साधक सिद्ध कैसे बने ?

साधक सिद्ध कैसे बने ?


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

साधारण से दिखनेवाले मनुष्य में इतनी शक्तियाँ छुपी हुई हैं कि वह हजारों जन्मों के कर्मबन्धनों और पाप-तापों को काटकर अपने अजन्मा, अमर आत्मा में प्रतिष्ठित हो सकता है। मनुष्य तो क्या, यक्ष, गंधर्व, किन्नर एवं देवता भी उसका दर्शन पाकर तथा यशोगान करके अपना भाग्य बनाने लगें – ऐसा खजाना मनुष्य के भीतर छुपा हुआ है। महान होने की इतनी सम्भावनाओं के रहते हुए भी मानव बहिर्मुख होने के कारण पशु की नाईं जीवन जीता है,  व्यर्थ के तुच्छ भोग विलास में ही अपना अमूल्य जीवन बिता देता है और अंत में अतृप्ति के कारण निराश होकर मर जाता है। व्यर्थ की चर्चा करने, बोलने, विचारने तथा मनोरथ गढ़ने में ही भोला मनुष्य अपनी आन्तरिक शक्तियों का ह्रास कर डालता है।

….किन्तु साधक का जीवन संसारियों के जीवन से भिन्न होता है। संसारी लोगों की बातों में लोभ-मोह-अहंकार का पुट होता है लेकिन साधक के चित्त में निर्मलता, निर्मोहिता, निर्भीकता एवं निरहंकारिता की सुवास होती है। संसारी मनुष्य नश्वर सुख-भोग की वस्तुओं का संग्रह करके इन्द्रियजन्य सुखों को भोगने को  उत्सुक होता है जबकि साधक संसार के नश्वर सुख-भोग की वस्तुओं की अपेक्षा न करके अंतर्मुख होकर, आत्मानंद को पाने के महान रास्ते पर चलता है। संसारी मनुष्य किसी की निन्दा-स्तुति करके तो किसी में राग-द्वेष करके अपने चित्त को मलिनता की खाई में डालता है, जबकि साधक निंदा-स्तुति, मान-अपमान और राग-द्वेष को चित्त की वृत्तियों का खिलवाड़ समझकर अपने भीतर ही आत्मा में गोता मारने का प्रयास करता है। अपने स्वरूप को स्नेह करते-करते साधक निजानंद-स्वभाव में तृप्त होने को उत्सुक होता है जबकि निगुरा मनुष्य निजानंद-स्वभाव से बेखबर होकर विकारों के जाल में फँसा रहता है।

इसीलिए उन्नति चाहने वाले संयमी साधक को विकारी जीवन बिताने वाले संसारी लोगों से मिलने में घाटा ही घाटा है जबकि परमात्मप्राप्त महापुरुषों का सान्निध्य उसके जीवन में उत्साह और आनंद भरने में बड़ा सहायक सिद्ध होता है। सत्यस्वरूप परमात्मा में रमण करने वाले उन आत्मारामी सत्पुरुषों के श्रीचरणों  में जाकर साधक आत्मधन की संपत्ति हासिल कर सकता है लेकिन जब वह असावधानी से संसारियों एंव विकारियों के बीच में पड़ जाता है, उनके संपर्क में आने लगता है तो वह अपनी ध्यान और धारणा की शक्ति का ह्रास कर लेता है, आध्यात्मिक ऊँचाइयों से फिसल पड़ता है। अगर कोई साधक इस शक्ति का संचय करते हुए अपनी आत्मा में  प्रतिष्ठित होने तक उसे सावधानी से सँभालकर रखे तो वह साधक देर-सेवर एक दिन सिद्ध हो जाता है।

साधक के लिए एकान्तवास, धारणा-ध्यान का अभ्यास, ईश्वरप्राप्ति, शास्त्रविचार एवं महापुरुषों की संगति – ये सभी अनिवार्य शर्तें हैं।

