Monthly Archives: January 2001

तीन तत्त्वों का मिश्रणः मनुष्य


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

मनुष्य का शरीर इन तीन तत्त्वों का मिश्रण हैः पाशवीय तत्त्व, मानवीय तत्त्व और ईश्वरीय तत्त्व।

पाशवीय तत्त्व अर्थात् पशु जैसा आचरण। चाहे जैसा खाना-पीना, माता-पिता की बात को ठुकरा देना, समाज को ठुकरा देना। जैसे, ढोर चलता है ऐसे ही मन के अनुसार चलना। ये पाशवीय तत्त्व हैं।

मानवीय तत्त्व अर्थात् मानवोचित आचरण। यथायोग्य आहार-विहार, अच्छे संस्कार, अच्छा संग, माता-पिता एवं गुरु का आदर करना – ये मानवीय तत्त्व हैं।

ईश्वरीय तत्त्व। जब संत सदगुरु मिलते हैं एवं मानव साधन-भजन करता है, जप-ध्यान करता है, व्रत-उपवास करता है तब ईश्वरीय तत्त्व विकसित होता है।

जो मनमुख होता है, उसमें पाशवीय अंश जोरदार होता है। फिर वह चाहे अपना बेटा हो या भाई हो लेकिन पाशवीय अंश ज्यादा है इसीलिए हैरान करता है। जैसे पशु जरा-जरा बात में भौंकता है ऐसे ही पाशवीय अंशवाला मनुष्य जरा-जरा बात में अशांत हो जायेगा, जरा-जरा बात में राग-द्वेष की गाँठ बाँध लेगा। वह अपनी पाशवीय वासनापूर्ति में लगा रहता है। ये वासनाएँ जहाँ पूर्ण होती हैं वहाँ राग  करने लगेगा और जहाँ वासनापूर्ति में विघ्न आयेगा वहाँ द्वेष करने लगेगा। वासनापूर्ति में कोई अपने से बड़ा व्यक्ति विघ्न डालेगा तो भयभीत होगा, बराबरी का विघ्न डालेगा तो स्पर्धा करेगा और छोटा विघ्न डालेगा तो क्रोधित होगा। इस प्रकार राग-द्वेष, भय-क्रोध, संघर्ष, स्पर्धा आदि में मनुष्य की ईश्वरीय चेतना खर्च होती रहती है।

इससे कुछ ऊँचे लोग होते हैं, जो अपने कर्त्तव्य पालन में तत्पर होते हैं और मानवीय अंश विकसित किये हुए होते हैं। वे राग-द्वेष को कम महत्त्व देते हैं और अगर हो भी जाता है तो थोड़ा बहुत सँभल जाते हैं। मानवीय अंश विकसित होने के बावजूद भी यदि किसी में पाशवीय अंश का जोर रहा तो वह पशुयोनि में जाता है। जैसे, राजा नृग। उन्होंने मानवीय अंश तो विकसित कर लिया था फिर भी पाशवीय अंश का जोर था तो गिरगिट बनकर कुएँ में पड़े रहे। यदि किसी में मानवीय अंश का जोर रहा तो मरने के बाद वह पुनः मनुष्य शरीर में आता है और यदि मानवीय अंश के साथ ईश्वरीय अंश के विकास में भी लगा रहा तो वह यहाँ भी सुखी एवं शांतिप्रिय जीवन व्यतीत करेगा और मरने के बाद भी भगवान के धाम में जायेगा। लेकिन जो अपने में पूरा ईश्वरीय अंश विकसित कर लेगा, वह यहीं ईश्वरतुल्य होकर पूजा जायेगा।

कई ऐसे बुद्धिमान लोग भी हैं जो ईश्वर को नहीं मानते और उनकी सारी बुद्धि शरीर की सुख-सुविधा इकट्ठी करने में ही खर्च हो जाती है। ऐसे बुद्धिजीवी अपने को श्रेष्ठ एवं दूसरों को तुच्छ मानते हैं जबकि वे स्वयं भी तुच्छता से घिरे हुए ही हैं क्योंकि जो शरीर क्षण-प्रतिक्षण में मौत की तरफ गति कर रहा है उसी को ʹमैंʹ मानते हैं और उससे संबंधित पद-प्रतिष्ठा एवं अधिकारों को ʹमेराʹ मानते हैं। लेकिन उन भोले मूर्खों को पता नहीं होता कि जैसे बिल्ली चूहे को सँभलने नहीं देती, वैसे ही मृत्यु भी किसी को सँभलने नहीं देती। कब मृत्यु आकर झपेट ले इसका कोई पता नहीं।

