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साधक सिद्ध कैसे बने ?


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

साधारण से दिखनेवाले मनुष्य में इतनी शक्तियाँ छुपी हुई हैं कि वह हजारों जन्मों के कर्मबन्धनों और पाप-तापों को काटकर अपने अजन्मा, अमर आत्मा में प्रतिष्ठित हो सकता है। मनुष्य तो क्या, यक्ष, गंधर्व, किन्नर एवं देवता भी उसका दर्शन पाकर तथा यशोगान करके अपना भाग्य बनाने लगें – ऐसा खजाना मनुष्य के भीतर छुपा हुआ है। महान होने की इतनी सम्भावनाओं के रहते हुए भी मानव बहिर्मुख होने के कारण पशु की नाईं जीवन जीता है,  व्यर्थ के तुच्छ भोग विलास में ही अपना अमूल्य जीवन बिता देता है और अंत में अतृप्ति के कारण निराश होकर मर जाता है। व्यर्थ की चर्चा करने, बोलने, विचारने तथा मनोरथ गढ़ने में ही भोला मनुष्य अपनी आन्तरिक शक्तियों का ह्रास कर डालता है।

….किन्तु साधक का जीवन संसारियों के जीवन से भिन्न होता है। संसारी लोगों की बातों में लोभ-मोह-अहंकार का पुट होता है लेकिन साधक के चित्त में निर्मलता, निर्मोहिता, निर्भीकता एवं निरहंकारिता की सुवास होती है। संसारी मनुष्य नश्वर सुख-भोग की वस्तुओं का संग्रह करके इन्द्रियजन्य सुखों को भोगने को  उत्सुक होता है जबकि साधक संसार के नश्वर सुख-भोग की वस्तुओं की अपेक्षा न करके अंतर्मुख होकर, आत्मानंद को पाने के महान रास्ते पर चलता है। संसारी मनुष्य किसी की निन्दा-स्तुति करके तो किसी में राग-द्वेष करके अपने चित्त को मलिनता की खाई में डालता है, जबकि साधक निंदा-स्तुति, मान-अपमान और राग-द्वेष को चित्त की वृत्तियों का खिलवाड़ समझकर अपने भीतर ही आत्मा में गोता मारने का प्रयास करता है। अपने स्वरूप को स्नेह करते-करते साधक निजानंद-स्वभाव में तृप्त होने को उत्सुक होता है जबकि निगुरा मनुष्य निजानंद-स्वभाव से बेखबर होकर विकारों के जाल में फँसा रहता है।

इसीलिए उन्नति चाहने वाले संयमी साधक को विकारी जीवन बिताने वाले संसारी लोगों से मिलने में घाटा ही घाटा है जबकि परमात्मप्राप्त महापुरुषों का सान्निध्य उसके जीवन में उत्साह और आनंद भरने में बड़ा सहायक सिद्ध होता है। सत्यस्वरूप परमात्मा में रमण करने वाले उन आत्मारामी सत्पुरुषों के श्रीचरणों  में जाकर साधक आत्मधन की संपत्ति हासिल कर सकता है लेकिन जब वह असावधानी से संसारियों एंव विकारियों के बीच में पड़ जाता है, उनके संपर्क में आने लगता है तो वह अपनी ध्यान और धारणा की शक्ति का ह्रास कर लेता है, आध्यात्मिक ऊँचाइयों से फिसल पड़ता है। अगर कोई साधक इस शक्ति का संचय करते हुए अपनी आत्मा में  प्रतिष्ठित होने तक उसे सावधानी से सँभालकर रखे तो वह साधक देर-सेवर एक दिन सिद्ध हो जाता है।

साधक के लिए एकान्तवास, धारणा-ध्यान का अभ्यास, ईश्वरप्राप्ति, शास्त्रविचार एवं महापुरुषों की संगति – ये सभी अनिवार्य शर्तें हैं।

एकान्त में विचरण करना, कुछ दिनों के लिए एक कमरे में अकेले ही मौन रहकर धारणा-ध्यान का अभ्यास करना साधना में सफलता पाने के लिए परम लाभकारी है। वेदान्त की बातें सुनकर भी जो एकान्तवास तथा ध्यान-धारणा की अवहेलना करता है उसके पास केवल कोरी बातें ही रह जाती हैं लेकिन जिन्होंने वेदान्त के वचनों को सुनकर एकान्त में उसका मनन करते हुए निदिध्यासन की भूमिका हासिल की है वे साधक सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं।

व्यर्थ का बोलना, सुनना एवं देखना साधक पसंद नहीं करता क्योंकि व्यर्थ का बोलने एवं जोर से बोलने से प्राणशक्ति, मनःशक्ति तथा एकाग्रता की शक्ति क्षीण होती है। व्यर्थ का देखने से चित्त में कुसंस्कार घुस जाते हैं और व्यर्थ का सुनने से चित्त मलिन हो जाता है। अतः उन्नति के चाहक को चाहिए कि वह व्यर्थ का देख-सुनकर अपनी शक्ति को क्षीण होने से बचाये।