एकान्त में विचरण करना, कुछ दिनों के लिए एक कमरे में अकेले ही मौन रहकर धारणा-ध्यान का अभ्यास करना साधना में सफलता पाने के लिए परम लाभकारी है। वेदान्त की बातें सुनकर भी जो एकान्तवास तथा ध्यान-धारणा की अवहेलना करता है उसके पास केवल कोरी बातें ही रह जाती हैं लेकिन जिन्होंने वेदान्त के वचनों को सुनकर एकान्त में उसका मनन करते हुए निदिध्यासन की भूमिका हासिल की है वे साधक सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं।

व्यर्थ का बोलना, सुनना एवं देखना साधक पसंद नहीं करता क्योंकि व्यर्थ का बोलने एवं जोर से बोलने से प्राणशक्ति, मनःशक्ति तथा एकाग्रता की शक्ति क्षीण होती है। व्यर्थ का देखने से चित्त में कुसंस्कार घुस जाते हैं और व्यर्थ का सुनने से चित्त मलिन हो जाता है। अतः उन्नति के चाहक को चाहिए कि वह व्यर्थ का देख-सुनकर अपनी शक्ति को क्षीण होने से बचाये।

साधक उचित आहार-विहार से अपना सत्त्वगुण संजोये रखता है। सत्त्वगुण की रक्षा करना उसका परम कर्त्तव्य बन जाता है। उसे फिर ज्ञान बढ़ाने के लिए किसी शास्त्र की आवश्यकता नहीं पड़ती वरन् सत्त्वगुण बढ़ते ही साधक में ज्ञान अपने-आप प्रगट होने लगता है।

सत्त्वात्संजायते ज्ञानम्…..

जैसे लोभी धन को सँभालता है, मोही कुटुम्बियों को सँभालता है ठीक ऐसे ही साधक अपने चित्त को चंचल, क्षीण एवं उग्र होने से बचाता है। जिन कारणों से चित्त में क्षोभ पैदा होता है, जिन कारणों से चिन्ता और भय बढ़ते हैं ऐसे क्रिया कलापों से साधक सदैव सावधान रहता है। अगर इस प्रकार की परिस्थिति बलात् आ भी जाये तो साधक शांति से जप-ध्यान, शास्त्राध्ययन आदि का आश्रय लेकर विक्षेप उत्पन्न करने वाले उऩ क्रिया-कलापों एवं विचारों से अपने को मुक्त कर लेता है।

साधक को चाहिए कि वह अपने-आपका मित्र बन जाये। अगर साधक परमात्मप्राप्ति के लिए सजग रहकर आध्यात्मिक यात्रा करता रहता है तो वह अपने-आपका मित्र है और अगर वह अनात्म पदार्थ में, संसार के क्षणभंगुर भोगों में ही अपना समय बरबाद कर देता है तो वह अपने-आपका शत्रु हो जाता है।

उच्च कोटि का साधक जानता है किः

चातक मीन पतंग, जब बिन ना रह पाय।

साध्य को पाये बिना, साधक क्यों रह जाय ?

बुद्धिमान साधक समझता है कि उसका लक्ष्य आत्मज्ञान पाना है और इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए जीवन में थोड़ी-बहुत दृढ़ता जरूरी है। जो लोग दूसरों को खुश करने में, मित्रों को रिझाने में या वाहवाही में अपने लक्ष्य को ठोकर मार देते हैं, अपने परम कर्त्तव्य को भूल जाते हैं वे फिर कहीं के नहीं रहते। मित्र या कुटुम्बीजन हमारा जितना समय खराब करते हैं, उतना श6 भी नहीं करते। अतः बुद्धिमान साधक इस विषय में बड़ा सावधान रहता है ताकि उसका अमूल्य समय कहीं व्यर्थ की बातों में ही नष्ट न हो जाये।

इसलिए वह कभी-कभी मौनव्रत का अवलंबन ले लेता है जिससे उसकी जीवनशक्ति बिखरने से बच जायें। साधक मौन एवं एकांत-सेवन का जितना अधिक अवलंबन होता है, उती ही उसकी दृढ़ता में बढ़ोतरी होती जाती है।

हे साधक ! तू अपनी दृढ़ता बढ़ा, धारणा शक्ति बढ़ा। तुझमें ईश्वर का असीम बल छुपा है। परमात्मा तुझमें ज्ञानरूप से प्रकट होने की प्रतीक्षा कर रहा है। तेरे भीतर विश्वनियंता अपने  पूर्ण बल, तेज, ओज, आनंद और प्रेमसहित प्रकट होना चाहता है। अतः हे साधक ! तू सावधान रहना। कहीं संसार के कँटीले मार्गों में उलझ न जाना। जीवनदाता से मुलाकात किये बिना ही कहीं जीवन की शाम न ढल जाये। अतः सावधान रहना, भैया !

