मन के जीते जीत….

मन के जीते जीत….


संत श्री आसाराम बापू जी के सत्संग प्रवचन से

जैसे, सागर से लहरियाँ उठती हैं, ऐसे ही सच्चिदानंद परब्रह्म परमात्मारूपी सागर से आपका मन उभरता है। मन के दो छोर हैं- चैतन्यस्वरूप परमात्मा और संसार।

जैसे, एक पुल नदी के दो किनारों को जोड़ता है, ऐसे ही परमात्मा एवं जगत को जोड़ने वाले सेतु का नाम है मन। मन अगर शरीर एवं संसार को मैं-मेरा मानकर चलता है तो नश्वर संसार में ही जीवन खप जाता है लेकिन वही मन अगर परमात्मा को ही अपना वास्तविक स्वरूप मानकर उसे पाने का यत्न करता है तो शाश्वत अमर पद को पा लेता है।

किन्हीं महापुरुष ने ठीक ही कहा हैः

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।

मन से ही तो पाइये परब्रह्म की प्रीत।।

मन से मनुष्य संसार-बंधन में बँधता है एवं मन से ही इससे मुक्त होता है। शास्त्रों में भी कहा गया हैः

मनः एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः।

‘मन ही मनुष्यों के बंधन एवं मोक्ष का कारण है।’

मन है प्रकृति का और कल्पना होती है मन की। प्रकृति परिवर्तनशील है तो मन भी परिवर्तनशील है और मन परिवर्तनशील है तो कल्पना भी परिवर्तनशील है। इसलिए अपने मन को ऐसा बनाओ कि दुःख का प्रभाव न पड़े और सुख की गुलामी न रहे। मन को मन से जगाओ। जैसे, उधार के पैसों से तीर्थयात्रा करने वाला व्यक्ति यात्रा का गर्व नहीं करता, दूसरे के सहारे नदी पार करने वाला व्यक्ति तैरने का अभिमान नहीं करता, जन्मांध देखने का गर्व नहीं करता, विधवा सुहागिन होने का गर्व नहीं करती, ऐसे ही इस मन को किसी चीज का गर्व न होने दो क्योंकि परमात्मा के बिना वह कंगाल है, परमात्म-सत्ता के बिना वह विधवा जैसा। परमात्म-चेतना के बिना मन जन्मांध है। मन को परमात्मा की चेतना मिलती है, परमात्मा का सुहाग एवं ऐश्वर्य मिलता है ऐसी समझ से मन को समझदार बनाओ।

दुःखी होने का अभिमान न करो। ‘मैं दुःखी हूँ…’ यह अभिमान से होता है क्योंकि मन में ‘मैं हूँ’ की कल्पना है तो तभी तो ‘मैं दुःखी हूँ….’ यह महसूस होता है। ऐसे ही ‘मैं सुखी हूँ….’ यह भी अभिमान से होता है। लेकिन भगवान की सत्ता के बिना मन का ‘मैं पैदा नहीं हो सकता। जैसे पानी के बिना लहर पैदा नहीं हो सकती, मिट्टी के बिना मिट्टी के घड़े नहीं बन सकते, रुई के बिना सूती कपड़े नहीं बन सकते, ऐसे ही परमात्मा के बिना मन का ‘मैं’ पैदा नहीं हो सकता। जो कुछ मन में है, वह परमात्मा की सत्ता लेकर है। मन इस सत्ता को भूल जाता है और कल्पना में उलझ जाता है।

“क्या हाल है ?”

“मैं दुःखी हूँ…. मैं ठीक हूँ….”

‘मैं दुःखी हूँ…… मैं ठीक हूँ…’ यह भी परमात्मा की सत्ता से बोलता है। परमात्मा की सत्ता वही-की-वही है लेकिन मन जैसी-जैसी कल्पना या भावना करता है ऐसा उसे दिखता है और जैसा-जैसा देखने-सोचने का ढंग होता है ऐसी-ऐसी कल्पना या भावना बनती है। इसलिए देखने-सोचने का ढंग ऊँचा कर दो, अपनी नजर बदल दो।

 नजर बदली तो नजारे बदल गये।

किश्ती ने बदला रुख तो किनारे बदल गये।।

जो मन का रुख परमात्मा से मोड़कर संसार के भोग की तरफ ले जाते हैं, वस्तु-व्यक्ति से सुख लेने की तरफ ले जाते हैं, पाप की तरफ ले जाते हैं वे देर-सबेर पाप-ताप में तपते रहते हैं और जो प्रभु के ज्ञान ध्यान में ले जाते हैं वे देर-सबेर प्रभुमय हो जाते हैं। संसार की वस्तु संसारर के काम आये और अपना अंतरात्मा परमेश्वर अपने पर संतुष्ट रहे ऐसा यत्न करना चाहिए।

यज्ञ, तप, व्रत, दान आदि करने से जितना पुण्य होता है, उससे भी अधिक पुण्य शास्त्र-अध्ययन एवं सत्संग करने से और भगवान के ज्ञान-ध्यान का अनुसंधान करने से हो जाता है। मन को इसमें लगाये तो मनुष्य परमात्मा हो जाता है।

एक होते हैं पापात्मा, दूसरे होते हैं पुण्यात्मा और तीसरे होते हैं महात्मा। महात्मा भी तो मन से ही होते हैं। ‘महात्मा’ अर्थात् महान आत्मा। जिनको महान परमात्मा का ज्ञान, गुरु का प्रसाद पच गया है उन ब्रह्मज्ञानी संत के कर्म न पापात्मा की नाईं कर्त्ता होकर आते हैं और न पुण्यात्मा की नांईं कर्त्ता होकर आते हैं वरन् उनके कर्म आत्मज्ञानी होकर आते हैं इसलिए वे न पुण्यात्मा होते हैं, न पापात्मा होते हैं। ऐसे महात्मा स्वयं तो संसार के बंधनों एवं प्रभावों से छूट जाते हैं, साथ ही औरों को भी उनसे छूटने का उपाय बताकर उन्हें मुक्ति के पथ पर अग्रसर कर देते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2001, पृष्ठ संख्या 11,12 अंक 99

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