महासंकल्प और वर्तमान संकल्प

महासंकल्प और वर्तमान संकल्प


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनषज्जते।

सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते।।

ʹजिस काल में न तो इन्द्रियों के भोगों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है उस काल में सर्व संकल्पों का त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है।ʹ

(श्रीमद् भगवद् गीताः 6-4)

इस श्लोक के द्वारा भगवान स्वयं आपने भगवद-अनुभव की बात बता रहे हैं। भगवान ही भगवत्तत्त्व की बात बता रहे हैं। ʹयह मिले तो सुखी होऊँ….. वह छोड़ूँ तो सुखी होऊँ….ʹ आदि झंझटों से जब मनुष्य छूट जाता है तब वह योगारूढ़ कहा जाता है। कुछ करके सुखी होना यह रजोगुण है, कुछ न करके भी सुख की चाह करना यह तमोगुण है लेकिन ईश्वर के संकल्प में अपना संकल्प मिला देने से संकल्प-विकल्प की भीड़ शांत होने लगती है एवं साधक योगारूढ़ होने में समर्थ हो जाता है। कुछ पाने, देखने, भोगने, करने या न करने के सकंल्पों की पकड़ छूटते ही उसका मन निःसंकल्प नारायण में शांत होने लगता है।

संकल्प दो प्रकार के होते हैं-

महा संकल्प और वर्तमान संकल्प।

मनुष्य का महासंकल्प यह होता है किः ʹमैं कभी दुःखी न रहूँ….. सदा सुखी रहूँ… ऐसी चीज पा लूँ कि फिर पतन न हो….ʹ मानव मन की गहराई में यह महासंकल्प छुपा रहता है। इस महासंकल्प को साकार करने के लिए ही ध्यान, भजन, सत्संग, पूजन, धर्म, कर्म इत्यादि होते हैं।

वर्तमान (तात्कालिक) संकल्प क्या है ? कमा लिया, खा लिया…. इधर गये, उधर गये। यह दो प्रकार का कल होता है। धर्म के अनुकूल और मन के अनुकूल।

जो धर्मानुकूल तात्कालिक संकल्प के अनुसार जीते हैं, उनको महा संकल्प की पूर्ति में मदद मिलती है। जो धर्म-कर्म का आश्रय नहीं लेते और मन में जैसा आये वैसा ही करते हैं उनका महासंकल्प पूरा नहीं होता। वे महासंकल्प की तरफ चलने की इच्छा तो करते हैं किन्तु पहुँच नहीं पाते।

चली चलो सब कोउ कहे, विरला पहुँचा कोय।

एक कंचन एक कामिनी, बीचे घाटी दोये।।

कोई थोड़ा ईश्वर के रास्ते चला, सफलता मिली, धन बढ़ा तो और अधिक दुकान-फैक्टरियाँ बढ़ाने में लग जायेगा या विषय-सुख में फँस जायेगा। इन दो घाटियों – कंचन (धन) एवं कामिनी (स्त्री) को पार कर गये तो फिर दूसरी घाटियाँ सामने आयेंगी।

माया तजना सहज है, सहज नारी का नेह।

मान-बड़ाई ईर्ष्या, दुर्लभ तजना एह।।

मान बड़ाई और ईर्ष्या भी महासंकल्प की पूर्ति में विघ्न डालते हैं। यदि मान बड़ाई परेशान करें तो याद रखें-

अभिमानं सुरापानं गौरवं रौरवस्तथा।

प्रतिष्ठा शूकरी विष्ठा त्रीणि त्यक्त्वा सुखी भवेत्।।

ʹअभिमान मदिरापान के समान, गौरव, रौरव नर्क के समान एवं प्रतिष्ठा सुअर की विष्ठा के समान है। अतः तीनों को त्यागकर सुखी हो जायें।ʹ

यदि आपके मन में किसी के प्रति ईर्ष्या होती है तो उसके पास जाकर कह दें किः ʹमुझे माफ करो। मुझे आपको देखकर ईर्ष्या होती है। आप भी प्रार्थना करें और मैं भी प्रार्थना करूँ ताकि आपके प्रति मेरी ईर्ष्या मिट जाये।ʹ

