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अमृतफल-जामफल-अमरूद


अमरूद या जामफल शीतकाल में पैदा होने वाला, सस्ता और गुणकारी फल है जो सारे भारत में पाया जाता है। संस्कृत में इसे ʹअमृतफलʹ भी कहा गया है।

आयुर्वेद के मतानुसार पका हुआ अमरूद स्वाद में खट-मीठा, कसैला, गुण में ठण्डा, पचने में भारी, कफ तथा वीर्यवर्धक, रुचिकारक, पित्तदोषनाशक, वातदोषनाशक एवं हृदय के लिए हितकर है। अमरूद पागलपन, भ्रम, मूर्च्छा, कृमि तृषा, शोष, श्रम, विषम ज्वर (मलेरिया) तथा जलनाशक है। गर्मी के तमाम रोगों में जामफल खाना हितकारी है। यह शक्तिदायक, सत्त्वगुणी एवं बुद्धिवर्धक है अतः बुद्धिजीवियों के लिए हितकर है। भोजन के 1-2 घण्टों के बाद इसे खाने से कब्ज, अफारा आदि की शिकायतें दूर होती हैं। सुबह खाली पेट नाश्ते में अमरूद खाना भी लाभदायक है।

विशेषः अधिक अमरूद खाने से वायु, दस्त एवं ज्वर की उत्पत्ति होती है, मंदाग्नि एवं सर्दी भी हो जाती है। जिनकी पाचनशक्ति कमजोर हो, उन्हें अमरूद कम खाने चाहिए।

अमरूद खाते समय इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि इसके बीज ठीक से चबाये बिना पेट में न जायें। जामफल को खूब अच्छी तरह चबाकर निगलें या फिर इसके बीज अलग करके केवल गुदा ही खायें। इसका साबुत बीज यदि आंत्रपुच्छ (अपेण्डिक्स) में चला जाय तो फिर बाहर नहीं निकल पाता जिससे प्रायः ʹअपेण्डिसाइटिसʹ होने की संभावना रहती है।

खाने के लिए पके हुए जामफल का ही प्रयोग करें। कच्चे जामफल का उपयोग सब्जी के रूप में किया जा सकता है। दूध एवं जामफल खाने के बीच में 2-3 घण्टों का अंतर अवश्य रखें।

अमरूद के औषधि प्रयोग

सर्दी-जुकामः जुकाम होने पर एक जामफल का गुदा बिना बीज के खाकर एक गिलास पानी पी लें। दिन में ऐसा 2-3 बार करें। पानी पीते समय नाक से साँस न लें और न छोड़ें। नाक बन्द करके पानी पियें और मुँह से ही साँस बाहर फेंके। इससे नाक बहने लगेगा। नाक बहना शुरु होते ही जामफल खाना बन्द कर दें। 1-2 दिन में जुकाम खूब झड़ जाए तब रात को सोते समय 50 ग्राम गुड़ खाकर बिना पानी पिये सिर्फ कुल्ले करके सो जायें। जुकाम ठीक हो जायेगा।

खाँसीः एक पूरा जामफल आग की गरम राख में दबाकर सेंक लें। 2-3 दिन तक प्रतिदिन ऐसा एक जामफल खाने कफ ढीला हो जाता है, निकल जाता है और खाँसी में आराम हो जाता है। चाय की पत्ती की जगह जामफल के पत्ते पानी से धोकर साफ कर लें और फिर पानी में उबालें। जब उबलने लगे तब उसमें दूध व शक्कर डाल दें, फिर उसे छान लें। इसे पीने से खाँसी में आराम होता है। इसके बीजों को ʹबिहीदानाʹ कहते हैं। इन बीजों को सुखाकार पीस लें और थोड़ी मात्रा में शहद के साथ सुबह-शाम चाटें। इससे खाँसी ठीक हो जाएगी। इस दौरान तेल एवं खटाई का सेवन न करें।