साधक उचित आहार-विहार से अपना सत्त्वगुण संजोये रखता है। सत्त्वगुण की रक्षा करना उसका परम कर्त्तव्य बन जाता है। उसे फिर ज्ञान बढ़ाने के लिए किसी शास्त्र की आवश्यकता नहीं पड़ती वरन् सत्त्वगुण बढ़ते ही साधक में ज्ञान अपने-आप प्रगट होने लगता है।

सत्त्वात्संजायते ज्ञानम्…..

जैसे लोभी धन को सँभालता है, मोही कुटुम्बियों को सँभालता है ठीक ऐसे ही साधक अपने चित्त को चंचल, क्षीण एवं उग्र होने से बचाता है। जिन कारणों से चित्त में क्षोभ पैदा होता है, जिन कारणों से चिन्ता और भय बढ़ते हैं ऐसे क्रिया कलापों से साधक सदैव सावधान रहता है। अगर इस प्रकार की परिस्थिति बलात् आ भी जाये तो साधक शांति से जप-ध्यान, शास्त्राध्ययन आदि का आश्रय लेकर विक्षेप उत्पन्न करने वाले उऩ क्रिया-कलापों एवं विचारों से अपने को मुक्त कर लेता है।

साधक को चाहिए कि वह अपने-आपका मित्र बन जाये। अगर साधक परमात्मप्राप्ति के लिए सजग रहकर आध्यात्मिक यात्रा करता रहता है तो वह अपने-आपका मित्र है और अगर वह अनात्म पदार्थ में, संसार के क्षणभंगुर भोगों में ही अपना समय बरबाद कर देता है तो वह अपने-आपका शत्रु हो जाता है।

उच्च कोटि का साधक जानता है किः

चातक मीन पतंग, जब बिन ना रह पाय।

साध्य को पाये बिना, साधक क्यों रह जाय ?

बुद्धिमान साधक समझता है कि उसका लक्ष्य आत्मज्ञान पाना है और इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए जीवन में थोड़ी-बहुत दृढ़ता जरूरी है। जो लोग दूसरों को खुश करने में, मित्रों को रिझाने में या वाहवाही में अपने लक्ष्य को ठोकर मार देते हैं, अपने परम कर्त्तव्य को भूल जाते हैं वे फिर कहीं के नहीं रहते। मित्र या कुटुम्बीजन हमारा जितना समय खराब करते हैं, उतना श6 भी नहीं करते। अतः बुद्धिमान साधक इस विषय में बड़ा सावधान रहता है ताकि उसका अमूल्य समय कहीं व्यर्थ की बातों में ही नष्ट न हो जाये।

इसलिए वह कभी-कभी मौनव्रत का अवलंबन ले लेता है जिससे उसकी जीवनशक्ति बिखरने से बच जायें। साधक मौन एवं एकांत-सेवन का जितना अधिक अवलंबन होता है, उती ही उसकी दृढ़ता में बढ़ोतरी होती जाती है।

हे साधक ! तू अपनी दृढ़ता बढ़ा, धारणा शक्ति बढ़ा। तुझमें ईश्वर का असीम बल छुपा है। परमात्मा तुझमें ज्ञानरूप से प्रकट होने की प्रतीक्षा कर रहा है। तेरे भीतर विश्वनियंता अपने  पूर्ण बल, तेज, ओज, आनंद और प्रेमसहित प्रकट होना चाहता है। अतः हे साधक ! तू सावधान रहना। कहीं संसार के कँटीले मार्गों में उलझ न जाना। जीवनदाता से मुलाकात किये बिना ही कहीं जीवन की शाम न ढल जाये। अतः सावधान रहना, भैया !

जब संसार स्वप्न जैसा लगे, तब आंतरिक सुख की शुरुआत होती है। जब संसार मिथ्या भासित होने लगे, उसका चिंतन न हो, तब अंतःकरण में शांति व आराम प्रगट होने लगते हैं। जब चित्त अपने चैतन्य स्वरूप परम स्वभाव में तल्लीन होने लगे, तब आंतरिक आनंद प्रगट होने लगता है।

सारी मुसीबतें संसार को सत्य मानने एवं बहिर्मुख होने से ही आती है। अगर साधक अन्तर्मुख हो जाये तो उसे संसार स्वप्नवत् लगने लगे। अतः साधक को सदैव अन्तर्मुख होने का अभ्यास करना चाहिए। ऐसा करने से उसकी सारी व्याकुलताएँ, दुःख, शोक एवं चिन्ताएँ अपने आप गायब हो जायेंगी।

