साधना में सत्संग की आवश्यकता

साधना में सत्संग की आवश्यकता


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

जप, तप, व्रत, उपवास, ध्यान, भजन, योग आदि साधन अगर सत्संग के बिना किये जायें तो उनमें रस नहीं आता। वे तो साधनमात्र हैं। सत्संग के बिना वे व्यक्तित्व के सिंगार बन जाते हैं।

जब तक ब्रह्मवेत्ता महापुरुष का जीवंत सान्निध्य इन साधनों को सुहावना नहीं बनाता, तब तक ये साधन श्रममात्र रह जाते हैं। ये साधन सब अच्छे हैं फिर भी सत्संग के बिना रसमय नहीं बनते। सत्संग इनमें रस लाता है।

रसौ वै सः।

अनुभवनिष्ठ ब्रह्मवेत्ता महापुरुष की वाणी की शरण लिये बिना रसस्वरूप परमात्मा का बोध नहीं हो सकता। अकेले साधनभजन करने से थोड़ी बहुत सात्त्विकता आ जाती है, सच्चाई आ जाती है, थोड़ी-बहुत शक्ति आ सकती है किन्तु साथ ही साथ सात्त्विकता और सच्चाई एवं शक्ति का अहं भी उतना ही आ जाता है। साधना का अहं खड़ा हो जाता है। अहं के अनुरूप घटना घटती है तो सुख होता है और उसके प्रतिकूल घटना घटती है तो दुःख होता है। सुखी और दुःखी होने वाले हम मौजूद रहे।

सत्संग से कया होता है ? हमारा माना हुआ जो परिच्छिन्न व्यक्तित्त्व है, जीव का अहं है उसकी पोल खुल जाती है। जैसे, प्याज की पर्तें उतारते जाओ तो भीतर से कुछ ठोस प्याज जैसा निकलेगा नहीं क्योंकि उसमें केवल पर्तें ही पर्तें हैं। ऐसे ही जब तक सत्संग नहीं मिलता तब तक ʹमैंʹ का ठोस पन दिखता है। सत्संग मिलते ही ʹमैंʹ की पर्तें हटती हैं और अपने परमात्मस्वरूप के सुख-शांति-माधुर्य में जीव प्रवेश पाने लगता है। जीव मुक्ति का अनुभव कर लेता है।

एक साधु ने ʹकलिदोषनिवारकʹ ग्रंथ में पढ़ा कि साढ़े तीन करोड़ नाम जपने से सद्योमुक्ति होती है। उसने अनुष्ठान शुरु किया। साढ़े तीन करोड़ राम नाम का जप कर लिया। कुछ हुआ नहीं। दूसरी बार अनुष्ठान किया। फिर भी सद्योमुक्ति जैसा कुछ हुआ नहीं। जिन सत्पुरुष के द्वारा वह ग्रंथ लिखा गया था उनको जाकर कहाः

“महाराज ! मैं साढ़े तीन करोड़ जप दो बार किये। कुछ हुआ नहीं।”

“तीसरी बार कर।” संत ने कहा।

तीसरी बार करने पर भी सद्योमुक्ति का कोई अनुभव नहीं हुआ। उसकी श्रद्धा टूट गई। फिर किसी ब्रह्मवेत्ता के पास गया और अपना हाल बताते हुए कहाः

“स्वामी जी ! सुना था कि साढ़े तीन करोड़ मंत्रजप करने से सद्योमुक्ति होती है। मैंने एक बार नहीं, तीन बार किया। मुझे कोई अनुभव नहीं हुआ।”

“सद्योमुक्ति का मतलब क्या है ?” संतश्री ने पूछा।

“शीघ्रमुक्ति। सद्यो मोक्षप्रदायकः। तुरन्त मुक्ति हो जाती है।”

“वत्स ! तू मनमाना होकर साधन करता था इसलिए अटूट दृष्टि नहीं रही। तू अभी मुक्त है, इसी समय मुक्त है। तुझे बाँध सके ऐसी कोई भी परिस्थिति तीनों लोकों में भी नहीं है। तूने जप तो किया लेकिन सत्संग का रंग नहीं लगा। अब सत्संग में बैठकर देख। दीये में तेल तो भर दिया, बाती भी रख दी लेकिन जले हुए दीये के नजदीक नहीं गया। अब सत्संग में बैठ। शांति से ध्यानपूर्वक सुन। श्रद्धा के साथ विचार कर। तेरी सद्योमुक्ति है ही। ʹमेरी सद्योमुक्ति अब होगी….ʹ ऐसा मत मान। अभी, इसी समय, यहीं तेरी सद्योमुक्ति है। हम लोग बड़े-में-बड़ी गलती यह करते हैं कि साधनों के बल से भगवान को पाना चाहते हैं या मुक्त होना चाहते हैं। साधन करने वाले का व्यक्तित्व बना रहेगा। केवल भगवान की कृपा से भगवान को पाना चाहते हैं तो आलस्य आ जायेगा। अतः अपने पुरुषार्थ और भगवान की कृपा का समन्वय कर। ʹभगवान ऐसे हैं…. वैसे हैं… वे जैसे हैं उसी रूप में अपने आप प्रकट होंʹ ऐसी मान्यता मत रख।”