अमेरिका की अखबारें बताती हैं कि अब्राहम् लिंकन का प्रेतशरीर ʹव्हाइट हाउसʹ में दिखता है। अब्राहम लिंकन मानवतावादी तो थे किन्तु यदि साथ ही साथ उनका ईश्वरीय अंश विकसित होता तो मरने के बाद प्रेतयोनि में नहीं जाते बल्कि आध्यात्मिक यात्रा कर लेते।

कुछ लोग मरने के बाद प्रेत होते हैं। मृत्यु के समय पाशवीय वृत्तिवाले मनुष्य सुन्न हो जाते हैं। मृत्यु आती है तो सवा मुहूर्त तक उनका अंतःकरणयुक्त सूक्ष्म शरीर वातावरण में सुन्न सा मूर्च्छित-सा हो जाता है। वासना जगी रहती है अतः शरीर में घुसना चाहता है लेकिन नहीं घुस सकता। फिर मरने के बाद वासना के अनुसार उसकी गति होती है। जैसे, अभी प्यास लगी है, भूख लगी है, नींद आती है… इनमें से जिसका जोर ज्यादा होगा, वही काम आप पहले करेंगे। ऐसे ही मरने के बाद जो पाशवीय अथवा मानवीय वासना प्रबल होती है, उसी के अनुसार जीव की गति होती है।

जैसे, किसी भीड़ से छूटने के बाद कोई शराबी है तो शराब के अड्डे पर जायेगा, जुआरी है तो जुए के अड्डे पर जायेगा, सदगृहस्थ है तो अपनी प्रवृत्ति की ओर जायेगा, साधक है तो अपनी साधना में लगेगा या किसी आश्रम की ओर जायेगा। ऐसे ही मरने के बाद जीव भी अपनी-अपनी वासना एवं कर्म संस्कार के अनुसार विभिन्न योनियों में गति करते हैं।

मानों, इच्छा है कोई भोग भोगने की और शरीर छूट गया तो फिर अपने कर्मों की तारतम्यता से वह जीव चन्द्रमा की किरणों के द्वारा अथवा वृष्टि के द्वारा अन्न-फल इत्यादि में पड़ता है और उसको मनुष्यादि प्राणी खाते हैं। अगर उसका तारतम्य ठीक है तो उसकी वासना के अनुरूप उसे माता का गर्भ मिलता है और यदि ठीक नहीं है तो वह बेचारा पेशाब आदि के द्वारा नाली में बह जाता है। कहाँ तो बड़ा तीसमार खाँ था और कहाँ दुर्गति को प्राप्त हो गया ! ऐसे कई बार यात्राएँ करते-करते ठीक संयोग बनता है और उसे गर्भ में टिकने का अवसर मिलता है और वह जन्म लेता है। फिर वह अपनी वासना के अनुसार कर्म करता रहता है और नयी-नयी वासनाएँ बनती रहती हैं। ….तो पशुता और मानवता के संस्कार सबमें हैं। जीव को सत्ता तो ईश्वरीय तत्त्व देता है लेकिन वह ईश्वरीय तत्त्व का अनुसंधान नहीं करता तो कभी पशुयोनि में तो कभी मानवयोनि में जाता है तो कभी सज्जनता का पवित्र व्यवहार करके देवयोनि में जाता है और पुण्य भोगकर पुनः नीच योनि में आ जाता है।

बड़भागी तो वह है जो अपना ईश्वरीय अंश विकसित करने के लिए ईश्वरीय नाम का आश्रय लेता है, ईश्वर की प्राप्ति के लिए साधना करता है और मानवीयता के सुंदर सेवाकार्य करता है। सेवाकार्य भी वाहवाही के लिए नहीं, स्वर्गप्राप्ति के लिए नहीं, वरन् ईश्वरप्रीति के लिए ही करता है। भलाई के कार्य करने से अंतरात्मा विकसित होती है और आत्मबल बढ़ता है। ईश्वरीय अंश हमारी सहायता करता है और हमें सत्प्रेरणा देता है। इस प्रकार जो ईश्वरीय अंश को जगाने में लगता है और सतर्क रहता है वही मनुष्यलोक में बुद्धिमान है। वह सचमुच में भाग्यशाली है जो अपने हृदय में ईश्वरीय अंश को विकसित करके ईश्वरीय सत्प्रेरणा, ईश्वरीय ज्ञान, ईश्वरीय ध्यान और ईश्वरीय शांति पाने के लिए सत्कर्म करता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2001, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 97