सूखी खाँसीः सूखी खाँसी में  पके हुए जामफल को खूब चबा-चबाकर खाने से लाभ होता है।

कब्जः पर्याप्त मात्रा में जामफल खाने से मल सूखा और कठोर नहीं हो पाता और सरलतापूर्वक शौच हो जाने से कब्ज नहीं रहता। जामफल काटने के बाद उस पर सोंठ, काली मिर्च और सेंधा नमक बुरबुरा लें अथवा संतकृपा चूर्ण डाल लें। फिर इसे खाने से स्वाद बढ़ता है और पेट के अफारा, गैस और अपच दूर होते हैं। इसे सुबह निराहार खाना चाहिए या भोजन के साथ खाना चाहिए।

मुख रोगः इसके कोमल हरे पत्ते चबाने से मुँह के छाले नरम पड़ते हैं, मसूढ़े व दाँत मजबूत होते हैं, मुँह की दुर्गन्ध का नाश होता है। पत्ते चबाने के बाद इसका रस थोड़ी देर मुँह में रखकर इधर-उधर घुमाते रहें, फिर थूक दें। पत्तों को उबालकर इस पानी से कुल्ले व गरारे करने पर दाँत का दर्द दूर होता है एवं मसूढ़ों की सूजन व पीड़ा नष्ट होती है।

शिशु रोगः जामफल के पिसे हुए पत्तों की लुगदी बनाकर बच्चों की गुदा के मुख पर रखकर बाँधने से उनका गुदाभ्रंश यानी कांच निकलने का रोग भी ठीक होता है। बच्चों को पतले दस्त बार-बार लगते हों तो इसके कोमल व ताज़े पत्तों एवं जड़ की छाल को उबालकर काढ़ा बना लें और 2-2 चम्मच सुबह-शाम पिलायें। इससे पुराना अतिसार भी ठीक हो जाता है। इसके पत्तों का काढ़ा बनाकर पिलाने से उल्टी व दस्त होना बन्द हो जाता है।

सूर्यावर्तः सुबह सूर्योदय से सिरदर्द शुरु हो, दोपहर में तीव्र पीड़ा हो एवं सूर्यास्त हो तब तक सिरदर्द मिट जाये-इस रोग को सूर्यावर्त कहते हैं। इस रोग में रोज सुबह पके हुए जामफल खाने एवं कच्चे जामफल को पत्थर पर पानी के साथ घिसकर ललाट पर उसका लेप करने से लाभ होता है।

भाँग का नशाः 2 से 4 पके हुए जामफल खाने से अथवा इसके पत्तों का 40-50 मि.ली. रस पीने से भाँग का नशा उतर जाता है।

दाह-जलनः पके हुए जामफल पर मिश्री भुरभुराकर रोज सुबह एवं दोपहर में खाने से जलन कम होती है। यह प्रयोग वायु अथवा पित्तदोष से उत्पन्न शारीरिक दुर्बलता में भी लाभदायक है।

पागलपन एवं मानसिक उत्तेजनाः मानसिक उत्तेजना, अति क्रोध, पागलपन अथवा अति विषय-वासना से पीड़ित लोगों के लिए प्रतिदिन रात्रि को पानी में भिगोये हुए 3-4 पके जामफल सुबह खाली पेट खाना लाभदायक है। दोपहर के समय भी भोजन के 2 घण्टे बाद जामफल खायें। इससे मस्तिष्क की उत्तेजना का शमन होता है एवं मानसिक शांति मिलती है।

स्वप्नदोषः कब्जियत अथवा शरीर की गर्मी के कारण होने वाले स्वप्नदोष में सुबह-दोपहर जामफल का सेवन लाभप्रद है।

खूनी दस्त (रक्तातिसार)- जामफल का मुरब्बा या पके हुए कच्चे जामफल की सब्जी का सेवन करने से खूनी दस्त में लाभ होता है।

मलेरिया ज्वरः तीसरे अथवा चौथे दिन आने वाले विषम ज्वर (मलेरिया) में प्रतिदिन नियमित रूप से सीमित मात्रा में जामफल का सेवन लाभदायक है।

सीताफल

अगस्त से नवम्बर के आसपास अर्थात् आश्विन से माघ मास के बीच आने वाले सीताफल एक स्वादिष्ट फल है।

आयुर्वेद के मतानुसार सीताफल शीतल, पित्तशामक, कफ एवं वीर्यवर्धक, तृषाशामक, पौष्टिक, तृप्तिकर्ता, मांस एवं रक्तवर्धक, उलटी बंद करने वाला, बलवर्धक, वातदोषशामक एवं हृदय के लिए हितकर है।

