वाणी ऐसी बोलिये….

वाणी ऐसी बोलिये….


 

संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम्।

वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम्।।

पारूषष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः।

असंबद्ध प्रलापश्च वाङमयं साच्चतुर्विधम्।।

अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः।

परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम्।।

(मनुस्मृतिः 12.5,6,7)

मनुस्मृति में मनु महाराज कहते हैं कि मानव को सदैव दस दोषों से बचना चाहिए। दस दोषों में तीन मन के, तीन तन के एवं चार वाणी के दोषों का उल्लेख किया गया है।

मन के तीन दोषः पराये धन का चिन्तन, दूसरे की हानि करने का चिंतन, मन की मान्यता को महत्ता देना।

तन के तीन दोषः लोभकृतः धन हड़पना, क्रोधकृतः हिंसा करना, कामकृतः परस्त्रीगमन।

वाणी के चार दोषः कटु भाषण, असंबद्ध प्रलाप, झूठ बोलना, पैशुन्य यानी चुगली करना।

साँप का दंश तो एक बार मारता है किन्तु वाणी का दंश तो मरने के बाद भी एक-दूसरे का वैर ले लेता है। पिछले जन्म का शत्रु इस जन्म में किसी भी रूप में वैर ले ही लेता है। इसलिए बोलने में हमेशा सावधानी बरतनी चाहिए। चार बातों का आदर करने से दुश्मन भी मित्र हो जाते हैं-

घर में कलह के समय क्रोध करने वाले पर क्रोध न करें, वरन् चुप्पी साध लें।

किसी का अपमान न करें। यदि किसी की निंदा हुई हो तो उसकी गैरहाजिरी में उसकी प्रशंसा कर दें।

जो कुटुम्बी आपसे नहीं बोलता हो, उससे प्रयत्नपूर्वक बोलें।

बोलने से पहले हृदय को मधुरता से भर दें।

ये चार बातें जिसके जीवन में हैं उसके शत्रु भी मित्र बन जाते हैं और जो जरा-जरा बात में क्रोध करता है, जरा-जरा बात में रूठ जाता है, वाद-विवाद करता है एवं तिरस्कार करता है उसके मित्र भी शत्रु बन जाते हैं।

इसलिए इस बात का खूब ख्याल रखना चाहिए कि कब बोलना, कितना बोलना, कैसे बोलना और कहाँ बोलना।

बोलने की जगह पर बोलो, चुप रहने की जगह पर चुप रहो, कम बोलने की जगह पर कम बोलो, सुनने की जगह पर सुनो और सुनाने की जगह पर सुनाओ।

जो सुनने की जगह पर सुनता है उसकी अक्ल का दीदार होता है। जो मौन की जगह पर बोलता है उसकी बेवकूफी का प्रदर्शन होता है और जो बोलने की जगह पर चुप हो जाता है वह मार खाता है। ऐसे मूर्ख लोग फिर ʹराम-रामʹ कहें चाहे ब्रह्मज्ञान सुनें, उन्हें कोई विशेष फायदा नहीं होता।

बहुत बोलने से, संसार की बातें बोलने से मौन रहना अच्छा है। यदि बोलना ही हो तो सत्य बोलें, एवं धर्मानुकूल बोलें। बोलते-बोलते सामने वाले में परमात्मप्रीति जगाना, सामने वाले को ब्रह्मविद्या में जगाने के लिए बोलना यह तो सर्वश्रेष्ठ है।

शुकदेवजी महाराज मुनि थे, एकांत में मौन रहते थे लेकिन वे जब बोले तब तमाम श्रोताओं सहित परीक्षित श्रीमद् भागवत रस में सराबोर हो गये, भगवद्-ज्ञान में जाग गये। अष्टावक्रजी महाराज बोले तो ʹअष्टावक्र संहिताʹ बन गयी। श्रीकृष्ण जी बोले तो ʹश्रीमद् भगवद् गीता बन गयी। बोले तो ऐसा बोलें कि जिससे बोला जाता है, उसकी खबर मिल जाये।

दत्तात्रेय जी महाराज अपने भक्तों से कहते हैं कि जिसकी वाणी में कोई सारगर्भित बात नहीं है अथवा किसी को आश्वासन देने की बात नहीं है, प्रेम नहीं है, आदर नहीं है, मधुरता नहीं है बल्कि कर्कश वाणी है वह तो मानों, बोझा उठाकर घूमता है।

एक थे हसन मियाँ। उन्होंने देखा कि उनका पड़ोसी शहद बेचक बड़ा पैसे वाला हो गया है। अतः उन्होंने अपनी बीवी को कहाः “मैं भी अब शहद बेचने का धंधा करूँगा।”

बीबी ने कहाः “शहद का धंधा बाद में करना। पहले शहद जैसा बोलना, मधुर बोलना तो सीख लें ! नहीं तो गड़बड़ हो जायेगी।”

हसन मियाँ बोलेः “अरे ! तू मुझे क्या समझाती है ?”

इस प्रकार बीवी को डाँट-फटकार कर निकल पड़ा शहद बेचने। पड़ोसी शहद बेचने जाये उसके पहले ही उठकर शहद बेचने चला जाता। वह ʹशहद लो शहद….ʹ की आवाज तो लगाता लेकिन कर्कश वाणी के कारण कोई उससे शहद लेने को तैयार न होता। यदि कोई उससे शहद लेने के लिए मटका उतरवाता भी तो चखकर मुँह मोड़ लेता। जब घूम-घामकर वह घर लौटा तो उसकी बीबी ने पूछाः

“क्यों मियाँ ! शहद कितना बिका ?”

हसन मियाँ- “ग्राहक नालायक हैं, बेवकूफ हैं। पहले मटका उतरवाकर शहद चख लेते हैं फिर नहीं लेते।”

बीबी समझदार थीष उसने कहाः “गुस्ताखी माफ हो, बड़े मियाँ ! जो खुशमिजाज हैं, प्रसन्नता एवं मधुरता से बोलते हैं उनकी मिर्च भी बिक जाती है लेकिन बदमिजाज एवं कटु वाणी वालों से लोग शहद भी नहीं लेते हैं।”

कबीर जी ने ठीक ही कहा हैः

वाणी ऐसी बोलिये, जो मनवाँ शीतल होये।

औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होये।।

किसी को और कुछ न दे सकें तो कम-से-कम दो मधुर शब्द से, आत्मभाव से सामने वाले का सत्कार कर दें। इससे उसको भी प्रसन्नता होगी एवं आपका अंतःकरण भी शुद्ध होगा।

यह समझ लें कि मीठी और हितभरी वाणी दूसरों को आनंद, शांति एवं प्रेम का दान करती है और स्वयं आनंद, शांति एवं प्रेम को खींच लाती है। मधुर एवं हितकर वाणी से सदगुणों का पोषण होता है, मन को पवित्र शक्ति प्राप्त होती है एवं बुद्धि निर्मल बनती है। ऐसी वाणी में भगवान का आशीर्वाद उतरता है और इससे अपना, दूसरों का, सबका कल्याण होता है। इससे सत्य की रक्षा होती है और इसी में सत्य की शोभा है।

मुख से ऐसा कटु शब्द कभी मत निकालें जो किसी का दिल दुखावे और अहित करे। कभी असत्य मत बोलें, किसी की चुगली न करें और असंबद्ध प्रलाप न करें। असंबद्ध प्रलाप अर्थात् समय परिस्थिति के विपरीत बातें न करें। जैसे, किसी की मृत्यु का अवसर हो और वहाँ करने लगे किसी की शादी की बात। ऐसा नहीं होना चाहिए। सही बात भी असामयिक होने से प्रिय नहीं लगती।

नीकी पै फीकी लगे, बिन अवसर की बात।

जैसे बीरन में युद्ध में, रस सिंगार न सुहात।।

बातें करते समय दूसरों को मान देना और आप अमानी रहना यह सफलता की कुंजी है। जो बात-बात में दूसरों को उद्विग्न करता है, वह पापियों के लोक में जाता है।

मुँह से बात बाहर निकालने से पहले ही उसके परिणाम की कल्पना कर लें ताकि बाद में पछताना न पड़े।

बोली एक अमोल है, जो कोई बोले जानि।

हिये तराजू तौलि के, फिर मुख बाहर आनि।।

हुक्म चलाते हो ऐसा बोलना, आवश्यकतानुसार बोलना, चिल्लाते हुए बोलना, अश्लील शब्द बोलना और कटु बोलना ये चार संभाषण के दोष हैं।

हितकर बोलना, आवश्यकतानुसार बोलना, मधुर बोलना, प्रिय बोलना एवं सत्य बोलना ये वाणी के गुण हैं।

जैसे रूखा भोजन मनुष्य को तृप्ति प्रदान नहीं कर सकता, वैसे ही मधुर वचनों के बिना दिया हुआ दान भी प्रसन्नता नहीं उपजाता।

लोगों से मिलते वक्त जो स्वयं बात आरम्भ करता है और सबके साथ प्रसन्नता से बोलता है, उस पर सब प्रसन्न रहते हैं।

आवश्यकता पड़ने पर किसी को दण्ड देते समय भी सांत्वनापूर्ण वचन ही बोलना चाहिए। इस प्रकार आप अपना प्रयोजन तो सिद्ध कर ही लेते हैं और कोई मनुष्य उद्विग्न भी नहीं होता।

यदि सुन्दर रीति से, सांत्वनापूर्ण, मधुर एवं स्नेहयुक्त वचन सदैव बोले जायें तो इसके जैसा वशीकरण का साधन संसार में कोई नहीं है। परन्तु यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि अपने द्वारा किसी का शोषण न हो। मधुर वाणी उसी की सार्थक होती है जो प्राणिमात्र का हितचिंतक होता है। गरीब, अनपढ़, अबोध लोगों की नासमझी का गैरफायदा उठाकर उनका शोषण करने वाले शुरुआत में तो सफल दिखते हैं किन्तु ऐसे लोगों का अंत अत्यन्त खराब होता है। सच्चाई, स्नेह और मधुर व्यवहार करने वाला कुछ गँवा रहा है, ऐसा किसी को बाहर से शुरुआत में लग सकता है किन्तु उसका अंत अनंत ब्रह्माण्डनायक ईश्वर की प्राप्ति में परिणत होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2000, पृष्ठ संख्या 4-6, अंक 89

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