जब संसार स्वप्न जैसा लगे, तब आंतरिक सुख की शुरुआत होती है। जब संसार मिथ्या भासित होने लगे, उसका चिंतन न हो, तब अंतःकरण में शांति व आराम प्रगट होने लगते हैं। जब चित्त अपने चैतन्य स्वरूप परम स्वभाव में तल्लीन होने लगे, तब आंतरिक आनंद प्रगट होने लगता है।

सारी मुसीबतें संसार को सत्य मानने एवं बहिर्मुख होने से ही आती है। अगर साधक अन्तर्मुख हो जाये तो उसे संसार स्वप्नवत् लगने लगे। अतः साधक को सदैव अन्तर्मुख होने का अभ्यास करना चाहिए। ऐसा करने से उसकी सारी व्याकुलताएँ, दुःख, शोक एवं चिन्ताएँ अपने आप गायब हो जायेंगी।

जो समय हमें परमात्मा को जानने में लगाना चाहिए, ज्ञान पाने में लगाना चाहिए, अंतर्मुख होने में लगाना चाहिए वही समय हम संसार की तुच्छ वस्तुओं, भोगों एवं बहिर्मुखता में लगा देते हैं, इसीलिए ईश्वरप्राप्ति में विफल हो जाते हैं।

संसार के प्रति आकर्षण का कारण है ईश्वर में श्रद्धा का अभाव एवं अंतर्मुख होने में लापरवाही। अगर साधक अंतर्मुख होता जाये तो उसका आत्मबल उत्तरोत्तर बढ़ता जाये और एक दिन उसके सारे दुःखों का अंत हो जाये। चाहे कैसा भी आत्मज्ञान की कुंजी मिल जाये, अंतर्मुख होने की कला आ जाये तो पाप में इतनी ताकत ही नहीं कि उसके आगे टिक सके।

मौन, जप, उचित आहार-विहार, एकांत सेवन एवं आत्मविचार अंतर्मुखता लाने में अत्यंत सहायक सिद्ध होते हैं। जिन्होंने भी लोकसम्पर्क से दूर रहकर अज्ञात स्थान में एकांतसेवन किया तथा अल्पाहार का आश्रय लिया, एकान्त में रहकर ध्यान और योग के बल से अपनी जीवनशक्ति को विकसित करके जीवनदाता को, नित्यज्ञान, नित्यप्रेम और नित्य आत्मसुख को पाने का प्रयत्न किया, वे ही महापुरुष हो गये। लेकिन जिन्होंने लोकसंपर्क का सतत सेवन किया और लोकेश्वर के लिए अंतर्मुख होना स्वीकार नहीं किया, उनके पास केवल कोरी बातें ही रह गयीं। जिन्होंने भी मन की वृत्तियों को बहिर्मुख करके उन्हें कल्पनाओं की धारा में बहाया, उन्होंने वास्तव में अपनी जीवनशक्ति को क्षीण करने में ही समय गँवाया, अतः उनके जीवन में अँधेरा ही छाया रहा।

मदालसा, गार्गी, याज्ञवल्क्य आदि विभूतियाँ एकान्तसेवन तथा मौन का अवलंबन लेकर ही महान बनीं। भगवान बुद्ध ने लगातार छः वर्षों तक जंगलों में अज्ञात रहकर कठोर साधना की और ध्यान समाधि में तल्लीन रहे। आद्यशंकराचार्य के गुरु गोविन्दाचार्यजी भी नर्मदा तट पर स्थित ओंकारेश्वर में एक गुफा में सैंकड़ों वर्षों तक समाधिस्थ रहे। आज तक जितने भी महापुरुष एवं महान विभूतियाँ हुई हैं, उन्होंने अपने जीवन में मौन, एकांतसेवन, जप-ध्यान-धारणा एवं समाधि को ही महत्त्व दिया था। वे अपने निजस्वरूप में स्थित रहकर आत्ममस्ती में विचरते रहे।