आधुनिक विज्ञान के मतानुसार सीताफल में कैल्शियम, लौह तत्त्व, फास्फोरस, विटामिन थायमिन, रिवोफ्लोवीन एवं विटामिन ʹसीʹ वगैरह अच्छे प्रमाण में होते हैं।

जिन लोगों की प्रकृति गर्म अर्थात् पित्तप्रधान है उनके लिए सीताफल अमृत के समान गुणकारी है।

जिन लोगों का हृदय कमजोर हो, हृदय का स्पंदन खूब ज्यादा हो, घबराहट होती हो, उच्च रक्तचाप हो ऐसे रोगियों के लिए भी सीताफल का सेवन लाभप्रद है। ऐसे रोगी सीताफल की ऋतु में उसका नियमित सेवन करें तो उनका हृदय मजबूत एवं क्रियाशील बनता है।

जिन्हें खूब भूख लगती हो, आहार लेने के उपरान्त भी भूख शांत न होती हो – ऐसे ʹभस्मकʹ रोग में भी सीताफल का सेवन लाभदायक है।

विशेषः सीताफल गुण में अत्यधिक ठण्डा होने के कारण ज्यादा खाने से सर्दी होती है। सीताफल ज्यादा खाने से कइयों को ठंड  लगकर बुखार आने लगता है, अतः जिनकी कफ-सर्दी की तासीर हो वे सीताफल का सेवन न करें। जिनकी पाचनशक्ति मंद हो, बैठालु जीवन हो, उन्हें सीताफल का सेवन बहुत सोच-समझकर सावधानी से करना चाहिए, अन्यथा लाभ के बदले नुकसान होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1999, पृष्ठ संख्या 29-31 अंक 83

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संतों का संग अमोघ होता है


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

जब-जब हम ईश्वर एवं गुरु की ओर खिंचते हैं, आकर्षित होते हैं तब-तब मानों कोई-न-कोई सत्कर्म हमारा साथ देते हैं और जब-जब हम दुष्कर्मों की ओर धकेले जाते हैं तब-तब मानों हमारे इस जन्म अथवा पुनर्जन्म के दूषित संस्कार अपना प्रभाव छोड़ते हैं। अब देखना यह है कि हम किसकी ओर जाते हैं ? हम पाप की ओर झुकते हैं कि पुण्य की ओर ? संत की ओर झुकते हैं कि असंत की ओर ? जब तक आत्मज्ञान नहीं होता तब तक संग का रंग लगता रहता है। संग के प्रभाव से साधु असाधु बन जाता है एवं असाधु भी साधु हो जाता है।

किया हुआ भगवान का स्मरण कभी व्यर्थ नहीं जाता। किया हुआ ध्यान-भजन, किये हुए पुण्यकर्म हमें सत्कर्मों की ओर ले जाते हैं। इसी प्रकार किये हुए पापकर्म, हमारे अंदर के अनंत जन्मों के पाप-संस्कार हमें इस जन्म में दुष्कृत्य की ओर ले जाते हैं। फिर भी वे ईश्वर हमें कभी-न-कभी जगा देते हैं जिसके फलस्वरूप पाप के बाद हमें पश्चाताप होता है और वैराग्य आता है। उसी समय यदि हमें कोई सच्चे संत मिल जायें, किन्हीं सदगुरु का सान्निध्य मिल जाय तो फिर हो जाये बेड़ा पार।

स्वार्थ, अभिमान एवं वासना के कारण हमसे पाप तो खूब हो जाते हैं लेकिन संतों का संग हमें पकड़-पकड़कर, पाप में से खींचकर भगवान के ध्यान में ले जाता है। हजार-हजार असंतों का संग होता है, हजार-हजार झूठ बोलते हैं फिर भी एक बार का सत्संग दूसरी बार और दूसरी बार का सत्संग तीसरी बार सत्संग करा देता है। ऐसा करते-करते संतों का संग करने वाले एक दिन स्वयं संत के ईश्वरीय अनुभव को अपना अनुभव बना लेने में सफल हो जाते हैं।

