सेहत और सावधानियाँ

सेहत और सावधानियाँ


आयुर्वेद के तीन उपस्तम्भ हैं- आहार निद्रा और ब्रह्मचर्य।

जीवन में सुख-शांति व समृद्धि प्राप्त करने के लिए स्वस्थ शरीर की नितान्त आवश्यकता है क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन और विवेकवती कुशाग्र बुद्धि प्राप्त हो सकती है। मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिए उचित निद्रा, श्रम, व्यायाम और संतुलित आहार अति आवश्यक है। पाँचों इन्द्रियों के विषयों के सेवन की गलतियों के कारण ही मनुष्य रोगी होता है। इसमें भोजन की गलतियों का सबसे अधिक महत्त्व है।

गलत विधि से गलत मात्रा में अर्थात आवश्यकता से अधिक या बहुत कम भोजन करने से, या अहितकर भोजन के सेवन से मन्दाग्नि और मन्दाग्नि से कब्ज रहने लगता है। तब आँतों में रुका हुआ मल सड़कर आम व दूषित रस बनाने लगता है। यह दूषित रस ही सारे शरीर में फैलकर विविध प्रकार के रोग उत्पन्न करता है। उपनिषदों में भी कहा गया हैः आहारशुद्धो सत्त्वशुद्धिः। शुद्ध आहार से मन शुद्ध रहता है। साधारणतः सभी व्यक्तियों के लिए आहार के कुछ नियमों को जानना अत्यन्त आवश्यक है। जैसेः

प्रातःकाल 10 से 12 और सायंकाल 6 से 8 बजे का समय भोजन के लिए श्रेष्ठ माना जाता है। एक बार आहार ग्रहण करने के बाद दूसरी बार आहार ग्रहण करने के बीच कम से कम तीन घण्टों का अन्तर अवश्य होना चाहिए क्योंकि इन तीन घण्टों की अवधि में आहार की पाचन-क्रिया संपन्न होती है। यदि दूसरा आहार इसी बीच ग्रहण करें तो पूर्वकृत आहार का कच्चा रस इसके साथ मिलकर दोष उत्पन्न कर देगा।

रात्रि में आहार के पाचन में समय अधिक लगता है इसीलिये रात्रि को प्रथम प्रहर में ही भोजन कर लेना चाहिए। शीत ऋतु में रात बड़ी होने के कारण सुबह जल्दी भोजन कर लेना चाहिए और गर्मियों में दिन बड़े होने के कारण सायंकाल का भोजन जल्दी कर लेना उचित है।

अपनी प्रकृति के अनुसार यथावश्यक मात्रा में भोजन करना चाहिए। आहार की मात्रा व्यक्ति की पाचकाग्नि और शारीरिक बल के अनुसार निर्धारित होती है। स्वभाव से हल्के पदार्थ जैसे कि चावल, मूँग, दूध, अधिक मात्रा में ग्रहण करना सम्भव है परन्तु उड़द, चना तथा पिट्ठी के पदार्थ स्वभावतः भारी होते हैं, जिन्हें कम मात्रा में लेना ही उपयुक्त रहता है।

आहार ग्रहण करते समय सर्वप्रथम मधुर, बीचे में खट्टे और नमकीन तथा अन्त में तीखे, कड़वे व कसैले पदार्थों का सेवन करना उचित है।

भोजन के पहले अदरक और सेंधा नमक का सेवन  सदा हितकारी होता है। वह जठराग्नि को प्रदीप्त करता है और भोजन के प्रति रूचि पैदा करता है तथा जीभ एवं कण्ठ की शुद्धि करता है।

भोजन गर्म और स्निग्ध होना चाहिए। गरम भोजन स्वादिष्ट लगता है, पाचकाग्नि को तेज करता है और भोजन शीघ्र पच जाता है। यह वायु को निकाल देता है और कफ को सुखा देता है। स्निग्ध भोजन शरीर को मजबूत बनाता है, उसका बल बढ़ाता है और वर्ण में भी निखार लाता है।