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स्वप्न को स्वप्न जान लो


संत श्री आसाराम बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

मानव का यह सहज स्वभाव है कि वह सदैव जाग्रत अवस्था का ही ख्याल करता है, जाग्रत को ही सुधारना चाहता है, जाग्रत में ही सुखी होना चाहता है। स्वप्न एवं सुषुप्ति का वह जरा भी ख्याल नहीं करता जबकि केवल जाग्रत अवस्था ही उसकी नहीं है, स्वप्न एवं सुषुप्ति अवस्था भी उसी की है।

जैसे, आप जाग्रत अवस्था में सोचते हो कि ʹयह मकान किसका है ? दुकान किसकी है ? उसने क्या किया ? उसने क्या कहा ?ʹ आदि आदि, वैसे ही स्वप्न के बारे में भी सोचना शुरु कर दो कि ʹयह स्वप्न कैसे आता है ?ʹ हाँ… इसके लिए थोड़े अभ्यास की जरूरत है। यदि केवल तीन महीने तक आप दिन में सौ-सौ बार सोचो किः ʹजो कुछ किया, सब स्वप्न है… जो कुछ बोला, सब स्वप्न है….ʹ तो जब आप स्वप्न देखोगे तब भी लगेगा की ʹयह स्वप्न है…ʹ और आप स्वप्न से जाग जाओगे। स्वप्न को स्वप्न जान लिया तो यह जाग्रत भी वास्तव में तो है स्वप्न ही, फिर इसे भी स्वप्न मानना आसान हो जायेगा।

अभ्यास की बड़ी बलिहारी है !

आप जैसा-जैसा अभ्यास करते हो, वैसा-वैसा ही सब भासता है। आत्मदेव का चमत्कार है ही ऐसा कि जैसा-जैसा आप सोचते हो, वैसा-वैसा आपको भासता है। मित्र में मित्र की भावना दृढ़ होती है तभी वह मित्र दिखता है, हालाँकि वह किसी का शत्रु भी हो सकता है। वास्तव में, न वह शत्रु है, न मित्र किन्तु आप में उसके प्रति मित्र की भावना है तो आपके लिए वह मित्र है और किसी में उसके प्रति शत्रु की भावना है तो उसके लिए वह शत्रु है। है तो वह एक ही, किन्तु दृष्टिभेद के कारण आप सबको अलग-अलग भासता है।

पाँच भूतों की नजर से देखा जाये तो यह मानव शरीर इन्हीं तत्त्वों से बना एक पुतलामात्र है, किन्तु ज्ञानदृष्टि से देखा जाये तो वह अठखेलियाँ करता हुआ ब्रह्म ही है। कौन शत्रु और कौन मित्र ? कौन अपना और कौन पराया ? सब उसी आत्मदेव का खिलवाड़मात्र है। यह ऊँचे-में-ऊँची अवस्था है।

इस अवस्था को पाने के दो तरीके हैं- एक तो यह कि जो कुछ देखो तो सोचोः ʹसब परमात्मा ही है….. सब एक ही है… सब एक ही है….ʹ इसको दोहराते जाओ। दूसरा तरीका है किः ʹसब मैं ही हूँ…. सब मैं ही हूँ….ʹ इसे दोहराते जाओ। दोनों ही तरीकों का अभ्यास करने से चित शांत होता जायेगा। अथवा तो ʹसब स्वप्न है…. सब स्वप्न है….ʹ ऐसा भी सतत् चिंतन कर सकते हो।

चाहे जो भी तरीका अपनाओ वह होना चाहिए भीतर से, केवल वाचिक नहीं। ऐसा नहीं कि रोज माला लेकर घुमाने बैठ गेय कि ʹसब स्वप्न है… सब स्वप्न है…ʹ दिन में दस बार या सौ बार ऐसा जप कर दिया। नहीं नहीं, इससे काम नहीं चलेगा। चाहेत एक बार भी कहो, किन्तु उसमें आपके प्राण होने चाहिए, अपकी पूरी सहमति होनी चाहिए। केवल एक बार ही सही, परन्तु पूरी श्रद्धा से कहोगे तो बहुत लाभ होगा। यदि सतत यही चिंतन करोगे तो भी ठीक है। वास्तविकता का भी ज्ञान हो जायेगा।