आपकी धारणा के मुताबिक भगवान प्रकट होहं ऐसा चाहोगे तो आपकी धारणा कभी कैसी होगी, कभी कैसी होगी। मुसलमान खुदा को चाहेगा तो अपनी धारणा का, अहीर भगवान को चाहेगा तो अपनी धारणा का, देवी का भक्त अपनी धारणा का चाहेगा, पटेल अपनी धारणा का भगवान चाहेगा, सिंधी अपनी धारणा का झुलेलाल चाहेगा।

आपकी धारणा के भगवान तो आपकी अन्तःकरण की वृत्ति के अनुरूप होकर दिखेंगे। आपकी वृत्ति माता के आकार की होगी तो भगवान माता के स्वरूप में दिखेंगे। आपकी वृत्ति श्री रामचन्द्र के आकार की होगी तो भगवान श्रीरामचन्द्र जी के रूप में दिखेंगे। आपकी वृत्ति झुलेलाल के रूप में दिखेंगे। ऐसे भगवान दिखेंगे और फिर अन्तर्धान हो जायेंगे।

उन महापुरुष ने साधू को कहाः “तू सत्संग में आ, तब तुझे भगवदरस की प्राप्ति होगी, अन्यथा नहीं होगी।”

यही घटना बल्ख के सम्राट इब्राहीम के साथ घटी। वह राजपाट छोड़कर भारत में आया औऱ फकीर बन गया। लकड़ियाँ बेचकर दो पैसे कमा लेता। एक पैसे से गुजारा करता, एक पैसा बच जाता। जब ज्यादा पैसे इकट्ठे हो जाते तब साधुओं को भोजन करा देता। कहाँ तो बल्ख का सम्राट और कहाँ लकड़हारा होकर परिश्रम करने वाला फकीर !

इब्राहीम के मन में आयाः “मैं दान का नहीं खाता। इतना बड़ा राज्य छोड़ा, फकीर बनने के बावजूद भी किसी के दान का नहीं खाता हूँ, अपना कमाकर खाता हूँ। ऊपर से दान भी करता हूँ। फिर भी मालिक नहीं मिल रहा है… क्या बात है ?ʹ यह प्रार्थना करने लगताः

“हे मेरे मालिक ! हे मेरे प्रभु ! हे भगवान ! हे खुदा ! हे ईश्वर ! मुझे कब मिलोगे ? मैं नहीं जानता कि आप कैसे हो। आप जैसे भी हो, मुझे सन्मार्ग दिखाओ।”

ऐसी प्रार्थना करते-करते वह ध्यानस्थ होने लगा। अंतर में प्रेरणा मिली किः ” जा हृषिकेश के आगे। वहाँ अमुक संत हैं, उनके पास जा।” बल्खनरेश वहाँ पहुँचा और बोला “बाबा जी ! मैं बल्ख का सम्राट था। राजपाट छोड़कर फकीर बना हूँ। अभी मेरा अहं नहीं छूटता। मैंने सुना है कि अहं मिटते ही मालिक मिलता है। ʹपहले मैं राजा था….ʹ ऐसा अहं था। फिर फकीर का अहं घुसा। अहं निकालने के लिए परिश्रम करके खाता हूँ, संग्रह न करके त्याग करता हूँ, बचा हुआ वित्त भंडारे में खर्च कर देता हूँ। पसीना बहाकर अपना अन्न खाता हूँ फिर भी मालिक क्यों नहीं मिलता ?”

बाबाजी ने कहाः “यह अपना खाने वालाʹ और ʹपराया खाने वालाʹ ही अड़चन है। मेरा और तेरा, अपना और पराया जो बनाता है वह अहं ही मालिक के दीदार में अड़चन है।”

सम्राट ने कहाः “महाराज ! मेरा वह अहं आप निकाल दीजिये। इतनी कृपा कीजिये।”

बाबाजी ने कहाः “हाँ, तू ठीक समझा है। अहं है तेरे पास ?”

