अपनी योग्यता बढ़ाओ

अपनी योग्यता बढ़ाओ


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

जीवन जीने के दो मार्ग हैं। श्रेय मार्ग और प्रेय मार्ग। श्रेयस बोलता हैः ʹदे दो…. दे दो…. अपने पास जो कुछ भी उसे दूसरों की सेवा में लगा दो, दूसरों की आवश्यकतापूर्ति में लगा दो।ʹ प्रेयस बोलता हैः ʹले लो… ले लो…. अपने पास बहुत कम है, जितना मिले उतना ले लो। उसे सँभालकर रखो।ʹ

प्रेय मार्ग पर चलने से लेते-लेते आप इतने दब जाते हो कि जड़ी भाव को प्राप्त होते हो और श्रेय मार्ग पर चलने से देते-देते आप इतने विशाल हो जाते हो कि आखिर में सिर्फ आप ही रहते हो, और कुछ नहीं रहता।

सदगुरु हमेशा श्रेयस् देते हैं। वे हम पर अपना आध्यात्मिक खजाना लुटा देते हैं लेकिन कोई-कोई ही विरले होते हैं जो इस अमूल्य रत्न को झेल पाते हैं। जिसकी जितनी योग्यता, उतना ही लाभ वह उठा सकता है। सदगुरुओं का जीवन कृत्कृत्यता से भरा होता है, कल्याणपूर्ण होता है। जब कोई योग्य अधिकारी ही न मिले तो वे क्या करें ?

संत ज्ञानेश्वर महाराज से किसी एक भोली माई ने पूछाः “जब भगवान सबके हैं, तो वे सबको आत्मप्रसाद क्यों नहीं देते ?”

संत ज्ञानेश्वरः “भगवान तो सबके लिए एक सरीखे दाता हैं लेकिन सबको एक सरीखा लेने की अटकल नहीं है तो उसमें भगवान या संत या गुरु क्या करें ? योग्यता के अनुरूप व्यवहार होता है।”

उस नासमझ माई ने इतना सुनने पर भी फिर से कहाः “योग्यता, अधिकार यह सब संतों को क्या देखना ? उन्हें तो आत्मरस सबको दे देना चाहिए।”

संत ज्ञानेश्वर महाराज ने सोचा किः “यह माई ऐसे समझने वाली नहीं है। इसको तो प्रत्यक्ष प्रमाणित करके समझाना पड़ेगा।ʹ वे पहुँचे हुए संत थे। उन्होंने अपने संकल्प से एक लीला रची।

जहाँ ज्ञानेश्वर महाराज और वह माई बातचीत कर रहे थे वहाँ एक भिखारी आया और भिखारी ने उस माई से एक रूपया माँगा।

माई ने क्रोधित होकर कहाः “चल भाग यहाँ से। बड़ा आया एक रूपया माँगने !”

इस प्रकार भिखारी को उस माई ने भगा दिया।

अब संत ज्ञानेश्वर ने अपनी ओर से लीला शुरु की। उन्होंने माई को उसके हाथ के सोने के कंगन की ओर इशारा करके कहाः “माई ! इसमें से एक कंगन मुझे दे दो न ! पास के गाँव में भण्डारा करना है।”

माई ने तुरंत अपने सारे के सारे कंगन उतारकर कहाः “एक दो क्यों ? आप इन चारों कंगनों को रख लीजिये, काम आयेंगे।”

संत ज्ञानेश्वरः “आश्चर्य है ! अभी-अभी तुमने ही उस भिखारी को एक रूपया तक देने से इन्कार कर दिया और मेरे एक कंगन माँगने पर अपने चारों कंगन देने को राजी हो गई !

माईः “भिखारी को मैं एक रूपया भी कैसे देती ? वह तो एकदम गिरा हुआ इन्सान था फिर आप तो संत हैं, महापुरुष हैं। आपको देकर मेरा दिल खुश होता है।”

तब संत ज्ञानेश्वर महाराज ने कहाः

“देखो, नश्वर चीज देने में भी योग्यता देखनी पड़ती है तो संतजन, गुरुजन जब आध्यात्मिक खजाना बाँट रहे हों तब उन्हें भी अधिकारी तो चुनने ही पड़ते हैं। फिर भी वे इतने दयालु हृदय होते हैं कि योग्यता से ज्यादा ही सबको देते आये हैं। इसके बावजूद सबको उनकी कद्र नहीं होती।”

भगवान के प्यारे संतों में, सदगुरुओं में हम सबकी अटूट श्रद्धा बन जाये, आत्मरस पाने की तत्परता अंत तक बनी रहे तो बेशक हम पर बरसी कृपा पचेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2001, पृष्ठ संख्या 20, अंक 98

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