यदि आप मुक्त होना चाहते हो, जगत के जंजाल से छूटना चाहते हो, बुद्ध पुरुष की अवस्था का अनुभव करना चाहते हो, जन्म-मरण के चक्कर से छूटना चाहते हो, माता के गर्भ में उल्टे लटकने से बचना चाहते हो तो आपको इसका खूब गहरा अभ्यास करना चाहिए किः ʹसब सपना है.. सब सपना है….ʹ

विवेक से देखो तो बचपन सपना हो गया, युवावस्था सपना हो गई, कल की बात भी सपना हो गई और आज की प्रवृत्ति भी थोड़ी देर के बाद सपना हो जायेगी। सब बदलता जा रहा है, सपना होता जा रहा है किन्तु इन सबको देखने वाला द्रष्टा, साक्षी, चैतन्य एक-का-एक है. वह इन बदलाहटों में भी नहीं बदलता। वही वास्तविक सत्य है। यदि इसको ठीक से पक्का कर लो तो फिर आपको क्रोध के समय इतना क्रोध नहीं होगा, उद्वेग के समय इतना उद्वेग नहीं होगा, लोभ के समय इतना लोभ नहीं होगा, मोह के समय इतना मोह नहीं होगा, अशांति के समय इतनी अशांति नहीं होगी। यदि आप ठीक से उस तत्त्व में टिक गये तो बाहर से युद्ध करते हुए भी भीतर से शांत रहोगे,  ऐसा वह परम ज्ञान है आत्म-परमात्मदेव का।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2001, पृष्ठ संख्या 3, अंक 97

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सेहत और सावधानियाँ


आयुर्वेद के तीन उपस्तम्भ हैं- आहार निद्रा और ब्रह्मचर्य।

जीवन में सुख-शांति व समृद्धि प्राप्त करने के लिए स्वस्थ शरीर की नितान्त आवश्यकता है क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन और विवेकवती कुशाग्र बुद्धि प्राप्त हो सकती है। मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिए उचित निद्रा, श्रम, व्यायाम और संतुलित आहार अति आवश्यक है। पाँचों इन्द्रियों के विषयों के सेवन की गलतियों के कारण ही मनुष्य रोगी होता है। इसमें भोजन की गलतियों का सबसे अधिक महत्त्व है।

गलत विधि से गलत मात्रा में अर्थात आवश्यकता से अधिक या बहुत कम भोजन करने से, या अहितकर भोजन के सेवन से मन्दाग्नि और मन्दाग्नि से कब्ज रहने लगता है। तब आँतों में रुका हुआ मल सड़कर आम व दूषित रस बनाने लगता है। यह दूषित रस ही सारे शरीर में फैलकर विविध प्रकार के रोग उत्पन्न करता है। उपनिषदों में भी कहा गया हैः आहारशुद्धो सत्त्वशुद्धिः। शुद्ध आहार से मन शुद्ध रहता है। साधारणतः सभी व्यक्तियों के लिए आहार के कुछ नियमों को जानना अत्यन्त आवश्यक है। जैसेः

प्रातःकाल 10 से 12 और सायंकाल 6 से 8 बजे का समय भोजन के लिए श्रेष्ठ माना जाता है। एक बार आहार ग्रहण करने के बाद दूसरी बार आहार ग्रहण करने के बीच कम से कम तीन घण्टों का अन्तर अवश्य होना चाहिए क्योंकि इन तीन घण्टों की अवधि में आहार की पाचन-क्रिया संपन्न होती है। यदि दूसरा आहार इसी बीच ग्रहण करें तो पूर्वकृत आहार का कच्चा रस इसके साथ मिलकर दोष उत्पन्न कर देगा।

रात्रि में आहार के पाचन में समय अधिक लगता है इसीलिये रात्रि को प्रथम प्रहर में ही भोजन कर लेना चाहिए। शीत ऋतु में रात बड़ी होने के कारण सुबह जल्दी भोजन कर लेना चाहिए और गर्मियों में दिन बड़े होने के कारण सायंकाल का भोजन जल्दी कर लेना उचित है।

अपनी प्रकृति के अनुसार यथावश्यक मात्रा में भोजन करना चाहिए। आहार की मात्रा व्यक्ति की पाचकाग्नि और शारीरिक बल के अनुसार निर्धारित होती है। स्वभाव से हल्के पदार्थ जैसे कि चावल, मूँग, दूध, अधिक मात्रा में ग्रहण करना सम्भव है परन्तु उड़द, चना तथा पिट्ठी के पदार्थ स्वभावतः भारी होते हैं, जिन्हें कम मात्रा में लेना ही उपयुक्त रहता है।

आहार ग्रहण करते समय सर्वप्रथम मधुर, बीचे में खट्टे और नमकीन तथा अन्त में तीखे, कड़वे व कसैले पदार्थों का सेवन करना उचित है।

भोजन के पहले अदरक और सेंधा नमक का सेवन  सदा हितकारी होता है। वह जठराग्नि को प्रदीप्त करता है और भोजन के प्रति रूचि पैदा करता है तथा जीभ एवं कण्ठ की शुद्धि करता है।

भोजन गर्म और स्निग्ध होना चाहिए। गरम भोजन स्वादिष्ट लगता है, पाचकाग्नि को तेज करता है और भोजन शीघ्र पच जाता है। यह वायु को निकाल देता है और कफ को सुखा देता है। स्निग्ध भोजन शरीर को मजबूत बनाता है, उसका बल बढ़ाता है और वर्ण में भी निखार लाता है।

बहुत जल्दी जल्दी अथवा बहुत देर तक, बोलते हुए अथवा हँसते हुए भोजन नहीं करना चाहिए।

भोजन के बीच-बीच में प्यास लगने पर थोड़ा-थोड़ा पानी पीना चाहिए परन्तु बाद में पीना हानिकारक है। भोजन के बाद तक्र (छाछ) का सेवन हितकर है और अनेक रोगों से बचाने वाला है।

अच्छी तरह भूख एवं प्यास लगना, शरीर में उत्साह उत्पन्न होना एवं हल्कापन महसूस होना, शुद्ध डकार आना और दस्त साफ आना-ये आहार के ठीक प्रकार से पाचन होने के लक्षण हैं।

धन्वन्तरि आरोग्य केन्द्र, साबरमती, अमदावाद।

दालचीनी

भारत में दालचीनी के वृक्ष हिमालय तथा पश्चिमी तट पर पाये जाते हैं। इस वृक्ष की छाल ʹदालचीनीʹ के नाम से प्रसिद्ध है।

यह रस में तीखी, कड़वी तथा मधुर होती है। उष्ण-तीक्ष्ण होने के कारण दीपन, पाचन और विशेष रूप से कफ का नाश करने वाली है। यह अपने मधुर रस से पित्त का शमन और उष्ण वीर्य़ होने से वात का शमन करती है। अतः त्रिदोषशामक है।

औषध-प्रयोग

मुँह के रोगः यह मुख की शुद्धि तथा उसके दुर्गन्ध का नाश करने वाली है। अजीर्ण अथवा ज्वर के कारण गला सूख गया हो तो इसका एक टुकड़ा मुँह में रखने से प्यास बुझती है तथा उत्तम स्वाद उत्पन्न होता है। इससे मसूढ़ भी मजबूत होते हैं।

दंतशूल व दंतकृमिः इसके तेल में भिगोया हुआ रुई का फाहा दाँत के मूल में रखने से दंतशूल तथा दंतकृमियों का नाश होता है। 5 भाग शहद में इसका एक भाग चूर्ण मिलाकर दाँत पर लगाने से भी दंतशूल में राहत मिलती है।

पेट के रोगः 1 चम्मच शहद के साथ इसका 1.5 ग्राम (एक चने जितनी मात्रा) चूर्ण लेने से पेट का अल्सर नष्ट हो जाता है।

दालचीनी, इलायची और तेजपत्र का समभाग मिश्रण करें। इसका 1 ग्राम चूर्ण 1 चम्मच शहद के साथ लेने से पेट के अनेक विकार जैसे मंदाग्नि, अजीर्ण, उदरशूल आदि में राहत मिलती है।

सर्दी, खाँसी, जुकामः इसका 1 ग्राम चूर्ण एवं 1 ग्राम सितोपलादि चूर्ण 1 चम्मच शहद के साथ लेने से सर्दी, खाँसी में तुरन्त राहत मिलती है।

क्षयरोग (टी.बी.)- इसका 1 ग्राम चूर्ण 1 चम्मच शहद में सेवन करने से कफ आसानी से  छँटने लगता है एवं खाँसी से राहत मिलती है। दालचीनी का यह सबसे महत्त्वपूर्ण उपयोग है।