जो समय हमें परमात्मा को जानने में लगाना चाहिए, ज्ञान पाने में लगाना चाहिए, अंतर्मुख होने में लगाना चाहिए वही समय हम संसार की तुच्छ वस्तुओं, भोगों एवं बहिर्मुखता में लगा देते हैं, इसीलिए ईश्वरप्राप्ति में विफल हो जाते हैं।

संसार के प्रति आकर्षण का कारण है ईश्वर में श्रद्धा का अभाव एवं अंतर्मुख होने में लापरवाही। अगर साधक अंतर्मुख होता जाये तो उसका आत्मबल उत्तरोत्तर बढ़ता जाये और एक दिन उसके सारे दुःखों का अंत हो जाये। चाहे कैसा भी आत्मज्ञान की कुंजी मिल जाये, अंतर्मुख होने की कला आ जाये तो पाप में इतनी ताकत ही नहीं कि उसके आगे टिक सके।

मौन, जप, उचित आहार-विहार, एकांत सेवन एवं आत्मविचार अंतर्मुखता लाने में अत्यंत सहायक सिद्ध होते हैं। जिन्होंने भी लोकसम्पर्क से दूर रहकर अज्ञात स्थान में एकांतसेवन किया तथा अल्पाहार का आश्रय लिया, एकान्त में रहकर ध्यान और योग के बल से अपनी जीवनशक्ति को विकसित करके जीवनदाता को, नित्यज्ञान, नित्यप्रेम और नित्य आत्मसुख को पाने का प्रयत्न किया, वे ही महापुरुष हो गये। लेकिन जिन्होंने लोकसंपर्क का सतत सेवन किया और लोकेश्वर के लिए अंतर्मुख होना स्वीकार नहीं किया, उनके पास केवल कोरी बातें ही रह गयीं। जिन्होंने भी मन की वृत्तियों को बहिर्मुख करके उन्हें कल्पनाओं की धारा में बहाया, उन्होंने वास्तव में अपनी जीवनशक्ति को क्षीण करने में ही समय गँवाया, अतः उनके जीवन में अँधेरा ही छाया रहा।

मदालसा, गार्गी, याज्ञवल्क्य आदि विभूतियाँ एकान्तसेवन तथा मौन का अवलंबन लेकर ही महान बनीं। भगवान बुद्ध ने लगातार छः वर्षों तक जंगलों में अज्ञात रहकर कठोर साधना की और ध्यान समाधि में तल्लीन रहे। आद्यशंकराचार्य के गुरु गोविन्दाचार्यजी भी नर्मदा तट पर स्थित ओंकारेश्वर में एक गुफा में सैंकड़ों वर्षों तक समाधिस्थ रहे। आज तक जितने भी महापुरुष एवं महान विभूतियाँ हुई हैं, उन्होंने अपने जीवन में मौन, एकांतसेवन, जप-ध्यान-धारणा एवं समाधि को ही महत्त्व दिया था। वे अपने निजस्वरूप में स्थित रहकर आत्ममस्ती में विचरते रहे।

रमण महर्षि 53 वर्ष तक अरुणाचलम में रहे। इस बीच उन्होंने अनेकों वर्ष एकान्त में एवं योगाभ्यास में व्यतीत किये तथा समाधि में वे निमग्न रहे।

उत्तरकाशी में कृष्णबोधआश्रम नामक महापुरुष ने अज्ञात व एकान्तसेवन कर साधनामय जीवन बिताया और बड़े प्रसिद्ध हो गये।

गंगोत्री में तपोवन स्वामी नामक एक विरक्त महात्मा ने गौमुख की बर्फीली पहाड़ियों पर जाकर एकान्तसेवन करते हुए अपनी धारणाशक्ति को विकसित किया और आत्मचिंतन की धारा में मन की वृत्तियों को प्रवाहित कर ब्रह्माकार वृत्ति प्रगट की।

श्रीरंग अवधूत महाराज ने लम्बे समय तक नर्मदा के किनारे अज्ञात रहकर एकांतसेवन किया तथा घास-फूस की कुटिया बनाकर वे ब्रह्माभ्यास को बढ़ाते रहे।

श्री अरविन्द घोष जैसे प्रसिद्ध व्यक्ति भी वर्षों तक एक कमरे में बंद रहे, अपने निवास से बाहर नहीं निकले। वे भी भारत के एक बड़े योगी के रूप में प्रसिद्ध हुए।

