भगवान का अनुभव कैसे ?

भगवान का अनुभव कैसे ?


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

परमात्मा कैसा है ? आत्मा का स्वरूप क्या है ? कोई कहता है कि भगवान तो मोरमुकुटधारी हैं। कोई कहता है कि भगवान तो मर्यादापुरुषोत्तम हैं। कोई कहता है कि भगवान सर्वगुणसम्पन्न हैं। कोई कहता है कि भगवान सर्वशक्तिमान हैं। कोई कहता है कि भगवान सर्वत्र हैं। कोई कहता है कि वे वैकुण्ठ, कैलास आदि में हैं। कोई कहता है कि भगवान हमारे हृदय में बैठे हैं। कोई कहता है कि कण-कण में भगवान हैं। कोई कहता है कि नहीं… यह सब माया का  पसारा है। भगवान तो निर्गुण-निराकार हैं।

कोई कहता हैः “नहीं…. निर्गण-निराकार तुम्हारी दृष्टि में होगा। हम तो साकार भगवान को पूजते हैं। मुरलीमनोहरस मोरमुकुट एवं पीताम्बरधारी जो हैं, वे ही हमारे भगवान हैं। उनको हम सुबह बालभोग, दोपहर को राजभोग एवं शाम को भी भोग लगाकर ही खाते हैं। हमारे भगवान के दर्शन करने हों तो चलो, हम तुम्हें करवाते हैं।

पूछोः “कहाँ हैं भगवान ?”

कहेंगेः “चलो हमारे साथ।”

ले जायेंगे पूजा के कमरे में। हटायेंगे पर्दा और कहेंगेः “ये हैं हमारे भगवान।”

इस प्रकार कोई कहता है कि भगवान स्थान-विशेष में हैं तो कोई कहता है वे सर्वत्र हैं। कोई कहता है वे सर्वगुणसंपन्न हैं तो कोई कहता है गुणातीत हैं। कोई कहता है वे साकार हैं तो कोई कहता है कि निराकार हैं। अब हम भगवान श्रीकृष्ण के पास चलते हैं और देखते हैं कि वे क्या कहते हैं। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।

आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रृत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित।।

ʹकोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही (इसके तत्त्व का) आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई (अधिकारी पुरुष) ही इस आत्मा को आश्चर्य की तरह सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको (आत्मा को) नहीं जानता।ʹ (गीताः 2.29)

कोई व्यक्ति भगवान को आश्चर्य की भाँति देखता है किः “आहाहा… हमने भगवान की छवि देखी ! आज रात को मुझे ऐसा स्वप्न आया था कि ʹमोरमुकुटधारी भगवान मेरे सामने प्रकट हुए हैं और वे मुझसे पूछ रहे हैं कि, “क्या हाल है ?ʹ ….और मैं कह रहा हूँ कि, भगवन् ! आपकी कृपा है।ʹ फिर उन्होंने बड़े प्रेम से मेरे सिर पर हाथ फेरा जिससे मैं तो गदगद हो गया !”

ʹकोई व्यक्ति भगवान को, आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है…ʹ इसका एक अर्थ ऐसा भी हो सकता है कि जैसे संसार की दूसरी चीजें देखने, सुनने, पढ़ने और जानने में आती हैं वैसे इस परमात्मा को नहीं जाना जा सकता, क्योंकि अन्य वस्तुएँ तो देह-इन्द्रिय-बुद्धि के द्वारा जानी जाती हैं जबकि परमात्मा को तो स्वयं अपने-आपसे ही जाना जाता है। इसीलिए कहा गया हैः

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम्…..

कोई इसको आश्चर्य की तरह कहता है- आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः…. क्योंकि यह परमात्मतत्त्व वाणी का विषय नहीं है। जिससे वाणी प्रस्फुटित होती है, वाणी उसका वर्णन कैसे कर सकती है ? फिर भी भगवान के गुण-कर्म, लीला-स्वभाव आदि का वर्णन करके महापुरुष लोग वाणी से उनकी ओर केवल संकेत ही करते हैं ताकि सुनने वाले का लक्ष्य उधर हो जाये।

आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति….