बहुत जल्दी जल्दी अथवा बहुत देर तक, बोलते हुए अथवा हँसते हुए भोजन नहीं करना चाहिए।

भोजन के बीच-बीच में प्यास लगने पर थोड़ा-थोड़ा पानी पीना चाहिए परन्तु बाद में पीना हानिकारक है। भोजन के बाद तक्र (छाछ) का सेवन हितकर है और अनेक रोगों से बचाने वाला है।

अच्छी तरह भूख एवं प्यास लगना, शरीर में उत्साह उत्पन्न होना एवं हल्कापन महसूस होना, शुद्ध डकार आना और दस्त साफ आना-ये आहार के ठीक प्रकार से पाचन होने के लक्षण हैं।

धन्वन्तरि आरोग्य केन्द्र, साबरमती, अमदावाद।

दालचीनी

भारत में दालचीनी के वृक्ष हिमालय तथा पश्चिमी तट पर पाये जाते हैं। इस वृक्ष की छाल ʹदालचीनीʹ के नाम से प्रसिद्ध है।

यह रस में तीखी, कड़वी तथा मधुर होती है। उष्ण-तीक्ष्ण होने के कारण दीपन, पाचन और विशेष रूप से कफ का नाश करने वाली है। यह अपने मधुर रस से पित्त का शमन और उष्ण वीर्य़ होने से वात का शमन करती है। अतः त्रिदोषशामक है।

औषध-प्रयोग

मुँह के रोगः यह मुख की शुद्धि तथा उसके दुर्गन्ध का नाश करने वाली है। अजीर्ण अथवा ज्वर के कारण गला सूख गया हो तो इसका एक टुकड़ा मुँह में रखने से प्यास बुझती है तथा उत्तम स्वाद उत्पन्न होता है। इससे मसूढ़ भी मजबूत होते हैं।

दंतशूल व दंतकृमिः इसके तेल में भिगोया हुआ रुई का फाहा दाँत के मूल में रखने से दंतशूल तथा दंतकृमियों का नाश होता है। 5 भाग शहद में इसका एक भाग चूर्ण मिलाकर दाँत पर लगाने से भी दंतशूल में राहत मिलती है।

पेट के रोगः 1 चम्मच शहद के साथ इसका 1.5 ग्राम (एक चने जितनी मात्रा) चूर्ण लेने से पेट का अल्सर नष्ट हो जाता है।

दालचीनी, इलायची और तेजपत्र का समभाग मिश्रण करें। इसका 1 ग्राम चूर्ण 1 चम्मच शहद के साथ लेने से पेट के अनेक विकार जैसे मंदाग्नि, अजीर्ण, उदरशूल आदि में राहत मिलती है।

सर्दी, खाँसी, जुकामः इसका 1 ग्राम चूर्ण एवं 1 ग्राम सितोपलादि चूर्ण 1 चम्मच शहद के साथ लेने से सर्दी, खाँसी में तुरन्त राहत मिलती है।

क्षयरोग (टी.बी.)- इसका 1 ग्राम चूर्ण 1 चम्मच शहद में सेवन करने से कफ आसानी से  छँटने लगता है एवं खाँसी से राहत मिलती है। दालचीनी का यह सबसे महत्त्वपूर्ण उपयोग है।

रक्तविकार एवं हृदयरोगः दालचीनी रक्त की शुद्धि करने वाली है। इसका 1 ग्राम चूर्ण 1 ग्राम शहद में मिलाकर सेवन करने से अथवा दूध में मिलाकर पीने से रक्त में उपस्थित कोलेस्ट्रोल की अतिरिक्त मात्रा घटने लगती है। अथवा इसका आधा से एक ग्राम चूर्ण 200 मि.ली. पानी में धीमी आँच पर उबालें। 100 मि.ली. पानी शेष रहने पर उसे छानकर पी लें। इससे भी कोलेस्ट्रोल की अतिरिक्त मात्रा घटती है।

