सब दुःखों से सदा के लिए मुक्ति

सब दुःखों से सदा के लिए मुक्ति


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

असंभव को संभव करने की बेवकूफी छोड़ देना चाहिए और जो संभव है उसको करने में लग जाना चाहिए। शरीर एवं संसार की वस्तुओं को सदा सँभाले रखना असंभव है अतः उसमें से प्रीति हटा लो। मित्रों को, कुटुम्बियों को, गहने-गाँठों को साथ ले जाना असंभव है अतः उसमें से आसक्ति हटा लो। संसार को अपने कहने में चलाना असंभव है लेकिन मन को अपने कहने में चलाना संभव है। दुनिया को बदलना असंभव है लेकिन अपने विचारों को बदलना संभव है। कभी दुःख न आये ऐसा बनना असंभव है लेकिन सुख चले जाने पर भी दुःख की चोट न लगे, ऐसा चित्त बनाना संभव है। अतः जो संभव है उसे कर लेना चाहिए और जो असंभव है उससे टक्कर लेने की जरूरत क्या है ?

एक बालक  परीक्षा में लिखकर आ गया कि ʹमध्य प्रदेश की राजधानी इन्दौर है।ʹ घर आकर उसे ध्यान आया कि, ʹहाय रे हाय ! मैं तो गलत लिखकर आ गया। मध्य प्रदेश की राजधानी तो भोपाल है।ʹ

वह नारियल, तेल व सिंदूर लेकर हनुमानजी के पास गया एवं कहने लगाः “हे हनुमानजी ! एक दिन के लिए ही सही, मध्य प्रदेश की राजधानी इन्दौर बना दो।”

अब उसके सिंदूर, तेल व एक नारियल से मध्य प्रदेश की राजधानी इन्दौर हो जायेगी क्या ? एक नारियल तो क्या, पूरी एक ट्रक भरकर नारियल रख दे लेकिन यह असंभव बात है कि एक दिन के लिए राजधानी इन्दौर हो जाये। अतः जो असंभव है उसका आग्रह छोड़ दो एवं जो संभव है उस कार्य को प्रेम से करो।

बाहर के मित्र को सदा साथ रखना संभव नहीं है लेकिन अंदर के मित्र (परमात्मा) का सदा स्मरण करना एवं उसे पहचानना संभव है। बाहर के पति-पत्नी, परिवार, शरीर को साथ ले जाना संभव नहीं है लेकिन मृत्यु के बाद भी जिस साथी का साथ नहीं छूटता उस साथी के साथ का ज्ञान हो जाना, उस साथी से प्रीति हो जाना – यह संभव है।

एक होती है वासना, जो हमें असंभव को संभव करने में लगती है। संसार में सदा सुखी रहना असंभव है लेकिन आदमी संसार में सदा सुखी रहने के लिए मेहनत करता रहता है। संसार में सदा संयोग बनाये रखना असंभव है लेकिन आदमी सदा संबंध बनाये रखना चाहता है कि रूपये चले न जायें, मित्र रूठ न जायें, देह मर न जाये…. लेकिन देह मरती है, मित्र रूठते हैं, पैसे जाते हैं या पैसे को छोड़कर पैसे वाला चला जाता है। जो असंभव को संभव करने में लगे वह है वासना का वेग। उस वासना को भगवत्प्रीति में बदल दो।

एक होती है वासना, दूसरी होती है प्रीति एवं तीसरी होती है जिज्ञासा। ये तीनों चीजें जिसमें रहती हैं उसे बोलते हैं जीव। यदि जीव को अच्छा संग  मिल जाये, अच्छी दिशा मिल जाये, नियम और व्रत मिल जायें तो धीरे-धीरे असंभव से वासना मिटती जायेगी। रोग मिटता जाता है तो स्वास्थ्य अपने आप आता है, अँधेरा मिटता है तो प्रकाश अपने-आप आता है। नासमझी मिटती है तो समझ अपने आप आ जाती है। ज्यों-ज्यों जप करेगा त्यों-त्यों मन पवित्र और सात्त्विक होगा, प्राणायाम करेगा तो बुद्धि शुद्ध होगी एवं शरीर स्वस्थ रहेगा और सत्संग सुनेगा तो दिव्य ज्ञान प्राप्त होगा। इस प्रकार जप, प्राणायाम, सत्संग, साधन-भजन आदि करते रहने से धीरे-धीरे वासना क्षीण होने लगेगी एवं वह जीव सुखी होता जायेगा। जितन वासना तेज उतना तेज वह दुःखी, जितनी वासना कम उतना कम दुःखी औऱ वासना अगर बाधित हो गयी तो वह निर्दुःख नारायण का स्वरूप हो जायेगा।