कोई इस आत्मा को आश्चर्य की तरह सुनता है क्योंकि दूसरा जो कुछ भी सुनने में आता है वह सब इन्द्रियाँ, मन एवं बुद्धि का विषय होता है किन्तु परमात्मा न इऩ्द्रियों का विषय है, न मन का और न बुद्धि का, वरन् वह तो इन्द्रियादि सहित उनके विषयों को भी प्रकाशित करने वाला है। इसलिए आत्मा (परमात्मा) सम्बन्धी विलक्षण बात को वह आश्चर्य की तरह सुनता है।

श्रृत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।

ʹसुनकर भी इसको कोई नहीं जानता।ʹ

इसका तात्पर्य यह कि केवल सुनकर इसको कोई भी नहीं जान सकता वरन् सुनने के बाद जब वह स्वयं उसमें स्थित होगा, तब वह अपने-आप से ही अपने-आपको जानेगा।

श्रृतियाँ अनेक हैं, स्मृतियाँ अऩेक हैं, पुराण भी अठारह है। इनमें जो जैसा पाता है, भगवान को ठीक वैसा-वैसा मानता है। हकीकत में अति विस्मयकारक बात और तथ्य यह है कि पशु से लेकर परम सूक्ष्म जीवाणुओं में भी वही आत्मा सूक्ष्म रूप से स्थित है। कोई उसे छोटा कहता है तो भी ठीक है और कोई उसे बड़ा कहता है तो भी ठीक है… कोई परमात्मा को सगुण-निराकार कहता है तो भी ठीक है। येन-केन-प्रकारेण वह अपनी बुद्धि को भगवान में तो लगा रहा है… इस बात से हमें आनंद है। बस, हमारा यही एकमात्र कर्त्तव्य है कि हम अपनी बुद्धि को परमात्मा में प्रतिष्ठित करें।

इस युग में अधिकांश लोग विषयपरायण हो चले हैं। विषय-भोगों में वे इतने लिप्त हो गये हैं कि जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। उस परमात्मा के विषय में जानना तो दूर, विचार तक नहीं करते। वह आत्म-परमात्मतत्त्व इतना सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है और महान से भी महान है कि हम उसकी कल्पना तक नहीं कर सकते। कीड़ी के पग नेवर बाजे सो वह भी साहिब सुनते हैं….इतना वह सूक्ष्म है। हमारे बोलने-चालने एवं हिलने-डुलने से कितने ही जीवाणु मर जाते हैं। वैज्ञानिक लोगों का कहना है कि जब हम बोलते हैं तब असंख्य जीवाणु मर जाते हैं। इस हाथ को उठाने एवं नीचे लाने में भी न जाने कितने ही सूक्ष्म-से-सूक्ष्म जीवाणु मर जाते होंगे ! क्षण-क्षण में लाखों-करोड़ों जीवाणु उत्पन्न होते एवं मरते रहते हैं। इस शरीर में भी असंख्य बैक्टीरिया उत्पन्न होते एवं मरते रहते हैं जो कि ʹमाइक्रोस्कोपʹ (सूक्ष्मदर्शी यंत्र) से देखने में आते हैं। इतने वे सूक्ष्म हैं ! जब वे जीवाणु इतने सूक्ष्म हैं, तो उनका हृदय कितना सूक्ष्म होगा और उस हृदय में बैठा हुआ भगवान कितना सूक्ष्म होगा, कितना छोटा होगा ! बाल के अग्रभाग के एक लाख हिस्से करो। उसमें से एक हिस्से पर भी हजार बैक्टीरिया (जीवाणु) बैठ जाते हैं और उनमें भी भगवान की चैतन्यता मौजूद होती है। आप सोचिये कि भगवान कितने समर्थ और व्यापक हैं ! किन्तु हम अल्पज्ञ हो गये हैं, उच्छ्रंखल हो गये हैं इसीलिए आत्ममहिमा से दूर हैं। एक फकीर ने कहा हैः

अल्ला रे अल्ला ! क्या फैज है मेरे साकी का !

अपने हिस्से की भी वे मुझे पिलाये जाते हैं ।।

अर्थात् भगवान कैसे हैं ? शांति के महासागर…. आनंद के महास्रोत… वे अपने हिस्से की शांति, आनंद, माधुर्य आदि का हमें अनुभव करवा रहे हैं फिर भी हम उन्हें दूर मानते हैं। हम उन्हें किसी अवस्था विशेष अथवा स्थान-विशेष में मानते हैं जो हमारी बड़ी भारी भूल है, गलती है। इससे हमारी श्रद्धा और विश्वास डावाँडोल हो जाते हैं, चित्त में संशय हो जाता है और संशयात्मा विनश्यति।