अगर मान बड़ाई, ईर्ष्या – ये छूट गये तो महासंकल्प पूर्ण हो जायेगा। ब्रह्मज्ञानियों का महासंकल्प था तभी तो उन्हें ब्रह्मज्ञान हुआ। भगवान का महासंकल्प है तभी तो वे पने भगवदस्वभाव को जानते हैं। ऐसे ही जब अपना भी महासंकल्प पूरा होगा तो फिर सब दुःखों से सदा के लिए निवृत्ति और परमानंद की प्राप्ति हो जायेगी।

अकाल पुरुष का साक्षात्कार करना यह महासंकल्प है। महासंकल्प क्यों कहा ? सब चाहते हैं कि ʹहम सदा सुखी होंʹ। यह महासंकल्प तभी पूरा होता है जब महान परमात्मा का ज्ञान प्राप्त होता है, इसीलिए इसे महासंकल्प कहा। अतः आप भी महासंकल्प पूरा करने के  लिए तत्पर हो जायें। उन्हीं तात्कालिक संकल्पों को पूरा करें जो कि धर्म एवं शास्त्र के अनुकूल और मर्यादित हों। मान-बड़ाई, ईर्ष्या, काम, क्रोध, लोभ आदि के संकल्पों को कभी भी सहयोग न दें।

ईर्ष्या और संसार के छोटे-मोटे दुःखों से प्रभावित होने के कारण मति मारी जाती है और जब मति मारी जाती है तब तात्कालिक संकल्प और भी तुच्छ होने लगते हैं। महासंकल्प पूरा होने की तो गुंजाइश ही नहीं रहती है अपितु तात्कालिक संकल्प भी तुच्छ होने लगते हैं। अतः सावधानी रखें  कि तुच्छ संकल्प, हल्के संकल्प न उठें। अगर उठ भी जायें तो उन्हें तुच्छ समझकर आप सावधान हो जायें।

प्रतिदिन संकल्प करें किः ʹमेरे तात्कालिक संकल्प ऐसे ही बनें कि मेरा महासंकल्प पूरा हो।ʹ ध्यान रखें कि) ʹमान-बड़ाई में कहीं हम खप तो नहीं रहे ? ईर्ष्या से हमारे हृदय का परमात्मरस नष्ट तो नहीं हो रहा  ? विषय-विकारों में कहीं हम अपना जीवन बरबाद तो नहीं कर रहे ?ʹ इसके लिए अपने ऊपर कड़ी निगरानी रखें, सतत सावधानी रखें, सदैव सजाग रहें।

व्यर्थ के संकल्प न करें। व्यर्थ के संकल्पों से बचने के लिए ʹहरि ૐ….ʹ के गुंजन का भी प्रयोग किया जा सकता है। ʹहरि ૐ…..ʹ के गुंजन में एक विलक्षण विशेषता है कि उससे फालतू संकल्प-विकल्पों की भीड़ कम हो जाती है। ध्यान के समय भी ʹहरि ૐ….ʹ का गुंजन करें फिर शांत हो जायें। मन इधर-उधर भागे फिर गुंजन करें। यह व्यर्थ संकल्पों को हटायेगा एवं महासंकल्प की पूर्ति में मददरूप होगा।

तात्कालिक संकल्पों में भी व्यर्थ संकल्पों की बड़ी भीड़ होती है। व्यर्थ स्फुरणाएँ ही संकल्प बन जाती हैं। फिर कुछ तात्कालिक संकल्प धर्म के अनुकूल होते हैं, कुछ वासना के वेगवाले संकल्प होते हैं। उनमें जरा सावधान रहना पड़ेगा। धर्मानुकूल संकल्पों की पूर्ति महासंकल्प की पूर्ति में सहायक होगी किन्तु वासनायुक्त संकल्पों की पूर्ति में लगे तो महासंकल्प पूर्ण न कर पायेंगे।

अपने दोषों को निकालने का प्रयत्न आपको स्वयं ही करना पड़ेगा। यदि आप स्वयं निकालने में तत्पर नहीं होंगे तो गुरुदेव भी नहीं निकाल सकेंगे। बच्चा यदि अपनी लापरवाही का दोष खुद न निकाले तो शिक्षक कितना भी बढ़िया हो, उसका विकास कैसे होगा ?