…तो मानना पड़ेगा कि किया हुआ संग चाहे पुण्य का संग हो या पाप का, असंत का संग हो या संत का, उसका प्रभाव जरूर पड़ता है। फर्क केवल इतना होता है कि संत का संग गहरा असर करता है, अमोघ होता है जबकि असंत का संग छिछला असर करता है। पापियों के संग का रंग जल्दी लग जाता है लेकिन उसका असर गहरा नहीं होता है, जबकि संतों के संग का रंग जल्दी नहीं लगता और जब लगता है तो उसका असर गहरा होता है। पापी व्यक्ति इन्द्रियों में जीता है, भोगों में जीता है, उसके जीवन में कोई गहराई नहीं होती इसलिए उसके संग का रंग गहरा नहीं लगता। संत जीते हैं सूक्ष्म से सूक्ष्म परमात्मतत्त्व में और जो चीज जितनी सूक्ष्म होती है उसका असर उतना ही गहरा होता है। जैसे, पानी यदि जमीन पर गिरता है तो जमीन के अंदर चला जाता है क्योंकि जमीन की अपेक्षा वह सूक्ष्म होता है। वही पानी जमीन में गर्मी पाकर वाष्पीभूत हो जाये, फिर चाहे जमीन के ऊपर आर.सी.सी. बिछा दो तो भी पानी उसे लाँघकर उड़ जायेगा। ऐसे ही सत्संग व्यर्थ नहीं जाता क्योंकि संत अत्यंत सूक्ष्म परमात्मतत्त्व में जगे हुए होते हैं। हमारे घर की पहुँच हमारे गाँव तक होती है, गाँव की पहुँच राज्य तक होती है, राज्य की पहुँच राष्ट्र तक, राष्ट्र की पहुँच दूसरे राष्ट्र तक होती है किन्तु संतों की पहुँच… इस पृथ्वी को तो छोड़ो, ऐसी कई पृथ्वियों, कई सूर्य एवं उसके भी आगे अत्यन्त सूक्ष्म जो परमात्मा है, जो इन्द्रियातीत, लोकातीत, कालातीत है, जहाँ वाणी जा नहीं सकती, जहाँ से मन लौट आता है उस परमात्मपद, अविनाशी आत्म तक होती है। यदि हमें उनके संग का रंग लग जाये तो फिर हम किसी भी लोक-लोकान्तर में, देश-देशान्तर में हों या इस मृत्युलोक में हों, सत्संग के संस्कार हमें उन्नति की राह पर ले ही जायेंगे।

अपनी करनी से ही हम संतों के नजदीक या उनसे दूर चले जाते हैं। हमारे कुछ निष्कामता के, सेवाभाव के कर्म होते हैं तो हम भगवान और संतों के करीब जाते हैं। संत-महापुरुष हमें बाहर से कुछ न देते हुए दिखें किन्तु उनके सान्निध्य से हृदय में जो सुख मिलता है, जो शांति मिलती है, जो आनंद मिलता है, जो निर्भयता आती है वह सुख, वह शांति, वह आनंद विषयभोगों में कहाँ ?

एक युवक एक महान संत के पास जाता था। कुछ समय बाद उसकी शादी हो गई, बच्चे हुए। फिर वह बहुत सारे पाप करने लगा। एक दिन वह रोता हुआ अपने गुरु के पास आया और बोलाः “बाबाजी ! मेरे पास सब कुछ है-पुत्र है, पुत्री है, पत्नी है, धन है लेकिन मैं अशांत हो गया हूँ। शादी के पहले जब आता था तो जो आनंद व मस्ती रहती थी, वह अब नहीं है। लोगों की नजरों में तो लक्षाधिपति हो गया लेकिन बहुत बेचैनी रहती है बाबाजी !”

बाबाजीः “बेटा ! कुछ सत्कर्म करो। प्राप्त संपत्ति का उपयोग भोग में नहीं, अपितु सेवा और दान-पुण्य में करो। जीवन में सत्कृत्य कर करने से बाह्य वस्तुएँ पास में न रहने पर भी आनंद, चैन और सुख मिलता है और दुष्कृत्य करने से बाह्य ऐशो-आराम होने पर भी सुख-शांति नहीं मिलती है।”