निलेश स्वामी ने नेपाल के जंगलों में एकांतसेवन कर आत्ममस्ती का लाभ लिया।

उत्तरकाशी और नैनीताल के भयानक अरण्यों में पूज्यपाद स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज भी वर्षों तक अज्ञात एकान्त में आत्मयात्रा करते हुए, निजानंद की मस्ती लूटते हुए विचरते रहे। आत्ममस्ती से सराबोर वे दिव्य महापुरुष हजारों-लाखों लोगों के बिखरे हुए जीवन को सँवारने तथा साधकों के जीवन को जीवनदाता की ओर अग्रसर करने में समर्थ हुए।

सभी संत महापुरुष एकान्त के बड़े प्रेमी होते हैं। जिनको एकान्त में परमात्मा का ध्यान करने की कला आ गयी, जिन्होंने एकाकी जीवन का मूल्य जाना है, वे व्यर्थ के सांसारिक झमेलों में पड़कर अपना आयुष्य बरबाद करना पसंद नहीं करते। ऐसे लोग व्यवहार में रहते हुए भी एकान्त में जाने को उत्सुक रहते हैं। और तो सब देव हैं लेकिन शिवजी महादेव हैं। उन्हें भी जब देखो तब एकान्त में समाधिस्थ रहते हैं।

हम आये थे अकेले, जायेंगे अकेले। रात को भी तो अकेले ही रहते हैं। जब इन्द्रियाँ और मन शांत होकर निद्राधीन होते हैं तभी शरीर की थकान मिटती है। इसी प्रकार अगर समय रहते हुए आत्मध्यान में तल्लीन होना सीख लें तो सदियों की थकान मिट सकती है।

उठो…. कमर कसो। समय पल-पल करके बीता जा रहा है… मृत्यु नजदीक आ रही है। पुरुषार्थ करो। एकान्तवास करो। धारणा-ध्यान का अभ्यास तथा शास्त्रविचार एवं महापुरुषों की संगति करो और उस परम सुखरूप परमात्मा को पाकर मुक्त हो जाओ। अतः सत्संग-कार्यक्रम माँगने का दुराग्रह न करो। हम भी अब एकान्त का समय बढ़ा रहे हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2000, पृष्ठ संख्या 7-10, अंक 87

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भगवान का अनुभव कैसे ?


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

परमात्मा कैसा है ? आत्मा का स्वरूप क्या है ? कोई कहता है कि भगवान तो मोरमुकुटधारी हैं। कोई कहता है कि भगवान तो मर्यादापुरुषोत्तम हैं। कोई कहता है कि भगवान सर्वगुणसम्पन्न हैं। कोई कहता है कि भगवान सर्वशक्तिमान हैं। कोई कहता है कि भगवान सर्वत्र हैं। कोई कहता है कि वे वैकुण्ठ, कैलास आदि में हैं। कोई कहता है कि भगवान हमारे हृदय में बैठे हैं। कोई कहता है कि कण-कण में भगवान हैं। कोई कहता है कि नहीं… यह सब माया का  पसारा है। भगवान तो निर्गुण-निराकार हैं।

कोई कहता हैः “नहीं…. निर्गण-निराकार तुम्हारी दृष्टि में होगा। हम तो साकार भगवान को पूजते हैं। मुरलीमनोहरस मोरमुकुट एवं पीताम्बरधारी जो हैं, वे ही हमारे भगवान हैं। उनको हम सुबह बालभोग, दोपहर को राजभोग एवं शाम को भी भोग लगाकर ही खाते हैं। हमारे भगवान के दर्शन करने हों तो चलो, हम तुम्हें करवाते हैं।

पूछोः “कहाँ हैं भगवान ?”

कहेंगेः “चलो हमारे साथ।”

ले जायेंगे पूजा के कमरे में। हटायेंगे पर्दा और कहेंगेः “ये हैं हमारे भगवान।”

इस प्रकार कोई कहता है कि भगवान स्थान-विशेष में हैं तो कोई कहता है वे सर्वत्र हैं। कोई कहता है वे सर्वगुणसंपन्न हैं तो कोई कहता है गुणातीत हैं। कोई कहता है वे साकार हैं तो कोई कहता है कि निराकार हैं। अब हम भगवान श्रीकृष्ण के पास चलते हैं और देखते हैं कि वे क्या कहते हैं। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।

आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रृत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित।।

ʹकोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही (इसके तत्त्व का) आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई (अधिकारी पुरुष) ही इस आत्मा को आश्चर्य की तरह सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको (आत्मा को) नहीं जानता।ʹ (गीताः 2.29)

कोई व्यक्ति भगवान को आश्चर्य की भाँति देखता है किः “आहाहा… हमने भगवान की छवि देखी ! आज रात को मुझे ऐसा स्वप्न आया था कि ʹमोरमुकुटधारी भगवान मेरे सामने प्रकट हुए हैं और वे मुझसे पूछ रहे हैं कि, “क्या हाल है ?ʹ ….और मैं कह रहा हूँ कि, भगवन् ! आपकी कृपा है।ʹ फिर उन्होंने बड़े प्रेम से मेरे सिर पर हाथ फेरा जिससे मैं तो गदगद हो गया !”