जहाँ संशय होता है वहाँ विनाश हुआ समझो। भगवान को जब-जब केवल आकाश-पाताल में मानेंगे, किसी मंदिर-मस्जिद-गिरिजाघर-गुरुद्वारे में मानेंगे या किसी अवस्था-विशेष अथवा स्थान-विशेष में मानेंगे, जैसे कि ʹफलानी जगह जायेंगे तब भगवान मिलेंगे…. फलानी अवस्था आयेगी तब भगवान मिलेंगे….. ऐसा-ऐसा करेंगे तब भगवान मिलेंगे….ʹ तब-तब भगवान दूर हो जायेंगे। हैं तो भगवान निकट से भी निकट, लेकिन दूर मानने से दूर हो गये और जिसने भगवान को निकट समझा, अपने हृदय में स्थित समझा उसके भीतर भगवान ने शांतिरूप से, आनंदरूप से, और भी पता नहीं किस-किस रूप से, जिसका वर्णन नहीं हो सकता ऐसे अवर्णनीय ढंग से अपने अस्तित्त्व का एहसास कराया, अनुभूति करायी और अपना प्रकाश फैलाया।

भगवान को न तो किसी अवस्था-विशेष में मानना है और न ही किसी स्थल-विशेष में मानना है। वह तो सर्वत्र है, सदा है और सबके पास है। वह सबका अपना-आपा होकर बैठा है।

कोई जिज्ञासु यहाँ प्रश्न उठा सकता है किः ʹजब भगवान सर्वत्र है, सदा है, हमारे ही भीतर है तो फिर संतों के पास, सदगुरु के पास जाने की क्या जरूरत ? सत्संग सुनने की क्या जरूरत ?ʹ

जैसे, यहाँ आपके व मेरे पास रेडियो एवं टेलिविजन की तरंगे हैं, फिर भी हमें सुनाई-दिखाई नहीं देतीं। क्यों ? क्योंकि इस समय यहाँ पर रेडियो या टेलिविजन नहीं है, रेडियो का एरियल नहीं है, टी.वी. की ʹएन्टीनाʹ नहीं है। हमारे पास ये साधन-सामग्रियाँ होंगी तभी हम रेडियो भी सुन पायेंगे और टी.वी. भी देख पायेंगे। ठीक इसी प्रकार भगवान सर्वत्र हैं। रेडियो और टी.वी. की तरंगे जितनी व्यापक होती हैं उससे भी कहीं ज्यादा व्यापक भगवान की सत्ता है लेकिन उसकी कृपा से ही मिलता है क्योंकि संतों के हृदय में ही भगवान ने अपना प्रादुर्भाव कर रखा है।

संतों ने अपने हृदय में ʹएन्टीनाʹ लगा रखा है। इस एन्टीना से उन्हें भगवान के दर्शन हुए हैं और उसकी महिमा का वे वर्णऩ भी कर सकते हैं। इसीलिए हम संतों के सान्निध्य की अपेक्षा रखते हैं। जैसे, इस  पृथ्वी के वायुमंडल में रेडियो और टी.वी. की तरंगों के सर्वत्र व्याप्त होने पर भी बिना टी.वी. व रेडियो के उन्हें देखना और सुनना कठिन है, ठीक इसी प्रकार भगवान की सर्वव्यापकता होने के बावजूद भी उनके आनंद, उनकी शांति, उनके माधुर्य का अऩुभव बिना सदगुरु व सत्संग के करना कठिन है। यह अनुभव तो केवल संतों के सान्निध्य एवं सत्संग से ही प्राप्त किया जा सकता है।

ठीक ही कहा हैः

कर नसीबांवाले सत्संग दो घड़ियाँ….

अहंकारी, मनमुख और दूसरों के यशो-तेज से उद्विग्न निंदकों के लिए नानकजी ने कहा हैः

संत कै दूखनि आरजा घटै। संत कै दूखनि जम ते नहीं छूटै।

संत कै दूखनि सुखु सभ जाई। संत कै दूखनि नरक मांहि पाइ।।

संत कै दूखनि मति होइ मलीन। संत कै दूखनि सोभा ते हीन।।

संत कै हते कउ रखै न कोई। संत कै दूखनि थान भ्रसटु होई।।

संत कृपाल कृपा जे करैं। ʹनानकʹ संत संगि निंदकु भी तरै।।

निंदकों की बातों में न आने वाले सत्संगी तो फायदा उठाते हैं। दृढ़निश्चयी पुण्यात्मा शिष्यों साधकों भक्तों के लिए मानों नानक जी कह रहे हैं-

साध के संगि मुख ऊजल होत।। साध संगि मलु सगली खोत।।

साध के संगि मिटै अभिमानु।। साध कै संगि प्रगटै सु गिआनु।।

साध कै संगि बुझै प्रभु नेरा।

साध कै संगि पाए नाम रतनु। साध कै संगि एक ऊपरि जतनु।।

साध की महिमा बरनै कउनु प्रानी।। नानक ! साध की सोभा प्रभ माहि समानी।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2000, पृष्ठ संख्या 87-89, अंक 87

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