क्या गुरु बनाना आवश्यक है ?

क्या गुरु बनाना आवश्यक है ?


ब्रह्मलीन ब्रह्मनिष्ठ स्वामी श्री अखण्डानंद सरस्वतीजी महाराज से किसी ने पूछाः “क्या मनुष्य को आत्मिक सुख व शांति के लिए गुरु बनाना आवश्यक है ?”

उन्होंने उत्तर देते हुए कहाः “भाई साहब ! जब आपको कोई जरूरत मालूम नहीं पड़ती है, तब  आप क्यों इस चक्कर में पड़ते हैं ? हाँ, जब आपके भीतर से आवाज आये कि ʹगुरु बनाने की जरूरत है…ʹ तब बना लेना। देखो कि आपको संतोष कहाँ है। यदि गुरु न बनाने का संतोष आपके मन में होता, तो यह प्रश्न ही नहीं उठता कि गुरु बनाना आवश्यक है कि नहीं।

गुरु बनाना कोई बहुत आसान बात नहीं है कि जिस किसी ने कोई मंत्र बता दिया, जप बता दिया और आप उस रास्ते पर चल पड़े। जब सत्संग करेंगे तब समझेंगे कि गुरु क्या होता है, शिष्य क्या होता है और दोनों का सम्बन्ध क्या होता है। यह बात समझनी पड़ेगी।

आखिर पति-पत्नी का ब्याह ही तो होता है ना ? कहाँ वे एक साथ पैदा होते हैं, कहाँ-कहाँ से आते हैं, मिलते हैं, साथ रहते हैं फिर भी पति-पत्नी का इतना गम्भीर सम्बन्ध हो जाता है कि एक-दूसरे के लिए मरते हैं। गुरु-शिष्य का सम्बन्ध भी इससे कुछ हल्का नहीं है। यह तो उससे भी गम्भीर है, बहुत गम्भीर है। जैसे पति-पत्नी के सम्बन्ध का निर्वाह करना कठिन होता है, वैसे ही गुरु शिष्य के सम्बन्ध का निर्वाह करना भी कठिन होता है।

….तो, जब तक गुरु की  आवश्यकता स्वयं को नहीं मालूम पड़ती, तब तक दूसरे के बताने से क्या होगा ? …..और वैसे देखो तो आवश्यता का प्रमाण यही है कि आप पूछ रहे हैं- “गुरु बनाने की आवश्यकता है क्या ?ʹ कहीं-न-कहीं चित्त में खटका होगा, कहीं-न-कहीं संस्कार भी होगा ही। …तो, जब तक आपको कुछ पूछने की, कुछ जानने की जरूरत है, कुछ होने की, कुछ बनने की जरूरत है, जब तक आपके मन में किसी वस्तु के स्वरूप के सम्बन्ध में प्रश्न है तब तक आपको किसी जानकार से से उसके बारे में सच्चा ज्ञान और सच्चा अनुभव प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।”

प्रश्नः “संत भगवदस्वरूप हैं और संत में ही गुरु भगवान निवास करते हैं, यह बात कृप्या समझाएँ।”

उत्तरः “देखो भाई ! संत तो बहुत से होते हैं – हजार, दो हजार, दस हजार, लाख। सन्मात्र भगवान किसमें प्रकट नहीं हैं ? अर्थात् सबमें हैं। परंतु संत और गुरु में फर्क यह होता है कि जैसे गण्डकी नदी में, उसके उदगम के पास बहुत से गोल-गोल पत्थर  मिलते हैं, वे सब शालिग्राम हैं। जब हम अपने लिए शालिग्राम ढूँढने के लिए जाते हैं, तब कई शालिग्राम हमारे पाँव के नीचे आते हैं और कइयों को उठाकर हम हाथ में लेकर फिर छोड़ भी देते हैं। …तो जैसे, गण्डकी की शिलाएँ सब शालिग्राम होने पर भी हम अपनी पूजा  के लिए एक शालिग्राम चुनकर लाते हैं। इसी प्रकार हजारों लाखों, अनगिनत संतों के होने पर भी उनमें से हम अपनी पूजा के लिए, अपनी उपासना के लिए, अपने ज्ञान-ध्यान के लिए किसी एक संत की चुन लें तो इन्हीं संत का नाम ʹगुरुʹ होता है।