ʹकोई व्यक्ति भगवान को, आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है…ʹ इसका एक अर्थ ऐसा भी हो सकता है कि जैसे संसार की दूसरी चीजें देखने, सुनने, पढ़ने और जानने में आती हैं वैसे इस परमात्मा को नहीं जाना जा सकता, क्योंकि अन्य वस्तुएँ तो देह-इन्द्रिय-बुद्धि के द्वारा जानी जाती हैं जबकि परमात्मा को तो स्वयं अपने-आपसे ही जाना जाता है। इसीलिए कहा गया हैः

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम्…..

कोई इसको आश्चर्य की तरह कहता है- आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः…. क्योंकि यह परमात्मतत्त्व वाणी का विषय नहीं है। जिससे वाणी प्रस्फुटित होती है, वाणी उसका वर्णन कैसे कर सकती है ? फिर भी भगवान के गुण-कर्म, लीला-स्वभाव आदि का वर्णन करके महापुरुष लोग वाणी से उनकी ओर केवल संकेत ही करते हैं ताकि सुनने वाले का लक्ष्य उधर हो जाये।

आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति….

कोई इस आत्मा को आश्चर्य की तरह सुनता है क्योंकि दूसरा जो कुछ भी सुनने में आता है वह सब इन्द्रियाँ, मन एवं बुद्धि का विषय होता है किन्तु परमात्मा न इऩ्द्रियों का विषय है, न मन का और न बुद्धि का, वरन् वह तो इन्द्रियादि सहित उनके विषयों को भी प्रकाशित करने वाला है। इसलिए आत्मा (परमात्मा) सम्बन्धी विलक्षण बात को वह आश्चर्य की तरह सुनता है।

श्रृत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।

ʹसुनकर भी इसको कोई नहीं जानता।ʹ

इसका तात्पर्य यह कि केवल सुनकर इसको कोई भी नहीं जान सकता वरन् सुनने के बाद जब वह स्वयं उसमें स्थित होगा, तब वह अपने-आप से ही अपने-आपको जानेगा।

श्रृतियाँ अनेक हैं, स्मृतियाँ अऩेक हैं, पुराण भी अठारह है। इनमें जो जैसा पाता है, भगवान को ठीक वैसा-वैसा मानता है। हकीकत में अति विस्मयकारक बात और तथ्य यह है कि पशु से लेकर परम सूक्ष्म जीवाणुओं में भी वही आत्मा सूक्ष्म रूप से स्थित है। कोई उसे छोटा कहता है तो भी ठीक है और कोई उसे बड़ा कहता है तो भी ठीक है… कोई परमात्मा को सगुण-निराकार कहता है तो भी ठीक है। येन-केन-प्रकारेण वह अपनी बुद्धि को भगवान में तो लगा रहा है… इस बात से हमें आनंद है। बस, हमारा यही एकमात्र कर्त्तव्य है कि हम अपनी बुद्धि को परमात्मा में प्रतिष्ठित करें।

इस युग में अधिकांश लोग विषयपरायण हो चले हैं। विषय-भोगों में वे इतने लिप्त हो गये हैं कि जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। उस परमात्मा के विषय में जानना तो दूर, विचार तक नहीं करते। वह आत्म-परमात्मतत्त्व इतना सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है और महान से भी महान है कि हम उसकी कल्पना तक नहीं कर सकते। कीड़ी के पग नेवर बाजे सो वह भी साहिब सुनते हैं….इतना वह सूक्ष्म है। हमारे बोलने-चालने एवं हिलने-डुलने से कितने ही जीवाणु मर जाते हैं। वैज्ञानिक लोगों का कहना है कि जब हम बोलते हैं तब असंख्य जीवाणु मर जाते हैं। इस हाथ को उठाने एवं नीचे लाने में भी न जाने कितने ही सूक्ष्म-से-सूक्ष्म जीवाणु मर जाते होंगे ! क्षण-क्षण में लाखों-करोड़ों जीवाणु उत्पन्न होते एवं मरते रहते हैं। इस शरीर में भी असंख्य बैक्टीरिया उत्पन्न होते एवं मरते रहते हैं जो कि ʹमाइक्रोस्कोपʹ (सूक्ष्मदर्शी यंत्र) से देखने में आते हैं। इतने वे सूक्ष्म हैं ! जब वे जीवाणु इतने सूक्ष्म हैं, तो उनका हृदय कितना सूक्ष्म होगा और उस हृदय में बैठा हुआ भगवान कितना सूक्ष्म होगा, कितना छोटा होगा ! बाल के अग्रभाग के एक लाख हिस्से करो। उसमें से एक हिस्से पर भी हजार बैक्टीरिया (जीवाणु) बैठ जाते हैं और उनमें भी भगवान की चैतन्यता मौजूद होती है। आप सोचिये कि भगवान कितने समर्थ और व्यापक हैं ! किन्तु हम अल्पज्ञ हो गये हैं, उच्छ्रंखल हो गये हैं इसीलिए आत्ममहिमा से दूर हैं। एक फकीर ने कहा हैः

अल्ला रे अल्ला ! क्या फैज है मेरे साकी का !