शास्त्रकारों ने कहा हैः

मूरख हृदय न चेत, यद्यपि गुरु मिलहिं बिरंचि सम।

ईर्ष्या, मान-बड़ाई आदि से युक्त होकर जिसकी बुद्धि मारी गयी है ऐसे व्यक्ति को यदि ब्रह्माजी भी गुरु के रूप में मिलें तो वह लाभ नहीं ले पायेगा। इसलिए तात्कालिक संकल्प भी शुभ हों, ज्ञानसंयुक्त संकल्प हों, शास्त्रसम्मत संकल्प हों और महासंकल्प की पूर्ति करने वाले हों इसका ध्यान रखें।

प्रतिदिन संकल्प करें किः ʹकुछ भी हो जाये, आज मैं मान और अपमान को पचा लूँगा…. कुछ भी हो जाये, आज मैं विकारों के आवेग में नहीं गिरूँगा… कुछ भी हो जाये, आज मैं ईर्ष्या से संतप्त नहीं होऊँगा… मेरा जो महासंकल्प है उसकी पूर्ति में लगूँगा…. मैं गुरु का शिष्य हूँ, भगवान का भक्त हूँ…. कुछ भी हो जाये, व्यर्थ संकल्पों में आज का दिन बरबाद नहीं करूँगा।ʹ

एक महासंकल्प हो गया तो बाकी के अवांतर संकल्प भी उसी रूप में होते हैं। जैसे, ʹमुझे परमात्मा को पाना है…ʹ यह महासंकल्प हो गया तो बाकी के छोटे-मोटे अवांतर संकल्प उसी के अनुरूप बनेंगे और फालतू संकल्प कम हो जायेंगे। इसलिए प्रतिदिन इस महासंकल्प को पोषण दें किः ʹमुझे तो इसी जन्म में परमात्मा को पाना है, ब्रह्मज्ञान पाना है, ईश्वर का दर्शन करना है, संसारी आकर्षणों से पार होकर समत्वयोग में जागना है….ʹ

महासंकल्प की पूर्ति होने पर अंतःकरण में महान सुख उत्पन्न होता है और संसार से मजे लेकर सुखी होने की भ्रांति चली जाती है। ऐसे महासंकल्प की पूर्ति करने में जो महापुरुष सफल हो जाते हैं, वे सुख लेने के लिए इधर-उधर भटकते नहीं हैं अपितु उनके अंतःकरण से ज्ञान और सुख का दरिया ऐसा छलकता है कि उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी सुख शांति का एहसास करने लगते हैं। वे स्वयं तो तृप्त रहते ही हैं, दूसरों को भी तृप्त करते हैं। वे स्वयं तो तर जाते हैं, दूसरों को भी तारते हैं। स तरति लोकान् तारयति।

………और यह महासंकल्प सबके अंतःकरण में दबा हुआ है। जिसके अंतःकरण में पुण्यों के प्रताप से उस महासंकल्प को पूरा करने का उत्साह जागा होता है, दृढ़ता जागी होती है, वही भगवान का भक्त अथवा सदगुरु का सत्शिष्य योगारूढ़ बन पाता है।

महासंकल्प माना महान सुख, जिसे मौत का बाप भी नहीं छिन सकता। निंदक निंदा कर ले, प्रशंसक प्रशंसा कर ले फिर भी जिसका चित्त महासंकल्प के सुख से परिपूर्ण है वह कभी विचलित नहीं होता। वही जीते जी मुक्तात्मा है, महात्मा है।

महासंकल्प को जितना ज्यादा महत्त्व देंगे, उतना ही साधारण संकल्प का महत्त्व क्षीण होता जायेगा। मान लो, आपने दृढ़ संकल्प कर लिया किः ʹमुझे आश्रम जाना है….ʹ अन्य व्यर्थ संकल्प नहीं फुरेंगे बल्कि अवांतर संकल्प होने लगेंगे किः ʹबस में जाना है… रिक्शा में जाना है…. मोपेड पर जाना है….ʹ ऐसे ही महासंकल्प हो जाये किः ʹमुझे ईश्वर को पाना है….ʹ फिर उसके लिए ʹजप करना है… ध्यान करना है…. संयम से रहना है…. सत्संग करना है…..ʹ ऐसे अनुकूल अवांतर सकंल्प फुरने लगेंगे।