पुरुष सब हैं, पर कन्या का ब्याह एक से ही होता है न ? अब जो यह एक गुरु के साथ सम्बन्ध की बात है, वहाँ भगवान गुरु के द्वारा मिलते हैं।

एक सज्जन थे। वे एक पण्डित जी के पास जाकर उनको बहुत परेशान करते थे किः ʹहमको दीक्षा दे दो…. हमको भगवान का दर्शन करा दो….ʹ पण्डितजी रोज-रोज सुनते-सुनते थक गये और चिढ़कर उन्होंने भगवान का एक नाम बता दिया और कहा कि यह नाम लिया करो। अब वे सज्जन रोज आकर पूछने लगे कि “हम ध्यान कैसे करें ? भगवान कैसे होते हैं ?”

अब पण्डितजी और चिढ़ गये एवं बोलेः “भगवान बकरे जैसे होते हैं।” अब वे सज्जन जाकर बकरे भगवान का ध्यान करने लगे। उनके ध्यान से, उनकी निष्ठा से और गुरुआज्ञा-पालन से भगवान उनके पास आये और बोलेः “लो भाई, जिसका तुम ध्यान करते हो, वह मैं शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी-पीताम्बरधारी तुम्हारे सामने खड़ा हूँ।”

इस पर वे सज्जन बोलेः “हमारे गुरुजी ने तो बताया था कि भगवान बकरे की शक्ल के होते हैं और तुम तो वैसे हो नहीं। हम तुमको भगवान कैसे मानें ?”

अब तो भगवान भी दुविधा में पड़ गये। फिर बोलेः “अच्छी बात है… लो, हम बकरा बन जाते हैं। तुम उसी को देखो और उसी का ध्यान करो।”

अब भगवान उसके सामने ही बकरा बन गये और उससे बात करने लगे। फिर वे सज्जन बोलेः “देखो, मुझे तुम बहुरूपिया मालूम पड़ते हो। कभी आदमी की तरह तो कभी बकरे की तरह। हम कैसे पहचानें कि तुम भगवान हो कि नहीं ? इसलिए हमारे गुरुजी के पास चलो। जब वे पास कर देंगे कि तुम ही भगवान हो तब हम मानेंगे कि हाँ, तुम भगवान हो।”

भगवान बोलेः “ठीक है….. चलो।”

फिर वे सज्जन बोलेः “ऐसे नहीं…. ऐसे चलोगे और रास्ते में कहीं धोखा देकर भाग गये तो ? मैं गुरु जी के सामने झूठा पडूँगा। इसलिए ऐसे नहीं….. मैं तुम्हें कान पकड़कर ले चलूँगा।”

भगवान बोलेः “ठीक है।” अब वे सज्जन गुरु जी के पास बकरा भगवान को उनका कान पकड़कर ले गये और बोलेः “गुरु जी ! देखिये, यह भगवान है कि नहीं ?” गुरु जी तो हक्के बक्के हो गये कि हमने तो चिढ़कर बताया था और ये सच मान बैठे !

अब वे सज्जन बकरे भगवान से बोलेः “अब बोलो, चुप क्यों हो ? वहाँ तो बड़ा सुन्दर रूप दिखाया था, बड़ी-बड़ी बातें कर रहे थे और अब यहाँ चुप हो ? अब बोलो कि भगवान मैं भगवान हूँ और दिखाओ भगवान बनकर।”

फिर भगवान ने उनको भगवान बनकर दर्शन दिया।

….तो ये गुरु लोग जो होते हैं, वे किसी को शिव के रूप में भगवान देते हैं, किसी को नारायण के रूप में भगवान देते हैं। सिर्फ उपदेश करने वाले का नाम ʹगुरुʹ नहीं होता है। गुरु तो वे हैं, जो तुमको गुरु बना दें और तुम लोगों को भगवान का दर्शन करा सकें। गुरु की महिमा अदभुत है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1999, पृष्ठ संख्या 24,25,26 अंक 83

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