अपने हिस्से की भी वे मुझे पिलाये जाते हैं ।।

अर्थात् भगवान कैसे हैं ? शांति के महासागर…. आनंद के महास्रोत… वे अपने हिस्से की शांति, आनंद, माधुर्य आदि का हमें अनुभव करवा रहे हैं फिर भी हम उन्हें दूर मानते हैं। हम उन्हें किसी अवस्था विशेष अथवा स्थान-विशेष में मानते हैं जो हमारी बड़ी भारी भूल है, गलती है। इससे हमारी श्रद्धा और विश्वास डावाँडोल हो जाते हैं, चित्त में संशय हो जाता है और संशयात्मा विनश्यति।

जहाँ संशय होता है वहाँ विनाश हुआ समझो। भगवान को जब-जब केवल आकाश-पाताल में मानेंगे, किसी मंदिर-मस्जिद-गिरिजाघर-गुरुद्वारे में मानेंगे या किसी अवस्था-विशेष अथवा स्थान-विशेष में मानेंगे, जैसे कि ʹफलानी जगह जायेंगे तब भगवान मिलेंगे…. फलानी अवस्था आयेगी तब भगवान मिलेंगे….. ऐसा-ऐसा करेंगे तब भगवान मिलेंगे….ʹ तब-तब भगवान दूर हो जायेंगे। हैं तो भगवान निकट से भी निकट, लेकिन दूर मानने से दूर हो गये और जिसने भगवान को निकट समझा, अपने हृदय में स्थित समझा उसके भीतर भगवान ने शांतिरूप से, आनंदरूप से, और भी पता नहीं किस-किस रूप से, जिसका वर्णन नहीं हो सकता ऐसे अवर्णनीय ढंग से अपने अस्तित्त्व का एहसास कराया, अनुभूति करायी और अपना प्रकाश फैलाया।

भगवान को न तो किसी अवस्था-विशेष में मानना है और न ही किसी स्थल-विशेष में मानना है। वह तो सर्वत्र है, सदा है और सबके पास है। वह सबका अपना-आपा होकर बैठा है।

कोई जिज्ञासु यहाँ प्रश्न उठा सकता है किः ʹजब भगवान सर्वत्र है, सदा है, हमारे ही भीतर है तो फिर संतों के पास, सदगुरु के पास जाने की क्या जरूरत ? सत्संग सुनने की क्या जरूरत ?ʹ

जैसे, यहाँ आपके व मेरे पास रेडियो एवं टेलिविजन की तरंगे हैं, फिर भी हमें सुनाई-दिखाई नहीं देतीं। क्यों ? क्योंकि इस समय यहाँ पर रेडियो या टेलिविजन नहीं है, रेडियो का एरियल नहीं है, टी.वी. की ʹएन्टीनाʹ नहीं है। हमारे पास ये साधन-सामग्रियाँ होंगी तभी हम रेडियो भी सुन पायेंगे और टी.वी. भी देख पायेंगे। ठीक इसी प्रकार भगवान सर्वत्र हैं। रेडियो और टी.वी. की तरंगे जितनी व्यापक होती हैं उससे भी कहीं ज्यादा व्यापक भगवान की सत्ता है लेकिन उसकी कृपा से ही मिलता है क्योंकि संतों के हृदय में ही भगवान ने अपना प्रादुर्भाव कर रखा है।

संतों ने अपने हृदय में ʹएन्टीनाʹ लगा रखा है। इस एन्टीना से उन्हें भगवान के दर्शन हुए हैं और उसकी महिमा का वे वर्णऩ भी कर सकते हैं। इसीलिए हम संतों के सान्निध्य की अपेक्षा रखते हैं। जैसे, इस  पृथ्वी के वायुमंडल में रेडियो और टी.वी. की तरंगों के सर्वत्र व्याप्त होने पर भी बिना टी.वी. व रेडियो के उन्हें देखना और सुनना कठिन है, ठीक इसी प्रकार भगवान की सर्वव्यापकता होने के बावजूद भी उनके आनंद, उनकी शांति, उनके माधुर्य का अऩुभव बिना सदगुरु व सत्संग के करना कठिन है। यह अनुभव तो केवल संतों के सान्निध्य एवं सत्संग से ही प्राप्त किया जा सकता है।

ठीक ही कहा हैः

कर नसीबांवाले सत्संग दो घड़ियाँ….