गरम प्रकृति वाले लोग पानी में दूध मिश्रित कर इसका उपयोग कर सकते हैं। इस प्रयोग से रक्त की शुद्धि होती है एवं हृदय को बल प्राप्त होता है।

सामान्य वेदनाः इसका एक चम्मच (छोटा) चूर्ण 20 ग्राम शहद एवं 40 ग्राम पानी में मिलाकर स्थानिक मालिश करने से कुछ ही मिनटों में वात के कारण होने वाले दर्द से छुटकारा मिलता है।

इसका एक ग्राम चूर्ण और दो चम्मच शहद 1 कप गुनगुने पानी में मिलाकर नित्य सुबह-शाम पीने से संधिशूल में राहत मिलती है।

वेदनायुक्त सूजन तथा सिरदर्द में इसका चूर्ण गरम पानी में मिलाकर लेप करें।

बिच्छू के दंशवाली जगह पर इसका तेल लगाने से दर्द कम होता है।

वृद्धावस्थाः बुढ़ापे में रक्तवाहिनियाँ कड़क और रूक्ष होने लगता है। एक चने जितना दालचीनी का चूर्ण शहद में मिलाकर नियमित सेवन करने से इन लक्षणों से राहत मिलती हैं। इस प्रयोग से त्वचा पर झुर्रियाँ नहीं पड़तीं, शरीर में स्फूर्ति बढ़ती है और श्रम से जल्दी थकान नहीं आती।

मोटापाः इसके 1.5 ग्राम चूर्ण का काढ़ा बना लें। उसमें 1 चम्मच शहद मिलाकर सुबह खाली पेट तथा सोने से पहले पियें। इससे मेद कम होता है।

त्वचा विकारः दालचीनी का चूर्ण और शहद समभाग कर दाद, खाज तथा खुजलीवाले स्थान पर लेप करने से कुछ ही दिनों में त्वचा के ये विकार मिट जाते हैं।

सोने से पूर्व इसका 1 चम्मच चूर्ण 3 चम्मच शहद में मिलाकर मुँह की खीलों पर अच्छी तरह से मसलें। सुबह चने का आटा अथवा उबटन लगाकर गरम पानी से चेहरा साफ कर लें। इससे खील-मुँहासे मिटते हैं।

बालों का झड़नाः दालचीनी का चूर्ण, शहद और गरम औलिव्ह तेल 1-1 चम्मच लेकर मिश्रित करें और उसे बालों की जड़ों में धीरे-धीरे मालिश करें। पाँचट मिनट के बाद सिर को पानी से धो लें। इस प्रयोग से बालों का झड़ना कम हो जाता है।

सावधानीः दालचीनी उष्ण-तीक्ष्ण तथा रक्त का उत्क्लेश करने वाली है अर्थात रक्त में पित्त की मात्रा बढ़ाने वाली। इसके अधिक सेवन से शरीर में गर्मी उत्पन्न होती है। अतः गरमी के दिनों में इसका लगातार सेवन न करें। इसके अत्यधिक उपयोग से नपुंसकता आती है।

सेवफल

सेवफल भोजन पचाता है, खुद भी जल्दी पचता है। वात-वित्त से होने वाले रोगों का भी शमन करता है। दाँत और मसूढ़ों में मजबूती लाता है। अग्नि पर सेंककर खाने से पेट के सभी रोगों का शमन करता है। भोजन बंद करके दिन में सेब ही खाना शुरु कर दें तो पेट व दाँत की बीमारियों एवं कमजोरी में लाभ होता है।

साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज उपचार केन्द्र, जहाँगीरपुरा, वरियाव रोड, सूरत।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2001, पृष्ठ संख्या 28-30, अंक 97

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