महासंकल्प को महत्त्व देंगे तो अवांतर संकल्प सात्त्विक होंगे, अच्छे होंगे। महासंकल्प का पता नहीं तो मन तात्कालिक संकल्प-विकल्पों में, फिर कुसंकल्पों में चला जायेगा किः ʹइसका बदला लेना है….. इसकी खबर लेनी है…..ʹ आदि। जिनके जीवन में महासंकल्प नहीं जागा, उनके सारे संकल्प व्यर्थ होते हैं। जिनको महासंकल्प का ज्ञान है वे व्यर्थ संकल्पों से यत्नपूर्वक बच जाते हैं। वे व्यर्थ का नहीं खाते, व्यर्थ का नहीं भोगते, व्यर्थ का नहीं सोचते क्योंकि उनका एक महासंकल्प है। फिर उसे महा संकल्प कह दें, ईश्वर प्राप्ति कह दें, ज्ञान प्राप्ति कह दें या योग की पराकाष्ठा कह दें अथवा योगारूढ़ होना कह दें…. एक ही बात है।

एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि महासंकल्प केवल मनुष्य ही कर सकता है। गाय, भैंस आदि पशु, पक्षी तो कभी सोच भी नहीं सकते किः ʹहम सदा के लिए सुखी रहें।ʹ हालाँकि सुख तो भैंस भी चाहती है। प्रतिकूलता से वह भी भागती है लेकिन सदा सुखी रहने की मति उसके पास नहीं होती। केवल मनुष्य ही चाहता है किः ʹमैं सदा सुखी रहूँ।ʹ

मान लो, मैं अपने गुरुदेव की तरफ से कह दूँ किः ʹभगवान करें आप एक साल के लिए बहुत सुखी हें और बाद में आपके पास मुसीबतें आयें !ʹ ….तो आपको अच्छा लगेगा क्या ? ʹपाँच साल तक आप बहुत सुखी रहें, बाद में आप पर दुःख-मुसीबत आये !ʹ…. तो गहरे मन से आप नहीं चाहेंगे कि पाँच साल के बाद आपके जीवन में ऐसा हो। मैं कह दूँ किः ʹभगवान करें कि जीवन भर आप सुखी रहें किन्तु मरने के बाद आप घोर नरक में जायें !ʹ नहीं, आपको यह भी अच्छा नहीं लगेगा। ….तो यह महासंकल्प है कि आप जीते-जी भी सुख चाहते हैं और मरने के बाद भी सुख चाहते हैं, दुःख नहीं चाहते। आप परम सुख और सदा रहने वाला सुख चाहते हैं। यही महासंकल्प है।

गर्मी लग रही है और पंखा चला दिया तो तात्कालिक दुःख निवृत्त हुआ। भूख लगी और रोटी खायी तो तात्कालिक भूख निवृत्त हुई लेकिन सदा के लिए तृप्ति नहीं होगी। ऐसे ही तुच्छ तात्कालिक संकल्पों की पूर्ति में समय न गँवाएँ। उन पर नियंत्रण रखें। धर्मानुकूल तात्कालिक संकल्पों की ही पूर्ति करें। तात्कालिक संकल्प अधिक होंगे तो महासंकल्प के लिए जो योग्यता चाहिए, वह नहीं आयेगी।

जप, ध्यान, उपासना, सत्संग आदि से तात्कालिक संकल्पों में तो सामर्थ्य आयेगा ही, महासंकल्प की पूर्ति में भी मदद मिलेगी। ʹहम सदा सुखी रहें….ʹ यह महासंकल्प तो समझ लिया लेकिन इस दिशा में यात्रा करने के लिए आप सजग रहना ताकि आपके संकल्प का बल बढ़े। जिनके संकल्प में बल हैं तो वे एक महापुरुष अपने संकल्प के बल से हजारों लाखों व्यक्तियों को अपनी बात समझा सकते हैं, मनवा सकते हैं। जिनके संकल्प में बल नहीं, उनकी बातें श्रद्धा से कौन सुनेगा ? उनकी बात कौन मानेगा ? जिन्होंने अपना महा संकल्प पूर्ण कर लिया है फिर बल तो उनका स्वभाव बन जाता है। महासंकल्प की पूर्ति होने पर योगी का योग सिद्ध हो जाता है, भक्त की भक्ति सफल हो जाती है और ज्ञानी को ज्ञान की पराकाष्ठा मिल जाती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2001, पृष्ठ संख्या 8-11, अंक 97

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