अहंकारी, मनमुख और दूसरों के यशो-तेज से उद्विग्न निंदकों के लिए नानकजी ने कहा हैः

संत कै दूखनि आरजा घटै। संत कै दूखनि जम ते नहीं छूटै।

संत कै दूखनि सुखु सभ जाई। संत कै दूखनि नरक मांहि पाइ।।

संत कै दूखनि मति होइ मलीन। संत कै दूखनि सोभा ते हीन।।

संत कै हते कउ रखै न कोई। संत कै दूखनि थान भ्रसटु होई।।

संत कृपाल कृपा जे करैं। ʹनानकʹ संत संगि निंदकु भी तरै।।

निंदकों की बातों में न आने वाले सत्संगी तो फायदा उठाते हैं। दृढ़निश्चयी पुण्यात्मा शिष्यों साधकों भक्तों के लिए मानों नानक जी कह रहे हैं-

साध के संगि मुख ऊजल होत।। साध संगि मलु सगली खोत।।

साध के संगि मिटै अभिमानु।। साध कै संगि प्रगटै सु गिआनु।।

साध कै संगि बुझै प्रभु नेरा।

साध कै संगि पाए नाम रतनु। साध कै संगि एक ऊपरि जतनु।।

साध की महिमा बरनै कउनु प्रानी।। नानक ! साध की सोभा प्रभ माहि समानी।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2000, पृष्ठ संख्या 87-89, अंक 87

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दीर्घायु का रहस्य


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

चीन के पेकिंग (बीजिंग) शहर के एक 250 वर्षीय वृद्ध से पूछा गयाः “आपकी इतनी दीर्घायु का रहस्य क्या है ?”

उस चीनी वृद्ध ने जो उत्तर दिया, वह सभी के लिए लाभदायक व उपयोगी है। उसने कहाः

“मेरे जीवन में तीन बातें हैं जिनकी वजह से मैं इतनी लम्बी आयु पा सका हूँ।

एक तो यह है कि मैं कभी उत्तेजना के विचार नहीं करता। दिमाग में उत्तेजनात्मक विचार नहीं भरता हूँ। मेरे दिल-दिमाग शांत रहें, ऐसे ही विचारों को पोषण देता हूँ।

दूसरी बात यह है कि मैं उत्तेजित करने वाला, आलस्य को बढ़ाने वाला भोज्य पदार्थ नहीं लेता और न ही अनावश्यक भोजन लेता हूँ। मैं स्वाद के लिए नहीं, स्वास्थ्य के लिए भोजन करता हूँ।

तीसरी बात यह है कि मैं गहरा श्वास लेता हूँ। नाभि तक श्वास भर जाये इतना श्वास लेता हूँ और फिर छोड़ता हूँ। अधूरा श्वास नहीं लेता।”

लाखों-करोड़ों लोग इस रहस्य को नहीं जानते हैं। वे पूरा श्वास नहीं लेते हैं। पूरा श्वास लेने से फेफड़ों का एवं दूसरे अवयवों का अच्छी तरह से उपयोग होता है एवं श्वास की गति कम होती है। जो लोग आधे श्वास लेते हैं वे एक मिनट में 14-15 श्वास गँवा देते हैं। जो लोग लम्बे श्वास लेते हैं वे एक मिनट में 10-12 श्वास ही लेते हैं, इसस आयुष्य की बचत होती है।

कार्य करते समय एक मिनट में 12-13 श्वास खर्च होते हैं। दौड़ते समय या चलते-चलते बात करते समय एक मिनट में 18-20 श्वास खर्च होते हैं। क्रोध करते समय एक मिनट में 24 से 28 श्वास खर्च हो जाते हैं और काम भोग के समय एक मिनट में 32 से 36 श्वास खर्च हो जाते हैं। जो अधिक विकारी है उनके श्वास ज्यादा खत्म होते हैं, उनकी नस-नाड़ियाँ जल्दी कमजोर हो जाती हैं। हर मनुष्य का जीवनकाल उसके श्वासों के मुताबिक कम-अधिक होता है। कम श्वास (प्रारब्ध) लेकर आया है तो भी निर्विकारी जीवन जी लेगा। भले कोई अधिक श्वास लेकर आया हो लेकिन अधिक विकारी जीवन जीने से वह उतना नहीं जी सकता जितना जी सकता था।

जब आदमी शांत होता है तो उसके शरीर से जो आभा निकलती वह बहुत शांति से निकलती हैं और जब आदमी उत्तेजनात्मक भावों में, विचारों में आता है या क्रोध के समय काँपता है उस वक्त उसके रोमकूप से अधिक आभा निकलती है। यही कारण है कि क्रोधी आदमी जल्दी थक जाता है जबकि शांत आदमी जल्दी नहीं थकता।