नियम-व्रत के पालन से, धर्मानुकूल चेष्टा करने से वासना नियंत्रित होती है। धारणा-ध्यान से वासना शुद्ध होती है, समाधि से वासना शांत होती है और परमात्मज्ञान से वासना बाधित हो जाती है।

ज्यों-ज्यों वासना कम होती जायेगी और भगवदप्रीति बढ़ती जायेगी त्यों-त्यों जिज्ञासा उभरती जायेगी। जानने की इच्छा जागृत होगी कि ʹवह कौन है जो सुख को भी देखता है और दुःख को भी देखता है ? वह कौन है जिसको मौत नहीं मार सकती ? वह कौन है कि सृष्टि के प्रलय के बाद भी जिसका बाल तक बाँका नहीं होता ? आत्मा क्या है ? परमात्मा क्या है ? जगत की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय का हेतु क्या है ? बन्धनों से मुक्ति कैसे हो ? जीव क्या है ? ब्रह्म को कैसे जानें ? जिससे जीव और ईश्वर की सत्ता है उस ब्रह्म को कैसे जानें ?ʹ इस प्रकार के विचार उत्पन्न होने लगेंगे। इसी को ʹजिज्ञासाʹ बोलते हैं।

ʹजहाँ चाह वहाँ राह।ʹ मनुष्य का जिस प्रकार का विचार और निर्णय होता है वह उसी प्रकार का कार्य करता है। अतः वासनापूर्ति के लिए जीवन को खपाना उचित नहीं, वासना को निवृत्त करें।

एक बार श्रीरामकृष्ण परमहंस को बोस्की का कुर्ता एवं हीरे की अँगूठी पहनने की इच्छा हुई, साथ ही हुक्का पीने की भी। उन्होंने अपने एक शिष्य से ये तीनों चीजें मँगवायीं। चीजें आ गयीं तो तब गंगा किनारे एक झाड़ी की आड़ में उन्होंने कुर्ता पहना, अँगूठी पहनी एवं हुक्के की कुछ फूँकें लीं और जोर से खिलखिलाकर हँस पड़े किः ʹले क्या मिला ? अँगूठी पहनने से कितना सुख मिला ? हुक्का पीने से क्या मिला ? भोग भोगने से पहले जो स्थिति होती है, भोग भोगने के बाद वैसी ही या उससे भी बदतर हो जाती है….ʹ

इस प्रकार उन्होंने अपने मन को समझाया। वासना से मन उपराम हुआ। रामकृष्ण परमहंस प्रसन्न हुए। अँगूठी गंगा में फेंक दी, हुक्का लुढ़का दिया और कुर्ता फाड़कर फेंक दिया।

शिष्य छुपकर यह सब देख रहा था। बोलाः

“गुरु जी ! यह क्या ?”

रामकृष्णः “रात्रि को स्वप्न आया था कि मैंने ऐसा-ऐसा पहना है। अवचेतन मन में छुपी हुई वासना थी। वह वासना कहीं दूसरे जन्म में न ले जाये इसलिए वासना से निवृत्त होने के लिए सावधानी से मैंने यह उपक्रम कर लिया।”

वासना से बचते हैं तो प्रीति उत्पन्न होती है और प्रीति से हम ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते जायेंगे, त्यों-त्यों भगवत्स्वरूप तत्त्व गी जिज्ञासा उभरती जायेगी। भगवान का सच्चा भक्त अज्ञानी कैसे रह सकता है ? भगवान में प्रीति होगी तो भगवद्-चिन्तन, भगवद् ध्यान, भगवद्स्मरण होने लगेगा। भगवान ज्ञानस्वरूप हैं अतः अंतःकरण में ज्ञान की जिज्ञासा उत्पन्न होगी और उस जिज्ञासा की पूर्ति भी होगी।

