जीवन्मुक्त के लक्षण

जीवन्मुक्त के लक्षण


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

जीते जी जिन्हें अपने वास्तविक स्वरूप का निश्चय हो गया है, जिन्होंने अपने साक्षीस्वरूप का अनुभव कर लिया है एवं ʹइस ब्रह्माण्ड तथा अनंत ब्रह्माण्डों में मेरे सिवा दूसरा कोई तत्त्व नहीं है….ʹ ऐसा जिन्हें बोध हो गया है, वे जीवन्मुक्त हैं। ऐसे महापुरुष समस्त व्यवहार करते हुए भी व्यवहार या कर्म से नहीं बँधते क्योंकि वे देहभाव या मनभाव से कुछ नहीं करते।

वे अहंकार को, जो कि सब दुःखों का मूल कारण है, देह से लेकर अंतःकरण में कहीं भी नहीं रखते। वे सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि द्वन्द्वों से परे होते हैं। वे सुख-दुःख को सच्चा नहीं मानते। जब वे अनुभव करते हैं कि ʹमेरा जन्म ही नहींʹ तो मृत्यु को वे सत्य कैसे मानते हैं ?ट

जब तक अंतःकरण है तब तक साक्षीभाव का कथन किया जा सकता है किन्तु जहाँ अंतःकरण के भी अभाव का अनुभव होता हो तब साक्षी भी कैसे कह सकते हैं ? साक्षीभाव की संज्ञा भी मुमुक्षु को समझाने के लिए है।

भगवान श्रीकृष्ण गीता में अलग-अलग प्रसंगों पर देह, मन, आत्मा को स्वयं के रूप में कहते हैं किन्तु श्रीकृष्ण परमात्मा का वास्तविक स्वरूप तो आत्मा है, साक्षी है। भक्त प्रथम देहभाव से श्रीकृष्ण परमात्मा की उपासना करता है, फिर धीरे-धीरे आत्मभाव से उपासना करता है और अंत में ʹवह आत्मा अन्य कोई नहीं वरन् स्वयं ही हूँ….ʹ ऐसे अभेद भाव से उपासना रता है। अंत में वह भेद-अभेद को भी मिटा देता है। ʹमुझमें कोई भाव ही नहीं, मुझमें द्वैतपना भी नहीं है और एकपना भी नहीं है…ʹ यह परम अवस्था है। इस स्थिति को ʹजीवन्मुक्ति की स्थितिʹ अथवा ʹब्राह्मी स्थितिʹ कहते हैं।

जब सभी मनुष्य तुमको अच्छा करने लगें तब समझना कि मुसीबत आ खड़ी हुई है। बनावटी संतों की इसी प्रकार प्रशंसा उनके ही अनुयायियों ने की थी। सभी हमें अच्छा बोलें ऐसी इच्छा न करें क्योंकि अपना वास्तविक स्वरूप जो कि मन-वाणी से परे है उसकी प्रशंसा कोई नहीं करता अपितु शरीर, मन आदि की ही लोग प्रशंसा करते हैं और ऐसी प्रशंसा हमें नीचे ले जाती है।

अध्यात्म-पथ पर चलने वालों के लिए ऐसी प्रशंसा, लोगों की बातचीत एवं अनेक प्रकार की सिद्धियों के पीछे पड़ना यह सब विघ्नरूप है, उनकी उन्नति को रोकने वाला है क्योंकि जहाँ आत्मा के सिवाय कुछ नहीं है, जहाँ शरीर को भी भूलने की बात है वहाँ यह सब अवनति की ओर ले जाने वाला है। अतः जीवन्मुक्त महापुरुष उस ओर दृष्टिपात ही नहीं करते। जीवन्मुक्त अवस्था में इस जगत को देखने पर भी, शरीर को देखने पर भी पूरा साक्षीभाव बना रहता है।

जीवन्मुक्त की पहचान इस प्रकार होती हैः उनका मन मानों ब्रह्म का ध्यान करता है, वचन मानों स्तुति करते हैं, चरण मानों ब्रह्म की प्रदक्षिणा करते हैं ऐसा लगता है। षडरिपु उनके षडमित्र बनकर रहते हैं। क्रोध क्षमा का रूप लेता है। अभिमान सम्मान का रूप लेता है। कपट सरलता का रूप लेता है। लोभ संतोष का रूप लेता है। मोह प्रेम का रूप लेता है। काम पूर्णकाम अर्थात् वासनारहित हो जाता है।

कई तत्त्वज्ञ महापुरुष कहते हैं कि मन एवं वाणी आत्मा तक नहीं  पहुँच सकते। यह सच है लेकिन मनरूपी महासागर में उठते विचाररूपी तरंगों को आत्मा जानती एवं देखती है। इसी प्रकार वाणी एवं वाणी से उत्पन्न वचनरूपी तरंगों की भी आत्मा साक्षी है।

जैसे मनुष्यादि शरीर का जीवन अन्न है, वैसे ही मनुष्य का मनुष्यत्व उसके सदाचार में निहित है। इसी प्रकार जीव का जीवन तत्त्वज्ञान है, वही उसका आहार है। परन्तु आत्मा का जीवन तो ब्रह्म का साक्षात्कार है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2000, पृष्ठ संख्या 20, अंक 89

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *