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काश ! यदि आज के नेता भी ऐसे होते….


(लाल बहादुर शास्त्री जयंतीः 2 अक्तूबर)

संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

सन् 1965 में जब पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया था तब भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री जी ने देश की जनता से  अपील की थीः “घर का खर्चा कम कर दो क्योंकि युद्ध के समय सरकार को धन की अधिक आवश्यकता होती है।”

देश की जनता से तो ऐसी अपील की परन्तु इससे पहले ही स्वयं शास्त्री जी ने अपने घर के खर्चों में कटौती कर दी थी। उनकी पत्नी श्रीमती ललिता शास्त्री प्रायः अस्वस्थ रहती थीं। उनके घर में सफाई करने तथा कपड़े धोने के लिए एक बाई आती थी। शास्त्री जी ने उस बाई को दूसरे दिन से आने के लिए मना कर दिया। जब बाई ने पूछा किः “कपड़े धोने और सफाई का काम कौन करेगा ?” तब शास्त्री जी ने कहाः “अपने कपड़ों और कमरे की सफाई मैं स्वयं कर लूँगा तथा बाकी के घर की सफाई अपने बच्चों से करवा लूँगा।”

शास्त्री जी के सबसे बड़े बेटे को ʹअंग्रेजीʹ का टयूशन पढ़ाने के लिए एक अध्यापक उनके घर आता था। शास्त्री जी ने उसे भी आने से मना कर दिया। अध्यापक ने कहाः “आपका बेटा अंग्रेजी में बहुत कमजोर है। यदि परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं होगा तो उसका एक साल बर्बाद हो जायेगा।” इस पर शास्त्री जी ने कहाः “इस देश के लाखों बच्चे हर साल अनुत्तीर्ण हो जाते हैं। यदि मेरा बेटा भी अनुत्तीर्ण हो जायेगा तो इसमें कौन सी बड़ी बात है ? मैं कोई विशेष व्यक्ति तो हूँ नहीं।”

एक दिन शास्त्री जी की पत्नी ललिता जी ने कहाः “आपकी धोती फट गयी है। आप नहीं धोती ले आइये।” शास्त्री जी बोलेः “अच्छा तो यह होगा कि तुम सुई-धागे से इसकी सिलाई कर दो। अभी नयी धोती लाने के बारे में मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। मैंने ही अपने देशवासियों से बचत का आह्वान किया है अतः मुझे स्वयं भी इसका पालन करना चाहिए। मैं भी इस देश का एक नागरिक हूँ और देश के मुखिया के पद पर आसीन होने के नाते यह नियम सबसे पहले मेरे ही घर से लागू होना चाहिए।”

धन्य हैं ऐसे प्रधानमंत्री ! ऐसी निःस्वार्थ महान आत्माएँ जब किसी पद पर बैठती हैं तो उस पद की शोभा बढ़ती है। यदि देश की सम्पत्ति को घोटालेबाजी से स्विस बैंकों में जमा करने वाले भारत के घोटालेबाज नेता शास्त्री जी की सीख को अपने जीवन में अपनाते तो देश और अधिक उन्नति की राह पर होता।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2000, पृष्ठ संख्या 17, अंक 94

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आत्मज्ञान के प्रकाश से अँधेरी अविद्या को मिटाओ


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

मिथ्या प्रपंचच देख दुःख जिन आन जीय।

देवन को देव तू तो सब सुखराशि है।।

अपने अज्ञान ते जगत सारो तू ही रचा।

सबको संहार कर आप अविनाशी है।।

यह संसार मिथ्या व भ्रममात्र है लेकिन अविद्या के कारण सत्य भासता है। नश्वर शरीर में अहंबुद्धि तथा परिवर्तनशील परिस्थितियों में सत्यबुद्धि हो गयी है इसीलिए दुःख एवं क्लेश होता है। वास्तव में देखा जाये तो परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं लेकिन परिस्थितियों का जो आधार है, अधिष्ठान है वह नहीं बदलता।

ʹबचपन बदल गया। किशारावस्था बदल गयी। जवानी बदल गयी। अब बुढ़ापे ने घेर रखा है… लेकिन यह भी एक दिन बदल जायेगा। इन सबके बदलने पर भी जो नहीं बदलता, वह अबदल चेतना आत्मा ʹमैंʹ हूँ और जो बदलता है वह माया है….ʹ सदाचार व आदर के साथ ऐसा चिन्तन करने से बुद्धि स्वच्छ होती है और बुद्धि के स्वच्छ होने से ज्ञान का प्रकाश चमकने लगता है।

जिनके भाल के भाग्य बड़े, अस दीपक ता उर लसके।

ʹयह ज्ञान का दीपक उन्हीं के उर-आँगन में जगमगाता है, जिनके भाल के भाग्य-सौभाग्य ऊँचे होते हैं।ʹ उन्हीं भाग्यशालियों के हृदय में ज्ञान की प्यास होती है और सदगुरु के दिव्य ज्ञान व पावन संस्कारों का दीपक जगमगाता है। पातकी स्वभाव के लोग सदगुरु के सान्निध्य की महिमा क्या जानें ? पापी आदमी ब्रह्मविद्या की महिमा क्या जाने ? संसार को सत्य मानकर अविद्या का ग्रास बना हुआ, देह के अभिमान में डूबा हुआ यह जीव आत्मज्ञान की महिमा बताने वाले संतों की महिमा क्या जाने ?

पहले के जमाने में ऐसे आत्मज्ञान में रमण करने वाले महापुरुषों की खोज में राजा-महाराजा अपना राज-पाट तक छोड़कर निकल जाते थे और जब ऐसे महापुरुष को पाते थे तब उन्हें सदा के लिए अपने हृदय-सिंहासन पर स्थापित करके उनके द्वार पर ही पड़े रहते थे। गुरुद्वार पर रहकर सेवा करते, झाड़ू-बुहारी लगाते, भिक्षा माँगकर लाते और गुरुदेव को अर्पण करते। गुरु उसमें से प्रसाद के रूप में जो उन्हें देते, उसी को वे ग्रहण करके रहते थे। थोड़ा बहुत समय बचता तो गुरु कभी-कभार आत्मविद्या के दो वचन सुना देते। इस प्रकार वर्षों की सेवा-साधना से उनकी अविद्या शनैः-शनैः मिटती और उनके अंतर में आत्मविद्या का प्रकाश जगमगाने लगता।

आत्मविद्या सब राजाओं में सर्वोपरि विद्या है। अन्य विद्याओं में अष्टसिद्धियों एवं नवनिधियाँ बड़ी ऊँची चीजे हैं। पूरी पृथ्वी के एकछत्र सम्राट से भी अष्टसिद्धि-नवनिधि का स्वामी बड़ा होता है लेकिन वह भी आत्मविद्या पाने के लिए ब्रह्मज्ञानी महापुरुष की शरण में रहता है।

हनुमान जी के पास अष्टसिद्धियाँ एवं नवनिधियाँ थीं फिर भी आत्मविद्या पाने के लिए वे श्रीरामजी की सेवा में तत्परता से जुटे रहे और अंत में भगवान श्रीराम द्वारा आत्मविद्या पाने में सफल भी हुए। इससे बड़ा दृष्टांत और क्या हो सकता है ? हनुमान जी बुद्धिमानों में अग्रगण्य थे, संयमियों में शिरोमणि थे, विचारवानों में सुप्रसिद्ध थे, व्यक्तियों को परखने में बड़े कुशल थे, छोटे बड़े बन जाना, आकाश में उड़ना आदि सिद्धियाँ उनके पास थीं, फिर भी आत्म-साक्षात्कार के लिए उन्होंने श्रीरामजी की जी-जान से सेवा की। हनुमान जी कहते हैं-

राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम….

हनुमान जी की सारी सेवाएँ तब सफल हो गयीं जब श्रीरामजी का हृदय छलका और उन्होंने ब्रह्मविद्या देकर हनुमानजी की अविद्या को सदा-सदा के लिए दूर कर दिया।

मानव संसार को सत्य मानकर उसी में उलझा हुआ है और अपना कीमती जीवन बरबाद कर रहा है। जो वास्तव में सत्य है उसकी उसे खबर नहीं है और जो मिथ्या है उसी को सत्य मानकर, उसी में आसक्ति रखकर फँस गया है।

जो विद्यमान न हो किन्तु विद्यमान की नाईं भासित हो, उसको अविद्या कहते हैं। इस अविद्या से ही अस्मिता, राग-द्वेष एवं अभिनिवेश पैदा होते हैं। अविद्या ही सब दुःखों की जननी है।

अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष और अभिनिवेश-इनको ʹपंच-क्लेशʹ भी कहते हैं। पंच-क्लेश आने से षडविकार भी आ जाते हैं। उत्पत्ति (जन्मना), स्थिति (दिखना), वृद्धि (बढ़ना), रूग्णता (बीमार होना), क्षय (वृद्ध होना) और नष्ट होना – ये षडविकार अविद्या के कारण ही अपने में भासते हैं। इन षडविकारों के आते ही अनेक कष्ट भी आ जाते हैं और उन कष्टों को झेलने में ही जीवन पूरा हो जाता है। फिर जन्म होता है एवं वही क्रम शुरु हो जाता है। इस प्रकार एक नहीं, अनेकों जन्मों से जीव इसी श्रृंखला में, जन्म-मरण के दुष्चक्र में फँसा है।

गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक गंगा नदी में जितने रेत के कण होंगे उसे कोई भले ही गिन ले लेकिन इस अविद्या के कारण यह जीव कितने जन्म भोगकर आया है, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता।

इस जन्म मरण के दुःखों  से सदा के लिए छूटने का एकमात्र उपाय यही है कि अविद्या को आत्मविद्या से हटाने वाले सत्पुरुषों के अनुभव को अपना अनुभव बनाने के लिए लग जाना चाहिए। जैसे, भूख को भोजन से तथा प्यास को पानी से मिटाया जाता है, ऐसे ही अज्ञान को, अँधेरी अविद्या को आत्मज्ञान के प्रकाश से मिटाया जा सकता है।

ब्रह्मविद्या के द्वारा अविद्या को हटाने मात्र से आप ईश्वर में लीन हो जाओगे। फिर हवाएँ आपके पक्ष में बहेंगी, ग्रह और नक्षत्रों का झुकाव आपकी ओर होगा, पवित्र लोकमानस आपकी प्रशंसा करेगा एवं आपके दैवी कार्य में मददगार होगा। बस, आप केवल उस अविद्या को मिटाकर आत्मविद्या में जाग जाओ। फिर लोग आपके दैवी कार्य में भागीदार होकर अपना भाग्य सँवार लेंगे, आपका यशोगान करके अपना चित्त पावन कर लेंगे। अगर अविद्या हटाकर उस परब्रह्म परमात्मा में दो क्षण के लिए भी बैठोगे तो बड़ी-से-बड़ी आपदा टल जायेगी।

जो परमात्मदेव का अनुभव नहीं करने देती उसी का नाम अविद्या है। ज्यों-ज्यों आप बुराइयों को त्यागकर उन्हें दुबारा न करने का हृदयपूर्वक संकल्प करके ब्रह्मविद्या का आश्रय  लेते हैं, ईश्वर के रास्ते पर चलते हैं त्यों-त्यों आपके ऊपर आने वाली मुसीबतें ऐसे टल जाती हैं जैसे कि सूर्य को देखकर रात्रि भाग जाती है।

वशिष्ठजी महाराज कहते हैं- “हे रामजी ! जिनको संसार में रहकर ही ईश्वर की प्राप्ति करनी हो, उन्हें चाहिए कि अपने समय के तीन भाग कर दें- आठ घंटे खाने-पीने, सोने नहाने-धोने आदि में लगायें, आठ घंटे आजीविका के लिए लगायें एवं बाकी के आठ घंटे साधना में लगायें…. सत्संग-सत्शास्त्र-विचार, संतों की संगति एवं सेवा में लगायें। जब शनैः शनैः अविद्या मिटने लगे तब पूरा समय अविद्या मिटाने के अभ्यास में लगा दें।”

इस प्रकार ब्रह्मज्ञानी सदगुरु के कृपा-प्रसाद को पचाकर तथा आत्मविद्या को पाकर अविद्या के अंधकार से, जगत के मिथ्या प्रपंच से सदा के लिए छूट सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2000, पृष्ठ संख्या 2,3 अंक 94

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आँवला


आयुर्वेद के मतानुसार, आँवले थोड़े खट्टे, कसैले, मीठे, ठंडे, हल्के, त्रिदोष (वात-पित-कफ) का नाश करने वाले, रक्तशुद्धि करने वाले, रुचिकर, मूत्रल, पौष्टिक, वीर्यवर्धक, केशवर्धक, टूटी अस्थि जोड़ने में सहायक, कांतिवर्धक, नेत्रज्योतिवर्धक, गर्मीनाशक एवं दाँतों को मजबूती प्रदान करने वाले होते हैं।

आँवले वातरक्त, रक्तप्रदर, बवासीर, दाह, अजीर्ण, श्वास, खांसी, दस्त, पीलिया एवं क्षय जैसे रोगों में लाभप्रद होते हैं। आँवले के सेवन से आयु, स्मृति, कांति एवं बल बढ़ता है, हृदय एवं मस्तिष्क को शक्ति मिलती है, आँखों का तेज बढ़ता है और बालों की जड़ मजबूत होकर बाल काले होते हैं।

औषधि प्रयोगः

श्वेत प्रदरः 3 से 5 ग्राम चूर्ण को मिश्री तथा दूध की मलाई के साथ प्रतिदिन दो बार लेने से अथवा इस चूर्ण को शहद के साथ चाटने से श्वेत प्रदर ठीक होता है।

सिरदर्दः आँवले के 3 से 5 ग्राम चूर्ण को घी एवं मिश्री के साथ लेने से पित्त तथा वायु दोष से उत्पन्न सिरदर्द में राहत मिलती है।

प्रमेह(धातुक्षय) आँवले के रस में ताजी हल्दी का रस अथवा हल्दी का पाउडर व शहद मिलाकर सुबह-शाम पियें अथवा आँवले एवं हल्दी का चूर्ण रोज सुबह-शाम शहद अथवा पानी के साथ लें। इससे प्रमेह मिटता है। पेशाब के साथ धातु जाना बंद होता है।

वीर्यवृद्धि के लिएः आँवले के रस में घी तथा मिश्री मिलाकर रोज पीने से वीर्यवृद्धि होती है।

कब्जियतः गर्मी के कारण हुई कब्जियत में आँवले का चूर्ण घी एवं मिश्री के साथ चाटें अथवा त्रिफला (हरड़, बहेड़ा, आँवला) चूर्ण आधे से एक चम्मच रोज रात्रि को पानी के साथ लें। इससे कब्जियत दूर होती है।

अत्यधिक पसीना आने परः हाथ पैर में अत्यधिक पसीना आता हो तो प्रतिदिन आँवले के 20 से 30 मि.ली. रस में मिश्री डालकर पियें अथवा त्रिफला चूर्ण लें। आहार में गर्म वस्तुओं का सेवन न करें।

दाँत की मजबूतीः आँवले के चूर्ण को पानी में उबालकर उस पानी से कुल्ले करने से दाँत मजबूत एवं स्वच्छ होते हैं।

आँवला एक उत्तम औषधि है। जब ताजे आँवले मिलते हों, तब इनका सेवन सबके लिए लाभप्रद है। ताजे आँवले का सेवन हमें कई रोगों से बचाता है। आँवले का चूर्ण, मुरब्बा तथा च्यवनप्राश वर्ष भर उपयोग किया जा सकता है।

(साँईं श्री लीलाशाह जी उपचार केन्द्र, जहाँगीरपुरा, वरियाव रोड, सूरत)

गोघृत

गोघृत सब स्नेहों में सबसे उत्तम माना जाता है। गाय का घी स्निग्ध, गुरु, शीत गुणों से युक्त होता है तथा यह संस्कारों से अन्य औषध द्रव्यों के गुणों का अनुवर्तन करता है। स्निग्ध होने के कारण वात को शांत करता है, शीतवीर्य होने से पित्त को नष्ट करता है और अपने समान गुणवाले कफदोष को कफघ्न औषधियों के संस्कार द्वारा  नष्ट करता है। गोघृत रसधातु, शुक्रधातु और ओज के लिए हितकारी होता है। यह दाह को शांत करता है, शरीर को कोमल करता है और स्वर एवं वर्ण को प्रसन्न करता है। गोघृत से स्मरणशक्ति और धारणाशक्ति बढ़ती है, इन्द्रियाँ बलवान होती हैं तथा अग्नि प्रदीप्त होती है।

शरद ऋतु में स्वस्थ मनुष्य को घृत का सेवन करना चाहिए क्योंकि इस ऋतु में स्वाभाविक रूप से पित्त का प्रकोप होता है। ʹपित्तघ्नं घृतम्ʹ के अनुसार गोघृत पित्त और पित्तजन्य विकारों को दूर करने के लिए श्रेष्ठ माना गया है। समग्र भारत की दृष्टि से 16 सितम्बर से 14 नवम्बर तक शरद ऋतु मानी जा सकती है।

पित्तजन्य विकारों के लिए शरद ऋतु में घृत का सेवन सुबह या दोपहर में करना चाहिए। घृत पीने के बाद गरम जल पीना चाहिए। गरम जल के कारण घृत सारे स्त्रोतों में फैलकर अपना कार्य करने में समर्थ होता है।

अनेक रोगों में गाय का घी अन्य औषध द्रव्यों के साथ मिलाकर दिया जाता है। घी के द्वारा औषध का गुण शरीर में शीघ्र ही प्रसारित होता है एवं औषध के गुणों का विशेष रूप से विकास होता है। अनेक रोगों में औषधद्रव्यों से सिद्ध घृत का उपयोग भी किया जाता है जैसे, त्रिफला घृत, अश्वगंधा घृत आदि।

गाय का घी अन्य औषधद्रव्यो से संस्कारित कराने की विधि इस प्रकार हैः

औषधद्रव्य का स्वरस अथवा कल्क 50 ग्राम लें। उसमें गाय का घी 200 ग्राम और पानी 800 ग्राम डालकर उसे धीमी आँच पर उबलने दें। जब सारा पानी जल जाय और घी कल्क से अलग एवं स्वच्छ दिखने लगे तब घी को उतारकर छान लें और उसे एक बोतल में भरकर रख लें।

सावधानीः शहद और गाय के घी का समान मात्रा में सेवन विषतुल्य होता है। अतः इनका प्रयोग विषम मात्रा में ही करना चाहिए।

अत्यन्त शीत काल में या कफप्रधान प्रकृति के मनुष्यों द्वारा घृत का सेवन रात्रि में किया गया तो यह आफरा, अरुचि, उदरशूल और  पाण्डु रोग को उत्पन्न करता है। अतः ऐसी स्थिति में दिन ही घृतपान करना चाहिए। जिन लोगों के शरीर में कफ और मेद बढ़ा हो, जो नित्य मंदाग्नि से पीड़ित हों, अन्न में अरुचि हो, सर्दी, उदररोग, आमदोष से पीड़ित हों ऐसे व्यक्तियों को उन दिनों में घृत का सेवन नहीं करना चाहिए।

औषधि प्रयोगः

गर्भपातः सगर्भावस्था में अशोक चूर्ण को घी के साथ लेने पर गर्भपात से रक्षा होती है।

वीर्यदोषः अश्वगंधा चूर्ण घी और मिश्री में मिलाकर देने से  अथवा आँवले का रस घी के साथ देने से वीर्य की वृद्धि तथा शुद्धि होती है। शुक्रनाश में इलायची और हींग 200 से 300 मि.ग्रा. घी के साथ देने से लाभ होता है।

(धन्वन्तरि आरोग्य केन्द्र, साबरमती अमदावाद)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2000, पृष्ठ संख्या 29, 30 अंक 94

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