रमण महर्षि 53 वर्ष तक अरुणाचलम में रहे। इस बीच उन्होंने अनेकों वर्ष एकान्त में एवं योगाभ्यास में व्यतीत किये तथा समाधि में वे निमग्न रहे।

उत्तरकाशी में कृष्णबोधआश्रम नामक महापुरुष ने अज्ञात व एकान्तसेवन कर साधनामय जीवन बिताया और बड़े प्रसिद्ध हो गये।

गंगोत्री में तपोवन स्वामी नामक एक विरक्त महात्मा ने गौमुख की बर्फीली पहाड़ियों पर जाकर एकान्तसेवन करते हुए अपनी धारणाशक्ति को विकसित किया और आत्मचिंतन की धारा में मन की वृत्तियों को प्रवाहित कर ब्रह्माकार वृत्ति प्रगट की।

श्रीरंग अवधूत महाराज ने लम्बे समय तक नर्मदा के किनारे अज्ञात रहकर एकांतसेवन किया तथा घास-फूस की कुटिया बनाकर वे ब्रह्माभ्यास को बढ़ाते रहे।

श्री अरविन्द घोष जैसे प्रसिद्ध व्यक्ति भी वर्षों तक एक कमरे में बंद रहे, अपने निवास से बाहर नहीं निकले। वे भी भारत के एक बड़े योगी के रूप में प्रसिद्ध हुए।

निलेश स्वामी ने नेपाल के जंगलों में एकांतसेवन कर आत्ममस्ती का लाभ लिया।

उत्तरकाशी और नैनीताल के भयानक अरण्यों में पूज्यपाद स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज भी वर्षों तक अज्ञात एकान्त में आत्मयात्रा करते हुए, निजानंद की मस्ती लूटते हुए विचरते रहे। आत्ममस्ती से सराबोर वे दिव्य महापुरुष हजारों-लाखों लोगों के बिखरे हुए जीवन को सँवारने तथा साधकों के जीवन को जीवनदाता की ओर अग्रसर करने में समर्थ हुए।

सभी संत महापुरुष एकान्त के बड़े प्रेमी होते हैं। जिनको एकान्त में परमात्मा का ध्यान करने की कला आ गयी, जिन्होंने एकाकी जीवन का मूल्य जाना है, वे व्यर्थ के सांसारिक झमेलों में पड़कर अपना आयुष्य बरबाद करना पसंद नहीं करते। ऐसे लोग व्यवहार में रहते हुए भी एकान्त में जाने को उत्सुक रहते हैं। और तो सब देव हैं लेकिन शिवजी महादेव हैं। उन्हें भी जब देखो तब एकान्त में समाधिस्थ रहते हैं।

हम आये थे अकेले, जायेंगे अकेले। रात को भी तो अकेले ही रहते हैं। जब इन्द्रियाँ और मन शांत होकर निद्राधीन होते हैं तभी शरीर की थकान मिटती है। इसी प्रकार अगर समय रहते हुए आत्मध्यान में तल्लीन होना सीख लें तो सदियों की थकान मिट सकती है।

उठो…. कमर कसो। समय पल-पल करके बीता जा रहा है… मृत्यु नजदीक आ रही है। पुरुषार्थ करो। एकान्तवास करो। धारणा-ध्यान का अभ्यास तथा शास्त्रविचार एवं महापुरुषों की संगति करो और उस परम सुखरूप परमात्मा को पाकर मुक्त हो जाओ। अतः सत्संग-कार्यक्रम माँगने का दुराग्रह न करो। हम भी अब एकान्त का समय बढ़ा रहे हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2000, पृष्ठ संख्या 7-10, अंक 87

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