“हाँ, अहं है। वही दुष्ट परेशान कर रहा है।”

“तो देख, कल सुबह चार बजे आ जाना। मैं तेरा अहं ले लूँगा।”

“जी, महाराज !”

वे बाबाजी अनुभवसंपन्न ब्रह्मवेत्ता महापुरुष थे। उन्होंने सिद्धि के ऊँचे शिखर सर किये थे।

इब्राहीम जाने लगा। बाबा जी ने पीछे से कहाः “देख, कल पूरा अहं लाना। कहीं आधा छोड़कर नहीं आना।”

इब्राहीम चकित रह गया ! सोचाः ʹअहं छोड़कर कहाँ आऊँगा ? वह तो पूरे का पूरा साथ में रहता है।”

दूसरे दिन सुबह चार बजे इब्राहीम पहुँच गया बाबा जी की गुफा पर। बाबाजी डण्डा लेकर आये। बड़ी बड़ी आँखे दिखाते हुए बोलेः “अहं लाया है ?”

“हाँ महाराज ! अहं है।”

“कहीं छोड़कर तो नहीं आया ?”

“ना, महाराज !”

“कहाँ है ?”

“हृदय में रहता है।”

“बैठ। निकाल उसको। मुझे दिखा। उसको ठीक कर देता हूँ। जब तक अहं को निकालकर मेरे सामने नहीं रखेगा तब तक उठने नहीं दूँगा। सिर पर डंडा दूँगा। तू सम्राट था तो उधर था। इधर अभी तेरा कोई नहीं। यहाँ बाबाओं का राज्य की सीमा में आ गया है। अहं दिये बिना गया तो….. देना है न अहं ?… तो खोज, कहाँ है अहं ?”

“कैसे खोजूँ अहं को ? वह कहाँ होता है?”

“अहं कहाँ होता है…. ऐसा करके भी खोज। जहाँ होता है वहाँ से निकाल। आज तुझे नहीं छोड़ूँगा।”

ज्यों केले के पात में, पात पात में पात।

त्यों संतन की बात में, बात बात में बात।।

कभी साधक का ताड़न करने से काम बन जाता है तो कभी पुचकार से काम हो जाता है…. कभी किसी साधन से तो कभी किसी साधन से। यह तो महापुरुष जानते हैं कि कौन से साधक की उन्नति किस प्रकार करनी चाहिए।

युक्ति से मुक्ति होती है, मजदूरी से मुक्ति नहीं होती।

इब्राहीम अहं को खोजते-खोजते अन्तर्मुख होता गया। प्रभात का समय। शुद्ध वातावरण। बाबाजी की कृपा बरसती रही। मन की भाग-दौड़ क्षीण होती गई। एकटक निहारते-निहारते आँखें बन्द हुईं। चेहरे पर अनुपम शांति छाने लगी। ललाट पर तेज उभरने लगा। डण्डे वाले बाबा जी तो गुफा के भीतर चले गये थे। डण्डा मारना तो था नहीं। जो कुछ भीतर से करना था वह कर दिया। इब्राहीम की सुरता की गति अन्तर्मुख बना दी।

इब्राहीम को अहं खोजते-खोजते साढ़े चार बजे…. पाँच बजे…. छः बज गये। बैठा है ध्यानस्थ। बाहर का कोई पता नहीं। श्वासोच्छवास की गति मंद होती चली जा रही है।

सूर्योदय हुआ। सूर्य का प्रकाश पहाड़ियों पर फैल रहा है। अपनी आत्मा का प्रकाश इब्राहीम के चेहरे पर दिव्य तेज ले आया है। बाबाजी देखकर प्रसन्न हो रहे हैं कि साधक ठीक जा रहा है।

घण्टों के बाद बाबाजी इब्राहीम के पास गये।

“उठो उठो अब।”

इब्राहीम ने आँखें खोलीं और चरणों में गिर पड़ा।

“अहं दे दो।”

“गुरु महाराज!”

इब्राहीम के हृदय में भाव उमड़ रहा है लेकिन वाणी उठती नहीं। भाव-विभोर होकर गुरु महाराज को निहार रहा है। विचार स्फुरता नहीं। आखिर बाबाजी ने उसकी बहिर्गति कराई। फिर बोलेः

“लाओ, कहाँ है अहं ?”

