स्वप्न को स्वप्न जान लो

स्वप्न को स्वप्न जान लो


संत श्री आसाराम बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

मानव का यह सहज स्वभाव है कि वह सदैव जाग्रत अवस्था का ही ख्याल करता है, जाग्रत को ही सुधारना चाहता है, जाग्रत में ही सुखी होना चाहता है। स्वप्न एवं सुषुप्ति का वह जरा भी ख्याल नहीं करता जबकि केवल जाग्रत अवस्था ही उसकी नहीं है, स्वप्न एवं सुषुप्ति अवस्था भी उसी की है।

जैसे, आप जाग्रत अवस्था में सोचते हो कि ʹयह मकान किसका है ? दुकान किसकी है ? उसने क्या किया ? उसने क्या कहा ?ʹ आदि आदि, वैसे ही स्वप्न के बारे में भी सोचना शुरु कर दो कि ʹयह स्वप्न कैसे आता है ?ʹ हाँ… इसके लिए थोड़े अभ्यास की जरूरत है। यदि केवल तीन महीने तक आप दिन में सौ-सौ बार सोचो किः ʹजो कुछ किया, सब स्वप्न है… जो कुछ बोला, सब स्वप्न है….ʹ तो जब आप स्वप्न देखोगे तब भी लगेगा की ʹयह स्वप्न है…ʹ और आप स्वप्न से जाग जाओगे। स्वप्न को स्वप्न जान लिया तो यह जाग्रत भी वास्तव में तो है स्वप्न ही, फिर इसे भी स्वप्न मानना आसान हो जायेगा।

अभ्यास की बड़ी बलिहारी है !

आप जैसा-जैसा अभ्यास करते हो, वैसा-वैसा ही सब भासता है। आत्मदेव का चमत्कार है ही ऐसा कि जैसा-जैसा आप सोचते हो, वैसा-वैसा आपको भासता है। मित्र में मित्र की भावना दृढ़ होती है तभी वह मित्र दिखता है, हालाँकि वह किसी का शत्रु भी हो सकता है। वास्तव में, न वह शत्रु है, न मित्र किन्तु आप में उसके प्रति मित्र की भावना है तो आपके लिए वह मित्र है और किसी में उसके प्रति शत्रु की भावना है तो उसके लिए वह शत्रु है। है तो वह एक ही, किन्तु दृष्टिभेद के कारण आप सबको अलग-अलग भासता है।

पाँच भूतों की नजर से देखा जाये तो यह मानव शरीर इन्हीं तत्त्वों से बना एक पुतलामात्र है, किन्तु ज्ञानदृष्टि से देखा जाये तो वह अठखेलियाँ करता हुआ ब्रह्म ही है। कौन शत्रु और कौन मित्र ? कौन अपना और कौन पराया ? सब उसी आत्मदेव का खिलवाड़मात्र है। यह ऊँचे-में-ऊँची अवस्था है।

इस अवस्था को पाने के दो तरीके हैं- एक तो यह कि जो कुछ देखो तो सोचोः ʹसब परमात्मा ही है….. सब एक ही है… सब एक ही है….ʹ इसको दोहराते जाओ। दूसरा तरीका है किः ʹसब मैं ही हूँ…. सब मैं ही हूँ….ʹ इसे दोहराते जाओ। दोनों ही तरीकों का अभ्यास करने से चित शांत होता जायेगा। अथवा तो ʹसब स्वप्न है…. सब स्वप्न है….ʹ ऐसा भी सतत् चिंतन कर सकते हो।

चाहे जो भी तरीका अपनाओ वह होना चाहिए भीतर से, केवल वाचिक नहीं। ऐसा नहीं कि रोज माला लेकर घुमाने बैठ गेय कि ʹसब स्वप्न है… सब स्वप्न है…ʹ दिन में दस बार या सौ बार ऐसा जप कर दिया। नहीं नहीं, इससे काम नहीं चलेगा। चाहेत एक बार भी कहो, किन्तु उसमें आपके प्राण होने चाहिए, अपकी पूरी सहमति होनी चाहिए। केवल एक बार ही सही, परन्तु पूरी श्रद्धा से कहोगे तो बहुत लाभ होगा। यदि सतत यही चिंतन करोगे तो भी ठीक है। वास्तविकता का भी ज्ञान हो जायेगा।

यदि आप मुक्त होना चाहते हो, जगत के जंजाल से छूटना चाहते हो, बुद्ध पुरुष की अवस्था का अनुभव करना चाहते हो, जन्म-मरण के चक्कर से छूटना चाहते हो, माता के गर्भ में उल्टे लटकने से बचना चाहते हो तो आपको इसका खूब गहरा अभ्यास करना चाहिए किः ʹसब सपना है.. सब सपना है….ʹ

विवेक से देखो तो बचपन सपना हो गया, युवावस्था सपना हो गई, कल की बात भी सपना हो गई और आज की प्रवृत्ति भी थोड़ी देर के बाद सपना हो जायेगी। सब बदलता जा रहा है, सपना होता जा रहा है किन्तु इन सबको देखने वाला द्रष्टा, साक्षी, चैतन्य एक-का-एक है. वह इन बदलाहटों में भी नहीं बदलता। वही वास्तविक सत्य है। यदि इसको ठीक से पक्का कर लो तो फिर आपको क्रोध के समय इतना क्रोध नहीं होगा, उद्वेग के समय इतना उद्वेग नहीं होगा, लोभ के समय इतना लोभ नहीं होगा, मोह के समय इतना मोह नहीं होगा, अशांति के समय इतनी अशांति नहीं होगी। यदि आप ठीक से उस तत्त्व में टिक गये तो बाहर से युद्ध करते हुए भी भीतर से शांत रहोगे,  ऐसा वह परम ज्ञान है आत्म-परमात्मदेव का।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2001, पृष्ठ संख्या 3, अंक 97

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