हम सुखी हैं कि दुःखी हैं, पुण्य की ओर बढ़ रहे हैं कि पाप की ओर बढ़ रहे हैं-यह देखना हो और लंबे चौड़े नियमों एवं धर्मशास्त्रों को न समझ सकें तो इतना तो जरूर समझ सकेंगे कि हमारे हृदय में खुशी, आनंद और आत्मविश्वास बढ़ रहा है कि घट रहा है। पापकर्म हमारा मनोबल तोड़ता है। पापकर्म हमारी मन की शांति खा जायेगा, हमें वैराग्य से हटाकर भोग में रुचि करायेगा जबकि पुण्यकर्म हमारे मन की शांति बढ़ाता जायेगा, हमारी रुचि परमात्मा की ओर बढ़ाता जायेगा।

जो लोग स्नान-दान, पुण्यादि करते हैं, सत्कर्म करते हैं उनको संतों की संगति मिलती है। धीरे-धीरे संतों का संग होगा, पाप कटते जायेंगे और सत्संग में रूचि होने लगेगी। सत्संग करते-करते भीतर के केन्द्र खुलने लगेंगे, ध्यान लगने लगेगा।

हमें पता ही नहीं है कि एक बार के सत्संग से कितने पाप-ताप क्षीण होते हैं, अंतःकरण कितना शुद्ध हो जाता है और कितना ऊँचा उठ जाता है मनुष्य ! यह बाहर की आँखों से नहीं दिखता। जब ऊँचाई पर पहुँच जाते हैं तब पता चलता है कि कितना लाभ हुआ ! हजारों जन्मों के माता-पिता, पति-पत्नी आदि जो नहीं दे सके, वह हमको संत सान्निध्य से हँसते खेलते मिल जाता है। कोई-कोई ऐसे पुण्यात्मा होते हैं जिनको पूर्वजन्म के पुण्यों से इस जन्म में जल्दी गुरु मिल जाते हैं। फिर ब्रह्मज्ञानी संत का सान्निध्य भी मिल जाता है। ऐसा व्यक्ति तो थोड़े से ही वचनों से रँग जाता है। जो नया है वह धीरे-धीरे आगे बढता है। जिसके जितने पुण्य होते हैं, उस क्रम से वह प्रगति करता है।

जैसे वृक्ष तो बहुत हैं लेकिन चंदन के वृक्ष कहीं-कहीं पर ही होते हैहं। ऐसे ही मनुष्य तो बहुत हैं लेकिन ज्ञानी महापुरुष कहीं-कहीं पर ही होते हैं। ऐसे ज्ञानवानों के संग से हमारा चित्त शांत और पवित्र होता है एवं धीरे-धीरे उस चित्त में आत्मज्ञान का प्रवेश होता है और आत्मज्ञान पाकर मनुष्य मुक्त हो जाता है। जिस तरह अग्नि में लोहा डालने से लोहा अग्निरूप हो जाता है, उसी तरह संत-समागम से मनुष्य संतों की अनुभूति को अपनी अनुभूति बना सकता है। ईश्वर की राह पर चलते हुए संतों को जो अनुभव हुए हैं, जैसा चिन्तन करके उनको लाभ हुआ है ऐसे ही उनके अनुभवयुक्त वचनों को हम अपने चिंतन का विषय बनाकर इस राह की यात्रा करके अपना कल्याण कर सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1999, पृष्ठ संख्या 5-7 अंक 82

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वाल्मीकिजी द्वारा भगवान को बताये हुए घर


वाल्मीकि जयंतीः 24 अक्तूबर 1999

वनवास के समय भगवान श्रीराम माँ सीता एवं अनुज श्री लक्ष्मणजी के साथ वाल्मीकि जी के आश्रम में आये। महर्षि वाल्मीकिजी ने कन्दमूल-फलादि से उनका आतिथ्य सत्कार किया। तत्पश्चात श्रीराम ने अत्यंत विनम्रतापूर्वक महर्षि वाल्मीकिजी से अपने रहने योग्य स्थान के बारे में पूछा।

महर्षि वाल्मीकि जी श्रीराम की महिमा का वर्णन करते हुए बोलेः “आप पूछते हैं कि मैं कहाँ रहूँ ? परन्तु मैं यह पूछते हुए सकुचाता हूँ कि जहाँ आप न हों, वह स्थान बता दीजिये। फिर मैं आपके रहने के लिए स्थान बताऊँ।”