रक्तविकार एवं हृदयरोगः दालचीनी रक्त की शुद्धि करने वाली है। इसका 1 ग्राम चूर्ण 1 ग्राम शहद में मिलाकर सेवन करने से अथवा दूध में मिलाकर पीने से रक्त में उपस्थित कोलेस्ट्रोल की अतिरिक्त मात्रा घटने लगती है। अथवा इसका आधा से एक ग्राम चूर्ण 200 मि.ली. पानी में धीमी आँच पर उबालें। 100 मि.ली. पानी शेष रहने पर उसे छानकर पी लें। इससे भी कोलेस्ट्रोल की अतिरिक्त मात्रा घटती है।

गरम प्रकृति वाले लोग पानी में दूध मिश्रित कर इसका उपयोग कर सकते हैं। इस प्रयोग से रक्त की शुद्धि होती है एवं हृदय को बल प्राप्त होता है।

सामान्य वेदनाः इसका एक चम्मच (छोटा) चूर्ण 20 ग्राम शहद एवं 40 ग्राम पानी में मिलाकर स्थानिक मालिश करने से कुछ ही मिनटों में वात के कारण होने वाले दर्द से छुटकारा मिलता है।

इसका एक ग्राम चूर्ण और दो चम्मच शहद 1 कप गुनगुने पानी में मिलाकर नित्य सुबह-शाम पीने से संधिशूल में राहत मिलती है।

वेदनायुक्त सूजन तथा सिरदर्द में इसका चूर्ण गरम पानी में मिलाकर लेप करें।

बिच्छू के दंशवाली जगह पर इसका तेल लगाने से दर्द कम होता है।

वृद्धावस्थाः बुढ़ापे में रक्तवाहिनियाँ कड़क और रूक्ष होने लगता है। एक चने जितना दालचीनी का चूर्ण शहद में मिलाकर नियमित सेवन करने से इन लक्षणों से राहत मिलती हैं। इस प्रयोग से त्वचा पर झुर्रियाँ नहीं पड़तीं, शरीर में स्फूर्ति बढ़ती है और श्रम से जल्दी थकान नहीं आती।

मोटापाः इसके 1.5 ग्राम चूर्ण का काढ़ा बना लें। उसमें 1 चम्मच शहद मिलाकर सुबह खाली पेट तथा सोने से पहले पियें। इससे मेद कम होता है।

त्वचा विकारः दालचीनी का चूर्ण और शहद समभाग कर दाद, खाज तथा खुजलीवाले स्थान पर लेप करने से कुछ ही दिनों में त्वचा के ये विकार मिट जाते हैं।

सोने से पूर्व इसका 1 चम्मच चूर्ण 3 चम्मच शहद में मिलाकर मुँह की खीलों पर अच्छी तरह से मसलें। सुबह चने का आटा अथवा उबटन लगाकर गरम पानी से चेहरा साफ कर लें। इससे खील-मुँहासे मिटते हैं।

बालों का झड़नाः दालचीनी का चूर्ण, शहद और गरम औलिव्ह तेल 1-1 चम्मच लेकर मिश्रित करें और उसे बालों की जड़ों में धीरे-धीरे मालिश करें। पाँचट मिनट के बाद सिर को पानी से धो लें। इस प्रयोग से बालों का झड़ना कम हो जाता है।

सावधानीः दालचीनी उष्ण-तीक्ष्ण तथा रक्त का उत्क्लेश करने वाली है अर्थात रक्त में पित्त की मात्रा बढ़ाने वाली। इसके अधिक सेवन से शरीर में गर्मी उत्पन्न होती है। अतः गरमी के दिनों में इसका लगातार सेवन न करें। इसके अत्यधिक उपयोग से नपुंसकता आती है।

सेवफल

सेवफल भोजन पचाता है, खुद भी जल्दी पचता है। वात-वित्त से होने वाले रोगों का भी शमन करता है। दाँत और मसूढ़ों में मजबूती लाता है। अग्नि पर सेंककर खाने से पेट के सभी रोगों का शमन करता है। भोजन बंद करके दिन में सेब ही खाना शुरु कर दें तो पेट व दाँत की बीमारियों एवं कमजोरी में लाभ होता है।

साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज उपचार केन्द्र, जहाँगीरपुरा, वरियाव रोड, सूरत।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2001, पृष्ठ संख्या 28-30, अंक 97

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