है।

….तो, जब तक गुरु की  आवश्यकता स्वयं को नहीं मालूम पड़ती, तब तक दूसरे के बताने से क्या होगा ? …..और वैसे देखो तो आवश्यता का प्रमाण यही है कि आप पूछ रहे हैं- “गुरु बनाने की आवश्यकता है क्या ?ʹ कहीं-न-कहीं चित्त में खटका होगा, कहीं-न-कहीं संस्कार भी होगा ही। …तो, जब तक आपको कुछ पूछने की, कुछ जानने की जरूरत है, कुछ होने की, कुछ बनने की जरूरत है, जब तक आपके मन में किसी वस्तु के स्वरूप के सम्बन्ध में प्रश्न है तब तक आपको किसी जानकार से से उसके बारे में सच्चा ज्ञान और सच्चा अनुभव प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।”

प्रश्नः “संत भगवदस्वरूप हैं और संत में ही गुरु भगवान निवास करते हैं, यह बात कृप्या समझाएँ।”

उत्तरः “देखो भाई ! संत तो बहुत से होते हैं – हजार, दो हजार, दस हजार, लाख। सन्मात्र भगवान किसमें प्रकट नहीं हैं ? अर्थात् सबमें हैं। परंतु संत और गुरु में फर्क यह होता है कि जैसे गण्डकी नदी में, उसके उदगम के पास बहुत से गोल-गोल पत्थर  मिलते हैं, वे सब शालिग्राम हैं। जब हम अपने लिए शालिग्राम ढूँढने के लिए जाते हैं, तब कई शालिग्राम हमारे पाँव के नीचे आते हैं और कइयों को उठाकर हम हाथ में लेकर फिर छोड़ भी देते हैं। …तो जैसे, गण्डकी की शिलाएँ सब शालिग्राम होने पर भी हम अपनी पूजा  के लिए एक शालिग्राम चुनकर लाते हैं। इसी प्रकार हजारों लाखों, अनगिनत संतों के होने पर भी उनमें से हम अपनी पूजा के लिए, अपनी उपासना के लिए, अपने ज्ञान-ध्यान के लिए किसी एक संत की चुन लें तो इन्हीं संत का नाम ʹगुरुʹ होता है।

पुरुष सब हैं, पर कन्या का ब्याह एक से ही होता है न ? अब जो यह एक गुरु के साथ सम्बन्ध की बात है, वहाँ भगवान गुरु के द्वारा मिलते हैं।

एक सज्जन थे। वे एक पण्डित जी के पास जाकर उनको बहुत परेशान करते थे किः ʹहमको दीक्षा दे दो…. हमको भगवान का दर्शन करा दो….ʹ पण्डितजी रोज-रोज सुनते-सुनते थक गये और चिढ़कर उन्होंने भगवान का एक नाम बता दिया और कहा कि यह नाम लिया करो। अब वे सज्जन रोज आकर पूछने लगे कि “हम ध्यान कैसे करें ? भगवान कैसे होते हैं ?”

अब पण्डितजी और चिढ़ गये एवं बोलेः “भगवान बकरे जैसे होते हैं।” अब वे सज्जन जाकर बकरे भगवान का ध्यान करने लगे। उनके ध्यान से, उनकी निष्ठा से और गुरुआज्ञा-पालन से भगवान उनके पास आये और बोलेः “लो भाई, जिसका तुम ध्यान करते हो, वह मैं शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी-पीताम्बरधारी तुम्हारे सामने खड़ा हूँ।”

इस पर वे सज्जन बोलेः “हमारे गुरुजी ने तो बताया था कि भगवान बकरे की शक्ल के होते हैं और तुम तो वैसे हो नहीं। हम तुमको भगवान कैसे मानें ?”

अब तो भगवान भी दुविधा में पड़ गये। फिर बोलेः “अच्छी बात है… लो, हम बकरा बन जाते हैं। तुम उसी को देखो और उसी का ध्यान करो।”

अब भगवान उसके सामने ही बकरा बन गये और उससे बात करने लगे। फिर वे सज्जन बोलेः “देखो, मुझे तुम बहुरूपिया मालूम पड़ते हो। कभी आदमी की तरह तो कभी बकरे की तरह। हम कैसे पहचानें कि तुम भगवान हो कि नहीं ? इसलिए हमारे गुरुजी के पास चलो। जब वे पास कर देंगे कि तुम ही भगवान हो तब हम मानेंगे कि हाँ, तुम भगवान हो।”

भगवान बोलेः “ठीक है….. चलो।”

फिर वे सज्जन बोलेः “ऐसे नहीं…. ऐसे चलोगे और रास्ते में कहीं धोखा देकर भाग गये तो ? मैं गुरु जी के सामने झूठा पडूँगा। इसलिए ऐसे नहीं….. मैं तुम्हें कान पकड़कर ले चलूँगा।”

भगवान बोलेः “ठीक है।” अब वे सज्जन गुरु जी के पास बकरा भगवान को उनका कान पकड़कर ले गये और बोलेः “गुरु जी ! देखिये, यह भगवान है कि नहीं ?” गुरु जी तो हक्के बक्के हो गये कि हमने तो चिढ़कर बताया था और ये सच मान बैठे !

अब वे सज्जन बकरे भगवान से बोलेः “अब बोलो, चुप क्यों हो ? वहाँ तो बड़ा सुन्दर रूप दिखाया था, बड़ी-बड़ी बातें कर रहे थे और अब यहाँ चुप हो ? अब बोलो कि भगवान मैं भगवान हूँ और दिखाओ भगवान बनकर।”

फिर भगवान ने उनको भगवान बनकर दर्शन दिया।

….तो ये गुरु लोग जो होते हैं, वे किसी को शिव के रूप में भगवान देते हैं, किसी को नारायण के रूप में भगवान देते हैं। सिर्फ उपदेश करने वाले का नाम ʹगुरुʹ नहीं होता है। गुरु तो वे हैं, जो तुमको गुरु बना दें और तुम लोगों को भगवान का दर्शन करा सकें। गुरु की महिमा अदभुत है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1999, पृष्ठ संख्या 24,25,26 अंक 83

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