“महाराज ! अहं जैसी कोई चीज है ही नहीं। बस, वही वह है। वाणी वहाँ जाती नहीं। यह तो अध्यारोप करके बोल रहा हूँ।”

बाबाजी ने इब्राहीम को गले लगा लिया।

“इब्राहीम ! तू गैर नहीं। तू इब्राहीम नहीं। तू मैं है…. मैं तू हूँ।”

जब तक अहं को नहीं खोजा था तब तक अहं परेशान कर रहा था। अहं को खोजा तो उसका वास्तव में अस्तित्व ही नहीं रहता। आँख कोई चीज देखती है और हम उससे जुड़ जाते हैं- “मैंने देखा।”

मनः वृत्ति शरीर की तरफ बहती है तो अहं बना देती है और अपने मूल की तरफ जाती है तो मन रहता ही नहीं। जैसे, तरंग उछलती है तो अलग बनी रहती है और पानी को खोजती है तो शांत होकर दरियामय हो जाती है, उसका अलग अस्तित्व मिट जाता है। ऐसे ही ʹमैं… मैं… मैं…. मैं… परेशान करता है। वह ʹमैंʹ अगर अपने मूल को खोजता है तो उसका परिच्छिन्न अहं मिलता ही नहीं।

तीन प्रकार का अहं होता हैः स्थूल अहं, सूक्ष्म अहं एवं वास्तविक अहं। स्थूल अहं सदगुरु की शरण से विलीन होता है। सूक्ष्म अहं वेदान्त के प्रतिपादित साधन की तरकीब से बाधित होता है। वास्तविक अहं ब्रह्म है, परम सुखस्वरूप है। उसी में अनन्त अनन्त ब्रह्माण्ड फुरफुराकर लीन हो रहे हैं।

हमारा जो वास्तविक ʹमैंʹ है उसमें अनन्त-अनन्त सृष्टियाँ उत्पन्न होती हैं, स्थित रहती हैं और लीन हो जाती हैं। फिर भी हमारा बाल तक बाँका नहीं होता। हमारा वास्तविक अहं वह है ! अपनी वास्तविकता का बोध नहीं है तो वहाँ की एक तरंग, एक धारा, एक वृत्ति को ʹमैंʹ मानकर उसी में उलझ रहे हैं। उलझते-उलझते सदियाँ बीत गयीं लेकिन विश्रांति नहीं मिली।

बिना सत्संग के साधन-भजन भीतर के व्यक्तित्व को सजाये रखता है। अहं बोलता हैः ʹपहले मैं संसारी था, अब मैं साधक हूँ। पहले मैं भोगी था, अब मैं त्यागी हूँ। पहले बहुत बोलने वाला था, अब मौनी हूँ। पहले स्त्री-पुत्र-परिवार के चक्कर में था, अब अकेला शांत हूँ। कमरा बन्द कर देता हूँ। बस, मौज है। न किसी से लेना न किसी को देना।ʹ

खतरा पैदा करोगे। जो कमरे में अकेला नहीं बैठते, एकान्त में नहीं रहते उनकी अपेक्षा आप ठीक हो लेकिन जब कमरा न होगा, एकान्त न होगा तब परेशानी चालू हो जायेगी। ….और मौत आपको कमरे से भी तो पकड़कर ले जायेगी।

जीते-जी मौत के सिर पर पैर रखने की कला आ जाना, इसी का नाम आत्मसाक्षात्कार है। आत्मसाक्षात्कार होने से राग-द्वेष और अभिनिवेश का आत्यंतिक अभाव हो जाता है। किसी भी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति से लगाव नहीं, घृणा नहीं, द्वेष नहीं। अभिनिवेश यानी मृत्यु का भय, जीने की आस्था। आत्म-साक्षात्कार हो जाता है तो जीने की आकांक्षा हट जाती है। जीने की आकांक्षा हटी तो मरने का भय कहाँ ? जिसको अपने आपका बोध  हो जाता है वह जान लेता है किः ʹमेरी मौत तो कभी होती नहीं। एक शरीर तो क्या, हजारों शरीर लीन हो जायें, पैदा हो जायें, ब्रह्माण्डों में उथल-पुथल हो जाये फिर भी मुझ चिदाकाशस्वरूप को कोई आँच नहीं आतीʹ ऐसा अपने असली ʹमैंʹ का साक्षात्कार हो जाता है।

देह छतां जेनी दशा, वर्ते देहातीत।

ते ज्ञानीना चरणमां, हो वन्दन अगणीत।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2001, पृष्ठ संख्या 16-19, अंक 97

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