शातं होने का मतलब यह नहीं कि आलसी होकर बैठे रहें। अगर आलसी होकर बैठे रहेंगे तो शरीर के पुर्जे बेकार हो जायेंगे, शिथिल हो जायेंगे, बीमार हो जायेंगे। उन्हें ठीक करने के लिए फिर श्वास ज्यादा खर्च होंगे।

अति परिश्रम न करें और अति आरामप्रिय न बनें। अति खाये नहीं और अति भुखमरी न करें। अति सोये नहीं और अति जागे नहीं। अति संग्रह न करें और अति अभावग्रस्त न बनें। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा हैः युक्ताहारविहारस्य….

डॉ. फ्रेडरिक कई संस्थाओं के अग्रणी थे। उन्होंने 84 वर्षीय एक वृद्ध सज्जन को सतत कर्मशील रहते हुए देखकर पूछाः “एक तो 84 वर्ष की उम्र, नौकरी से सेवानिवृत्त, फिर भी इतने सारे कार्य और इतनी भागदौड़ आप कैसे कर लेते हैं ? ग्रह-नक्षत्र की जाँच परख में आप मेरा इतना साथ दे रहे हैं ! क्या आपको थकान या कमजोरी महसूस नहीं होती ? क्या आपको कोई बीमारी नहीं है ?”

जवाब में उस वृद्ध ने कहाः “आप अकेले ही नहीं, और भी अपने परिचित डॉक्टरों को बुलाकर मेरी तन्दुरुस्ती की जाँच करवा लें, मुझे कोई बीमारी नहीं है।”

कई डॉक्टरों ने मिलकर उस वृद्ध की जाँच की और देखा कि उस वृद्ध के शरीर में बुढ़ापे के लक्षण तो प्रकट हो रहे थे लेकिन फिर भी वह वृद्ध प्रसन्नचित्त था। इसका कारण क्या हो सकता है ?

जब डॉक्टरों ने इस बात की खोज की तब पता चला कि वह वृद्ध दृढ़ मनोबल वाला है। शरीर में बीमारी के कितने ही कीटाणु पनप रहे हैं लेकिन दृढ़ मनोबल एवं प्रसन्नचित्त रहने के कारण रोग के कीटाणु उत्पन्न होकर नष्ट भी हो जाते हैं। वे रोग इनके मन पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाते।”

आलस्य शैतान का घर है। आलस्य से बढ़कर मानव का दूसरा कोई शत्रु नहीं है। जो सतत प्रयत्नशील एवं उद्यमशील रहता है, सफलता उसी का वरण करती है। कहा भी गया हैः

उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणी न मनोरथैः।

न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।

ʹउद्यमशील के ही कार्य सिद्ध होते हैं, आलसी के नहीं। कभी-भी सोये हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं प्रवेश नहीं करते।ʹ

अतः हे विद्यार्थियों ! उद्यमी बनो। साहसी  बनो। अपना वक्त बरबाद मत करो। जो समय को बरबाद करते हैं, समय उन्हें बरबाद कर देता है। समय को ऊँचे एवं श्रेष्ठ कार्यों में लगाने से समय का सदुपयोग होता है एवं तुम्हें भी लाभ होता है। जैसे कोई व्यक्ति चपरासी के पद हो तो आठ घंटे के समय का उपयोग करे! जिलाधीश के पद पर  हो तो भी उतना ही करे तथा राष्ट्रपति के पद पर हो तो भी उतना ही करे, फिर भी समय का उपयोग उतना ही होने पर भी फायदा अलग-अलग होता है। अतः समय का सदुपयोग जितने ऊँचे कार्यों में करोगे, उतना ही लाभ ज्यादा होगा और यदि ऊँचे-में-ऊँचे कार्य परमात्मा की प्राप्ति में समय लगाओगे तो तुम स्वयं परमात्मरूप होने का सर्वोच्च लाभ भी प्राप्त कर सकोगे।

उठो….जागो…. कमर कसो। श्रेष्ठ विचार, श्रेष्ठ आहार विहार एवं श्वास की गति के नियंत्रण की युक्ति को जानकर, दृढ़ मनोबल रखकर, सतत कर्मशील रहकर दीर्घायु बनो। अपने समय को श्रेष्ठ कार्यों में लगाओ। फिर तुम्हारे लिए महान बनना उतना ही सहज हो जायेगा, जितना सूर्योदय होने पर सूरजमुखी का खिलना सहज होता है।

ૐ शांति… ૐ हिम्मत…. ૐ साहस…. ૐ बल…. ૐ दृढ़ता…. ૐ…..ૐ….ૐ…..

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2000, पृष्ठ संख्या 18-20 अंक 87

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