वाल्मीकि जी के रहस्ययुक्त वचनों को सुनकर श्रीरामजी मुस्कराये। फिर वाल्मीकि जी ने श्रीरामजी को सीता जी एवं लक्ष्मणजीसहित निवास करने के लिए स्थान बतलाये। वाल्मीकिजी ने उन स्थानों का जो वर्णन किया है वह मानवमात्र के लिए अऩुकरणीय है क्योंकि उसमें उन सुन्दर साधनों का वर्णन किया गया है, जिनके द्वारा साधक अपने साध्य तत्त्व को, परमात्मा को अवश्य ही पा सकता है।

वाल्मीकि जी कहते हैं- “जिनके कान समुद्र की भाँति आपकी सुंदर कथारूपी अनेकों सुंदर नदियों से निरंतर भरते रहते हैं, परन्तु कभी पूरे तृप्त नहीं होते, उनके हृदय आपके लिए सुंदर घर हैं।

जिन्होंने अपने नेत्रों को चातक बना रखा है, जो आपके दर्शनरूपी मेघ के लिए सदा लालायित रहते हैं तथा जो बड़ी-बड़ी नदियों, समुद्रों और झीलों का निरादर करते हैं और आपके सौन्दर्यरूपी मेघ के एक बूँद जल से सुखी हो जाते हैं, हे रघुनाथजी ! उन लोगों के हृदयरूपी सुखदायी भवनों में भाई लक्ष्मणजी और सीतासहित आप निवास कीजिये।

आपके यशरूपी निर्मल मानसरोवर में जिनकी जीभ हंसिनी बनी हुई आपके गुणसमूहरूपी मोतियों को चुगती रहती है, हे रामजी, आप उनके हृदय में बसिये।

जिनकी नासिका प्रभु के पवित्र और सुगंधित (पुष्पादि) सुन्दर प्रसाद को नित्य आदर के साथ ग्रहण करती (सूँघती) है और जो आपको अर्पण करके भोजन करते हैं और आपके प्रसाद रूप ही वस्त्राभूषण धारण करते हैं, जिनके मस्तक देवता, गुरु और ब्राह्मण को देखकर बड़ी नम्रता के साथ प्रेमसहित झुक जाते हैं, जिनके हाथ नित्य प्रभुचरणों की पूजा करते हैं और जिनके हृदय में प्रभु का ही भरोसा है दूसरा नहीं तथा जिनके चरण प्रभु के तीर्थों में चलकर जाते हैं, हे राम जी ! आप उनके मन में निवास कीजिये।

जो नित्य आपके रामनामरूप मंत्रराज को जपते हैं और परिवारसहित आपकी पूजा करते हैं, जो अनेकों प्रकार से तर्पण और हवन करते हैं तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर बहुत दान देते हैं तथा हृदय में गुरु को  आपसे भी अधिक बड़ा जानवर सर्वभाव से सम्मान करके उनकी सेवा करते हैं  इऩ सब कर्मों का एकमात्र फल आपके श्रीचरणों की प्रीति ही चाहते हैं उन लोगों के मनरूपी मंदिरों में आप श्रीसीताजी सहित बसिये।

जिनको न काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह है, न लोभ है, न क्षोभ है, न राग है, न द्वेष है और न कपट, दंभ और माया ही है, हे रघुनाथ ! आप उनके हृदय में निवास कीजिये।

जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले हैं, जिन्हें दुःख और सुख तथा प्रशंसा और निन्दा समान हैं, जो विचारकर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं तथा जो जागते-सोते आपकी ही शरण हैं और आपको छोड़कर जिनकी दूसरी कोई गति नहीं है, हे रामजी ! आप उनके मन में बसिये।

जो परायी स्त्री को उसे जन्म देने वाली माता के समान मानते हैं और पराया धन जिन्हें विष से भी भारी लगता है, जो दूसरों की संपत्ति देखकर हर्षित होते हैं और विपत्ति देखकर विशेष रूप से दुःखी होते हैं तथा हे रामजी ! जिन्हें आप प्राणों के समान प्यारे हैं उनके मन आपके रहने योग्य शुभ भवन हैं।

हे तात ! जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता और गुरु सब कुछ आप ही हैं, उनके मनरूपी मंदिर में आप दोनों भाई सीतासहित निवास कीजिये।