इसीलिए गुरुपूनम आदि पर्व मनाये जाते हैं ताकि गुरुओं का सान्निध्य मिले, वासना से बचकर भगवत्प्रीति, भगवद्ज्ञान में आयें एवं भगवद्ज्ञान पाकर सदा के लिए सब दुःखों से छूट जायें।

वासना की चीजें अऩेक हो सकती हैं लेकिन माँग सबकी एक ही होती है और वह माँग है सब दुःखों से सदा के लिए मुक्ति एवं परमानंद की प्राप्ति। कोई रूपये चाहता है तो कोई गहने-गाँठें…. लेकिन सबका उद्देश्य यही होता है कि दुःख मिटे और सुख सदा टिका रहे। सुख के साधन अनेक हो सकते हैं लेकिन सुखी रहने का उद्देश्य सबका एक है। दुःख मिटाने के उपाय अनेक हो सकते हैं लेकिन दुःख मिटाने का उद्देश्य सब का एक है, चाहे चोर या साहूकार। साहूकार दान-पुण्य क्यों करता है कि यश मिले। यश से क्या होगा ? सुख मिलेगा। भक्त दान-पुण्य क्यों करता है कि भगवान रीझें। भगवान के रीझने से क्या होगा ? आत्म संतोष मिलेगा। व्यापारी दान-पुण्य क्यों करता है कि धन की शुद्धि होगी। धन की शुद्धि से मन शुद्ध होगा, सुखी होंगे। दान लेने वाला दान क्यों लेता है कि दान से घर का गुजारा चलेगा, मेरा काम बनेगा अथवा इस दान को सेवाकार्य में लगायेंगे। इस प्रकार मनुष्य जो-जो चेष्टाएँ करता है वह सब दुःखों को मिटाने के लिए एवं सुख को टिकाने के लिए ही करता है।

वासनापूर्ति से सुख टिकता नहीं और दुःख मिटता नहीं। अतः वासना को विवेक से निवृत्त करो। जैसे, पहले के जमाने में लोग तीर्थों में जाते थे तो जिस वस्तु के लिए ज्यादा वासना होती थी वही छोड़कर आते थे। ब्राह्मण पूछते थे किः ʹतुम्हारा प्रिय पदार्थ क्या है ?ʹ कोई कहता किः ʹसेब है।ʹ …..तो ब्राह्मण कहताः “सेव का तीर्थ में त्याग कर दो, भगवान के चरणों में अर्पण कर दो कि अब साल-दो साल तक सेव नहीं खाऊँगा।”

जो अधिक प्रिय होगा उसमें वासना प्रगाढ़ होगी और जीव दुःख के रास्ते जायेगा। अगर उस प्रिय वस्तु का त्याग कर दिया तो वासना कम होती जायेगी एवं भगवदप्रीति बढ़ती जायेगी।

कोई कहे किः ʹमहाराज ! हमको सत्संग में मजा आता है।ʹ सत्संग में तो वासना निवृत्त होती है और प्रीति का सुख मिलता है। मजा अलग बात है और शांति, आनंद अलग बात है। ʹसत्संग से मजा आता हैʹ यह नासमझी है। सत्संग से शांति मिलती है, भगवत्प्रीति का सुख होता है। विषय-विकारों को भोगने से जो मजा आता है वैसा मजा सत्संग में नहीं आता। सत्संग का सुख तो दिव्य प्रीति का सुख होता है। इसीलिए कहा गया हैः

तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार।

सदगुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार।।

अनंत फल देने वाली भगवत्प्रीति है। अतः जिज्ञासुओं को, साधकों को, भक्तों को वासनाओं से  धीरे-धीरे अपना पिण्ड छुड़ाने का अभ्यास करना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2000, पृष्ठ संख्या 5-8, अंक 88

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