जो अवगुणों को छोड़कर सबके गुणों को ग्रहण करते हैं, ब्राह्मण और गौ के लिए संकट सहते हैं, नीति निपुणता में जिनकी जगत में मर्यादा है, उनका सुंदर मन आपका घर है।

जो गुणों को आपका और दोषों को अपना समझते हैं, जिन्हें सब प्रकार से आपका ही भरोसा है और रामभक्त जिन्हें प्यारे लगते हैं उऩके हृदय में आप सीतासहित निवास कीजिये।

जाति, पाँति, धन, धर्म, मान-बड़ाई, प्यारा परिवार और सुख देने वाला घर-इन सबको छोड़कर जो केवल आपको ही हृदय में धारण किये रहते हैं, हे रघुनाथजी ! आप उनके हृदय में रहिये।

स्वर्ग, नरक और मोक्ष जिनकी दृष्टि में समान हैं क्योंकि वे सर्वत्र आपको ही देखते हैं और जो कर्म, वचन और मन से आपके दास हैं, हे रामजी ! आप उनके हृदय में डेरा डालिये।

जिनको कभी कुछ भी नहीं चाहिए और जिनका आपसे स्वाभाविक प्रेम है, आप उनके मन में निरन्तर निवास कीजिये, वह आपका अपना घर है।”

इस प्रकार वाल्मीकिजी ने श्रीरामजी को निवास स्थान बताये। वास्तव में यदि कोई वाल्मीकि जी द्वारा दर्शाये गये संकेतों के अनुसार अपना हृदय बना ले तो उस हृदय में हृदयेश्वर परमात्मा अवश्य निवास करने लगें।

वाल्मीकि जी के तीन अवतार हुए। ʹश्रीयोगवाशिष्ठमहारामायणʹ के ʹकागभुशुण्डी-वशिष्ठ संवादʹ में वर्णन आता है। जो लोग वाल्मीकि जी के नाम या और किसी नाम से समाज और संत को बीच विद्रोह फैलाकर आगेवानी चाहते हैं उनको वाल्मीकि जी के वचन ठीक से समझने चाहिए। वालिया में से वाल्मीकि बने वे वाल्मीकि या तीन बार वाल्मीकि आये वे वाल्मीकि ? आप कौन-से वाल्मीकि को मानकर विद्रोह फैलाना चाहते हैं ? कृपा करके आप महापुरुष के होकर महापुरुषों के प्रति स्नेह रखें और उनके अंतःकरण को समझें। विद्रोह करके या करवाके अपने को, जाति को, समाज को खोखला न बनायें।

सभी समाजों की गहराई में राम जी, वाल्मीकि जी की आत्मा है। वाल्मीकि जी की समझ कितनी ऊँची है ! उनकी समझ सभी के लिए है, उनका ज्ञान सभी के लिए है। उनके ज्ञान का आदर करें, उनकी प्रेमदृष्टि का आदर करें। उनका नाम आगे रखकर विद्रोह का…..

भगवान सबको सदबुद्धि दे। देशवासी परस्पर मिलजुलकर रहें। सभी वर्ग, सभी जातियाँ इस विराट भारत माँ की संतानें हैं।

तुझमें राम मुझमें राम, सबमें राम समाया है।

कर लो सभी से प्यार जगत में, कोई नहीं पराया है।।

एक ही माँ के बच्चे हम सब, एक ही पिता हमारा है।

फिर भी ना जाने किस मूरख ने, लड़ना तुम्हें सिखाया है।।

भिड़ना-भिड़ाना तुम्हें सिखाया है।

बदला जमाना तुम भी बदलो, कलह के कृत्य छोड़ो…

प्रेम से समजा को जोड़ो….

तुझमें राम मुझमें राम, सबमें राम समाया है।

कर लो सभी से प्यार जगत में, कोई नहीं पराया है।।

क्यों भैया ! समझ गये न !

हाथ में जल लें और आज से ही संकल्प करें कि ऐसे विद्रोह में आयेंगे नहीं और विद्रोह फैलायेंगे नहीं। ૐ…..ૐ…..ૐ…. शांति….

जय वाल्मीकि ऋषि

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1999, पृष्ठ संख्या 19-21 अंक 82

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